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________________ विचार-आन्दोलनसे ईश्वर, ब्रह्मा आदिमें सर्वशत्वका समर्थन किया जाने लगा, या देव-मनुष्य उभयमें सर्वज्ञत्व माने जाने का विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूपसे प्रचलित हुश्रा ? यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूपसे इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायोंके खण्डन-मण्डनमेंसे फलित हुई है और पीछेसे उसने तत्वज्ञानका रूप धारण करके तात्विक चिन्तनमें भी स्थान पाया है । और वह तटस्थ तत्त्वचिन्तकोंका विचारणीय विषय बन गई है। क्योंकि मीमांसक जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शनके सर्वशत्व संबन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनोंके सर्वज्ञत्व संबन्धी स्वीकारका एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि येदका प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य-सर्वशत्ववादी दर्शनोंका एक यही उद्देश्य है कि परम्परासे माने जानेवाले वेदप्रामाण्यके स्थान में इतर शास्त्रोंका प्रामाण्य स्थापित करना और वेदोंका अप्रामाण्य । जब कि वेदका प्रामाण्य-अप्रामाण्य ही असर्वशवाद, देव-सर्वज्ञ - वाद और मनुष्य-सर्वशवाद की चर्चा और उसकी दलीलोंका एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदायको इस तस्वचर्चाका उत्थानबीज मानने में सन्देहको कम से कम अवकाश है। ____ मीमांसकधुरीण कुमारिलने धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंका निराकरण बड़े श्रावेश और युक्तिवादसे किया है ( मीमांसाश्लो. सू० २. श्लो० ११० से १४३) वैसे ही बौद्धप्रवर शान्तरक्षितने उसका जवाब उक्त दोनों बादोंके समर्थनके द्वारा बड़ी गम्भीरता और स्पष्टतासे दिया है । तत्त्वसं० पृ०८४६ से ) इसलिए यहाँपर एक ऐतिहासिक प्रश्न होता है कि क्या धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वाद अलग-अलग सम्प्रदायोंमें अपने-अपने युक्तिबलपर स्थिर होंगे, या किसी एक वादमेंसे दूसरे वादका जन्म हुआ है ? अभीतकके चिन्तनसे यह जान पड़ता है कि धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादोंकी परम्परा मूलमें अलग-अलग ही है । बौद्ध सम्प्रदाय धर्मशवादको परम्पराका अवलम्बी खास रहा होगा क्योंकि खुद बुद्धने ( मज्झिम० चूल-मालुंक्यपुत्तसुत्त २.१) अपनेको सर्वज्ञ उसी अर्थ में कहा है जिस अर्थमें धर्मज्ञ या मार्गज्ञ शब्दका प्रयोग होता है। बुद्ध के वास्ते धर्मशास्ता, धर्मदेशक आदि विशेषण पिटकग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं। 'धर्मकीर्तिने बुद्ध में सर्वज्ञत्वको अनुपयोगी बताकर केवल धर्मज्ञत्व ही स्थापित किया है, जब १. 'हेयोपादेयतस्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तस्वमिष्टं तु पश्यतु ।' -प्रमाणवा. २. ३२-३३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229019
Book TitleSarvagnyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size95 KB
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