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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / २७८ की स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है, तन और मन की एकाग्रता की जाती है, अतः प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का क्रम है । जब तन और मन में स्थिरता होती है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। इस प्रकार श्रावश्यक की साधना के क्रम को सुन्दर रूप से रखा गया है। यह जो क्रम है, वह कार्यकारण भाव की शृङ्खला पर अवस्थित है और पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भी है। आवश्यक की साधना अपने आप में गम्भीर और विस्तृत हैं । उसके समग्र अंगों का समायोजन एक निबन्ध में करना सरल नहीं है । फिर भी हम यहाँ समासतः प्रयास करेंगे कि कायोत्सर्ग प्रावश्यक की साधना का समग्र स्वरूप उजागर हो सके और प्रध्येता प्रस्तुत विषय को स्पष्ट रूप से समझ सके । कायोत्सर्ग : साधना अध्यात्मसाधना का सर्वप्रथम चरण है— कायोत्सर्ग शरीर को स्थिर करना, उसकी चंचलता को समाप्त करना । काया की चंचलता समाप्त हो जाने की स्थिति में कायोत्सर्ग होता है । शरीर स्थिर होता है तब चेतना अपने घर में लौट आती है । जब चेतना अन्तर्जगत् को छोड़कर बहिर्जगत् में जाती है तब चंचलता पैदा होती है। जब शरीर चंचल हुआ, तब इन्द्रियचेतना बाहर जाती है, मन की चेतना बाहर जाती हैं। जैसे ही शरीर निश्चल प्रशान्त और सुस्थिर हुआ, इन्द्रियचेतना और मानसिक चेतना लौट पाती है। प्रतिक्रमण आवश्यक की साधना प्रारम्भ हो जाती है। चेतना का बहिर्जगत् में जाना अतिक्रमण है । और चेतना का अन्तर्जगत् अर्थात् अपने भीतर या जाना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण की क्रिया अर्थात् साधना अपने भाप प्रारम्भ होती है जब हम प्रतिक्रिया की स्थिति में पहुँच जाते हैं तभी हमारे अगले चरण कायोत्सर्ग की साधना के लिए अपने ग्राप आगे बढ़ जाते हैं जब कायोत्सर्ग सचन रूप में पहुँच जाता है, तब कायगुप्ति सघन बन जाती है, और जब कायगुप्ति सघन होती है तब काया का संयम विशेष रूप से गहरा होता है, काया का सर्वथा रूप से संवर होता है । इस स्थिति में काया बाहर से परमाणुओं का लेना बन्द कर देती है। निष्कर्ष यह है कि परमाणुओं का आना रुक जाता है, बन्द हो जाता है । अन्तर्जगत् का बहिर्जगत् के साथ जो सम्पर्क सूत्र था वह टूट जाता है । उस विशिष्ट भूमिका में कायोत्सर्ग की फलश्रुति भी हमारे सामने मूर्तिमान् हो जायेगी । कायोत्सर्ग वस्तुतः एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। वह पाप को विशोधन करता है। जिस प्रक्रिया से पाप की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है। कायोत्सर्ग की साधना में गम्भीर चिन्तन कर उस पाप को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है। संयमप्रधान जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिये, प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को माया, मिथ्यात्व श्रौर निदान शल्य से रहित बनाने के लिए पाप कर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग का अपर नाम "व्रणचिकित्सा " है।" पंच महाव्रत प्रादि रूप धर्म की प्राराधना करते समय ६. तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छितकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्वायणट्टाए ठामि काउस्सगं । -श्रावश्यकसूत्र ७. धनुयोगद्वारसूत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212188
Book TitleSadhna ki Sapranta Kayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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