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________________ 133 ने / अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसीने नैरात्म्यदर्शनको तो किसीने पुरुष. प्रकृति अादि तत्त्वोंके साक्षात्कारको, किसीने द्रव्य-गुणादि छः पदार्थके तस्वज्ञानको तो किसी ने केवल श्रात्मज्ञानको यथार्थ कहकर उसके द्वारा अपने-अपने मुख्य प्रवर्तक तीर्थङ्करमें ही सर्वज्ञत्व सिद्ध किया है, जब जैनाचार्योंने अनेकान्तवादकी यथार्थता दिखाकर इसके द्वारा भगवान् ऋषभ, वर्द्धमान आदिमें ही सर्वशत्व स्थापित किया है। जो कुछ हो, इतना साम्प्रदायिक भेद रहनेपर भी सभी सर्वज्ञवादी दर्शनोंका, सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञान और तमन्य क्लेशोंका नाश और तद्द्वारा ज्ञानावरणके सर्वथा नाशकी शक्यता श्रादि तात्त्विक विचारमें कोई मतभेद नहीं / ई. 1636] [प्रमाण मीमांसा 1. 'अद्वितीयं शिवद्वारं कुदृष्टीनां भयंकरम् / विनेयेभ्यो हितायोक्तं नैरात्म्म तेन तु स्फुटम् ॥'-तत्त्वसं० का० 3322 / 2. 'एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् / अविपर्ययाद्विशुद्ध केवलमुत्पद्यते शानम् ॥'-सांख्यका 14 / 3. 'धर्मविशेषप्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधयंवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्'-वै० सू० 1. 1. 4 / 4. 'श्रात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन भत्या विशानेन इदं सर्व विदितम्।' -बृहदा० 2. 4.5 / 5. 'त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् / प्राप्ताभिमानदग्धानां स्पेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥'-श्राप्तमी० का.७ / प्रयोग. का. 28 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229019
Book TitleSarvagnyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size95 KB
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