Book Title: Sarvagnyavada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञबाद लोक और शास्त्रमें सर्वज्ञ शब्दका उपयोग, योगसिद्ध विशिष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान के सम्भव में विद्वानों और साधारण लोगोंकी श्रद्धा, जुदे जुदे दार्शनिकों के द्वारा अपने-अपने मन्तव्यानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट ज्ञानरूप अर्धमें सर्वज्ञ जैसे पदोंको लागू करनेका प्रयत्न और सर्वज्ञरूप से माने जानेवाले किसी व्यक्तिके द्वारा ही मुख्यतया उपदेश किये गए धर्म या सिद्धान्तकी अनुगामियों में वास्तविक प्रतिष्ठा - इतनी बातें भगवान महावीर और बुद्ध के पहिले भी थींइसके प्रमाण मौजूद हैं । भगवान् महावीर और बुद्ध के समय से लेकर बाजतक के करीब ढाई हजार वर्ष के भारतीय साहित्य में तो सर्वज्ञत्व के अस्ति नास्तिपक्षोंकी, उसके विविध स्वरूप तथा समर्थक और विरोधी युक्तिवादोंकी, क्रमशः विकसित सूक्ष्म और सूक्ष्मतर स्पष्ट एवं मनोरंजक चर्चाएँ पाई जाती हैं । सर्वज्ञत्व के नास्तिपक्षकार मुख्यतया तीन हैं— चार्वाक, अज्ञानवादी और पूर्वमीमांसक । उसके स्तिपक्षकार तो अनेक दर्शन हैं, जिनमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन मुख्य हैं । चार्वाक इन्द्रियम्य भौतिक लोकमात्र को मानता है इसलिये उसके मत में अतीन्द्रिय आत्मा तथा उसकी शक्तिरूप सर्वज्ञत्य आदि के लिये कोई स्थान ही नहीं है | अज्ञानवादीका अभिप्राय आधुनिक वैज्ञानिकोंकी तरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञानकी भी एक अन्तिम सीमा होती है । ज्ञान कितना ही उच्च कक्षाका क्यों न हो पर वह त्रैकालिक सभी स्थूल सूक्ष्म भावोंको पूर्ण रूपसे जाननेमें स्वभावसे ही असमर्थ है । अर्थात् अन्तमें कुछ न कुछ अज्ञेय रह ही जाता है । क्योंकि ज्ञानकी शक्ति ही स्वभावसे परिमित है । वेदवादी पूर्वमीमांसक आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक आदि श्रतीन्द्रिय पदार्थ मानता है । किसी प्रकारका अतीन्द्रिय ज्ञान होनेमें भी उसे कोई आपत्ति नहीं फिर भी वह पौरुषेयवेदवादी होने के कारण वेदके अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भा प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञानको मान नहीं सकता । इसी एकमात्र अभिप्राय से उसने ' १. 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितुम्, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्' १. १. २ । 'नानेन वचनेनेह सर्वज्ञत्वनिराक्रिया | वचनादृत इत्येवमपवादो हि - शावरभा● Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद-निरपेक्ष साक्षात् धर्मश या सर्वज्ञके अस्तित्वका विरोध किया है। वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थ जाननेवालेका निषेध नहीं किया । ___ बौद्ध और जैन दर्शनसम्मत साक्षात् धर्मशवाद या साक्षात् सर्वज्ञवादसे वेदके अपौरुषेयत्वका केवल निरास ही अभिप्रेत नहीं है बल्कि उसके द्वारा वेदों में अप्रामाण्य बतलाकर वेदभिन्न भागमोंका प्रामाण्य स्थापित करना भी अभिप्रेत है । इसके विरुद्ध जो न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन सर्वज्ञवादी हैं उनका तात्पर्य सर्वज्ञवादके द्वारा वेदके अपौरुषेयत्ववादका निरास करना अवश्य है, पर साथ ही उसी वादके द्वारा वेदका पौरुषेयख बतलाकर उसीका प्रामाण्यस्थापन करना भी है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वरके शानको नित्य-उत्पादविनाशरहित और पूर्णकालिक सूक्ष्म-स्थूल समन भावोंको युगपत् जानने. वाला-मानकर तद्द्वारा उसे सर्वज्ञ मानते हैं। ईश्वरभिन्न अात्माश्रोंमें वे सर्वजत्व मानते हैं सही, पर सभी प्रास्मात्रोंमें नहीं किन्तु योगी श्रात्माओंमें । योगियों में भी सभी योगियोंको वे सर्वज्ञ नहीं मानते किन्तु जिन्होंने योग द्वारा वैसा सामर्थ्य प्राप्त किया हो सिर्फ उन्हींको । न्याय-वैशेषिक मतानुसार यह संश्रितः ॥ यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात् सर्वशः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वशो येन कल्प्यते ॥ नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।' श्लोकवा. चोद० श्लो० ११०-२। 'धर्मशत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥' तत्वसं. का. ३१२८। यह श्लोक तखसंग्रह में कुमारिलका कहा गया है। -पृ.८४४ । १. 'न च बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद्विरोधः । दृष्टा हि गुणानामाश्रयभेदेन द्वयी गतिः नित्यता अनित्यता च तथा बुद्ध्यादीनामपि भविष्यतीति। --कन्दली पृ०६०। 'एतादृशानुमितौ लाघवज्ञानसहकारेण ज्ञाने. च्छाकृतिषु नित्यवमेकस्वं च भासते इति नित्यैकत्वसिद्धिः ।' -दिनकरी पृ. २६ । २. वै. सू०६. १. ११-१३ । 'अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसन्निकर्षायोगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते ।' -प्रश• पृ. १८७ । वै. सू०६. १. ११-१३ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ नियम नहीं कि सभी योगियोंको वैसा सामर्थ्य अवश्य प्राप्त हो। इस मतमें जैसे मोक्षके वास्ते सर्वज्ञत्वप्राप्ति अनिवार्य शर्त नहीं है वैसे यह भी सिद्धान्त' है कि मोक्षप्राप्ति के बाद सर्वज्ञ योगियोंकी श्रात्मामें भी पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता, क्योंकि वह ज्ञान ईश्वरज्ञानकी तरह नित्य नहीं पर योगजन्य होनेसे अनित्य है । सांख्य, योग और वेदान्त दर्शनसम्मत सर्वज्ञत्वका स्वरूप वैसा ही है जैसा न्यायवैशेषिकसम्मत सर्वज्ञत्वका । यद्यपि योगदर्शन न्याय-वैशेषिककी तरह ईश्वर मानता है यथापि वह न्याय- -वैशेषिककी तरह चेतन श्रात्मा में सर्वज्ञस्वका समर्थन न कर सकनेके कारण विशिष्ट बुद्धितव में ही ईश्वरीय सर्वशस्वका समर्थन कर पाता है । सांख्य, योग और वेदान्त में बौद्धिक सर्वज्ञत्वकी प्राप्ति भी मोके वास्ते अनिवार्य वस्तु नहीं है, जैसा कि जैन दर्शनमें माना जाता है । किन्तु न्यायवैशेषिक दर्शनकी तरह वह एक योगविभूति मात्र होनेसे किसी-किसी साधकको होती है । सर्वज्ञबादसे संबन्ध रखनेवाले हजारों वर्षके भारतीय दर्शन शास्त्र देखनेपर भी यह पता स्पष्टरूपसे नहीं चलता कि अमुक दर्शन ही सर्वज्ञवादका प्रस्थापक है । यह भी निश्चयरूपसे कहना कठिन है कि सर्वज्ञत्वकी चर्चा शुद्ध तस्व चिन्तनमें से फलित हुई है, या साम्प्रदायिक भावसे धार्मिक खण्डन- मण्डनमें से फलित हुई है ? यह भी सप्रमाण बतलाना सम्भव नहीं कि ईश्वर, ब्रह्मा आदि दिव्य आत्माओं में माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचारसे मानुषिक सर्वज्ञत्वका विचार प्रस्तुत हुआ, या बुद्ध - महावीरसदृश मनुष्यमें माने जानेवाले सर्वज्ञस्वके १. ' तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्गः प्रकीर्तितः ॥ ' -न्यायम० पृ० ५०८ | २. 'तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥' ३. 'निर्धूतरजस्त मोमलस्य बुद्धि सस्वस्य परे वैशारये परस्यां वशीकारसंज्ञायां वर्त्तमानस्य सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्ररूपप्रतिष्ठस्य .... सर्वज्ञातृत्वम्, सर्वात्मनां गुणानां शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मस्वेन व्यवस्थितानामक्रमोपारूढं विवेकजं ज्ञान - मिथ्यर्थ: । ' - योगभा० ३. ४६ । - योगसू० ३ ५४ । ४. ' प्राप्त विवेकजज्ञानस्य श्रप्राप्तविवेकजज्ञानस्य वा सखपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।' –योगसू० ३ ५५ / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार-आन्दोलनसे ईश्वर, ब्रह्मा आदिमें सर्वशत्वका समर्थन किया जाने लगा, या देव-मनुष्य उभयमें सर्वज्ञत्व माने जाने का विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूपसे प्रचलित हुश्रा ? यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूपसे इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायोंके खण्डन-मण्डनमेंसे फलित हुई है और पीछेसे उसने तत्वज्ञानका रूप धारण करके तात्विक चिन्तनमें भी स्थान पाया है । और वह तटस्थ तत्त्वचिन्तकोंका विचारणीय विषय बन गई है। क्योंकि मीमांसक जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शनके सर्वशत्व संबन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनोंके सर्वज्ञत्व संबन्धी स्वीकारका एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि येदका प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य-सर्वशत्ववादी दर्शनोंका एक यही उद्देश्य है कि परम्परासे माने जानेवाले वेदप्रामाण्यके स्थान में इतर शास्त्रोंका प्रामाण्य स्थापित करना और वेदोंका अप्रामाण्य । जब कि वेदका प्रामाण्य-अप्रामाण्य ही असर्वशवाद, देव-सर्वज्ञ - वाद और मनुष्य-सर्वशवाद की चर्चा और उसकी दलीलोंका एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदायको इस तस्वचर्चाका उत्थानबीज मानने में सन्देहको कम से कम अवकाश है। ____ मीमांसकधुरीण कुमारिलने धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंका निराकरण बड़े श्रावेश और युक्तिवादसे किया है ( मीमांसाश्लो. सू० २. श्लो० ११० से १४३) वैसे ही बौद्धप्रवर शान्तरक्षितने उसका जवाब उक्त दोनों बादोंके समर्थनके द्वारा बड़ी गम्भीरता और स्पष्टतासे दिया है । तत्त्वसं० पृ०८४६ से ) इसलिए यहाँपर एक ऐतिहासिक प्रश्न होता है कि क्या धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वाद अलग-अलग सम्प्रदायोंमें अपने-अपने युक्तिबलपर स्थिर होंगे, या किसी एक वादमेंसे दूसरे वादका जन्म हुआ है ? अभीतकके चिन्तनसे यह जान पड़ता है कि धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंकी परम्परा मूलमें अलग-अलग ही है । बौद्ध सम्प्रदाय धर्मशवादको परम्पराका अवलम्बी खास रहा होगा क्योंकि खुद बुद्धने ( मज्झिम० चूल-मालुंक्यपुत्तसुत्त २.१) अपनेको सर्वज्ञ उसी अर्थ में कहा है जिस अर्थमें धर्मज्ञ या मार्गज्ञ शब्दका प्रयोग होता है। बुद्ध के वास्ते धर्मशास्ता, धर्मदेशक आदि विशेषण पिटकग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं। 'धर्मकीर्तिने बुद्ध में सर्वज्ञत्वको अनुपयोगी बताकर केवल धर्मज्ञत्व ही स्थापित किया है, जब १. 'हेयोपादेयतस्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तस्वमिष्टं तु पश्यतु ।' -प्रमाणवा. २. ३२-३३। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कि शान्तरक्षितने प्रथम धर्मज्ञत्व सिद्धकर गौणरूप से सर्वज्ञस्त्रको भी स्वीकार किया है । daaraat परम्पराका अवलम्बी मुख्यतया जैन सम्प्रदाय ही जान पड़ता है क्योंकि जैनाचार्यों ने प्रथमसे ही अपने तीर्थकरों में सर्वज्ञत्वको माना और स्थापित किया है । ऐसा सम्भव है कि जब जैनोंके द्वारा प्रबल रूप से सर्वशत्व - की स्थापना और प्रतिष्ठा होने लगी तब बौद्धों के वास्ते बुद्ध में सर्वज्ञस्वका समर्थन करना भी अनिवार्य और आवश्यक हो गया । यही सबब है कि बौद्ध तार्किक ग्रन्थोंमें धर्मज्ञवादसमर्थन के बाद सर्वज्ञवादका समर्थन होने पर भी उसमें वह जोर और एकतानता नहीं है, जैसी कि जैन तार्किक ग्रन्थोंमें है। ३ मीमांसक ( श्लो० सू० २. श्लो० ११० - १४३, तवर्स० का० ३१२४ - ३२४६ पूर्वपक्ष ) का मानना है कि यागादिके प्रतिपादन और उसके द्वारा धर्माधर्मादिका, किसी पुरुषविशेष की अपेक्षा रखे बिना ही, स्वतन्त्र विधान करना यही वेदका कार्य है । इसी सिद्धान्तको स्थिर रखने के वास्ते कुमारिलने कहा है कि कोई भले ही धर्माधर्म-भिन्न अन्य १. 'स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञाऽपि प्रतीयते ॥ ' - तस्वसं० का० ३३०६ । 'मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापक हेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः शेषार्थपरिज्ञातृत्व - साधनमस्य तत् प्रासंगिकमन्यत्रापि भगवतो ज्ञान प्रवृत्तेः बाधकप्रमाणाभावात् साक्षादशेषार्थपरिज्ञानात् सर्वज्ञो भवन् न केनचिद् बाध्यते इति श्रतो न प्रेक्षावतां तत्प्रतिक्षेपो युक्तः ।' -तत्त्वसं० प० पृ० ८६३ | 2 २. ' से भगवं श्ररहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमरणुयासुररस लोगस्स पजाब जाणइ, तं० श्रागई गईं ठिहं चयणं उववायं भुक्तं पीयं कडं पडिसेवियं श्राविकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणभागे पासमाणे एवं च णं विहरह ।' आचा०. श्रु० २. चू० ३. पृ० ४२५ A. 'तं नस्थि जं न पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च' – श्राव० नि० गा० १२७ । भग० श० ६. उ० ३२ । 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । श्रनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ 'श्रसमी० [० का० ५ । ३. ‘यैः स्वेच्छ्रासर्वज्ञो वर्यते तन्मतेनाप्यसौ न विरुध्यते इत्यादर्शयन्नाह यद्यदित्यादि --- यद्यदिच्छति बोद्धुं वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीयावरणो ह्यसौ ॥' - तत्त्वसं० का० ३६२८ । मिलि० ३.६.२ । ६ * Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० " सब वस्तु साक्षात् जान सके पर धर्माधर्मको वेदनिरपेक्ष होकर कोई साक्षात् नहीं जान सकता चाहे वह जाननेवाला बुद्ध, जिन श्रादि जैसा मनुष्य योगी हो, चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु आदि जैसा देव हो, चाहे वह कपिल, प्रजापति श्रादि जैसा ऋषि या अवतारी हो । कुमारिलका कहना है कि सर्वत्र सर्वदा धर्ममर्यादा एक सी है, जो सदा सर्वत्र एकरूप वेद द्वारा विहित माननेपर ही सङ्गत हो सकती है । बुद्ध आदि व्यक्तियोंको धर्मके साक्षात् प्रतिपादक माननेपर वैसी मर्यादा सिद्ध हो नहीं सकती क्योंकि बुद्ध श्रादि उपदेशक कभी निर्वाण पानेपर नहीं भी रहते । जीवितदशामें भी वे सब क्षेत्रों में पहुँच नहीं सकते । सब धर्मोपदेशकों की एकवाक्यता भी सम्भव नहीं । इस तरह कुमारिल साक्षात् धर्मacant निशेध करके फिर सर्वज्ञत्वका भी सब में निषेध करते हैं । वह पुराणोक्त ब्रह्मादि देवों के सर्वशत्वका अर्थ भी, जैसा उपनिषदों में देखा जाता है, केवल श्रात्मज्ञान र परक करते हैं । बुद्ध, महावीर श्रादिके बारेमें कुमारिका यह भी कथन है कि वे वेदश ब्राह्मणजातिको धर्मोपदेश न करने और वेदविहीन मूर्ख शूद्र श्रादिको धर्मोपदेश करने के कारण वेदाभ्यासी एवं वेद १. 'नहि श्रतीन्द्रियार्थे वचनमन्तरेण अवगतिः सम्भवति, तदिदमुक्तम्श्रशक्यं हि तत् पुरुषेण ज्ञातुमृते वचनात् ' - शाबरभा० १.१.२ | श्लो० न्याय० पृ० ७६ । : २. 'कुड्यादिनिःसृतत्वाच्च नाश्वासो देशनासु नः । किन्नु बुद्धप्रणीताः स्युः किमु कैश्चिद् दुरात्मभिः । श्रदृश्यैः विप्रलम्भार्थ पिशाचादिभिरीरिताः । एवं यैः केवलं ज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ॥ ' - श्लोकवा० सू० २ श्लो० १३६-४१ । 'यत्तु वेदवादिभिरेव कैश्चिदुक्तम्- नित्य एवाऽयं वेदः प्रजापतेः प्रथममार्षज्ञानेनावबुद्धो भवतीति तदपि सर्वज्ञवदेव निराकार्यमित्याह - नित्येति' - श्लो० न्याय० सू० २. १४३ । “अथापि वेददेहत्वात् ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । सर्वज्ञानमयाद्वेदात्सार्वश्यं मानुषस्य किम् ॥ ' - तवसं ० का ० ३२०८, ३२१३–१४ । ३. 'ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यमिति योपि दशाव्ययः । शङ्करः श्रूयते सोऽपि ज्ञानवानात्मवित्तया ॥ ' - तत्वसं ० का ० ३२०६ । ४. ' शाक्यादिवचनानि तु कतिपयद मदानादिवचनवर्जे सर्वाण्येव समस्त - चतुर्दशविद्यास्थानविरुद्धानि त्रयीमार्गव्यु स्थितविरुद्धाचरणैथ बुद्धादिभिः प्रणीतानि । त्रयीबाह्येभ्यश्चतुर्थवर्णनिरवसितप्रायेभ्यो व्यामूढेभ्यः समर्पितानीति न वेदमूलत्वेन संभाव्यन्ते । तन्त्रवा० पृ० ११६ । तस्वसं० का ० ३२२६-२७ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ द्वारा धर्मज्ञ भी नहीं थे । बुद्ध, महावीर श्रादिमें सर्वज्ञत्वनिषेधकी एक प्रचल युक्ति कुमारिलने यह दी है कि परस्परविरुद्धभाषी बुद्ध, महावीर, कपिल श्राहि मेंसे किसे सर्व माना जाय और किसे न माना जाय १ श्रतएव उनमें से कोई सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि वे सर्वज्ञ होते तो सभी वेदवत् श्रविरुद्ध भाषी होते, इत्यादि । शान्तरक्षितने कुमारिल तथा अन्य सामट, यज्ञट श्रादि मीमांसकोंकी दलीलोंका बड़ी सूक्ष्मता से सविस्तर खण्डन ( तत्त्वसं० का ० ३२६३ से ) करते हुए कहा है कि - वेद स्वयं ही भ्रान्त एवं हिंसादि दोषयुक्त होनेसे धर्मविधायक हो नहीं सकता । फिर उसका आश्रय लेकर उपदेश देनेमें क्या विशेषता है ? बुद्ध ने स्वयं ही स्वानुभव से अनुकम्पाप्रेरित होकर अभ्युदय निःश्रेयससाधक धर्मं बतलाया है । मूर्ख शूद्र आदि को उपदेश देकर तो उसने अपनी करुणावृत्ति के द्वारा धार्मिकता ही प्रकट की है। वह मीमांसकों से पूछता है कि जिन्हें तुम ब्राह्मण कहते हो उनकी ब्राह्मणताका निश्चित प्रमाण क्या है ? | अतीतकाल बड़ा लम्बा है, स्त्रियोंका मन भी चपल है, इस दशा में कौन कह सकता है कि ब्राह्मण कहलानेवाली सन्तानके माता-पिता शुद्ध ही रहे हों और कभी किसी विजातीयताका मिश्रण हुश्रा न हो । शान्तरचित ने यह भी कह दिया कि सच्चे ब्राह्मण और श्रमण बुद्ध शासन के सिवाय अन्य किसी धर्ममें नहीं हैं का• ३३८६-६२ ) । अन्तमें शान्तरक्षितने महिले सामान्यरूपसे सर्वशत्वका सम्भव सिद्ध किया है, फिर उसे महावीर, कपिल आदिमें असम्भव · १. 'सर्वज्ञेषु च भूयःसु विरुद्धार्थोपदेशिषु । तुल्यहेतुषु सर्वेषु को नामैasar || सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा । अथोभावपि सर्वज्ञौ मतभेदः तयोः कथम् ॥' -तत्त्वसं ० का ० ३१४८ - ४६ ॥ २. 'करुणापरतन्त्रास्तु स्पष्टतत्त्वनिदर्शिनः । सर्वापवादनिःशङ्काश्चक्रुः सर्वत्र देशनाम् ॥ यथा यथा च मौर्यादिदोषदुष्टो भवेजनः । तथा तथव मायानां दया तेषु प्रवर्तते ॥ ' - तस्वसं ० का ० ३५७१-२ । ३. 'अतितश्च महान् कालो योषितां चातिचापलम् । तद्भवत्यपि निश्चेतु ब्राह्मणत्वं न शक्यते ॥ अतीन्द्रियपदार्थज्ञो नहि कश्चित् समस्ति वः । तदन्वयविशुद्धि च नित्यो वेदोपि नोक्तवान् ॥ ' - तरवसं ० का ० ३५७६.८० । ४. 'ये च वाहितपापत्वाद् ब्राह्मणाः पारमार्थिकाः । श्रभ्यस्तामल नैरात्म्यास्ते मुनेरेव शासने || इहैव श्रमणस्तेन चतुर्द्धा परिकीर्त्यते । शून्याः परप्रवादा हि भ्रमणैर्ब्राह्मणैस्तथा ॥ '-- तत्त्वसं ० का ० ३५८६-६० । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ बतलाकर केवल बुद्ध में ही सिद्ध किया है। इस विचारसरणीमें शान्तरक्षितकी मुख्य युक्ति यह है कि चित्त स्वयं ही प्रभास्वर अतएव स्वभावसे प्रशाशील है । क्लेशावरण, ज्ञेयावरण श्रादि मल आगन्तुक हैं। नैरात्म्यदर्शन जो एक मात्र सत्यज्ञान है, उसके द्वारा श्रावरणोंका तय होकर भावनाबलसे अन्तमें स्थायी सर्वशताका लाभ होता है । ऐकान्तिक' क्षणिकत्वज्ञान, नैरात्म्य दर्शन आदिका अनेकान्तोपदेशी ऋषभ, वर्द्धमानादिमें तथा प्रात्मोपदेशक कपिलादिमें सम्भव नहीं श्रतएव उनमें आवरणक्षय द्वारा सर्वज्ञत्वका भी सम्भव नहीं। इस तरह सामान्य सर्वशत्वकी सिद्धि के द्वारा अन्तमें अन्य तीर्थङ्करोंमें सर्वज्ञत्वका असम्भव बतलाकर केवल सुगतमें ही उसका अस्तित्व सिद्ध किया है और उसीके शास्त्रको ग्राह्य बतलाया है। शान्तरक्षितकी तरह प्रत्येक सांख्य या जैन श्राचार्यका भी यही प्रयत्न रहा है कि सर्वशस्वका सम्भव अवश्य है पर वे सभी अपने-अपने तीर्थङ्करों में ही सर्वशत्व स्थापित करते हुए अन्य तीर्थकरोंमें उसका नितान्त असम्भव बत. लाते हैं। - जैन श्राचार्योंकी भी यही दलील रही है कि अनेकान्त सिद्धान्त ही सत्य है । उसके यथावत् दर्शन और अाचरणके द्वारा ही सर्वशत्व लभ्य है | अनेकान्तका साक्षात्कार व उपदेश पूर्णरूपसे ऋषभ, वर्द्धमान श्रादिने ही किया अतएव वे ही सर्वज्ञ और उनके उपदिष्ट शास्त्र ही निर्दोष व ग्राह्य हैं। सिद्धसेन हों या समन्तभद्र, अकलङ्क हों या हेमचन्द्र सभी जैनाचार्योंने सर्वसिद्धि के प्रसङ्गमें वैसा ही युक्तिवाद अवलम्बित किया है जैसा बौद्ध सांख्यादि प्राचार्यों १. 'प्रत्यक्षीकृतनैरात्म्ये न दोषो लभते स्थितिम् । तद्विरुद्धतया दीप्ते प्रदीपे तिमिरं यथा ॥'-तत्त्वसं० का० ३३३८ । ‘एवं क्लेशावरण प्रहाणं प्रसाध्य ज्ञेयावरणप्रहाणं प्रतिपादयन्नाह--साक्षाकृतिविशेषादिति-साक्षात्कृतिविशेषाच्च दोषो नास्ति सवासनः। सर्वज्ञत्वमतः सिद्धं सर्वावरणमुक्तितः ॥'तत्त्वसं. का० ३३३६ } 'प्रभास्वरमिदं चित्तं तत्त्वदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थितं यस्मात् मलास्त्वागन्तवो मताः ।'-तत्त्वसं० का० ३४३५ । प्रमाणवा० ३, २०८ । २. 'इदं च वर्द्धमानादे राम्यशानमीदृशम् । न समस्त्यात्मदृष्टौ हि विनष्टाः सर्वतीथिकाः ।। स्याद्वादाक्षणिकस्या(त्वा)दि प्रत्यक्षादिप्रबो(बा)धितम् । बहेवा. युक्तमुक्तं यैः स्युः सर्वशाः कथं नु ते ॥'-~-तत्त्वसं. ३३२५.२६ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 ने / अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसीने नैरात्म्यदर्शनको तो किसीने पुरुष. प्रकृति अादि तत्त्वोंके साक्षात्कारको, किसीने द्रव्य-गुणादि छः पदार्थके तस्वज्ञानको तो किसी ने केवल श्रात्मज्ञानको यथार्थ कहकर उसके द्वारा अपने-अपने मुख्य प्रवर्तक तीर्थङ्करमें ही सर्वज्ञत्व सिद्ध किया है, जब जैनाचार्योंने अनेकान्तवादकी यथार्थता दिखाकर इसके द्वारा भगवान् ऋषभ, वर्द्धमान आदिमें ही सर्वशत्व स्थापित किया है। जो कुछ हो, इतना साम्प्रदायिक भेद रहनेपर भी सभी सर्वज्ञवादी दर्शनोंका, सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञान और तमन्य क्लेशोंका नाश और तद्द्वारा ज्ञानावरणके सर्वथा नाशकी शक्यता श्रादि तात्त्विक विचारमें कोई मतभेद नहीं / ई. 1636] [प्रमाण मीमांसा 1. 'अद्वितीयं शिवद्वारं कुदृष्टीनां भयंकरम् / विनेयेभ्यो हितायोक्तं नैरात्म्म तेन तु स्फुटम् ॥'-तत्त्वसं० का० 3322 / 2. 'एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् / अविपर्ययाद्विशुद्ध केवलमुत्पद्यते शानम् ॥'-सांख्यका 14 / 3. 'धर्मविशेषप्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधयंवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्'-वै० सू० 1. 1. 4 / 4. 'श्रात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन भत्या विशानेन इदं सर्व विदितम्।' -बृहदा० 2. 4.5 / 5. 'त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् / प्राप्ताभिमानदग्धानां स्पेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥'-श्राप्तमी० का.७ / प्रयोग. का. 28 /