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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग
रमेश मुनि शास्त्री [उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी के शिष्य]
जैन साधना बहु आयामी है, उसकी गति वीतरागता की ओर है। भौतिक सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का जीवन में कोई मूल्य-महत्त्व यहाँ स्वीकार नहीं किया गया। जो यह मानता है कि मैं सम्पन्न-विपन्न हूँ, साक्षर-निरक्षर हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूँ, सुखी-दुःखी हूँ. राजारंक हूँ, वह जैन धर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है, उसे अपने अस्तित्व की यथार्थता का परिबोध नहीं है; वह मोहासक्त है, मिथ्यात्व में जीता है । वह व्यामोह की महावारुणी पिये हुए है। उसे जब गुरु-प्रसाद से अपने अस्तित्व का अपने जीवन के मूल्य का परिज्ञान होता है और संसार की असारता का दर्शन खुली आँखों से करता है तो वह इन सभी से विरक्त होकर अन्तर्मुख हो जाता है । तब उसे समूचा बाहरी वैभव छलावा लगने लगता है, बाह्य सौन्दर्य में उसे विरूपता दिखाई देने लगती है। वह सर्व ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है । तब वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। भेदविज्ञान उस में जाग उठता है और वह स्वयं अपने लिए दीपक बन जाता है। वह अपने में से कर्तृत्व-भाव को समाप्त कर देता हैं और अपनी प्रान्तरिक क्षमताओं की अनुद्घाटित परतों को उद्घाटित करता है।
यह ध्र व सत्य है कि साधना अध्यात्मक्षेत्र की चरम और परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करने का एक महामन्त्र है। उसका क्षेत्र-विस्तार अनन्त आकाश की भांति असीम है। अध्यात्म-साधना के अगाध-अपार महासागर में जीवन भर अवगाहन करने पर भी अन्ततः लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी संस्पर्श नहीं हया है। निष्कर्ष यह है कि जैन साधना की असीमता को ससीम शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता ! तथापि उसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि अध्यात्म-साधना का अभिनव-अभियान विनाश की अोर नहीं, विकास की ओर है, पतन की ओर नहीं, उत्थान की ओर है, अवरोहण की ओर नहीं, प्रारोहण की ओर है जो साधना-मानव को अन्तर्दर्शन की सप्राण-प्रेरणा नहीं देती या अन्तर्दर्शन नहीं कराती, वह साधना नहीं, अपितु विराधना है।
"आवश्यक" जैन साधना का प्राणतत्त्व है। वह जीवन विशुद्धि और दोष परिमार्जन का ज्वलन्त-जीवन्त महाभाष्य है। आत्मा को निरखने एवं परखने का एक सर्वथा सफल साधन हैं । आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप अध्यात्मज्योति का विकास पावश्यक क्रिया के बिना कथमपि नहीं हो सकता । अत: जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही अावश्यक अध्यात्मसाधनारूप है।
आवश्यक परिभाषा
जो अवश्य किया जाए, वह प्रावश्यक है।' श्रमण और श्रावक दोनों ही दिन मौर रात्रि
१. अवश्यकरणाद् आवश्यकम् ।
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २७७
के अन्त में सामायिक प्रादि साधना करते हैं । अतः वह साधना आवश्यकपदवाच्य है । प्राकृत भाषा में आधार पद वाचक ''पापाश्रय' शब्द 'श्रावस्सय' कहलाता है । जो सद्गुणों की प्राधारभूमि हो, वह प्रावस्सय-पापाश्रय है । अावश्यक प्राध्यात्मिक समता, विनम्रता, आत्मनिरीक्षण आदि विविध गुणों का प्राधार है। इसलिए वह 'आपाश्रय' भी कहलाता है। जो आत्मा को दुर्गणों से हटाकर गुणों के वश्य-प्राधीन करे वह आवश्यक है। प्रा+वश्य = आवश्यक । गुणों से शून्य प्रात्मा को जो सद्गुणों से सर्वतः वासित करे, वह आवश्यक कहलाता है। आवस्सय का एक संस्कृत रूपान्तर पावासक भी होता है। उसका अर्थ है अनुरंजन करने वाला जो प्रात्मा का ज्ञान, दर्शन प्रादि गुणों से अनुरंजन करे, वह प्रावासक है। इस सन्दर्भ में मेरा विनम्र मन्तव्य है कि जो साधक विक्षेप-विकल्प, वैभव-विलास, विषय-कषाय, ललक-लालसा, ममता-तवता आदि के वश में न हो व उनसे अभिभूत न हो, वह अवश कहलाता है, उस अवश का जो आचरण है, वह अावश्यक है।
आवश्यक के छह प्रकार हैं१. सामायिक-समता प्रधान साधना। २. चतुर्विंशतिस्तव-तीर्थंकर देव के गुणों का उत्कीर्तन । ३. वन्दन -सद्गुरुपों को श्रद्धापूर्वक नमस्कार । ४. प्रतिक्रमण-दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- शरीर के ममत्व का त्याग । ६. प्रत्याख्यान-आहार आदि की प्रासक्ति का त्याग ।
साधक के लिए सर्वप्रथम समभाव का पालन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। समता को अपनाये बिना सद्गुणों का विकास होना कथमपि संभव नहीं है। जब तक विषम भावों की ज्वालाएँ साधक के अन्तर्मानस में धधकती रहेंगी तब तक वह तीर्थंकर महापुरुषों के सद्गुणों का समुत्कीर्तन नहीं कर सकता। अतएव षडावश्यक में प्रथम आवश्यक सामायिक है। सामायिक का आराधक-साधक ही महापुरुषों के सद्गुणों को सम्माननीय और ग्रहणीय मानकर उन गुणों को अपने जीवन में उतार सकता है। अतः सामायिक के बाद चतुर्विशतिस्तव रखा गया है। सद्गुणों का महत्त्व हृदयस्थ कर लेने के बाद ही साधक गुणी के सन्मुख सिर झुकाता है, भक्तिविभोर हो कर वन्दन करता है । वन्दन करनेवाले साधक का अन्तर्मन विनम्र होता है, जो विनम्र है, वह सरलमना साधक ही कृतदोषों की आलोचना करता है। अतएव वन्दन के बाद ही प्रतिक्रमण आवश्यक का क्रम अाया है । दोषों का स्मरण कर उनसे मुक्ति पाने हेतु तन-मन की स्थिरता अत्यावश्यक है। कायोत्सर्ग अावश्यक-साधना में तन और मन
२. आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या आवस्सयं । ३. गुणानां वश्यमात्मानं करोति-इति । ४. गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयतीति अावासकम् । ५. गुणः पावसकं अनुरजकम्
सन्दर्भ १ से ५ तक की आधार-भूमि = विशेषावश्यक भाष्य गाथा-८७७ पौर ८७८ टीकाकार प्राचार्य कोटि
धम्मो दीवो संसार समुत्र में धर्म ही दीप
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चतुर्थखण्ड / २७८
की स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है, तन और मन की एकाग्रता की जाती है, अतः प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का क्रम है । जब तन और मन में स्थिरता होती है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। इस प्रकार श्रावश्यक की साधना के क्रम को सुन्दर रूप से रखा गया है। यह जो क्रम है, वह कार्यकारण भाव की शृङ्खला पर अवस्थित है और पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भी है।
आवश्यक की साधना अपने आप में गम्भीर और विस्तृत हैं । उसके समग्र अंगों का समायोजन एक निबन्ध में करना सरल नहीं है । फिर भी हम यहाँ समासतः प्रयास करेंगे कि कायोत्सर्ग प्रावश्यक की साधना का समग्र स्वरूप उजागर हो सके और प्रध्येता प्रस्तुत विषय को स्पष्ट रूप से समझ सके ।
कायोत्सर्ग : साधना
अध्यात्मसाधना का सर्वप्रथम चरण है— कायोत्सर्ग शरीर को स्थिर करना, उसकी चंचलता को समाप्त करना । काया की चंचलता समाप्त हो जाने की स्थिति में कायोत्सर्ग होता है । शरीर स्थिर होता है तब चेतना अपने घर में लौट आती है । जब चेतना अन्तर्जगत् को छोड़कर बहिर्जगत् में जाती है तब चंचलता पैदा होती है। जब शरीर चंचल हुआ, तब इन्द्रियचेतना बाहर जाती है, मन की चेतना बाहर जाती हैं। जैसे ही शरीर निश्चल प्रशान्त और सुस्थिर हुआ, इन्द्रियचेतना और मानसिक चेतना लौट पाती है। प्रतिक्रमण आवश्यक की साधना प्रारम्भ हो जाती है। चेतना का बहिर्जगत् में जाना अतिक्रमण है । और चेतना का अन्तर्जगत् अर्थात् अपने भीतर या जाना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण की क्रिया अर्थात् साधना अपने भाप प्रारम्भ होती है जब हम प्रतिक्रिया की स्थिति में पहुँच जाते हैं तभी हमारे अगले चरण कायोत्सर्ग की साधना के लिए अपने ग्राप आगे बढ़ जाते हैं जब कायोत्सर्ग सचन रूप में पहुँच जाता है, तब कायगुप्ति सघन बन जाती है, और जब कायगुप्ति सघन होती है तब काया का संयम विशेष रूप से गहरा होता है, काया का सर्वथा रूप से संवर होता है । इस स्थिति में काया बाहर से परमाणुओं का लेना बन्द कर देती है। निष्कर्ष यह है कि परमाणुओं का आना रुक जाता है, बन्द हो जाता है । अन्तर्जगत् का बहिर्जगत् के साथ जो सम्पर्क सूत्र था वह टूट जाता है । उस विशिष्ट भूमिका में कायोत्सर्ग की फलश्रुति भी हमारे सामने मूर्तिमान् हो जायेगी ।
कायोत्सर्ग वस्तुतः एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। वह पाप को विशोधन करता है। जिस प्रक्रिया से पाप की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है। कायोत्सर्ग की साधना में गम्भीर चिन्तन कर उस पाप को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है। संयमप्रधान जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिये, प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को माया, मिथ्यात्व श्रौर निदान शल्य से रहित बनाने के लिए पाप कर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग का अपर नाम "व्रणचिकित्सा " है।" पंच महाव्रत प्रादि रूप धर्म की प्राराधना करते समय
६. तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छितकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्वायणट्टाए ठामि काउस्सगं ।
-श्रावश्यकसूत्र
७. धनुयोगद्वारसूत्र
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २७९
प्रमादवश उसमें यदि कहीं अतिचार लग जाते हैं, भूलें हो जाती हैं, वे संयम रूप शरीर के घाव हैं, जख्म हैं । कायोत्सर्ग उन घावों के लिए मरहम का काम देता है। यह वह रामबाण औषध है, जो अति चार रूपी घावों को पूर देती है और संयम-शरीर को अक्षत बनाकर संपुष्ट करती है। जो उज्ज्वल-वस्त्र बहुत ही मलिन हो जाता है वह किस से साफ किया जाता है ? उसे किससे धोया जाता है ? पानी से ही धोया जाता है, साबुन लगाकर साफ किया जाता है। एक बार नहीं, प्रत्युत अनेक बार मल-मल कर धोया जाता है। ठीक इसी प्रकार संयमरूपी वस्त्र को जब अतिचारों का मल लग जाता है, भूलों के दाग लग जाते हैं तो अध्यात्म-साधक उन दागों को प्रतिक्रमण रूप जल द्वारा स्वच्छ करता है। फिर भी जो दाग नहीं मिटते, कुछ अशुद्धि का अंश रह जाता है उन्हें कायोत्सर्ग के उष्ण जल से दुबारा धोया जाता है, उन्हें निर्मल बनाया जाता है । निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग ऐसा जल है जो हमारे जीवन के मल के हर कण को गलाकर साफ करता है और संयम-जीवन को सम्यक् प्रकार से परम शुद्ध बना देता है। कायोत्सर्ग वास्तव में एक अपूर्व शक्ति है, जिसके द्वारा साधक प्रात्मा की शुद्धि करता है, गुणों की वृद्धि करता है । साधक निष्पाप हो जाता है। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य तथ्य है कि प्रायश्चित्त के अनेक रूप हैं, जैसा दोष होता है उसी के अनुपात में या उसी प्रकार का प्रायश्चित्त उस दोष की शुद्धि करता है। कायोत्सर्ग उन सब पाप कर्मों का प्रायश्चित्त है, कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा वे सब पापकर्म धुल-धुल कर साफ हो जाते हैं । फलतः, प्रात्मा निर्मल, निष्पाप और विशुद्ध हो जाता है।
भगवान् महावीर की स्पष्ट भाषा में पापकर्म भार के सदृश है । कल्पना के लोक में जरा उड़ान भरिये । मंजिल दूर है, महीना जेष्ठ है । मार्ग भी ऊँचा-नीचा है और मस्तक पर मन भर पत्थर का बोझ गर्दन की हर नस को तोड़ रहा है. यह एक विकट स्थिति है। इस विकट परिस्थिति में भार उतार देने पर उस व्यक्ति को अपार आनन्द का अनुभव होता है । यही दशा पाप-कर्मों के भार की भी है। कायोत्सर्ग के द्वारा इस भार को उतार दिया जाता है, उसे फेंक दिया जाता है। कायोत्सर्ग यह एक ऐसी विश्रामभूमि है, जहाँ पापों का भार हल्का हो जाता है। सब ओर प्रशस्त धर्म-ध्यान का सुनहरा-वातावरण बन जाता है । फलतः आत्मा अति स्वस्थ, निराकुल और प्रानन्दमय हो जाता है ।
कायोत्सर्ग एक यौगिक शब्द है । काय और उत्सर्ग इन दो शब्दों के योग से 'कायोत्सर्ग' शब्द की निष्पत्ति हुई है । तात्पर्य है-प्रतिक्रमण के पश्चात् साधक अमुक समय तक अपने शरीर की ममता का त्याग कर प्रात्मस्वरूप में लीन होता है। वह उस समय न संसार के पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, सब ओर से सिमट कर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक विशिष्ट साधना है। बहिर्मखी स्थिति से साधक जब अन्तर्मखी स्थिति में पहँच जाता है तो वह राग और द्वेष की गन्दगी से बहुत ऊपर उठ जाता है। अनासक्त और अनाकुल स्थिति का रसास्वादन करता है। शरीर तक की मोह-माया का परित्याग कर देता है। इस स्थिति में कोई भी उपसर्ग या जाए, विकट संकट आ जाए, वह उसे समभाव से सहन करता है। कायोत्सर्ग में जब साधक अवस्थित होता है तब सर्दी हो, ८. काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ । विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए
पोहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ।-उत्तराध्ययन सूत्र २९।१२।
धम्मो दीवो
संसार समय
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चतुर्थ खण्ड / २८० गर्मी हो, मच्छर हों, दंश हो, कैसे भी संकट हों, सब पीड़ाओं और व्यथानों का समभाव से सहन करना ही काय का त्याग है। कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है। कायोत्सर्ग का समुद्देश्य है- शरीर की ममता का त्याग करना। यह जीवन का मोह, यह शरीर की ममता साधना के लिए सब से बड़ी बाधा है । जीवन की आशा का पाश मनुष्य को अपने में उलझाए हुए है । पद-पद पर जीवन का भय भी साधना-मार्ग से पराङ मुख होने की स्थिति खड़ी कर देता है। यही कारण है कि इन सब बन्धनों से मुक्ति पाने का और सर्व दुःखों का अन्त करने का एकमात्र अमोघ उपाय "कायोत्सर्ग" है।' कायोत्सर्ग की साधना का साधक यह चिन्तन करता है कि यह शरीर पृथक् है और मैं पृथक हूँ। मैं अविनाशी तत्त्व हूँ, यह शरीर क्षणभंगुर है । कोई परवस्तु मेरी नहीं है । शरीरादि परवस्तुएँ जड़ हैं और मैं चेत । परवस्तु के साथ प्रात्मतत्त्व का संयोग और वियोग ही दुःख है। इन संयोगों के कारण ही आत्मा संसार-कानन में परिभ्रमण करता है । अतः साधक सोचता है कि मैं अकेला हूँ, एक हूँ इस संसार में मेरा कोई नहीं है। और मैं भी किसी का नहीं हैं।" ज्ञानदर्शन मेरा स्वरूप है। माता-पिता, पुत्र ये सभी मुझसे पृथक हैं। यहाँ तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, वह भी आत्मा से भिन्न है ।२ प्रात्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान होना, कायोत्सर्ग साधना का संलक्ष्य है। कायोत्सर्ग की साधना में न बोलना है, न हिलना है । साधक एक स्थान पर पत्थर की चट्टान के सदृश निश्चल एवं निःस्पन्द दण्डायमान खड़े रहकर अपलक दृष्टि से शरीर का ममत्व त्याग कर प्रात्मभाव में रमण करता है, कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाये या कोई द्वेषपूर्वक बसूले से उसके शरीर को छीले, चाहे उसका जीवन रहे या तत्क्षण मृत्यु प्रा जाए, सब स्थितियों में समचेतना रखता है । वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। जो कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यञ्च संबंधी सभी प्रकार के उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है, उसका कायोत्सर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है।'४ जिस प्रकार कायोत्सर्ग में निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने लगते हैं, दुःखने लगते हैं । प्रत्येक अंग में एक प्रकार की पीड़ा होती है । उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों ही कर्म-समूह को पीड़ित करते हैं । उन्हें विनष्ट कर डालते हैं ।' ५ कायोत्सर्ग में सब दुःखों और क्लेशों की जड़ ममता का शरीर से सम्बन्ध तोड देने के लिए साधक को यह सुदढ़
९. राजवार्तिक ९।१०।२६ १०. अमितगति द्वात्रिंशिका, श्लोक-२८ ११. प्राचारांग सूत्र १-८-६ १२. सूत्रकृतांग सूत्र १-२-२३ । १३. वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो ।
देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ।।
-आवश्यक नियुक्ति, गाथा १५४८ प्राचार्य भद्रबाहु १४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५४९, प्राचार्य भद्रबाहु १५. काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स, भज्जति अंगमंगाई। इह भिदंति सुविहिया अट्टविहं- कम्मसंघायं ।।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५१ ।।
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श्रीमती थावर बाई चण्डालिया को संथारा का स्वरूप एवं Mp महत्व समझाते हुए महासतीजी. खाचरौद सन्१९८६
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भी अर्चना जी को साज देने का वचन देते हुए.
भी थावर बाई
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८१
संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर और है, प्रात्मा और है। प्राचार्य भद्रबाह ने कायोत्सर्ग के साधकों के लिए जिन तथ्यों का उल्लेख किया है, उनका एकमात्र उद्देश्य साधक में क्षमता का दृढ़ बल पैदा करना है, जिससे साधक दृढता के साथ कायोत्सर्ग में लीन हो जाता है। पर उसका यह अर्थ नहीं है कि साधक मिथ्याग्रह के चक्कर में पड़कर अज्ञानतावश अपना जीवन ही होम दे । कुछ साधकों की मन:स्थिति दुर्बल भी होती है। भगवान् महावीर ने उनके लिए कुछ प्रागारों को प्रोर संकेत किया है। जैसे-खांसी, छींक, डकार, मूर्छा आदि विविध शारीरिक व्याधियों का भी प्रागार रक्खा जाता है। क्योंकि शरीर शरीर है और वह व्याधि का मन्दिर है। कायोत्सर्ग की साधना में समाधि की अभिवृद्धि हो, वह कायोत्सर्ग ही लाभप्रद है, हितावह है। किन्तु जिस कार्य को करने से असमाधि की वृद्धि होती है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान में परिणति होती है वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कायक्लेश मात्र है।
कायोत्सर्ग का अभिप्राय केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का निरोध कर वक्ष के समान, पर्वत के समान या सूखे काष्ठ के समान साधक निश्चल और निस्पन्द स्थिति में खड़ा हो जाए। शरीर से सम्बन्धित निष्पन्दता तो एकेन्द्रिय आदि जीवों में भी होती है । पर्वत पर कितना भी प्रहार करो, वह कब चंचल होता है ? वह किसी के प्रति भी रोष-पाक्रोश नहीं करता है। उसमें जो स्थैर्य है, वह अविकासशील-विवेकविकल प्राणी का स्थैर्य है। किन्तु कायोत्सर्ग में होने वाला स्थैर्य विवेकपूर्वक होता है।
तप के कुल बारह प्रकार हैं। १६व्युत्सर्ग तप का बारहवां भेद और प्राभ्यन्तर-तप का छठा प्रकार है । प्रस्तुत तप को तीन प्रकार से स्पष्ट किया गया है-१६
१. अहंकार और ममकार रूप संकल्पों का त्याग करना । २. कायोत्सर्ग आदि करना । ३. व्युत्सर्जन करना भी व्युत्सर्ग है, इसे त्याग भी कहा गया है ।
शरीर व उसके आहार में प्रवृत्ति को हटाकर ध्येय वस्तु में चित्त की एकाग्रता करना कर्मबन्ध के हेतुभूत बाह्य एवं प्राभ्यन्तर दोषों का भलीभाँति परित्याग करना व्युत्सर्ग है।२० व्युत्सर्ग शब्द "वि" और "उत्" उपसर्ग के संयोग से बना है। यहाँ "वि" अर्थ होता है
१६. आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५२ १७. आवश्यकसूत्र १८. (क) भगवतीसूत्र-२५।६
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन-३० (ग) मूलाचार-३४५ (घ) कातिकेयानुप्रेक्षा-१०२
(ङ) सर्वार्थ सिद्धि-९।१९ - (च) चारित्रसार-१३३ १९. सर्वार्थसिद्धि ९।२०, ९।२२, ९।२६ २०. (क) अनगारधर्मामृत ७।९४
(ख) धवला ८।३, ४११८५
धम्मो दीवो
नदार असुख में
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चतुर्थ खण्ड / २८२
विविध | उत् का अर्थ है— उत्कृष्ट । और सर्ग का अर्थ है - त्याग । इन सब के आधार पर व्युत्सर्ग का शब्दार्थ होगा - विविध प्रकार का उत्कृष्ट त्याग | स्त्री-पुरुष श्रादि के सम्बन्धों को कर्मबन्ध का बाह्य कारण माना गया है। अहंकार व ममत्व आदि को कर्म बन्ध का अन्तरंग कारण माना जाता है, जिन्हें हर साधक को त्याग देना चाहिए। अतएव इन बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार व भलीभाँति त्याग करना "व्युत्सगं" कहा जायेगा ।
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व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं २१ -- द्रव्य - कायोत्सर्ग, भाव- कायोत्सर्ग । इन में द्रव्य - कायोत्सर्ग में सर्वप्रथम शरीर का निरोध किया जाता है । शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग किया जाता है । काय चेष्टा का निरुन्धन करना काय - कायोत्सर्ग है और यह द्रव्य कायोत्सर्ग हो जाने में ही साधना का प्राण नहीं है। साधना का प्राणभूत तस्य है— भाव भाव कायोत्सर्ग का अभिप्राय है प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान एवं शुक्ल-ध्यान में रमण करना । साधक भावकायोत्सर्ग की उच्च स्थिति में अपने मन में पवित्र विचारों का प्रवाह प्रवाहित करता है। वह आत्मा के मौलिक स्वरूप की घोर गमन करता है। जिससे उस साधक को किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता है । वह देह में रहकर भी देहातीत बन जाता है । निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि भावकायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान की महिमा है। यही भावकायोत्सर्ग ध्यानरूप है। द्रव्य कायोत्सर्ग तो भावकायोत्सर्ग के लिए भूमिका मात्र है । इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि द्रव्य के साथ जो भाव कायोत्सर्ग है, वह सभी प्रकार के दुःखों को विनष्ट करने वाला है । * * द्रव्यकायोत्सर्ग भावकायोत्सर्ग की ओर बढ़ने का एक सक्षम साधन है। द्रव्य स्थूल है। स्थूल से सूक्ष्मता की ओर बढ़ा जाता है द्रव्यकायोत्सर्ग में बाहरी वस्तुनों का त्याग किया जाता है इसके चार प्रकार हैं 3
१. शरीर व्युत्सर्ग- शारीरिक क्रियाओं में चपलता का त्याग करना । २. गण व्युत्सगं विशिष्ट साधना के लिए गण का त्याग करना ।
३. उपधि व्युत्सर्ग - वस्त्र पात्र आदि उपकरणों का त्याग करना । ४. भक्तपान व्युत्सर्ग-प्राहार पानी का त्याग करना ।
भाव व्युत्सगं ऐसी साधना पद्धति है जिसमें त्याग और विसर्जन की शक्ति का विशेष रूप से विकास होता है। फिर छोड़ने में कोई संकोच नहीं होता। चाहे इन्द्रियों के विषय छोड़ने पड़े, शरीर को छोड़ना पड़े, परिवार, धन, वैभव को छोड़ना पड़े उसमें छोड़ने की इतनी अधिक क्षमता बढ़ जाती है कि वह साधक जब चाहे तब उसे छोड़ सकता है । इस व्युत्सर्ग
२१. ( क ) भगवती सूत्र - २५।७।१४९
(ख) प्रोपपातिक सूत्र - २०
(ग) सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति । दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो भावतो काउस्सग्गो भाणं ॥ आवश्यकचूणि, आचार्य जिनदास गणी महत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र २६।४२।।
२२. काउस्सगं तो कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं २३. भगवती सूत्र २५ ७ १५० १
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८३
चेतना का सुफल यह होता है कि इसके जागने पर साधक को स्पष्ट रीत्या अनुभव हो जाता है कि मैं चैतन्यमय हूँ। यही मेरा ध्र व, शाश्वत अस्तित्व है। चैतन्य के अतिरिक्त जितना भी जुड़ा हुआ है, वह सब विजातीय तत्त्व है। उनमें से कोई रहे या नहीं भी रहे इससे मुझे क्या ? सबको एक न एक दिन छोड़ना ही है। निष्कर्ष यह है कि भावव्युत्सर्ग चेतना से त्याग व वैराग्य की शक्ति प्रबल होती है। इसके तीन प्रकार हैं-२४
१. कषायव्युत्सर्ग--चेतना के अथाह महासागर में कषाय के कारण उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं, जिससे चैतन्योपयोग में विक्षोभ उत्पन्न होता रहता है जो जीव के शुद्धोपयोग में मलिनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है। कषाय शब्द कषैले रस का द्योतक है। कषायरसप्रधान भोजन किया जाए तो अन्न रुचि न्यून हो जाती है। वैसे ही कषाय के कारण जीव में मोक्षाभिलाषा न्यून हो जाती है। कषाय मन की मादकता है। जब कषाय रूपी रावण सद्बुद्धि रूपी सीता का अपहरण करता है तब विवेक रूपी राम सदबुद्धि रूपी सीता को मुक्त कराने के लिये कषाय रूपी रावण पर आक्रमण कर उसे विनष्ट कर देता है। कषाय व्युत्सर्ग में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकार के कषायों का परिहार किया जाता है।
२. संसारव्युत्सर्ग-इसमें संसार का परित्याग किया जाता है। वह चार प्रकार का है२५-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यसंसार चार गाति रूप है । चार गति के नाम ये हैंनरक, तियंच, मनुष्य और देव । क्षेत्रसंसार अधः, उर्ध्व, और मध्य रूप है। कालसंसार एक समय से लेकर पुद्गल परावर्तन काल तक है। भाव संसार जीव के विषयासक्ति रूप भाव है, जो संसार-कानन में परिभ्रमण का मूल और मुख्य कारण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल संसार का त्याग नहीं किया जा सकता। केवल भावसंसार का त्याग किया जाता है । जो इन्द्रिय के विषय हैं, वे ही वस्तुत: संसार है ।२६ और उनमें आसक्त हा जीव संसार में भ्रमण करता है। भावसंसार ही वास्तविक संसार है। जहाँ कामनाओं का हृदय में वास है, वहीं संसार है । उन्हीं कामनाओं के कारण चतुर्विध गति रूप में संसार में जीव भ्रमण करता है । उस भावसंसार का त्याग करना ही संसार-व्युत्सर्ग है ।
३. कर्मव्युत्सर्ग-कर्म के मुख्य दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में लेकर पुद्गल-परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा जाता है और राग-द्वेष रूप प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है। द्रव्यकर्म की मूल - प्रकृति पाठ हैं, उनके नाम ये हैं
२४. भगवती सूत्र २०७१५१॥ २५. चउन्विहे संसारे पण्णत्ते तंजहा-दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे।
स्थानांगसूत्र, स्थान-४, सूत्र २८५ । २६. जे गुणे से आवट्टे । -प्राचारांगसूत्र १०१।५ २७. (क) नाणस्सावरणिज्जं दसणावरणं तहा ।
वेयणिज्जं तहा मोहं प्राउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं अद्वैव उ समासप्रो ।। -उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३।२-३
धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / २८४
१. ज्ञानावरणीय
२. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय
४. मोहनीय ५. आयु
६. नाम ७. गोत्र
८. अन्तराय उक्त अष्ट प्रकार के कर्मों एवं कर्मबन्ध के कारणों को नष्ट करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह कर्मव्युत्सर्ग है ।२८
कायोत्सर्ग के जो विभिन्न प्रकार बताये गये हैं, वे शारीरिक दृष्टि और विचार की दृष्टि से हैं। पर प्रयोजन की अपेक्षा से कायोत्सर्ग दो रूप में किया जाता है। एक है-चेष्टाकायोत्सर्ग और दूसरा है-अभिभव-कायोत्सर्ग । २६
इन दोनों में जो चेष्टाकायोत्सर्ग है वह दोषशुद्धि के लिए किया जाता है। जब श्रमण शौच या भिक्षा आदि के लिए बाहर जाता है अथवा निद्रा आदि में जो प्रवृत्ति होती है, उसमें दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए किया जाता है। यह कायोत्सर्ग परिमित काल के लिए प्रायश्चितस्वरूप होता है। दूसरा अभिभवकायोत्सर्ग दो स्थितियों में किया जाता है-प्रथम दीर्घकाल तक प्रात्म-चिन्तन के लिए साधक प्रात्मशुद्धि हेतु मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है। और दूसरा संकट पाने पर, जैसे राजा अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, विप्लव आदि । यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए होता है। उपसर्ग-विशेष के आने पर जीवनपर्यन्त के लिए जो सागारी संथारा रूप कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें यह भावना भी रहती है कि यदि मैं इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है। यदि मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का दूसरा रूप संस्तारक अर्थात् संथारे का है। यावज्जीवन संथारा करते समय जो काय का उत्सर्ग किया जाता है वह भवचरिम अर्थात् आमरण अनशन के रूप में होता है। प्रथम चेष्टा कायोत्सर्ग, उस अन्तिम अभिभव कायोत्सर्ग के लिए अभ्यास-स्वरूप होता है। नित्य प्रति कायोत्सर्ग-साधना का अभ्यास करते रहने से एक दिन वह आत्मबल उपलब्ध हो सकता है, जिसके फलस्वरूप अध्यात्मसाधक एक दिन मृत्यु के सन्मुख निर्भीक खड़ा हो जाता है। वह मर कर भी मरण पर विजय प्राप्त कर लेता है।
२७. (ख) स्थानांगसूत्र ८।३।५९६
(ग) भगवतीसूत्र शतक-६, उद्धेशा-९ (घ) प्रज्ञापनासूत्र २३३१
(ङ) प्रथमकर्मग्रन्थ, गाथा-३ २८. (क) स्थानांगसूत्र-४१८
(ख) समवायांगसूत्र, समवाय-५
(ग) तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन-८१ २९. जो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्यो । भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुजणे बिइयो ।
-प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा-१४५२ ।।
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८५
अभिभव कायोत्सर्ग का काल जघन्य अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट एक वर्ष का है । बाहुबली ने एक वर्ष तक कायोत्सर्ग किया था।३० दोषविशुद्धि के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है उस कायोत्सर्ग के पांच प्रकार हैं, वे ये हैं-१. देवसिक कायोत्सर्ग २. रात्रिक कायोत्सर्ग ३. पाक्षिक कायोत्सर्ग । ४. चातुर्मासिक कायोत्सर्ग । ५. सांवत्सरिक कायोत्सर्ग।
षडावश्यक में जो कायोत्सर्ग का उल्लेख है उसमें चतुर्विशतिस्तव अर्थात चौबीस तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है । चतुर्विशतिस्तव के सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। इस प्रकार एक चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न हो जाता है। जैसे प्रथम सांस लेते समय मन में "लोगस्स उज्जोयगरे" कहा जायेगा। और सांस को छोड़ते समय "धम्मतित्थयरे जिणे।" द्वितीय सांस लेते समय "अरिहंते कित्तइस्सं" और सांस छोड़ते समय "चउवीसं पि केवली" कहा जायेगा। इस प्रकार चतुर्विशतिस्तव का कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग का ध्येय परिमाण और कालमान इस प्रकार हैचतुर्विंशतिस्तव
श्लोक चरण
उच्छ्वास १. देवसिक-४
१०० २. रायिक-२
१२३ ३. पाक्षिक-१२
३००
३०० ४. चातुर्मासिक-१६
४००
४०० ५. सांवत्सरिक-२०
५०० दिगम्बर परम्परा के प्रभावक प्राचार्य श्री अमितगति ने विधान किया है कि देवसिक कायोत्सर्ग में एक सौ पाठ और रात्रि के कायोत्सर्ग में चउपन उच्छ्वासों का ध्यान करना चाहिए। सत्तावीस उच्छ्वासों में नमस्कार मन्त्र की नौ प्रावत्तियाँ हो जाती हैं। क्योंकि तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामन्त्र पर ध्यान किया जाता है । "नमो अरिहन्ताणं" "नमो सिद्धाणं" एक उच्छ्वास में "नमो पायरियाणं" "नमो उवज्झायाणं" दूसरे उच्छ्वास में "नमो लोए सव्वसाहूणं" का तीसरे उच्छ्वास में ध्यान किया जाता है।
२५
०.०
१००
१२५
३०. (क) तत्र चेष्टाकायोत्सर्गोऽष्टपंचविंशति सप्तविंशति त्रिशति अष्टोत्तर सहस्रोच्छवासान
यावद् भवति । अभिभव-कायोत्सर्गस्तु-मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलिरिव
भवति । -योगशास्त्र ३, पत्र २५० (ख) मूलाराधना २,११६ विजयोदया वृत्ति । ३१. योगशास्त्र-३॥ ३२. मूलाराधना-विजयोदया वृत्ति १, ११६ ३३. अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः कायोत्सर्गः प्रतिक्रमः ।
सान्ध्ये प्रभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः । सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमाः । सन्ति नमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ।।
- अमितगति श्रावकाचार ८, श्लोक-६८, ६९
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
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चतुर्थ खण्ड | २८६
प्राचार्य अपराजित का अभिमत है कि पंच महाव्रत सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर एक सौ पाठ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय मानसिक चंचलता से अथवा उच्छ्वासों की संख्या की परिगणना में संदेह उत्पन्न हो जाय तो पाठ श्वासोच्छ्वासों का और अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिए । ३४
कायोत्सर्ग की साधना में मानसिक एकाग्रता सर्वप्रथम आवश्यक है। कायोत्सर्ग अनेक प्रयोजनों से किया जाता है। इसका मुख्य और मूल प्रयोजन है-क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन करना । ३५ विघ्न, बाधा, अमंगल आदि के परिहार के लिए भी कायोत्सर्ग का विधान है। किसी शुभ कार्य के प्रारम्भ में यदि किसी भी प्रकार का उपसर्ग, अपशकुन हो जाए तो पाठ श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए और उस कायोत्सर्ग में महामंत्र "नमस्कार" का चिन्तन करना अपेक्षित है।
दूसरी बार पुनः बाधा उपस्थित हो जाय तो सोलह श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर दो बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि तीसरी बार भी विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाय तो बत्तीस श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर चार बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि चौथी बार भी बाधा उपस्थित हो तो विघ्न अवश्य होगा ऐसी संभावना समझकर विहार यात्रा को और शुभ कार्य को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।
हमारे शरीर में जितनी भी शक्तियां विद्यमान हैं उन समस्त शक्तियों से भलीभांति परिचित होने का सबसे सुगम मार्ग "कायोत्सर्ग" है। कायोत्सर्ग एक ऐसी साधनापद्धति है जिसमें श्वास शनैः शनैः सूक्ष्म होता चला जाता है । श्वास, प्रश्वास को सूक्ष्मता से कायोत्सर्ग घटित हो जाता है। उसके साथ ही साधक को यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि मैं अन्य हैं और यह शरीर मेरे से भिन्न है; और ऐसा क्षण प्राता है जब साधक तन एवं मन इन दोनों से ऊपर उठकर प्रात्मरूप हो जाता है।
श्वास की कुछ स्थितियां हैं, जिनका बोध होना अतिआवश्यक है-वे स्थितियां इस प्रकार हैं।
१. सहज श्वास २. शान्त श्वास ३. उखड़ी श्वास ४. विक्षिप्त श्वास ५. तेज श्वास ।
अध्यात्म-साधक सर्वप्रथम श्वास को गहरी और लम्बी करता है। उसके बाद लयबद्ध श्वास का अभ्यास करता है । फिर सूक्ष्म शान्त एवं जमी हुई श्वास का अभ्यास करता है। चतुर्थ अभ्यास में वह साधक अपने आप को सहज-कुम्भक स्थिति में पाता है। इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि तेज श्वास लेना, साधक के लिए उपयोगी नहीं है। कारण यह है कि
३४. मूलाराधना २, ११६ विजयोदया वृत्ति ३५. कायोत्सर्गशतक गाथा-८ ३९. व्यवहारभाष्य, पीठिका, गाथा-११८, ११९
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८७
तेज श्वास लेने से तन और मन में अत्यन्त श्रम का अनुभव होता है, जिससे वह शिथिल हो जाता है तथा चेतना के प्रति जागरूकता की स्थिति घटित नहीं हो सकती। उस स्थिति में थकान व मूछी के कारण आने वाली जो तन्द्रारूपी शून्यता है, उससे अपने आप को बचाना कठिन हो जाता है। श्वास-प्रश्वास को उखाड़ने की अपेक्षा उसे लम्बा करने का अभ्यास करना चाहिए। धीमी अर्थात् मन्द श्वास धैर्य की निशानी है । श्वास जितना सूक्ष्म होगा, शरीर में उतनी ही क्रियाशीलता न्यून होगी। श्वास की निष्क्रियता मौन एवं शान्ति है । इसमें ऊर्जा संचित होती है और वह संचित ऊर्जा मन को देहाविष्ट बनाती है। जब श्वास शिथिल हो जाता है, तब शरीर भी निष्क्रिय बन जाता है। मन निविचार हो जाता है। जिस से कषाय की ग्रन्थियाँ भी पाहत होने लगती हैं। क्योंकि उस साधक में तीव्र रूप से वैराग्य, परद्रव्यात्मभिन्नता और और अन्तःप्रवेश की क्षमता उत्पन्न होती है ।
कायोत्सर्ग की साधना में श्वास-क्रिया मन्द हो जाती है, जिसके कारण जागरूकता बनी रहती है। शरीर की स्थिरता सधती है, चेतना निर्मल होती जाती है और इस स्थूल शरीर की सीमा का अतिक्रमण कर सूक्ष्म शरीर की घटनाओं का परिबोध होने लगता है। और स्थल शरीर के प्रति हमारी पहुँच या पकड़ कम हो जाती है, जिससे हम दुःख के उपादान तत्त्व तक पहुँच जाते हैं । यह एक अनुभूत तथ्य है कि यह शरीर दुःख को प्रकट करने का हेतु है, किन्तु उसे प्रकट करने का उपादान कारण नहीं है । उपादान, मूल कारण है-कर्मशरीर । कायोत्सर्ग की स्थिति में हमें दु:ख के उपादान का संदर्शन होता है, तब समूचा व्यक्तित्त्व भिन्न प्रकार का होता है। एक सत्य स्थिर होता है-चेतना के साथ जो कर्मशरीर है, उसे क्षीण करना है फलतः कर्म-परमाणुओं का भीतर पाना बन्द हो जाता है । चेतना का बाहर से सम्पर्क टूटता है। अपनी समूची शक्ति का नियोजन भीतर होता है । मन भी निर्विचार हो जाता है। स्थूल शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर सूक्ष्म शरीर-तैजस एवं कार्मण शरीर से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । तेजस् शरीर से दीप्ति प्राप्त होती है। कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध संस्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास किया जाता है । इस तरह शरीर और आत्मा के ऐक्य की जो भ्रान्ति है वह मिट जाती है।
द्रव्य और भाव के भेद को समझने के लिए कायोत्सर्ग के चार प्रकार प्रतिपादित हैं। 30 १. उत्थित-उत्थित २. उत्थित-उपविष्ट ३. उपविष्ट-उत्थित
४. उपविप्ट उपविष्ट १. उत्थित-उत्थित
मुमुक्षु साधक कायोत्सर्ग मुद्रा में जब खड़ा-खड़ा ध्यान करता है, तब उसके अन्तर्मन की चेतना भी खड़ी हो जाती है। उसकी काया तो उन्नत रहती ही है, उसका ध्यान भी उन्नत होता है । वह आर्तध्यान और रौद्रध्यान का परित्याग कर धर्मध्यान व शुक्लध्यान में रमण करता है। यह कायोत्सर्ग सर्वोत्कृष्ट होता है । इसमें प्रसुप्त प्रात्मा जाग्रत होकर कर्मों
३६. प्राचार्य अमितगति, श्रावकाचार ८, ५७-६॥
धम्मो दीवो संसार समुख में वर्मती
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चतुर्थ खण्ड | २८८
से युद्ध करने के लिए तन कर खड़ी हो जाती है। वह द्रव्य और भाव दोनों दष्टियों से उत्थित है । अतः वह प्रथम श्रेणी का साधक है।
२. उत्थित-उपविष्ट
___ कुछ साधक इस श्रेणी के भी होते हैं, जो आँख मूंदकर खड़े हो जाते हैं । वे शारीरिक दृष्टि से खड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु मानसिक दृष्टि से उनमें किञ्चित् मात्र भी जागति नहीं
का मन पार्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है। वह द्रव्य से खड़े रहते हैं, पर भाव से गिर जाते हैं। ध्यान की अपकृष्ट भावधारा में अवगाहन करते हैं। वह तन से उत्थित है, किन्तु मन और आत्मा से उपविष्ट है। ३. उपविष्ट-उत्थित
कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता या वद्धावस्था आदि के कारण साधक कायोत्सर्ग की साधना के लिए खड़ा नहीं हो पाता है। वह शारीरिक सुविधा की दृष्टि से पद्मासन, सुखासन आदि से बैठ कर ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की परिणति में रत रहता है। वह साधक तन की दृष्टि से बैठा हुआ है किन्तु उसके अन्तर्मानस में शुभ-शुद्ध भावधारा तीव्रता से प्रवाहित हो रही है, बैठने पर भी वह मन से उत्थित है । ४. उपविष्ट-उपविष्ट
साधक शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और समर्थ होने पर भी आलस्य के कारण खड़ा नहीं होता है। बैठे-बैठे ही कायोत्सर्ग करता है और प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान में लीन रहता है। धर्मध्यान की परिणति में रत न होकर सांसारिक विषय भोगों की कल्पनामों में उलझा रहता है । राग-द्वेष में फंसा हुआ है। उसका तन और मन दोनों बैठे हुए हैं । उसमें भाव की दृष्टि से कोई जागति नहीं है। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का दम्भ है।
उपर्युक्त कायोत्सर्ग-चतुष्टय में साधक जीवन के लिए प्रथम और तृतीय कायोत्सर्ग हो उपादेय हैं । ये दोनों ही वस्तुतः कायोत्सर्ग हैं। इन द्वारा ही जन्म-मृत्यु का बन्धन कटता है और प्रात्मा अपने ज्योतिर्मय स्वरूप में पहुँच कर वास्तविक प्राध्यात्मिक प्रानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है । परम-पद मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
उत्थित-उपविष्ट के स्थान पर "उत्थित-निविष्ट" का प्रयोग मिलता है ।३८ नियुक्ति साहित्य में तो और ही प्रकार के नाम निर्दिष्ट किये गये हैं, ३६ फिर भी इन शब्दों का अर्थगत अभिप्राय एक जैसा ही है ।
यह कायोत्सर्ग मन, वचन और काय इन तीनों ही योगों के द्वारा किया जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि घुटनों तक दोनों हाथों को लटका कर, दोनों पांवों के बीच में चार अंगुल का अन्तर रखते हए खड़ा होना काया के द्वारा किया गया "कायिक कायोत्सर्ग" होता है। उसके पश्चात् ध्यान में लीन होने से पहले, वाणी से यह उच्चारणपूर्वक कहना "मैं शरीर का
३८. मूलाचार-६७३-६७७ ३९. आवश्यक नियुक्ति, गाथा-१४५९-१४६०
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साधना की सप्रमाणता : कायोत्सर्ग /२८९
परित्याग करता हूं, अर्थात् दैहिक ममता का विसर्जन करता हूँ।" यह वाचिक कायोत्सर्ग कहा जायेगा। और मन से शरीर से "ममेदं" बुद्धि की निवत्ति कर लेना "मानसिक कायोत्सर्ग" होगा।
शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की अपेक्षा से कायोत्सर्ग के नौ प्रकार भी हैं।४०
खड़ा
बैठा
शारीरिक स्थिति
मानसिक चिन्तनधारा १. उत्सृत-उत्सृत
खड़ा
धर्मशुक्ल ध्यान २. उत्सृत
न धर्मशुक्ल, न आर्त रौद्र किन्तु
चिन्तनशून्य दशा ३. उत्सृत निषण्ण खड़ा
आर्त, रौद्रध्यान ४. निषण्ण उत्सृत बैठा
धर्म शुक्लध्यान ५. निषण्ण
बैठा
न धर्मशुक्ल ध्यान न आत रौद्र किन्तु
चिन्तनशून्य दशा ६. निषण्ण-निषण्ण
प्रातरौद्रध्यान। ७. निषण्ण-उत्सृत
लेटकर धर्मशुक्लध्यान ८. निषण्ण
लेटकर न धर्मशुक्ल, न प्रातरौद्र किन्तु
चिन्तनशून्य दशा ९. निषण्ण-निषण्ण लेटकर आर्त रौद्र ध्यान
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कायोत्सर्ग खड़े होकर, बैठकर, लेटकर, इन तीनों अवस्थानों में किया जा सकता है। खड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग साधना करने की रीति इस प्रकार है-दोनों हाथों को घुटनों की प्रोर लटका दे। पैरों को समरेखा में रखे । दोनों पंजों में चार अंगुल का अंतर रखे। बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग-साधना करने वाला पद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाये। हाथों को या तो घुटनों पर रखे, बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर अंक में रखे तथा लेटी हुई मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला साधक सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को सबसे पहले ताने, फिर उन्हें शिथिल कर दे। हाथ और पैर को सटाये हुए न रखे । इन सभी में अंगों का सुस्थिर और शिथिल होना अति प्रावश्यक है। "
इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग करने वाला साधक शरीर से निष्क्रिय होकर खम्भे की तरह खड़ा हो जाय। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाय। शरीर को एकदम अकड़ कर न खड़ा रखे और न एकदम झुका करके ही। वह सम-मुद्रा में खड़ा रहे । कायोत्सर्ग में उपसर्ग और परिषह को समभाव से सहन करना चाहिए। इतना अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि कायोत्सर्ग जिस स्थान पर
४०. आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१४५६-१४६०॥ -प्राचार्य भद्रबाहु ४१. योगशास्त्र ३ पत्र, २५०
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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चतुर्थ खण्ड / २९०
किया जाय, वह स्थान एकान्त हो, शान्त हो तथा जीव-जन्तुनों से रहित होना चाहिये ।
૨
श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराम्रों के साहित्य के पर्यवेक्षण से यह सूर्य के प्रकाश की तरह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में भ्रमण साधकों के लिए कायोत्सर्ग का विधान विशेष रूप से रहा है। श्रमण को पुनः पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिये । ४३ उसे दिन और रात में कुल अट्ठाइस बार कायोत्सर्ग करना चाहिये । स्वाध्यायकाल में बारह बार, वन्दनकाल में छ: बार, प्रतिक्रमण काल में ग्राठ बार और योग भक्तिकाल में दो बार इस प्रकार कुल अट्ठाईस बार कायोत्सर्ग करना चाहिए। ४४
कायोत्सर्ग के अनेक फल हैं, संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है
१. बेहजाप शुद्धि - श्लेष्म आदि के द्वारा शरीर में जड़ता था जाती है, कायोत्सर्ग की साधना से श्लेष्म आदि दोष विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी समाप्त हो जाती है ।
२. मतिजा शुद्धि कायोत्सर्ग में मानसिक प्रवृत्तियाँ केन्द्रित हो जाती हैं। उससे चित्त एकाग्र होता है, बौद्धिक जड़ता विनष्ट होकर उसमें तीक्ष्णता भाती है।
३. सुख-दुःख तितिक्षा कायोत्सर्ग से सुख और दुःख सहन करने की अद्भूत क्षमता उत्पन्न होती है ।
४. अनुप्रेक्षा कायोत्सर्ग में अवस्थित साधक अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना का स्थिरतापूर्वक अभ्यास करता है ।
-
५. ध्यान – कायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है । ४६ वास्तविकता यह है कि इसकी साधना से जीवन में निर्ममत्य, निस्पृहता धौर मनासक्ति की भव्य भावना लहराने लगती है। शरीर में ममत्व का निरास करना ४७ परिमित काल
४२. तत्र शरीरनिस्पृहः स्थाणुरिवोध्वंकायः प्रलम्बितभुजः प्रणस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकाय: परषहानुपसर्गाश्व सहमान: तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते वेशे । - मूलाराधना २-११३, विजयोदया पृ २७८-७९ प्राचार्य अपराजित । ४४. क — उत्तराध्ययन सूत्र - २६ गाथा - ३९ से ५१ तक ख - अभिक्खणं काउसरगकारी दशकालिक चूलिका २ ७ ४५. भ्रष्टविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनैः ।
।
महोरात्रगता सर्वे पढावश्यककारिणाम् ॥ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञः वन्दनायां पढीरिताः । अष्टौ प्रतिक्रमे योग भक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ ॥
आचार्य प्रमितगति श्रावकाचार ८६६-६७
४६. कायोत्सर्ग शतक, गाया- १३
-
खव्यवहारभाष्यपीठिका गाथा १२५
४७. देहे ममत्वनिरास: कायोत्सर्गः भगवती अराधना वि ६।३२
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साधना की सप्रमाणता : कायोत्सर्ग / २९१
के लिए देह में होने वाली ममत्व बुद्धि का त्याग करना, ४६ शरीर को कर्मजनित, विनश्वर और अचेतन मानते हुए, उसके पोषण आदि के निमित्त कोई कार्य न करना ४६, जिस मुनि का शरीर जल और मल से लिप्त हो, या दुस्सह रोग के हो जाने पर जो उपचार न कराता हो, शरीर के अंग धोने में जो उदासीन हो, भोजन, शय्या आदि की अपेक्षा न करता हो, सज्जन और दुर्जन के प्रति मध्यस्थ हो, शरीर के प्रति ममत्व न रखता हो, सिर्फ आत्मस्वरूप के चिन्तन में लीन रहता हो ५० उसे कायोत्सर्ग नाम का तप होता है । दैवसिक निश्चित क्रियाओं में वोक्त काल प्रमाण पर्यन्त उत्तम क्षमा, प्रादि रूप जिनसद्गुणों की भावना करते हुए ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है । " काय सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को कायोत्सर्ग कहा जाता है ।
7
काय आदि पर द्रव्यों में स्थिरभाव को छोड़कर निर्विकल्प रूप से प्रात्म स्वरूप का ध्यान करना " कायोत्सर्ग" है । ५३ कर्मों के विनाश की अभिलाषा रखने वाला, मुमुक्ष निर्जन, एकान्त, जन्तुओं से रहित स्थान में, ठूंठ की तरह सीधा, हाथों को नीचे की ओर लटकाए हुए खड़ा होकर, परिषह और उपसर्गों को सहता हुआ, शरीर से निस्पृह होकर शरीर को न तो अकड़ा हुआ, न झुकाया हुआ, प्रत्युत एकदम सीधा रखता हुआ प्रशस्त ध्यान में स्थिर होता है, ५४ यही उसका कायोत्सर्ग है।
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श्रन्तर्मन में प्रसन्नता का संचार
ऊर्जा मन को एक दिशागामी
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग की प्रक्रिया वस्तुतः कष्टप्रद नहीं है । इस प्रक्रिया से शरीर को पूर्ण रूप से विश्रान्ति मिलती है, होता है । ऊर्जा का संरक्षण होता है । कुछ दिनों के बाद संचित बनाकर उसे ध्येय में लगाती है । मैं विनम्र भाषा में इतना ही कहना चाहता हूँ कि मोक्षमार्ग में स्थित साधक को अहंकार और ममकार को छोड़ने के लिए दुःखों को विनष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग साधना प्रवश्य करनी चाहिए। कायोत्सर्ग करने से जिस तरह से शरीर के अंगों व उपांगों की सन्धियों का भेदन होता है, वैसे ही कर्म रूपी मल व धूलि भी आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाती है। इस पवित्र साधना में न तो दुःख कष्ट सहन करने का विधान है और
४८. परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः राजवार्तिक ६।२४।११ ४९. ज्ञात्वा योऽचेतनं कार्य नश्वरं कर्म निर्मितम् ।
न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गः करोति सः ॥ - योगासार ५। ५२ ।।
५०. जल्वमललितगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो । मुहघोषणादिविरयो भोजणसेज्जादि णिरवेक्खो ॥
ससरूवचितणर दुज्जण सुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वणिग्ममतो काम्रोसग्गो तम्रो तस्स ॥ ५१. देवस्सियणियमादिसु जहत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४६७-४६८ ।।
जिण गुणाचिन्तणजुत्तो काधीसम्मो तणुविसम्गो । मूलाचार २६ ।
५२. नियमसार, तात्पर्याख्यावृत्ति ७० ।
५३. कायाइय परदव्वे थिरमावं परिहरितु अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गो जो कायइ णिविप्पेण | ५४. मूलाराधना २।११६ | विजयोदया पृष्ठ २७८ ।।
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नियमसार १२१ प्राचार्य अपराजित ।
धम्मो दोवो संचार समुद्र में धर्म ही दीप है
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________________ चतुर्थ खण्ड | 292 न दुःख कष्टों से पलायन की परम्परा प्रवर्तित की गई है। प्रत्युत उग्र से उग्र कष्ट के सामने अडिग अविचल बन कर खड़े रहने को एक ऐसी एकाग्रता, सहिष्णुता, की विशद रूप से विश्लेषणा की गई है, जिसमें कष्ट दुःख स्वयं ही हार-थक कर अध्यात्म-साधक का पिण्ड छोड़कर भाग जाएँ। वास्तविकता यह है कि कायोत्सर्ग की साधना से मोक्षार्थी लाधक के जीवन में स्वर्ण-सुगन्ध जैसा संयोग जुड़ जाता है / 00