Book Title: Shanti Shloak Tika Tatha Anyamat Dushanam
Author(s): Vikramvijay
Publisher: Chandulal Jamnadas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Konum annum 1K wonin E3 QADI:1.amdamin E । श्रीलब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमालायाश्चतुरिंशत्तमो मणिः [३४] । मुनिवरश्रीचन्द्रविजयजी-विरचिता शान्तिश्लोक-टीका LUONNOND EN IK M तथा MUTLUMIDELIKATION CHAIN STIKS IKEA BEATRINEX UNID अज्ञातकतृक-अन्यमतदूषणम्। OD NAJIKUTA सम्पादकः संशोधकश्च आचार्यदेवश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरचरणचञ्चरीक: विक्रमविजयो मुनिः पू. पाठकप्रवरश्रुतभक्तश्रीमद्जयन्तविजयजीगणिवरोपदिष्ट - स्वमातुः गंगावेन आत्मारामश्रेयो) पूनाकेम्पनिवासी मोहनलाल तथा चीनुभाई इत्येताभ्यां वितीर्णार्थसाहाय्येन AIMERIKIMAMALINETRINAIL छाणिस्थश्रीलब्धिखरीश्वरजैनग्रन्थमाला-कार्याधिकारिणा । जमनादासात्मज-चन्दुलालेन प्रकाशितम् a Kombanın 1 K ODIJE:30MINUID=123 TOIMITIDEST For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीलब्धिसूरीश्वरजैन ग्रन्थमालायाश्चतुस्त्रिंशसमो मणिः [३४] मुनिवरश्रीचन्द्रविजयजी - विरचिता - शान्तिश्लोक - टीका तथा अज्ञातकतृकं - अन्यमतदूषणम् । ++---- सम्पादकः संशोधकव आचार्यदेवश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरचरणचञ्चरीकः विक्रमविजयो मुनिः पू. पाठक प्रवरश्रुतभक्त श्रीमद्जयन्तविजयजीगणिव रोपदिष्ट स्वमातुः गंगाबेन आत्मारामश्रेयोर्थं पूनाकेम्पनिवासी मोहनलाल तथा चीनुभाई इत्येताभ्यां वितीर्णार्थसाहाय्येन रु छाणिस्थश्रीलब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमाला - कार्याधिकारिणा जमनादासात्मज - चन्दुलालेन प्रकाशितम् वीर सं० २४८० * विक्रम सं० २०१० * आत्म सं० ५८ प्रतिनां पञ्चशतम् Poper For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - प्रकाशक:चन्दुलाल जमनादास शाह सञ्चालक, श्रीलधिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाळा छाणी ( जी. वडोदरा.)। मुद्रकः शा. गुलाबचंद लल्लुमाई, श्री महोदय प्रीन्टींग प्रेस, दाणापीठ-भावनगर. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रासंगिक शान्तिश्लोक - सटीक अने अन्यमतदूषण नामक चे नानकडां ग्रन्थोनो आ संपुट, विद्वानोना करकमलमां समर्पित करतां आनन्द थाय छे, 'सकलकुशलवल्ली' ए. पदथी शरु थती शान्तिनाथ भगवाननी एक श्लोकात्मिका स्तुति, जैन समाजना क्रियारसिकोमां सारी रीते जाणीती छे. श्रीजिनमन्दिरमां चैत्यवन्दनना प्रारंभे, सांजना प्रतिक्रमणावसरे प्रारंभमां कराता चैत्यवन्दननी पूर्वे तेम ज अन्य प्रसंगोए पण कराता चैत्यवन्दनावसरे, पहेलां मा स्तुति बोली ते पछी चैत्यवन्दन बोलवानो रीवाज, लगभग रूढ थयेलो जोवामां आवे छे. आ स्तुतिना कर्ता कोण छे ? ए हजी सुधी तो अमारा जाणवामां आव्युं नथी. कर्ताए आ एक ज स्वतंत्र स्तुति बनावी द्दशे के कोई प्रन्धना मंगलादि रूपमां आ स्तुति बनी दशे ते पण साधनना अभावे जाणी शकायुं नथी. गमे तेम हो, आ स्तुतिनो आदर तपागच्छमां तो एकसरखो जोवाय छे, एटले एम पण संभवी शके के आना कर्ता तपागच्छीय परंपराना कोई विद्वान् होय ! अर्थावगमनी दृष्टिए सुबोध लागती या स्तुति उपर टीकानी के विवेचननी कोई कृति होय ए सामान्यतया ख्यालमां पण न आवे एवी हकीकत छे. ज्यारे आ अत्र मुद्रित करायेली व्याख्यानी प्रति अमारा अवलोकनमां आवी त्यारे अमने सानन्द आश्चर्य थयुं. बरावर अवलोकतां निरुक्ति अने व्याकरणनी केटलीक चर्चाओने अवलंबीने आ व्याख्यामां व्याख्याकारे स्तुतिनो अर्थ करवानो बोधक प्रयत्न कर्यो छे ए जणाता, शब्दशास्त्रना For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राथमिक अभ्यासीओने उपयोगी थशे तेम धारी, तेना प्रकाशननो अमारो आ प्रयत्न छे. पदच्छेद, पदार्थोक्ति, विग्रह, वाक्ययोजना अने आक्षेपोनुं समाधानः व्याख्यानां ए पांचे लक्षणो आ नानकडी व्याख्यामां पण ग्रन्थकारे जालव्यां छे, ए एमनी विद्वत्तानुं सूचन करे छे. आ प्रतिनी साथे ज व्याख्यानो गुजराती-स्तबक (टबो) पण साथे हतो,ते अहीं मुद्रित कर्यो नथी. __आ व्याख्यानी एक मात्र प्रति अमारा हाथमां आवी छे. मुनिश्री जशविजयजी अने मुनिश्री चारित्रविजयजी श्रीकेशरीयाजी तीर्थनी यात्राए जतां, डुंगरपुर गया हता. त्यांना उपा. श्रयना एक खूणामां हस्तलिखित प्रतिओनो एक ढगलो पडेलो हतो, ते त्यांना संघनी अनुमतिथी तेमणे लई लीधो. अहीं खंभात आवी तेनुं निरीक्षण करतां, अनेक प्रतिओनी जेम आ प्रति पण जोवामां आवतां, पू. मुनिश्री विक्रमविजयजी महा. राजने बतावी. आनी विरलता अने विशिष्टताने लीधे, तेनुं प्रकाशन करवानी इच्छाथी पांडुलिपि करी लीधी. ते आजे आ स्वरूपमां वांचकोना करकमलमां सादर थाय छे. आमां आवतां अवतरणोनो स्थलनिर्देश करवानो पण यथाशक्य प्रयत्न करवामां आव्यो छे. विशेष माहिती आपवा केटलेक स्थले पादनोंघ पण मूकी छे. छल्ले व्याख्यामां आवतां अवतरणोना कर्ता अने स्थाननो निर्देश करती सूची पण जोडवामां आवी छे. __ 'सकलकुशलेति शान्तिकाव्य-व्याख्यानकं समाप्तमुपनीत श्रीचन्द्रविजयेन श्रीमदमस्तु' एवा व्याख्याना अंतभागमां, व्याख्याकारे करेला उल्लेख उपरथी, आ व्याख्याना कर्ता 'श्रीचन्द्रविजय' नामक कोई विद्वान मुनिवर छे, एम स्पष्ट जणाय छे. श्रीचन्द्रविजय ए नामना त्रण मुनिवरो तपागच्छमां थया छे. ए त्रणेय मुनिवरोए गुजराती पद्यरचना करेली छे. For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणेमांना कोईए पण, संस्कृतादि अन्य भाषामां, रचना करी होय तेवो उल्लेख अमारा जोवामां तो हजी सुधी आव्यो नथी. आ त्रणे मुनिवरोनी परंपरा अने रचना नीचे मुजब छे. १ अकबरप्रतिबोधक जगद्गुरु श्रीहीरसूरीश्वरजी महा. राजना शिष्य कल्याणविजय-शिष्य साधुविजय-शिष्य जीवविजय-शिष्य चन्द्रविजय. एमणे 'धन्नाशालिभद्र चोपाइ' बनावी छ. आ चोपाइनी कर्ताए स्वहस्ते धोराजी नगरमां लखेली प्रत इडरनो बाइओनो भंडार-के जे हवे 'आत्मकमल-लब्धिसूरीश्वर-शास्त्रसंग्रह' एवा इडरना केटलांक भंडारोनुं एकीकरण करी पाडेला नामे ओळसाय छे, तेमां छ. २ तपागच्छीय श्रीऋद्धिविजय-शिष्य रत्नविजय-शिष्य चन्द्रविजय. एमणे सं० १७३४ ना पोष शुदि पांचमना दिवसे 'जम्बुकुमार रास' बनाबेलो छे. ३ तपागच्छीय उपाध्याय लावण्यविजय-शिष्य नित्यविजयशिष्य चन्द्रविजय. एमणे 'स्थूलिभद्र कोशाना बार मास' (१३ ढाल, ६७ कडी) नामक कृति बनावी छे. ___ आ सिवाय 'सेनप्रश्न 'मां पंडितचन्द्रविजयकृत प्रश्नो छ, ते आ प्रण पैकीना ज कोई हशे तेम लागे छे. प्रस्तुत व्याख्याकारे 'श्रीचन्द्रविजयेन' एवा पोताना नाम: निर्देश सिवाय विशेष कशी माहिती आपेली न होवाथी, तेओश्री आ त्रणमांना क्या हशे? ते निर्णित कर मुश्केल छे. आत्रणथी भिन्न कोई नवा ज होय एम पण संभवी शके छे. उक्क त्रणेनो सत्तासमय श्रीविजयप्रभसूरिजीनो आचार्यपदकाल (सूरिपद सं० १७१०, कालधर्म सं० १७४९) छे एम निश्चित लागे छे. आ अंगे वधु माहिती कोई विद्वान्ने सांपडे तो प्रकाशमां लाववा प्रयत्न करे एव॒ सूचन छे. For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir গালিহানাঘায় নমঃ। आत्मकमललब्धिसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । मुनिवरश्री चन्द्रविजयजीविरचित शान्तिश्लोकः सटीकः । सकल-कुशलवल्ली-पुष्करावर्तमेघो, दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः । भवजलनिधिपोतः सर्वसम्पत्तिहेतुः, स भवतु सततं वः श्रेयसे शान्तिनाथः ॥ १॥ प्रणम्य परमां देवीं, शारदां शास्त्रपारदां । शुभश्लोकस्य श्रीशान्तः,किञ्चिद्व्याख्या करोम्यहम्॥१॥ तत्रादौ संक्षिप्तव्याख्यास शान्तिनाथो, वो-युष्माकं, श्रेयसे-कल्याणाय वा मुक्तये भवतु, किं विशिष्टः स शान्तिनाथः ! सकलकुशलवल्लीपुष्करावर्तमेषः, पुनः किंविशिष्टः ! दुरिततिमिरभानुः, पुनः किंविशिष्टः ! कल्पवृक्षोपमानः, पुनः किंविशिष्टः ! भवजलनिधिपोतः, पुनः किंविशिष्टः । सर्वसंपत्तिहेतुः, स शान्तिनाथो भगवान् युष्माकं [ सततं ] श्रेयसे-कल्याणाय भवत्विति । For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ विस्तरव्याख्या तत्र तावद् व्याख्यालक्षणं, यथा श्लोकः-पदच्छेदः पदार्थोक्तिविग्रहो वाक्ययोजना,आक्षेपस्य समाधान व्याख्यानं पञ्चलक्षणम् ॥१॥ ततः पञ्चलक्षणात्मकायां व्याख्यायां प्रथमतः पदच्छेदः" सुतिङन्तं पदम् " (१-४-१४) इति पाणिनीयसूत्रात्, सुतिङन्तानां पदानामजादिसन्धिविधानात् पृथक्करणं पदच्छेदः, तद् रेखाचिहतो द्रष्टव्यः, तथा तेषां पदानामर्थस्योक्तिः-कथन मिति पदार्थोक्तिस्तद्यथा-'सकलमिति' कल शब्दसंख्यानयोरिति [है. धातु. ७६८ ] कलधातोः पचायचि इत्यच् प्रत्ययः, स्त्रीत्वाच " अजाद्यतष्टापू" [पा. ४-१-४ इत्यादि सर्वत्राप्यवसेयम् । किञ्च, साधनविधानसूत्रादि नात्र लिख्यते विस्तरभयात् , कलति का करत इति कला, यत्कोश:-" कला स्यान् मूलविवृद्धौ शिल्पादावंशमात्रके षोडशांशेऽपि चन्द्रस्ये*"ति विश्वः [लद्विके श्लो. ४३] कलाभिः सह सकलं, 'तेन सहेति तुल्ययोग' [पा.२-२-२८]इति बहुव्रीहिसमाससिद्धत्वात् , सहस्य सादेशः, पूर्वनिपातश्च, विशे(प्य). निघ्नत्वात् वाच्यलिङ्गत्वं, यत्कोशः-"समग्रं सकलं पूर्ण (अ. को. का. ३, श्लो. २१५५ )इति अमरः । कुशलमिति, शलि चलने च [है. धा. ७६३ ] " पचायच् ", [३.-१-१३४ ] को-भूमौ शलते (ति!) इति कुशलं, यद्वा कुत्सितं शलति संवृणोतीति कुशलं, यत्कोशः-कुशलं क्षेममस्त्रियामि( अ. को. का. १, श्लो. २६६) त्यमरः, वल्लीति, वल्लि संवरणे (है.धा.७६२) 'सर्वधातुभ्यः * कल नाकालयोः कला इति पूर्णः श्लोकः । For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ इम्' [ उ. ४ - ११८] वल्लते संबृणोतीति वलिः, लतानामत्वाद्दीर्घत्वं स्त्रीलिङ्गप्रत्ययाश्रयत्वात् " ढाणे " [ पा. ४. १. १५. ]ति सूत्रात् ङीप्, नदीवत् नित्यस्त्रीत्वात्, समस्तेऽपि हृस्वाभावो यतोऽभिधानचिंतामणिहेम चन्द्रव्याख्यायां चामरस विप्रहव्याख्यामर विवेकटीकादावपि द्विरूपदर्शनात्, तथैवामरपाणिनीयवररुचिहेमचंद्रादीनां लिङ्गानुशासनेषु स्त्रीत्वप्रतिपादनाच्च काव्यप्रयोगादिष्वपि दर्शनात्, किं बहुना ! यत्तु इन् प्रत्ययलिखनं तत्त्वमर विवेकटी का बलात्, यच्चोक्तं" संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे, कार्याद्विद्यादनुबन्धमेतत् *कार्यमुणादिषु ॥ १ ॥ [ ] ततः वल्लते संवृणोतीति वल्ली, यत् कोश: ' वल्ली स्यादजमोदायां व्रतत्यावपि घोषिती 'ति मेदिनी [ वर्ग २८, श्लो. ३८] पुष्कर इति, पुषश् पुष्टौ [ है. धा. ५७ ] पुषः कित्' [ पा. उ. ४-४ ] (इति) करनू, पुष्णातीति पुष्करं यत्कोशः - ' पुष्करं सर्वतोमुखमित्यमरः ' [ अ. को. का. १, श्लो. ४७४ ]:, आवर्त इति वृतु वर्तने, [ है. धा. ९०८ ] भावत्वात् ( भावे' पा. ३. ३. १८. इति सूत्रेण ) घञ्, आवर्तनमित्यावर्तः यत्कोश: ' आवर्त अम्भसां भ्रम' इत्यमरः, [अ. को. का. श्लो. ४७८ ] यद्वा पुष्करमावर्तयतीति पुष्करावर्त्त इति, पुष्करावर्तनामा मेघः, सिद्धान्तप्रसिद्धरूढत्वात् मेघ इति मिहं सेचने [ है. धा. ५०३ ] " पचाद्यच् " [ ३-१-१३४ ] मिहतीति मेघः, यत्कोशः - अभ्रं मेघो वारिवाह इत्यमरः, [ अ, को, का. १ 6 " " 1 १ - अभिधानचिन्तामणौ पृ. ४४८ - वल्लते संवृणोति वलिः पदिपठि इति इ: बयां वल्ली । * कौमुद्यां तु शास्त्रमु० इति पाठभेदः दृश्यते । For Private And Personal Use Only "9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को. १५७] दुरितमिति इण गती, कृदन्तत्वात्( ३.३. ११४ )इति सूत्रेण नपुंसके भावे) 'क्तः', दुष्टमितमनेनेति दुरितं, यत्कोशः"अहो दुरितदुष्कृतमि "त्यमरः, [ का. १, व. ७, श्लो. २६१ ] तिमिरमिति, तिम आर्दीभावे है. धा. १५] (इषिमदि० उ १.१५ इति सूत्रेण) किरच , तिम्यतीति तिमिरं यत् कोशः-तमिस्र तिमिरं तमः इत्यमरः, [अ. को. का. १, लो.४४३] भानुरिति, भासि दीसो [है. धा. ८०० ] " दाभाभ्यां नुः" [पा. उ. ३. ३२] मातीति भानुः, यत् कोशः--भानुहंसः सहस्रांशुरित्यमरः [अ. को. का. १, लो. २०६] कल्प इति, कृपोङ् सामर्थ्य [ है. धा. भ्वा. ९१२] 'कृपो रोल' [पा. ८. २. १८.] इति रेफस्य ल: 'पुंसि संज्ञायां वः' [पा. ३. ३. ११८ ] कल्पते इति कल्पः, यत् कोशःकल्पः विकल्पः कल्पादिः संवतः ब्रह्मवासरे, न्याये शास्त्रविधाविति" हैमः, [अ. का. २, लो. २९६ ] ओवश्चौत् छेदने, [है. तु. २७] 'स्नुवश्चिकृत् वृषिभ्यः कित् ' इति सश्च [ उ. ३.६६ ] वृश्चतीति वृक्षः, यद्वा वृक्ष वरणे [ है. ८-३२] वृक्षतीति-वृक्षः-- इति केचित् , यत् कोशः-वृक्षो महीरुहः शाखीत्यमरः, [अ. को. का. २, श्लो. ६५८] यद्वा कल्पः-संकल्पितोऽर्थः, तस्य वृक्षःकल्पवृक्षः, जन्यजनकभावसम्बन्धेन षष्ठीति यौगिकशब्दः, यदुक्कं हेमचंद्रेण “ योगोऽन्वयः स तु गुणक्रियासम्बन्धसम्भवः" इति, [अमि. का. १, श्लो. २] यौगिकोऽपि देवतरौ रूढत्वान्मिश्रः, यत् तत्रैव मिश्राः, पुनः [" एवं ] परावृत्तिसहायोगात्" [अ. का. १ श्लो. १८ ] इत्युक्तत्वाच, 'पंचैते देवतरवो मंदारः पारि For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जातकः संतानः कल्पवृक्षश्चे 'त्यमरः [ अ. को. का. १, श्लो. १४१] उपमानमिति, मां माने [ अदा हा. ८] 'भावे' [पा. उ. ३. ३. ११४] 'करणे वा ल्युट्,' [पा. ३. ३. ११७] अनादेशश्च “ युवोरनाकावि" [पा. ७-१-१]ति सूत्रात् , उपसादृश्येन मीयत-इत्युपमान, यत् कोशः-" उपासन्नेऽधिके हीने सादृश्यप्रतियत्नयोरि "ति हैमः, “ उपमोपमानं स्यादि "त्यमरः, [का. २, श्लो. २०१] भव इति, भू सत्तायां, [ है. धा. १] "पचाद्यच्" [ पा. ३-१-१३४ ] भवतीति भवः, यत् कोशः-- जन्महरौ भवावित्यमरः, [अ. को. का. ३, श्लो. २७४७ ] जलमिति, जलण् अपवारणे, [है. चु. १२० ] जलतीति जलं यत् कोश:-कमलं जलमित्यमरः, [अ. को. का. १, श्लो. ४७२ ] निधिरिति, डुधांग्क् धारणे च, [ है. चु. अ. हा. ८१ ] " उपसर्गे घोः किः," [पा. ३-३-९२ ] यद्वा धिंत् धारणे [ है. तु. १६ ] " संपदादिभ्यः क्किप्" [पा. वा. ३-३-९४ ], आगमानित्यत्वात् तुक् , नितरां दधातोति निधिः, यद्वा निधीयत इति-निधिः, यत् कोशः-निधि सेवधिरित्यमरः, [अ. को. का. १, श्लो. १४२ ] यद्वा जलं-निदधातीति जलनिधिः, (कर्मण्य. धिकरणे चेति पा. ३. ३. ९३ सूत्रेण ) कर्मणि किः, यत् कोशःरत्नाकरो जलनिधिरित्यमरः, [अ. को. का. १, श्लो. ४७०] पोत इति, पाश् पवने [ है. क्यादि. प्वा. ११ ] (हसि० उ. ३. ८६ इति-सूत्रेण ) तन् , पुनातीति पोतः, यत् कोशः-यानपात्रे शिशौ पोतः इत्यमरः, [अ को. का. ३, श्लो. २४५४ ] सर्वमिति, For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुं गतौ [ है. धा. भ्वा. २५] सरतीति-सर्व, [ सर्वनि० उ. १. १५३० इति सूत्रेण ] औमादिको व प्रत्ययः, सर्वति वा इति सर्वः, [पा. ३-१-१३४. सूत्रेणाच् ] यत् कोशः-समं सबमित्यमरः, [अ. को. का. ३, सो. २१५३] संपत्तिरिति, पदिच् गतौ [ है. दि. ११३] " संपदादिभ्यः किप्" [पा. वा. ३-३-९४ ] क्तिनोः समावेशश्च-संपद्यत इति संपत्तिः, यत् कोशः- संपत्तिः श्रीश्चेत्यमरः । [अ. को. का. २, लो. १६३१] हेतुरिति, हिंट् गतिवृद्धयोः [ है. स्वा. १०] " कमिमनिगाभाहि. भ्यश्चे "ति [पा. उ. १. ७२ ] तुन्, हिनोतीति हेतुः, यत् कोशः-हेतुर्ना कारणमित्यमरः, [ अ. को. का. १, श्लो. २७१ ] स इति, तनूयी विस्तारे (है. धा. १] (पा. ३. २. १७८ इति सूत्रेण) किप्, (पा. वा. ६. ४.४० इति सूत्रेण) न लोपे (पा.६.१.७५ इति सूत्रेण) तुक्, यद्वा 'त्यजिजितनियजिम्यो डित्' [उ. १. १३] इत्यादि प्रत्ययेन सिद्धः, तनोतीति तत् , सर्वादिस्त्रिलिङ्गः, पुंभावे प्रथमायां " तदोः सः सावन्त्ययो"रि [पा. ७-२-१०६]ति सूत्रात् सः, भवत्विति, भू सत्तायां, [ है. धा. १ ] " आशिषि लिङ् लोटौ" [पा. ३-३-१७३ ] तत्रैव च “ एरुरि "ति [पा. ३-४-८६ ] तेस्तु, शेषं स्वयमेवोझं, भवतु, सततमिति, तनूयी विस्तारे है. धा. १] (नपुंसके भावे ३. ३. ७१ इति सूत्रेण ) क्तः, संतन्यस्ते स्मेति *सततं यत् कोशः * अनुदात्तोपदेश० सूत्रेण न लोपः ‘समो वा. इति सूत्रेण च समो बामलोपः ' इति । For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सततानारतेत्यमरः, [ अ. को. का. १, को. १३०] व इति, युषी सेवायां [ है. धा. सौ. ७२] सौत्र धातुः, "युष्यसिभ्यां मदिक्, " [ पा. उणादि. १. १३६ ] युष्यत् इति युष्मद् , सर्वादि लिलिंगः, घुमावे द्वितीयादिषु ‘बहुवचनस्य बस्नसा' विति [ पा. ८. १. २१ ] युष्मदोर्वसादेशात् “वः," [पा. ८-१-२१] श्रेय इति, शंसू स्तुतौ च [ है. भ्वा. ५०२ ] " अचो यत्", [पा. ३-१-९७ ] इति कृदन्तप्रत्ययात्, शंसितुं योग्यं शष्यं, प्रकर्षेण शस्यं प्रशस्यं अतिशयार्थे, तद्धितश्च "प्रशस्यस्य श्रः" [पा. ५-३-६०] इति श्रादेशः, अतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः चतुर्थंकवचने के श्रेयसे, कोशस्तु- "श्रेयो मुक्तौ शुभे धर्मेऽति [प्रशस्ते च] वाच्यवदि "ति मेदिनी [वर्ग. ३२, श्लो. ४२], शान्तिरिति, शमू उपशमे [ है. दि. ८६] शमनमिति शान्तिः, (स्त्रियां क्तिन् , पा. ३. ३. ९४ इति सूत्रेण) भावे "क्तिन् ” यत्कोशः"शान्ति भद्रे-शमेऽहंती "ति हैमः, [अ. का. दि. श्लो. २०४] नाथ इति नाथ याञ्चोपतापैश्वर्याशिः-षु च [ है. धा. ६७] ( भावे ३. ३. १८ इति सूत्रेण ) घन्, नाथतीति नाथः, यत्कोश:-"पतीन्द्रस्वामिनाथार्या" इत्यभिधानचिंतामणिः[का. ३, लो. २३] इति पदार्थोक्तयः, अथ विग्रहव्याख्यातत्र विग्रह इति किमिति चेत् "वृत्त्यर्थाऽवबोधकं वाक्यं 1. इमानि त्रीणि वाक्यानि पाणिनीयटोकायां वर्तन्ते । For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ विग्रहः, " वृतिस्तु " परार्थाभिधानं वृत्तिः, " वर्चते - शब्दः प्रवर्ततेऽनयेति वृत्तिः, " कृत्तद्धितसमासैकशेष सनाद्यंतधातुरूपाः पश्चवृत्तय" श्व, अतः, समस्तानां पदानां समासाः, यथा सकलानि च तानि कुशलानि च सकलकुशलानि कर्मधारयः सकलकुशलान्येव वल्लयः सकलकुशलवल्ल्यः कर्मधारयः, वल्लय इव - वल्लयः, सकलकुशलवल्लयस्तत्पुरुषः, पुष्करं आवर्तयतीति - पुष्करावर्तस्तत्पुरुषः पुष्कर वर्त्तश्चासौ मेघश्च पुष्करावर्त्तमेघः कर्मधारयः सकलकुशलवल्लीनां परिषेचको मेघ इव मेघः सकलकुशलवल्लीपुष्करावर्त्तमेघस्तत्पुरुषः, याजकादिभ्यश्चेति गणग्रहणात् पोष्यपोषकभाव संबंधात् षष्ठीसमस्तत्वं, दुरितान्येव तिमिराणि दुरिततिमिराणि कर्मधारयः, दुरिततिमिराणां नाशको भानुरिव भानुः दुरिततिमिरभानुस्तत्पुरुषः, कल्पवृक्षस्योपमानं यस्य स कल्पवृक्षोपमानः बहुव्रीहिः, भव एव जलनिधिः भवजलनिधिः कर्मधारयः, भवजलनिधौ पोत इव पोतः भवजलनिधिपोतस्तत्पुरुषः, सर्वा चासौ संपत्तिश्च सर्वसंपत्तिः कर्मधारयः, सर्वसंपत्त्या हेतुः सर्वसंपत्तिहेतुः तत्पुरुषः, इतः कर्तृकर्म - क्रियोपदेष्वसमस्तत्वमते च शान्तिश्वासौ नाथश्व शान्तिनाथः कर्मधारयः, इति विग्रहव्याख्या । अथ वाक्ययोजना - किं वाक्यमिति पदानां समूहो " वाक्यं स्याद्योग्यताकांक्षाssसत्तियुक्तः पदोश्चय " इति साहित्यदर्पण: [ प २, श्लो. १], * वाक्यताप्रयोजकपरस्परपदसंबन्धकरणमित्यर्थः । For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाक्यस्य योजना मेलनं कर्तृ क्रियासंबंधपदैरिति वाक्ययोजना. ऽन्वय इत्यर्थः, " स्वतंत्रः कर्ते" [पा. १-४-५४ ]ति वचनात् कर्तृपदस्यादौ ग्रहणमिति दिक् , स शान्तिनाथो नः श्रेयसे भवतु इति शेषाणि कर्तृविशेषणानीत्यादि स्वयमूह्यमिति वाक्ययोजना । अथाक्षेपसमाधानात्मका व्याख्या ननु कथं स शान्तिनाथोऽस्माकं श्रेयसे भविष्यत्यनेन कुत्र कस्य वा श्रेयः कृतमित्याक्षेपः, सत्यं, यतः गर्भस्थेनापि येन भगवता देशोत्पन्नमशिवमुपशमितं ततः शान्तिनामत्वं, यदुक्तं शतसप्ततितिस्थान-प्रकरणे-" संति करणाउ संति देसे असिवोवसमकरणा" त्ति [ गा. १६ ] सोमतिलकसूरिणा [ शान्तिकरणात् तु शान्तिः देशे अशिवोपशमकरणात् इति ] तथा च शान्तिचरित्रेऽप 'महान्तमशिवं तस्मिन्नासीत् पूर्व पुरे तदा, संजातो मान्द्यदोषेण लोकस्य प्रलयो महान् ॥ १॥ गन्धद्विपस्य गन्धेन दन्तिनां मदवत् क्षणात् । उपशान्तं तदशिवं प्रभावाद् गर्भगप्रभोः ॥ २ ॥ ततश्च चिन्तितं तातजननीभ्यामदो हृदि प्रभावोऽयम[नी]दृक्षः सूनोगर्भगतस्य नौ ॥ ३ ॥ इति [प्र. ६ श्लो. २४-२५-२६] तत्रैव च नामकरणप्रस्तावे, द्वादशे च दिने राजा बन्धुवर्गमशेषकं भोजयित्वा गौरवेण तत् समक्षमदोऽवदत् ॥ १ ॥ बम्वाऽशिवशान्तिर्यदस्मिन् गर्भागते जिने, तदस्य सुतरत्नस्य शान्ति मास्तु सुन्दरम् ॥ २ ॥ [प्र. ६ श्लो. ६५-६६] इत्यादि च श्रूयते हि मेघरथभवे श्येनात् 'पारापतोऽपि रक्षितों येनेत्यादि, विस्तरभयानात्र लिख्यतेऽतः श्रेयः For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करिष्यतीति समाधान, तथा च तस्य भगवतः कथं पुष्करावर्तमेषो. पमेयत्वमिति चेत्, यथा षष्ठारकप्रवेशे क्षारादिभिर्मेपैर्विदग्धानि वृक्षौषधिलताधान्यादीनां बीजानि पुनः प्रथमारकप्रवेशे पुष्करावन पुनरुत्पाद्यन्ते, यदुक्तं जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे षष्ठारकवर्णनेऽप्यालापकः यथा ' अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा-इत्यादि, [ वक्ष. सू. ३६] तत्रैव च 'बहुपयारे रुक्खगुच्छगुम्मवल्लिपवालंकुरमाइएतणवणफ्फइकाइए ओसहिओ अविद्धसेहित्ति [ जंबुद्वी. ] [ बहुप्रकारे वृक्षगुच्छगुल्मवल्ली प्रवालाङ्कुरादिके तृणवनस्पतिकायिके औषधिषु आविध्वंसेषु इति ] तत्रैवं चोत्सर्पिण्याः प्रथमारकवर्णने चालापकः ' तेणं कालेणं तेणं समयेणं पुरुकलसंवट्टए णामं महामेहे [ पाउ. भविस्सइ ] भरहप्पमाणमित्ते आयामेणं तयाणुरुवं च णं [विक्खंभबाहल्लेणं, तएणं से पुरुकलसंवट्टए महामेहे खिप्पामेव तणत. णाइस्सति, विप्पामेव तणतणाइत्ता, खिप्पामेव पविज्जूइस्सति, खिप्पामेव पविज्जूइत्ता, खिप्पामेव जुगमुसलप्पमाणमत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिस्सति जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूअं, मुम्मुरभू, छारिभू, तत्तकवल्लुअभूअं, तत्तसमजोइमूअं निबाविस्संति' [वक्ष. २. सू. ३८] [तस्मिन् काले तस्मिन् समये पुष्करसंवर्तकः नाम महामेधः प्रादुर्भविष्यति, मरतप्रमाणमात्रः आयामेन तदानुरूपं च विष्कंभबाहल्येन, ततः स पुष्करसंवर्तकः महामेघः क्षिप्रमेव स्तनस्तनीष्यति क्षिप्रमेव स्तनस्तनीत्वा, क्षिप्रमेव प्रविद्यतिष्यति, क्षिप्रमेव प्रविद्युतित्वा, क्षिप्रमेव युगमुशलप्रमाणमात्राभिः धाराभिः ओघमेचं समरात्रं वर्षा वर्षिष्यति येन मरतस्व For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्षस्य भूमिभागं अङ्गारभूतं, मुर्मुरभूतं, क्षारीमतं, तप्तकवल्युकभूतं, तप्तसमज्योतिर्भूतं निर्वापयिष्यति ] इत्यादि, तथा मिथ्यात्वदुर्मेधदग्धं जीवानां बोधबीजमुपदेशाम्बुषेकात् सरसं करोतीत्यतः पुष्करावर्तोपमानोपमेयत्वमविरुद्धमिति सिद्धान्तम् , अपि च दुरित. तिमिरमानुरिति विशेषणं च कथं सम्भवतीत्युच्यते दुरितस्यतिमिरस्य च गौणत्वेन साम्यं कृष्णपरिणमनशीलत्वात् ततो दुरिततिमिरनाशकत्वेन भगवतोऽपि, भानूपमानोपमेयत्वं युक्तमेव यदुक्तं वीतरागस्तोत्रे हेमचन्द्रेण-यः परमात्मा परंज्योतिः, अवाङ्मानसगोचरं । आदित्यवर्णं तमसः, परस्तादामनन्ति यम् ॥ १ ॥ [ श्लो. १ ] इत्यादि, तथा कल्पवृक्षोपमानोपमेयत्वेऽपि समाधानं ब्रवीमि, यथा कल्पवृक्षा हि यौगलिकानां समीहितार्थसिद्धिदा भवन्ति, यदुक्तं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रे प्रथमपर्वणि द्वितीयसर्गे श्लोकाः-प्रायच्छंस्तत्र तेषां तु, वाञ्छितानि दिवानिशं । मद्याझाद्याः कल्पवृक्षा दशोत्तरकुरुष्विव ॥१॥ स्वादुमद्यानि मद्याङ्गा, ददुः सद्योऽपि याचिताः । भाजनादीनि सुङ्गाश्च तद्भाण्डागारिका इव ॥ २॥ तेनुस्तूङ्गिास्तूर्याणि तूर्यत्रयकराणि तु । उयोतमसमं दीपशिखा ज्योतिषिका अपि ॥ ३ ॥ विचित्राणि तु चित्रामा माल्यानि समढोकयन् । सूदा इव चित्ररसा भोज्यानि विविधानि तु ॥ ४ ॥ यथेच्छमर्पयामासुर्मण्यङ्गा भूषणानि तु । गेहाकाराः सुगेहानि गन्धर्वपुरवत् क्षणात् ।। ५॥ अभग्नेच्छमनमोस्तु, वासांसि समपादयन् । एते प्रत्येकमन्यानप्यर्थान् ददुर. १- मु. परमः परमेष्ठिनामिति - - - For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नेकशः ॥ ६ ॥ इति, [२११-१२६ ] तथा भगवानपि भव्यानां वान्छितार्थविधायकोऽस्ति तस्मात् कल्पवृक्षोपमानो[ प.]मेयत्वं प्रशस्तमिति किं बहुना ! पुनः संसारसागरे निमजतां जनानामेकाधारीभूतत्वात् पोतत्वमपि न विरुद्धं, यत् सिद्धसेनदिवाकरेणाऽपि कल्याणमंदिरस्तोत्रे- संसारसागरनिमजदशेषजन्तोः(न्तु!)। पोता. यमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य” (श्लो. १)इत्यादि प्रोक्तत्वात् , सर्वसंपचेहेतुत्वं भगवद्ध्यानधराणां, भगवद्ध्यानपराङ्मुखानां तु स्वप्नेऽप्यसम्भवत्वात् , स्पष्टमेवेत्यलं विस्तरात्, अपरं चेदं पद्यमुत्तमकविकृतं सम्भाव्यते तेनोत्तमकाव्यत्वात् तल्लक्षणान्युच्यन्ते-“काव्यं ध्वनिगुणीभूतं-व्यङ्ग्यं चेति द्विधा मतं वाच्यातिशायिनि व्यङ्ग्ये ध्वनिस्तत् काव्यमुत्तममि "ति साहित्यदर्पणः, [ प. ४. श्लो. १ ] अत्र स शान्तिनाथो वः श्रेयसे भवत्वित्यत्र तच्छब्दोपादानात् स शान्तिनाथो यो गर्भस्थोऽपि शान्तिकरोऽभवदिति सूचनारूपातिशयव्यायोत्पन्ना ध्वनिरेवं विशेषणेष्वपि समस्तखण्डरूपकालंकारगर्भितेष्वपि ध्वनिभावत्वाचोत्तमकाव्यत्वमिव, यत् साहित्यदर्पणःवस्तुवाऽलंकृतिर्वापी [सा. प. ४. श्लो. ९ ] त्यादि, भगवतोऽपि पापव्यपोहौदार्यादिगुणरूपवस्तुध्वनीनां बाहुल्यानार्हति विस्तरश्च, वक्तृश्रोत्रोरालम्बनाशिर्वाक्यप्रयोगरूपवात्सल्यात् वात्सल्यो रसः, यदुक्तं साहित्यदर्पणे-" स्फुटं चमत्कारितया, वत्सलं च रसं विदुः। स्थायिवत्सलतास्नेहः, पुत्राद्यालम्बनं मतम् ।। "इति [ साहि. १. वस्तुवाऽमतिर्वापि द्विधार्थः सम्भवः स्वतः। कवेः प्रौढोक्ति सिद्धो वा तन्निबद्धस्य चति षट् ॥ ९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प. ३. लो. २३१ ], वचनादलंहारस्तु वर्ण्यपदार्थानामुपमया ताप्याद्रूपकालंकारः,- " रूपकं यत्र साधादर्थयोरभिदा भवेत् समस्तं वाऽसमस्तं वा खण्डं वाऽखण्डमेव चे"ति वाग्भट्टालंकारः, परि. ४. श्लो. ६६] निरवयत्वात् वण्डा, समासयुक्तत्वात् समस्त इति समस्तखण्डरूपकालंकारः, छन्दोऽपि समपादैकादिषड्विंशाक्षरछन्दः, संज्ञासु पंचदशाक्षरपरिमितः, समानपादत्वादिदं समं वृत्तं तल्लक्षणं मालिनी नौम्यौय' 'याष्टा वृषय' [अ. ७. श्लो. १४] इति पैंगलं सूत्रं शेषं स्वयमेवावतारणीयमिति पर्याप्तमनल्पकल्पनया सद्भिः संशोध्य सम्भावनीयमिति पंच व्याख्या विशिष्टं सकल. कुशलेतिशान्तिकाव्यव्याख्यानकं समाप्तिमुपनीतं श्रीचन्द्रविजयेन, श्रीप्रदमस्तु । १. अभेद इत्यर्थः For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ नमः ॥ श्री आत्मकमललब्धिसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। अन्यमतदूषणम्॥ सुनिश्चितं नः परतंत्रयुक्तिषु, ___ स्फुरन्त याः काश्चन सूक्तिसंपदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः ॥ १॥ श्री सिद्धसेनपादाः [प्र. द्वा. श्लो. ३०. ] इति अत्र परे प्राहुः, अहो आर्हता! अर्हदभिहिततत्त्वानुरागिभि. युष्माभिरिदमसम्बद्धमेवाविर्भावयाम्बभूवे यदुत-"अस्मदर्शनेष्वपि पूर्वापरयोविरोधोऽस्तीति नबस्मन्मते सूक्ष्मेक्षणैरीक्ष्यमाणोऽपि विरोधलेशोऽपि कचन निरीक्ष्यते, अमृतकर किरण]निकरेष्विव कालिमेति चेत् , उच्यते, भोः ! स्वमतपक्षपातं परिहृत्य माध्यस्थ्यमवलम्बमाननिरभिमानैः प्रतिभाद्यवधानं विदधानैर्निशम्यताम् , तदा वयं भवतां सर्वं दर्शयामः, तथाहि-प्रथमं तावत् , ताथागतसम्मते मते पूर्वापरविरोध उद्भाव्यते, पूर्व सर्व क्षणभङ्गुरमभिधायपश्चादेवमभिदधे, “ अनुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय" इति अस्यायमर्थः-ज्ञानमर्थे सत्येवोत्फ्यते न पुनरसति, इत्यनुकृतान्वयव्यतिरेकोऽर्थो ज्ञानस्य कारणं, यतश्चार्थात् ज्ञानमुत्पद्यते, तमेव तद्विषयीकरोति इति, एवं चाभिदधानेनार्थस्य क्षणद्वयं स्थितिरभिहिता, तद्यथा-अर्थात्-कारणात् , ज्ञानंकार्य जायमानं द्वितीये क्षणे जायते, न तु समसमये, कारणकार्ययोः समसमयत्वायोगात्, तच्च ज्ञानं स्वजनकमेवार्थ गृह्णाति नापरं 'नाकारणं विषय' इति वचनात् , तथा चार्थस्य क्षणद्वयं स्थितिबलादायाता, सा च क्षणक्षयेण विरुद्धेति पूर्वापरविरोधः । तथा 'नाकारणं विषय ' इत्युक्त्वा योगिप्रत्यक्षस्यातीतानागतादिरप्यर्थो विषयोऽभ्यघायि, अतीतानागतश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेन तस्य कारणं न भवेत् , अकारणमपि च तं विषयतयाऽभिदधानस्य पूर्वापरविरोधः स्यात् , एवं साध्यसाधनयोर्व्याप्तिग्राहकस्य ज्ञानस्य कारणस्वाभावेऽपि त्रिकालगतमर्थ विषयं व्याहरमाणस्य कथं न पूर्वापरण्याघातोऽकारणस्य प्रमाणविषयत्वानभ्युपगमात् , तथा क्षणक्षयाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकयोभिन्नकालयोः प्रतिपत्तिर्न संभवति, ततः साध्यसाधनयोस्त्रिकालविषयं व्याप्तिग्रहणं मन्वानस्य कथं न पूर्वापरव्याप्लुतिः, तथा क्षणक्षयमभिधाय - इतः एकनवति कल्पे, शक्त्या मे पुरुषो हतः। तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ! ॥ ३ ॥[ ] इति, अत्र श्लोके जन्मांतरविषय[ योः ]मेशब्दास्मिशब्दयोः प्रयोगं क्षणक्षयविरुद्धं ब्रुवाणस्य बुद्धस्य कथं न पूर्वापरविरोधः, तथा निरंशं सर्व वस्तु प्राक् प्रोच्य हिंसाविरतिदानचित्तस्वसंवेदनं तु स्वगतं सद्रव्यचेतनत्वस्वर्गपापणशक्त्यादिकं For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहन्नपि स्वगतस्य सद्रव्यत्वादेरेकस्यांशस्य निर्णयमुत्पादयति न पुनः स्वगतस्यापि द्वितीयस्य स्वर्गप्रापणशक्त्यादेरंशस्येति सांशतां पश्चाद् बदतः सौगतस्य कथं पूर्वापरविरुद्धं वचो न स्यात् । एवं निर्विकल्पकमध्यक्षं नीलादिकस्य वस्तुनः सामस्ते(स्त्ये ! )न ग्रहणं कुर्वाणमपि नीलायंशे निर्णयमुत्पादयति, न पुनर्नीला. धर्थगते क्षणक्षयेडशे इति सांशतामभिदधतः सौगतस्य पूर्वापर. विरोधः सुबोध एव, तथा हेतोचैरुप्यं संशयस्य चोल्लेखद्वयात्मकतामभिदधानोऽपि सांशं वस्तु यन्न मन्यते, तदपि पूर्वापर. विरुद्धं, तथा "परस्परमनाश्लिष्टा एवाणवः प्रत्यासत्तिभाजः समुदिताः घटादिरूपतया प्रतिभासन्ते न पुनरन्योन्यमझाङ्गिभावरूपेणारब्धस्कन्धकार्याः ते " इति हि बौद्धमतं तत्र चामी दोषाः-परस्परमणूनामनाश्लिष्टत्वात् घटस्यैकदेशे हस्तेन धार्यमाणे कृत्स्नस्य घटस्य धारणं न स्यात, उत्क्षेपापक्षेपाश्च तथैव न भवेयुः। जलधारणादीनि च घटस्यार्थक्रियालक्षणं सत्वमङ्गीकुर्वाणैः सौगतैरभ्युपगतान्येव तानि च तन्मतेऽनुपपन्नानि ततो भवति पूर्वापरयोर्विरोधः ।। [इति बौद्धमते विरोधाः] अथ नैयायिकवैशेषिकमतयोः पूर्वापरतो व्याहतत्वं दयतेसत्तायोगः सत्त्वमित्युक्त्वा सामान्यविशेषसमवायानां सत्तायोगमंतरेणापि सद्भाव भाषमाणानां कथं न व्याहतं वचो भवेत् ! ज्ञानं स्वास्मानं न वेत्ति स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्यभिधायेश्वरज्ञानं स्वात्मनि क्रियाविरोधाभावेन स्वसंविदितमिच्छतां कथं न स्ववचनविरोधः? प्रदीपोऽप्यात्मानमात्मनैव प्रकाशयन् स्वात्मनि क्रियाविरोधं व्यपा For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करोति, परवञ्चनात्मकान्यपिच्छल जातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदिशतोऽक्षपादयुर्वैराग्यव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकताप्रख्यापनमिव कथं न व्याहन्यते ! आकाशस्य निरवयवत्वं स्वीकृत्य तद्गुणःशब्दस्तदेकदेशे एव श्रूयते, न सर्वत्रेति सावयवतां ब्रुवाणस्य कथं न विरोधः? ' सत्तायोगः सत्त्वं' योगश्च सर्वैवस्तुभिः सांशतायामेव भवति, सामान्यं च निरंशमेकमभ्युपगम्यते ततः कथं न पूर्वापरतो व्याहतिः १ समवायो नित्य एकस्वभावश्चेष्यते, सर्वैः समवायिभिः सम्बन्धश्च नैयत्येन जायमानोऽनेकस्वभावतायामेव भवति, तथा च पूर्वापरविरोधः सुबोधः, 'अर्थवत् प्रमाणम्' इति, अर्थः सहकारी यस्य तद् अर्थवत् प्रमाणमित्यभिधाय योगिप्रत्यक्षमतीताद्यर्थविषयमभिदधानस्य पूर्वापरविरोधः स्यात् , अतीतादेः सहकारिवायो. गात् , तथा स्मृतिर्गृहीतग्राहित्वेन न प्रमाणमिष्यते, अनर्थजन्यत्वेन वा गृहीतग्राहित्वेन स्मृतेरपामाण्ये धारावाहिज्ञानानामपि गृहीतग्राहित्वेनाप्रामाण्यप्रसङ्गः, न च धारावाहिज्ञानानामप्रामाण्यं नैयायिकवैशे. षिकैः स्वीक्रियते, अनर्थजन्यत्वेन तु स्मृतेरप्रामाण्येऽतीतानागतादिविषयस्यानुमानस्याप्य[नार्थजन्यत्वेनाप्रामाण्यं भवेत् , त्रिकालविषयं चानुमानं शब्दवदिष्यते, घूमेन हि वर्तमानोऽग्निरनुमीयते, मेघो. नत्या भविष्यति वृष्टिः, नदीपूरेण च सैव भूतेति, तदेवं धारावाहि. ज्ञानरनुमानेन च स्मृतेः सादृश्ये सत्यपि यत् स्मृतेरप्रामाण्यं धारावाहिज्ञानादीनां च प्रामाण्यमिष्यते, स पूर्वापरविरोधः । ईश्वरस्य सर्वार्थविषयं प्रत्यक्षं किं इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिरपेक्षमिष्यते आहो. For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वित् इन्द्रियार्थसंन्निकर्षोत्पन्नं ? यदीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिरपेक्षं तदे. न्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमित्यत्र सूत्रे सन्निकर्षोपादानं निरर्थकं भवेत् , ईश्वरप्रत्यक्षस्य सन्निकर्ष विनाऽपि भावात् , अथेश्वरप्रत्यक्षमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमेवाभिप्रेयेत इति चेत् , उच्यते, तीश्वरसम्बन्धिमनसोऽणुपरिमाणत्वात् युगपत्सर्वार्थैः संयोगो न भवेत् , ततश्चैकमर्थं स यदा वेत्ति, तदा नापरान् सतोऽप्यर्थान् ततोऽमदादिवन्न तस्य कदाऽपि सर्वज्ञता, युगपत्सन्निकर्षासम्भवेन सर्वार्थानां क्रमेण संवेदनात् सर्वज्ञ इति चेन्न, बहुना कालेन सर्वार्थसंवेदनस्य खण्डपरशाविवास्मदादिष्वपि सम्भवात्सर्वेऽपि सर्वज्ञाः प्रसजेयुः, अपि च अतीतानागतानामर्थानां विनष्टानुत्पन्नत्वादेव मनसा सन्निकर्षो न भवेत् , सतामेव संयोगसम्भवात् , तेषां च तदानीमसत्त्वात् , ततः कथं महेश्वरस्य ज्ञानमतीतानागतार्थग्राहक स्यात् ! सर्वार्थग्राहकं च तद् ज्ञानमिष्यते ततः पूर्वापरविरोधः सुबोधः, एवं योगिनामपि सर्वार्थसंवेदनं दुरुद्धरविरोधरुद्धम[व] बोद्धव्यं, कार्यद्रव्ये प्रागुत्पन्ने सति तस्य रूपं पश्चादुत्पद्यते निराश्रयस्य रूपस्य गुणत्वात् प्रागनुपादानमिति पूर्वमुक्त्वा पश्चाच्च कार्यद्रव्ये विनष्टे सति तद्रूपं विनश्यतीत्युच्यमानं पूर्वापरविरुद्धं भवेत् , यतोऽत्र रूपं कार्ये विनष्टे सति निराश्रयं स्थितं सत् पश्चाद्विनश्येदिति ॥ [इति वैशेषिकनैयायिकमते विरोधाः ] सांख्यमते त्वेवं स्ववचनविरोध:प्रकृतिनित्यैका, निरवयवा, निष्क्रिया, अव्यक्ता चोच्यते, For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैवानित्यादिभिर्महदादिविकारैः परिणमते इति चाभिधीयते तच्च पूर्वापरतोऽसम्बद्धं, अथाध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वाच्चेतनाविषयपरिच्छेदरहितार्थत्वं न बुध्यते इत्येतत् सर्वलोकप्रतीतिविरुद्धं, बुद्धिर्महदाख्या जडा न किमपि चेतयते इत्यपि स्वपरप्रतीतिविरुद्धं, आकाशादिभूतपञ्चकं शब्दादितन्मात्रेभ्यः सूक्ष्मसंज्ञेभ्य उत्पन्नं यदुच्यते तदपि नित्यैकान्तवादे पूर्वापरविरुद्धं कथं श्रद्धेयं ! यथा पुरुषस्य कूटस्थनित्यत्वान्न विकृतिबंधमोक्षौ चाभ्युपगम्यन्ते परैस्ते नित्यत्वं च परस्परविरुद्धाः । [इति सांख्यमते विरोधाः] मीमांसकस्य पुनरेवं स्वमतविरोधः'न हिंस्यात् सर्वभूतानी 'ति [ छं. अ. ८. ] ' न वै हिंस्रो भवेदिति चाभिधाय 'महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्' [ याज्ञवल्क्यस्मृति-आचार १०९.] इति जल्पतो वेदस्य कथं न पूर्वापरविरोधः १ तथा न ' हिंस्यात् सर्वभूतानी'ति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तदागमे पठितमेवं-षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि। अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १॥ [ ] तथा 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेत' [ऐतरेयआरण्यक ६-१३.] 'सप्तदशप्राजापत्यान् पशूनालभेते' [ तैत्तिरीयसंहिता १-४. ]त्यादि वचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुसरन्ते, तथानृतभाषणं निषेध्य पश्चादूचे ब्राह्मणार्थमनृतं ब्रूयादित्यादि, तथा ' न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति, न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे, पंचा For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नृतान्याहुरपातकानि ' [वसिष्ठधर्मसूत्र १६-३६. ] तथा अदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तं “ यद्यपि ब्राह्मणो हठेन परकीयमा. दत्ते छलेन वा तथापि तस्य नादत्तादानं, यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तं, ब्राह्मणानां तु दौर्बल्यात् वृषलाः परिमुञ्जते । तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादत्ते, स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते, स्वं वस्ते, स्वं ददाती "ति, [ मनुस्मृति १-१०१] तथा ' अपुत्रस्य गति नास्ति' इति [ देवीभागवत ] लपित्वोक्तं ' अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणां दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ।। १ ॥ [ आपस्तंभसूत्रे ] तथा न च मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥ २ ॥ इति स्मृतिगते श्लोके [ मनु. ५-३६. ] यदि प्रवृत्तिनिर्दोषा तदा कथं ततो · निवृत्तिस्तु महाफले 'ति व्याहतमेव, वेदविहिता हिंसा धर्महेतुरित्यत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधः-तथाहि धर्महेतुश्चेद्धिसा कथं ! हिंसा चेद्धर्महेतुः कथं ! नहि भवति माता च वन्ध्या चेति, धर्मस्य च लक्षणमिदं श्रूयते--श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यतां । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ ३ ॥ इत्यादि [ चाणक्य १-७. ] अचिर्गिप्रपन्नैर्वेदांतवादिभिर्हिता चेयं-हिंसा,-अंधे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ ४ ॥ [ ] इति, तथा भवान्तरं प्राप्तानां तृप्तये च श्राद्धादिविधानं तदप्यविचारितरमणीयं, १ अग्निज्योतिरहशुक्लः षण्-उत्तरायणम् । तत्र प्रयातागच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदोजनाः ।। इति अर्चिर्गिः । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा च तद्यूथिनः पठन्ति---मृतानामपि जन्तूनां, श्राद्धं चेतृप्तिकारणं । तन्निर्वाणप्रदीपस्य, स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम् ॥५॥ इति [ इति मीमांसकमते विरोधाः ] एवमन्यान्यपि पुराणोक्तानि पूर्वापरविरुद्धानि सन्देहसमुच्चयाशास्त्रादत्रावतार्या वक्तव्यानि [ इति पुराणविरोधाः ] तथा नित्यपरोक्षवादिनो भट्टाः स्वात्मनि क्रियाविरोधात् ज्ञानं स्वाप्रकाशकमभ्युपगच्छन्तः प्रदीपस्य स्व परप्रकाशकमङ्गीकुर्वन्तश्च कथं सद्भूतार्थभाषिणः [ इति भट्टमतेविरोधाः ] तथा ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यक्षात् प्रतियन्तोऽपि न निषेधकं प्रत्यक्षमिति ब्रुवाणः कथं न विरुद्धवादिनोऽ. विद्यानिरासेन सन्मात्रस्य ग्रहणात् [इति अद्वैतवादे विरोधाः ] तथा पूर्वोत्तरमीमांसावादिनः कथमपि देवमनङ्गीकुर्वाणा अपि सर्वेऽपि ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादीन् देवान् पूजयन्तो ध्यायन्तो दृश्यन्ते तदपि पूर्वापरविरुद्धमित्यादि। ___अथवा ये ये बौद्धादिदर्शनेषु स्याद्वादाभ्युपगमाः प्राचीन लोकव्याख्यायां प्रदर्शिताः, ते सर्वेऽपि पूर्वापरविरुद्धतयाऽत्रापि सर्वदर्शने यथास्वं दर्शयितव्याः, यतो बौद्धादय उक्तप्रकारेण स्याद्वादं स्वीकुर्वन्तोऽपि तन्निरासाय च युक्तीः स्फोरयन्तः पूर्वापरविरुद्धवादिनः कथं न भवेयुः ? कियन्तो वादा भो जनाः ! कृत्स्ना विविच्यन्ते इत्युपरम्यते । For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चार्वाकस्तु वराक आत्मतदाश्रितधर्माधर्मनरकस्वर्गापवर्गा दिकं सर्वं कुप्रगहिलतयैवाप्रतिपद्यमानोऽवज्ञोपहत एव कर्तव्यो न पुनस्तं प्रत्यनेकान्ताभ्युपगमोपन्यासेन पूर्वापरोक्तविरोधप्रकाशनेन वा किमपि प्रयोजनं, सर्वस्य तदुक्तस्य सर्वलोकशास्त्रैः सह विरुद्धत्वात् , मूर्तेभ्यो भूतेभ्योऽमूर्तचैतन्योत्पादस्य विरुद्धत्वाद्भुतेभ्य उत्पद्यमानस्यान्यत आगच्छतो वा चैतन्यस्यादर्शनात् आत्मवचैतन्यस्यापि ऐन्द्रियकप्रत्यक्षाविषयत्वादित्यादि । तदेवं बौद्धादीनामन्येषां सर्वेषामागमाः तत्प्रणेतृणामसर्वज्ञत्वमेव साधयन्ति, न पुनः सर्वज्ञमूलता, पूर्वापरविरुद्धार्थवचनोपेतत्वात् , जैनमतं तु सर्वथा पूर्वापरविरुद्धाभावात् स्वस्य सर्वज्ञमूलतामेवावेदयतीति स्थितम् ॥ छ ।। इति अन्यमत-दूषणम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्ठ १ पदच्छेदः - १ कला० १ समग्र ० १ कुशलं ० २ संज्ञासु० २ वल्ली ० २ पुष्करं ० २] आवर्त० आदिपदम् २ अभ्रं० ३ अंहो ० ४ तिमिस्त्रं ४ भानुईस: ० शान्तिश्लोकटीकागतान्यवतरणानि ४ कल्प ४ योगोन्वयः ० ४ पंचैते ० ५ उपासने . ० ५ उपमोब० ५ जन्महरौ० ५ कमलंजलम् ० ५ निधिर्ना० रत्नाकरो० ५ यानपात्रे ० ५ समं० ६ संपत्ति ० ६ हेतुर्ना० ६ सतता ० ७ श्रेयो ७ शान्तिर्भदे० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थनाम [ विश्व. अमरकोश [ मेदिनी अमर 99 " () ** "1 " हैम: अभिः चिं० अमरकोश: 33 * अमरकोश: :: ,1 97 <) 13 " ] ] " मेदिनी हैम: For Private And Personal Use Only ग्रन्थकारनाम [ ] श्रीमहेश्वर अमर सिंह 39 [ 1 श्री मेदिनिकरः अमरसिंह 29 39 91 "} , पू. हेमचंद्राचार्य म० , अमरसिंह पू. हेमचंद्रसू. म. अमरसिंह 29 07 " 19 23 "} 79 19 13 श्रीमेदिनिकरः पू. हेमचंद्रसू. म. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७ पतीन्द्र ७ वाक्यं ८ संति० ९ महान्तम् ० ९ गन्धद्विस्य ९ ततश्च० ९ द्वादशे च० ९ बभूवाso १० यः परमात्मा ० ११ प्रायच्छंस्तत्र ० ११ स्वादुमद्यनि ० ११ तेनु स्तूय ङिगा ० १९ विचित्राणि० ११ यथेच्छ ० ११ अमानेच्छ० ११ संसारसागर ११ काव्यं ० १२ वस्तुवा० १२ स्फुटं० १२ रूपकं ० ७ वृत्त्यर्थाऽवबोधकं० ७ परार्थीभिधानं वृत्तिः ९ कृत्तर्धितसमासैक ० ९ अरसमे हा विरसमेहा • ९ बहुपयारे० १० तेण कालेनं० १२ मालिनी नौम्यौ १२ याष्टानुषय www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ अभिधानचि. साहित्यदर्पण सप्ततिस्थान शान्तिचरित्र 31 ". "" 39 वीतरागस्तोत्र त्रिषष्टिशलाका [ [ " 97 "" 19 :9 कल्याणमंदिर साहित्यदर्पण " 17 वाग्भट्टालंकार 39 जंबू " "3 पिंगल पिंगल ] ] पू. हेमचंद्रसू. म. विश्वनाथ पू. सोमतिलकसूरि म. पू. अजितप्रभसू. म. For Private And Personal Use Only "3 " [ [ " او पू. हेमचंद्रसू म. "" ," " "" "" पू. सिद्धसेन दिवाकर विश्वनाथ "" " वाग्भट्ट 19 स्थविर "1 1 1 17 पातंजल ܕ ܽ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीलब्धिसूरीश्वर जैनग्रन्थमाला प्रकाशित विक्रेग्य-ग्रन्थसूची --- - - जैनव्रतविधिसंग्रह 7-8-0 ভীমখীৰাতি 0-12-0 तत्वन्यायविभाकरः (मूलः) 0-8-0 चैत्यवन्दनचतुर्विंशतिः 0-2-0 कविकुलकिरीट (1 भाग) 0-8-0 मूर्तिमंडन (गुजराती) 0-4-0 आरम्भसिद्धिः सटीका 2-8-0 तत्त्वन्यायविभाकरः (सटीकः) 5-0-0 सम्मतितत्वसोपानम् 5-0-0. सूत्रार्थमुक्तावली 5-0-0 आत्मानन्दस्तवनावली 0-1-0 द्वादशारनयचक्रम् (1 भाग) प्रगतिनी दिशा २-०नूतनस्तवनावली 4-0.00 श्राद्धविधि (गुजराती) 5-0-0 द्वादशारनयचक्रम् (2 भाग) ६-०भगवतीजीनां व्याख्यानो (1 भाग) 3-0-0 कविकुलकिरीट (2 भाग) 2-0-0 सिद्धहैम-मध्यमवृत्तिः (1 भाग) 6--- भगवतीजीनां व्याख्यानो (2 भाग) 3-0-0 For Private And Personal Use Only