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________________ साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८३ चेतना का सुफल यह होता है कि इसके जागने पर साधक को स्पष्ट रीत्या अनुभव हो जाता है कि मैं चैतन्यमय हूँ। यही मेरा ध्र व, शाश्वत अस्तित्व है। चैतन्य के अतिरिक्त जितना भी जुड़ा हुआ है, वह सब विजातीय तत्त्व है। उनमें से कोई रहे या नहीं भी रहे इससे मुझे क्या ? सबको एक न एक दिन छोड़ना ही है। निष्कर्ष यह है कि भावव्युत्सर्ग चेतना से त्याग व वैराग्य की शक्ति प्रबल होती है। इसके तीन प्रकार हैं-२४ १. कषायव्युत्सर्ग--चेतना के अथाह महासागर में कषाय के कारण उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं, जिससे चैतन्योपयोग में विक्षोभ उत्पन्न होता रहता है जो जीव के शुद्धोपयोग में मलिनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है। कषाय शब्द कषैले रस का द्योतक है। कषायरसप्रधान भोजन किया जाए तो अन्न रुचि न्यून हो जाती है। वैसे ही कषाय के कारण जीव में मोक्षाभिलाषा न्यून हो जाती है। कषाय मन की मादकता है। जब कषाय रूपी रावण सद्बुद्धि रूपी सीता का अपहरण करता है तब विवेक रूपी राम सदबुद्धि रूपी सीता को मुक्त कराने के लिये कषाय रूपी रावण पर आक्रमण कर उसे विनष्ट कर देता है। कषाय व्युत्सर्ग में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकार के कषायों का परिहार किया जाता है। २. संसारव्युत्सर्ग-इसमें संसार का परित्याग किया जाता है। वह चार प्रकार का है२५-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यसंसार चार गाति रूप है । चार गति के नाम ये हैंनरक, तियंच, मनुष्य और देव । क्षेत्रसंसार अधः, उर्ध्व, और मध्य रूप है। कालसंसार एक समय से लेकर पुद्गल परावर्तन काल तक है। भाव संसार जीव के विषयासक्ति रूप भाव है, जो संसार-कानन में परिभ्रमण का मूल और मुख्य कारण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल संसार का त्याग नहीं किया जा सकता। केवल भावसंसार का त्याग किया जाता है । जो इन्द्रिय के विषय हैं, वे ही वस्तुत: संसार है ।२६ और उनमें आसक्त हा जीव संसार में भ्रमण करता है। भावसंसार ही वास्तविक संसार है। जहाँ कामनाओं का हृदय में वास है, वहीं संसार है । उन्हीं कामनाओं के कारण चतुर्विध गति रूप में संसार में जीव भ्रमण करता है । उस भावसंसार का त्याग करना ही संसार-व्युत्सर्ग है । ३. कर्मव्युत्सर्ग-कर्म के मुख्य दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में लेकर पुद्गल-परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा जाता है और राग-द्वेष रूप प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है। द्रव्यकर्म की मूल - प्रकृति पाठ हैं, उनके नाम ये हैं २४. भगवती सूत्र २०७१५१॥ २५. चउन्विहे संसारे पण्णत्ते तंजहा-दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे। स्थानांगसूत्र, स्थान-४, सूत्र २८५ । २६. जे गुणे से आवट्टे । -प्राचारांगसूत्र १०१।५ २७. (क) नाणस्सावरणिज्जं दसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोहं प्राउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं अद्वैव उ समासप्रो ।। -उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३।२-३ धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.212188
Book TitleSadhna ki Sapranta Kayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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