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________________ Jain Education International चतुर्थ खण्ड / २८२ विविध | उत् का अर्थ है— उत्कृष्ट । और सर्ग का अर्थ है - त्याग । इन सब के आधार पर व्युत्सर्ग का शब्दार्थ होगा - विविध प्रकार का उत्कृष्ट त्याग | स्त्री-पुरुष श्रादि के सम्बन्धों को कर्मबन्ध का बाह्य कारण माना गया है। अहंकार व ममत्व आदि को कर्म बन्ध का अन्तरंग कारण माना जाता है, जिन्हें हर साधक को त्याग देना चाहिए। अतएव इन बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार व भलीभाँति त्याग करना "व्युत्सगं" कहा जायेगा । , - व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं २१ -- द्रव्य - कायोत्सर्ग, भाव- कायोत्सर्ग । इन में द्रव्य - कायोत्सर्ग में सर्वप्रथम शरीर का निरोध किया जाता है । शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग किया जाता है । काय चेष्टा का निरुन्धन करना काय - कायोत्सर्ग है और यह द्रव्य कायोत्सर्ग हो जाने में ही साधना का प्राण नहीं है। साधना का प्राणभूत तस्य है— भाव भाव कायोत्सर्ग का अभिप्राय है प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान एवं शुक्ल-ध्यान में रमण करना । साधक भावकायोत्सर्ग की उच्च स्थिति में अपने मन में पवित्र विचारों का प्रवाह प्रवाहित करता है। वह आत्मा के मौलिक स्वरूप की घोर गमन करता है। जिससे उस साधक को किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता है । वह देह में रहकर भी देहातीत बन जाता है । निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि भावकायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान की महिमा है। यही भावकायोत्सर्ग ध्यानरूप है। द्रव्य कायोत्सर्ग तो भावकायोत्सर्ग के लिए भूमिका मात्र है । इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि द्रव्य के साथ जो भाव कायोत्सर्ग है, वह सभी प्रकार के दुःखों को विनष्ट करने वाला है । * * द्रव्यकायोत्सर्ग भावकायोत्सर्ग की ओर बढ़ने का एक सक्षम साधन है। द्रव्य स्थूल है। स्थूल से सूक्ष्मता की ओर बढ़ा जाता है द्रव्यकायोत्सर्ग में बाहरी वस्तुनों का त्याग किया जाता है इसके चार प्रकार हैं 3 १. शरीर व्युत्सर्ग- शारीरिक क्रियाओं में चपलता का त्याग करना । २. गण व्युत्सगं विशिष्ट साधना के लिए गण का त्याग करना । ३. उपधि व्युत्सर्ग - वस्त्र पात्र आदि उपकरणों का त्याग करना । ४. भक्तपान व्युत्सर्ग-प्राहार पानी का त्याग करना । भाव व्युत्सगं ऐसी साधना पद्धति है जिसमें त्याग और विसर्जन की शक्ति का विशेष रूप से विकास होता है। फिर छोड़ने में कोई संकोच नहीं होता। चाहे इन्द्रियों के विषय छोड़ने पड़े, शरीर को छोड़ना पड़े, परिवार, धन, वैभव को छोड़ना पड़े उसमें छोड़ने की इतनी अधिक क्षमता बढ़ जाती है कि वह साधक जब चाहे तब उसे छोड़ सकता है । इस व्युत्सर्ग २१. ( क ) भगवती सूत्र - २५।७।१४९ (ख) प्रोपपातिक सूत्र - २० (ग) सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति । दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो भावतो काउस्सग्गो भाणं ॥ आवश्यकचूणि, आचार्य जिनदास गणी महत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र २६।४२।। २२. काउस्सगं तो कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं २३. भगवती सूत्र २५ ७ १५० १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212188
Book TitleSadhna ki Sapranta Kayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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