Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण
डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...by
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र-भाष्य वाचक उमास्वाति (ई. सन् ३६५- उत्तरार्द्ध) द्वारा उद्धृत तत्त्वार्थ के एक सूत्र, ४००) द्वारा रचित स्वोपज्ञ कृति है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैन 'तहगिद्धपिंछाइरियाप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि वर्तना परिणामक्रियाः आगमिक-दार्शनिक साहित्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ परत्वा परत्वे च कालस्य',२ विद्यानन्द (९वीं शती उत्तरार्द्ध) द्वारा है। पूरे जैन वाङ्मय में यदि कोई एक ग्रन्थ चुनना हो जो उनके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में 'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त जैनदर्शन के लगभग प्रत्येक आयाम पर प्रकाश डालता हो तो मुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता' के आधार पर तत्त्वार्थ के कर्ता वह वाचक उमास्वाति-रचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ही है, जिसे जैन के रूप में 'गृध्रपिच्छ' का उल्लेख एवं वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथ वाङ्मय का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ होने का गौरव भी प्राप्त है। चरित में गृध्रपिच्छ नतोऽस्मि किए गए इन तीन उल्लेखों को सूत्रशौली में निबद्ध दशाध्यायात्मक इस लघुकाय ग्रन्थ में आचार्य अपना आधार बनाया है। इनमें दो प्रमाण नवीं शती के उत्तरार्द्ध उमास्वाति ने समस्त जैन-तत्त्वज्ञान को संक्षेप में गागर में सागर एवं एक प्रमाण ग्यारहवीं शती का है। परंतु जहाँ दिगंबर परंपरा की तरह भर दिया है जो उनकी असाधारण प्रज्ञा, क्षमता एवं में तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में ९वीं शती के उत्तरार्द्ध से गृध्रपिच्छाचार्य उनके विशाल ज्ञानभंडार का परिचायक है। जैन परंपरा के सभी के और १३वीं शती से 'गृध्रपिच्छ उमास्वाति' ऐसे उल्लेख संप्रदायों में इस ग्रन्थ को समानरूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता मिलते हैं, वहाँ श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थभाष्य (तीसरी-चौथी है। श्वेताम्बर एवं दिगंबर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने इस ग्रन्थ शती) तथा सिद्धसेनगणि (८वीं शती) और हरिभद्र (८वीं शती) पर भाष्य, वृत्तियाँ एवं टीकाएँ लिखीं तथा सूत्रों का अवलम्बन की प्राचीन टीकाओं में भी उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति लेकर अपने-अपने अभीष्ट मतप्रदर्शक कतिपय सिद्धान्त का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। यही नहीं, उनके वाचक वंश और प्रतिफलित किए। परंतु इस सबके बावजूद एक वस्तु निर्विवाद उच्चैर्नागर शाखा का भी उल्लेख है, जिसे श्वेताम्बर परंपरा अपना रही है और वह है ग्रन्थ की लोकप्रियता।
मानती है। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ही हैं और गृध्रपिच्छ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का संकलन आगमिक दृष्टि से जितना
उनका विशेषण है इस बात को दिगम्बर विद्वान् पं. जुगलकिशोर अधिक संदर और आकर्षक हआ है. उसके रचयिता के विषय मुख्तार ने भी स्वीकार किया है । पं. नाथूराम प्रेमी जैसे तटस्थ में उतना ही अधिक विवाद है। यही कारण है कि आज भी इस
विद्वानों ने भी तत्त्वार्थभाष्य को स्वोपज्ञ मानकर उसके कर्ता के ग्रन्थ के रचियता उमास्वाति हैं या उमास्वामी या गृध्रपिच्छ इसको
रूप में उमास्वाति को ही स्वीकार किया है। पं. फूलचंद शास्त्री लेकर विवाद कायम है। उसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगम सूत्रभाष्य
संभवत: इस भय के कारण कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति को रचना को लेकर भी विवाद के बादल पूर्ववत् छाये हुए हैं।
स्वीकार करने पर कहीं भाष्य को भी स्वोपज्ञ न मानना पड़े,
उसके कर्ता के रूप में गृध्रपिच्छाचार्य का उल्लेख किया है। तत्त्वार्थाधिमगसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता के
अत: यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्धाधिगमसूत्रभाष्य वाचक उमास्वाति रूप में उमास्वाति का नाम सामान्यतया श्वेताम्बर परंपरा में
द्वारा रचित प्रस्तुत शास्त्र पर उन्हीं की स्वोपज्ञ कृति है। सर्वमान्य है। किन्तु पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री प्रभृति दिगम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में उमास्वाति के स्थान पर
चूँकि हमारा मुख्य विवेच्य ग्रन्थ का कर्ता और उसका समय गृध्रपिच्छाचार्य को स्वीकार किया है। उनके शब्दों में वाचक
नहीं है, इसलिए इन विवादों में न पड़कर अपने मूल विवेच्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम की रचना की थी किन्तु यह नाम
तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विवेचन करेंगे। तत्त्वार्थसूत्र का न होकर तत्त्वार्थ के भाष्य का है। इस सन्दर्भ में दार्शनिक चिंतनधारा में प्रमाण को एक अत्यंत विचारगर्भ उन्होंने षट्खण्डागम की धवलाटीका में वीरसेन (९वीं शती विषय माना गया है। इसीलिए सभी दार्शनिक निकायों में प्रमाण
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शदा को लेकर विस्तृत विचार हुआ है। 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' प्रमाण है, इन्दियाँ नहीं, क्योंकि हेय या उपादेय वस्तु के त्याग जिसके द्वारा प्रमा (अज्ञाननिवृत्ति) हो वह प्रमाण है। प्रमाण शब्द या ग्रहण करने का अतिशय साधन ज्ञान ही है अतः वही प्रमाण की इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही न्यायदर्शन के भाष्यकार है। इस प्रकार बौद्ध ज्ञान को प्रमाण मानते हैं किन्तु उनके अनुसार वात्स्यायन ने ज्ञानोपलब्धि के साधनों को प्रमाण कहा है। ज्ञान के दो भेद हैं--निर्विकल्पक और सविकल्पक। बौद्ध मत इसकी व्याख्या करने वालों में मतभेद हैं। न्यायवार्तिककार में प्रत्यक्षरूप ज्ञान निर्विकल्पक होता है और अनुमानरूप ज्ञान उद्योतकर अर्थ की उपलब्धि में सन्निकर्ष को साधकतम मानकर सविकल्पक। ये दो ही प्रमाण बौद्ध मानते हैं, क्योंकि उनके उसे ही प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार अर्थ का ज्ञान कराने में अनुसार विषय भी दो प्रकार का होता है- (१) स्वलक्षणरूप सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष हैं। क्योंकि चक्षु का घट के एवं (२) सामान्यलक्षणरूप। स्वलक्षण का अर्थ है वस्तु का साथ संयोग होने पर ही घट का ज्ञान होता है, जिस अर्थ का स्वरूप जो शब्द आदि के बिना ही ग्रहण किया जाता है। इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान नहीं होता। सामान्यलक्षण का अर्थ है--अनेक वस्तुओं के साथ गृहीत नैयायिक संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, वस्तु का सामान्य रूप जिसमें शब्द का प्रयोग होता है। स्वलक्षण समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव इन छह प्रकार के प्रत्यक्ष का विषय है और सामान्यलक्षण अनुमान का। जो सन्निकर्षों के आधार पर प्रमाण की व्याख्या करते हैं। इसके कल्पना से रहित निर्धान्त ज्ञान होता है, उसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष अतिरिक्त नैयायिक कारक-साकल्य को भी प्रमा का कारण कहा गया है। मानते हैं। जो साधकतम होता है वह करण है और अर्थ का
__ जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के संबंध में उक्त मतों को व्याभिचाररहित ज्ञान कराने में जो करण है, वह प्रमाण है। उनकी
अस्वीकार किया है। जैनों के अनुसार नैयायिकों द्वारा मान्य मान्यता है कि ज्ञान किसी एक कारक से नहीं होता अपितु समग्र
सन्निकर्षादि को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि उक्त कारकों के होने पर नियम से होता है। इसलिए कारक-साकल्य
कल्य सन्निकर्षादि (जड़) अज्ञानरूप हैं और अज्ञान से अज्ञाननिवृत्ति ही ज्ञान की उत्पत्ति में करण है, अत: वही प्रमाण है।
रूप प्रमा संभव नहीं है। अज्ञान निवृत्ति में अज्ञान का विरोधी सांख्य अर्थ की प्रमिति में इन्द्रिय-वृत्ति को साधकतम मानते ज्ञान ही कारण हो सकता है, जिस प्रकार अंधकार की निवृत्ति में हुए उसे ही प्रमाण मानता है। इन्द्रियाँ जब विषय के आकार परिणमन अंधकार का विरोधी प्रकाश। इन्द्रियसन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पत्ति करती हैं तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती में साक्षात् कारण हो सकते हैं पर प्रमा में साधकतम तो ज्ञान ही हैं। इंद्रियों की विषयाकार-परिणित वृत्ति ही प्रमाण है। हो सकता है। दूसरे, जिसके होने पर ज्ञान हो और नहीं होने पर न मीमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते हैं। उनका मानना
हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है। जबकि सन्निकर्ष में ऐसी
बात नहीं है। कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता. है कि ज्ञातृव्यापर के बिना पदार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमें क्रिया होती है। इसलिए
जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्ष का संयोग क्रिया से यक्त द्रव्य को कारक कहा गया है. जैसे-रसोई पकाने रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता। एक ज्ञान ही है जो के लिए चावल, पानी, आग आदि अनेक कारक जो पहले से
बिना किसी व्यवधान के अपने विषय का बोध कराता है। अतः तैयार होते हैं, उनके मेल से रसोई होती है, उसी प्रकार आत्मा,
वही प्रमिति में साधकतम है और इसलिए वही प्रमाण है, मन, इन्द्रिय और पदार्थ इन चारों का मेल होने पर ज्ञाता का
सन्निकर्षादि नहीं। तीसरे, यदि सत्रिकर्षादि को प्रमाण माना जाए व्यापार होता है, जो पदार्थ के ज्ञान में साधकतम कारण है। तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियों का अतः ज्ञातृव्यापार ही प्रमाण है।
संबंध न होने से उनके द्वारा उन पदार्थों का ज्ञान असंभव है,
___ फलतः सर्वज्ञता का अभाव हो जाएगा। इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ बौद्धों के अनुसार प्रमाण का लक्षण है--अर्थसारूप्य। वे
अल्प - केवल स्थूल, वर्तमान और आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय मानते हैं कि अर्थ के साथ ज्ञान का जो सादृश्य होता है, वही
सूक्ष्म अपरिमिति है। ऐसी स्थिति में इंद्रियों और सत्रिकर्ष से प्रमाण है। उनके सारूप्य लक्षण प्रमाण का तात्पर्य है कि बुद्धि
समस्त ज्ञेयों का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। चक्ष और मन ये
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
दोनों अप्राप्यकारी होने के कारण सभी इंद्रियों का पदार्थों के साथ सन्निकर्ष भी संभव नहीं । चक्षु स्पृष्ट का ग्रहण न करने और योग्य दूर स्थित अस्पृष्ट का ग्रहण करने से अप्राप्यकारी है। यदि चक्षु प्राप्यकारी हो तो उसे स्वयं में लगे अंजन को भी देख लेना चाहिए"। अतः सन्निकर्ष और इंद्रियादि प्रमाण नहीं हो सकते। उसी प्रकार कारक - साकल्य को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। कारक - साकल्य को प्रमाण मानने पर प्रश्न उठता है कि कारकसाकल्य मुख्य रूप से प्रमाण है या उपचार से। वह मुख्य रूप से प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि कारक - साकल्य अज्ञान रूप है और जो अज्ञान रूप है, वह स्व और पर की प्रमिति में मुख्य रूपेण साधकतम नहीं हो सकता । प्रमिति में मुख्य साधकतम तो अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही हो सकता है। क्योंकि ज्ञान और प्रमिति के बीच में किसी दूसरे का व्यवधान नहीं है। ज्ञान के होते ही पदार्थ की प्रमिति हो जाती है। किन्तु कारक - साकल्य में यह बात नहीं है। कारक - साकल्य ज्ञान को उत्पन्न करता है, तब पदार्थ की प्रमिति या जानकारी होती है। अतः कारक साकल्य और प्रमिति के बीच में ज्ञान का व्यवधान होने से कारक - साकल्य को मुख्य रूप से प्रमाण नहीं माना जा सकता १२ ।
सुप्त और जाग्रत् अवस्था में कोई अंतर नहीं रहेगा। यदि वृत्ति को इन्द्रिय से भिन्न मानें तो इन्द्रिय वृत्ति की ही उपपत्ति नहीं हो पाती तो फिर उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है।
बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानने पर विकल्प के आधार पर जाने वाले लोक - व्यवहार आदि संभव नहीं हो सकेंगे। यदि बौद्ध यह कहें कि निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति है, अतः वह प्रवर्तक है और प्रवर्तक होने से प्रमाण है, तो प्रश्न उठता है कि जो स्वयं निर्विकल्पक है वह विकल्प को कैसे उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि निर्विकल्पक होने और विकल्प उत्पन्न करने की सामर्थ्य का परस्पर विरोध है। यदि कहा जाए कि विकल्प वासना की अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विकल्पक को उत्पन्न कर सकता है, तो विकल्पवासना सापेक्ष अर्थ ही विकल्प को उत्पन्न कर देगा, दोनों के बीच में एक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की आवश्यकता ही क्या है१४ और यदि निर्विकल्पक, विकल्प को उत्पन्न नहीं करता तो बौद्धों का यह कथन कि-
"यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता "
अर्थात्, जिस विषय में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न कर सकता है, उसी विषय में वह प्रमाण है, उनकी ही मान्यता के विरोध में आता है। फिर भी यदि सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न करने पर ही निर्विकल्पक का प्रामाण्य अभीष्ट है तो सविकल्पक को ही बौद्ध प्रमाण क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि वह संवाहक है, अर्थ की प्राप्ति में साधकतम है और अनिश्चित अर्थ का निश्चायक है। अतः निर्विकल्पक ज्ञान को भी सन्निकर्ष की तरह प्रमाण नहीं माना जा सकता"।
सांख्यों की इन्द्रियवृत्ति को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियवृत्ति अचेतन है और जो अचेतन है, वह पदार्थ के ज्ञान में साधकतम नहीं हो सकता । इन्द्रियवृत्ति क्या है ? इन्द्रियों का पदार्थ के पास जाना, पदार्थ की ओर अभिमुख होना अथवा पदार्थों के आकार का हो जाना। प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों पदार्थ के पास नहीं जातीं अन्यथा दूर से ही किसी पदार्थ के ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो जाएगी। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ की ओर अभिमुख होना ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होने से उपचार से प्रमाण हो सकता है, वास्तव में तो प्रमाण ज्ञान ही है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ के आकार का होना प्रतीतिविरुद्ध है। जैसे दर्पण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता है, वैसे श्रोत्र आदि इन्द्रियाँपदार्थ के आकार को धारण करते नहीं देखी जातीं। फिर भी यदि इन्द्रियवृत्ति होती है ऐसा मान भी लिया जाए तो प्रश्न उठता कि वृत्ति इन्द्रिय से भिन्न है या अभिन्न । यदि अभिन्न है तो उसे इन्द्रिय ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि तब इन्द्रिय और उनकी वृत्ति एक ही हुई। परंतु निद्रावस्था में यदि इन्द्रिय और उसके व्यापार या वृत्ति की अभिन्नता मानी जाए तो
B
२८
उसी प्रकार मीमांसकों के ज्ञातृव्यापार को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि ज्ञातृव्यापार की सत्ता प्रत्यक्ष अनुमानादि किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती । फिर भी यदि ज्ञातृव्यापार का अस्तित्व मानें तो प्रश्न उठता है कि वह कारकों से जन्य है या अजन्य। अजन्य तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह एक व्यापार है । व्यापार तो कारकों से ही जन्य हुआ करता है। यदि जन्य है तो वह भावरूप है या अभावरूप। अभावरूप हो नहीं सकता, क्योंकि यदि अभावरूप ज्ञातृव्यापार से भी पदार्थों का बोध हो जाता है तो उसके लिए कारकों की खोज करना ही व्यर्थ है ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन पुनः ज्ञातृरूप व्यापार, ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप। यदि वह ज्ञानरूप निर्विवाद रूप से चले आ रहे हैं। यदि हम प्रमाण भेद की चर्चा को है तो अत्यंत परोक्ष नहीं हो सकता जैसा कि मीमांसक मानते हैं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो आगमिक साहित्य में स्थानांगरे३
और यदि जातरूप व्यापार अज्ञानरूप है. तो वह घट-पट की और भगवतीसत्र में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख तरह प्रमाण नहीं हो सकता।
मिलता है, जिनमें इन दो मुख्य प्रमाणों के अंतर्गत ही पञ्चज्ञानों की उपर्यक्त सभी समस्याओं के समाधान हेत जैन दार्शनिक योजना की गई है, परंतु साथ ही इनमें चार प्रमाणों का भी उल्लेख ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। 'प्रमीयतेऽस्तैिरिति प्रमाणानि'१६
मिलता है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमाणों के ये दो भेद इन अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों को भली प्रकार से जाना जाए, वह
दोनों ग्रन्थों में नियुक्तिकार भद्रबाहु के बाद ही दाखिल हुए होंगे, प्रमाण है। इस व्यत्पत्ति के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने क्योकि आवश्यकनियुक्ति जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और सम्याज्ञान को प्रमाण कहा है। उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय
जिसका आरंभ ही ज्ञान-चर्चा से होता है, उसमें मति, श्रुत आदि और केवल इन पाँच ज्ञानों को सम्यक् ज्ञान कहकर उन्हें स्पष्टतया
विभाग से ज्ञानचर्चा तो है परंतु प्रत्यक्षादि प्रमाणभेद की चर्चा का प्रमाण प्रतिपादित किया है। उमास्वाति के परवर्ती आचार्य ।
सूचन तक नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्ति के समय समन्तभद्र (ई. सन् ५७५-६२५) ने अपने प्रमाण की परिभाषा .
तक जैनाचार्य ज्ञानचर्चा करते थे तो पञ्चज्ञान के ही रूप में, किन्तु में उमास्वाति का ही आधार ग्रहण करते हुए तत्त्वज्ञान को प्रमाण
अन्यदर्शनों में प्रतिष्ठित प्रमाण चर्चा से पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं थे। माना है। प्रमाण को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है--(१)
इसका प्रमाण हमें उसी भद्रबाहुकृत दशवैकालिकनियुक्ति में मिल युगपत्सर्वभासी (२) क्रमभासी जो स्याद्वाद नय से सुसंस्कृत
जाता है जिसमें परार्थानुमान की चर्चा की गई है, यद्यपि वह अवयवांश होता है। यदि ध्यान दिया जाए तो उमास्वाति और समन्तभद्र के
न में अन्य दर्शनों की परार्थानुमान शैली से अनोखी है। प्रमाण लक्षणों में शब्दभेद को छोड़कर कोई मौलिक अर्थभेद संभवतः सबसे पहले अनुयोगद्वार में न्यायसम्मत प्रत्यक्ष, प्रतीत नहीं होता क्योंकि सम्यक्त्व और तत्त्व का एक ही अर्थ है अनुमानादि चार प्रमाणों को दाखिल किया गया। इससे पूर्व तो सत्य - यथार्थ । आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान को अन्यत्र जैनाचार्यों की मुख्य विचार-दिशा प्रमाणद्वय विभाग की ओर ही 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुविबुद्धिलक्षणम्' कहकर रही है। इसी परंपरा के अनुसार आचार्य उमास्वाति ने स्वपरावभासक ज्ञान के रूप में उपन्यस्त किया है। वस्तुतः तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाणों की ही स्वपरावभासक ज्ञान का अभिप्राय भी सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि चर्चा की है और प्रमाणचतुष्टय विभाग जो मूलतः न्यायदर्शन२९ ज्ञान का सामान्य धर्म ही है अपने स्वरूप को जानते हुए परपदार्थ का है, को 'नयवादान्तरेण३० कहकर प्रमाणद्वय विभाग को ही को जानना। समन्तभद्र की इस परिभाषा में न्यायावतारकर्ता जैन परंपरा सम्मत माना है। उन्होंने इन दो प्रमाणों में ही दर्शनान्तरीय (न्यायवतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं)१८ ने बाधविवर्जित अन्य प्रमाणों को भी अन्तर्भूत माना है। पद जोड़कर 'प्रमाणं स्वपरभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्१९' कहा।
भारतीय दर्शन के अन्य दार्शनिक निकायों में चार्वाक एक किन्तु बाधविवर्जित पद विशेषण से जिस अर्थ की उत्पत्ति होती है,
मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष उसका संकेत आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्ज्ञान में प्रयुक्त
और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और 'सम्यक्शब्द' के द्वारा ही कर दिया था। उमा स्वाति के सम्यग्ज्ञान
शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है। नैयायिक सांख्य के तीन भेदों प्रमाण की उपर्युक्त परिभाषा को ही आधार मानकर सर्वार्थसिद्धिकार में उपमान को जोडकर चार भेद स्वीकार करते हैं। मीमांसकों में पूज्यपाद, २० भट्टअकलंक २१ (७वीं शती), विद्यानन्दि (वि. १०वीं
प्रभाकरानुयायी चार भेदों में अर्थापत्ति को जोड़कर पाँच एवं शती), माणिक्यनंदी २२ (वि.१०वीं शती), हेमचन्द्र तथा अनंतवीर्य
कुमारिल भट्टानुयायी और वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, आदि परवर्ती आचार्यों ने भी अपनी प्रमाण संबंधी परिभाषाएँ दीं।
अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये छह प्रमाण मानते हैं। पौराणिक प्रमाण के प्रकार
लोग सम्भव और एतिह्य को मिलाकर आठ एवं तांत्रिक इसमें चेष्टा
नामक एक प्रमाण जोड़कर नौ प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। प्राचीनकाल से ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि मारrict - जैन दर्शन - उमास्वाति ने इन सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव जैन दर्शन के प्रत्यक्ष व रहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है या जो ज्ञान बाह्य परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही माना है।
इन्द्रियादि की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या परोक्ष- आचार्य उमास्वाति ने मति श्रत अवधि मनःपर्याय और आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्ये परोक्षम्'३३ कहकर आदि के
'अक्षं प्रतिनियतिमिति परापेक्षा निवृत्तिः' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना है। इनको परोक्ष न को पोशासन
पर
पर की अपेक्षा नहीं होती। प्रमाण क्यों कहते हैं? इसके उत्तर में उनका कहना है कि ये दोनों ही आचार्य उमास्वाति ने इसी आधार पर आत्मसापेक्ष और ज्ञान निमित्त की अपेक्षा रखते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं। परोक्ष ज्ञान में इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा इन्द्रिय और मन इन दोनों को निमित्त माना गया है।
है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में उन्होंने इन्द्रिय और मन के निमित्त प्रत्यक्ष - प्रत्यक्षशब्द की व्युत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है -
से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा है और मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान प्रति + अक्ष = प्रत्यक्ष। अक्ष शब्द की व्युत्पत्ति अश् धातु से ।
को छोड़कर अवधि, मनःपर्याय और केवल को प्रत्यक्ष कहा होती है जिसका अर्थ व्याप्त होना है।
है।९। बाद के सभी जैनाचार्यों ने उमास्वाति की इसी परिभाषा को
आधार बनाकर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का विवेचन किया है। इस प्रकार 'अश्नुते व्याप्नोति विष यान् स्ववृत्त्या संयोगेन वा अक्ष स' पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ है जो ज्ञान रूप से
न्यायवतारकर्ता ने अपरोक्ष रूप से ग्रहण किए जाने वाले सभी वस्तओं में व्याप्त या विद्यमान होता है अर्थात जीव। ज्ञान का प्रत्यक्ष कहा ह अश् धातु से भी अक्ष शब्द की उत्पत्ति संभव है। अश् का
अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम्। अर्थ है भोजन करना। चूँकि जीव सभी पदार्थों का भोक्ता है,
प्रत्यक्षमितिरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया।४० इसलिए व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार भी अक्ष का अर्थ आत्मा परोक्ष क्या है, असाक्षादर्थग्राहकं ज्ञानं परोक्षमिति १ अर्थात् ही हुआ।
असाक्षात् अर्थ का ग्राहक परोक्ष है, एवं जो अपरोक्ष अर्थात् अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय भी किया जाता है। न्यायदर्शन साक्षात् अर्थ का ग्राहक है वह प्रत्यक्ष है। में प्रत्यक्ष की जो परिभाषा दी गई है, उसमें प्रयुक्त अक्ष शब्द भट्ट अकलंक के अनुसार 'इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के इन्द्रिय अर्थ का ही द्योतक है- 'अक्षस्याऽक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः बिना जो व्यभिचार रहित साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष प्रत्यक्षम्।' यहां अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय और वृत्ति का अर्थ कहते हैं' ४२, न्यायविनिश्चय में उन्होंने 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं है सन्निकर्ष अर्थात् इन्द्रिय का अर्थ के साथ संबंध होने पर उत्पन्न साकारमञ्जसा'४३ कहकर प्रत्यक्ष को परिभाषित किया है, अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा न्यायदर्शन३५ का मत है।
जो ज्ञान स्पष्ट है वही प्रत्यक्ष है। इस परिभाषा में उपर्युक्त परिभाषा - जैन परंपरा अक्ष शब्द का अर्थ जीव या आत्मा करती में आए साकार पद के साथ अञ्जसा पद भी आया है। है और तदनुसार इन्द्रिय निरपेक्ष और केवल आत्मपरोक्ष ज्ञान ।
साकार का अर्थ है सविकल्पकंज्ञान क्योंकि निर्विकल्पकज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानती है और इंद्रियाश्रित ज्ञान को परोक्ष। कहीं
को जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना गया है। अजसा पद कहीं अक्ष शब्द का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयण ।
पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए यह आवश्यक किया गया है, पर वह दर्शनान्तर प्रसिद्ध परंपरा तथा लोक
है कि वह परमार्थ में भी विशद हो। वैशद्य का लक्षण करते हुए व्यवहार के संग्रह की दृष्टि से। पूज्यपाद अक्ष शब्द की व्याख्या '
लघीयत्रय में उन्होंने कहा है कि--- करते हुए लिखते हैं कि 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा'३७। अनुमानाद्यति रेकेण विशेषप्रतिभासनम। अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ
तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमत: परम्।।" आत्मा होता है और 'तमेवप्राप्तवृक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा
अर्थात् अनुमानादि से अधिक नियत देश, काल और प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षम३८' अर्थात् क्षमोपशम वाले या आवरण ,
__ आकार रूप में प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशद्य कहते
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन हैं। दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता बिना किसी अन्य प्रमाण के होता है, या यह इदन्तया प्रतिभासित अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है। अनुमान में लिंगादि होता है उसे वैशद्य कहते हैं। 'प्रमाणान्तरान्पेक्षेदन्तया प्रतिभासो की आवश्यकता पड़ती है, परंतु प्रत्यक्ष में किसी अन्यज्ञान की वा वैशद्यम्' अर्थात् प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं होने का कथन आवश्यकता नहीं होती।
माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र का अनुसरण प्रतीत होता है, किन्तु अवधेय है कि बौद्ध दार्शनिक भी विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष
इदन्तया प्रतिभास प्रत्यक्ष में ही होता है, अनुमानादि में नहीं मानते हैं४५ परंत वे केवल निर्विकल्पक जान को ही प्रत्यक्ष की अतः विशदता की यह नई विशेषता कही जा सकती है। प्रश्न सीमा में रखते हैं ४६ । प्रत्यक्ष की उनकी परिभाषा है 'कल्पनापोढम्
उठता है कि जैन दर्शन में इन्द्रिय व्यापार से जनित ज्ञान को भ्रान्तं प्रत्यक्षम्' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान को कल्पना स्वभाव, और ।
अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति प्रत्यक्ष एवं व्यापार से रहित किसी भी प्रकार के विपर्यय या भ्रांति से रहित होना चाहिए।
ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं कहा गया? पूज्यपाद ने जैन ज्ञान जैनदार्शनिक परंपरा को बौद्धों का उक्त निर्विकल्पक या
मीमांसा के आधार पर इसका समाधान प्रस्तुत किया है। जैन कल्पनापोढ प्रत्यक्ष लक्षण मान्य नहीं है। भट्ट अकलंक, विद्यानन्दी,
दर्शन में सर्वज्ञ आप्तपुरुष प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्राचार्य तथा अभिनवभूषण ने बौद्धों के
जानता है। यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो उक्त प्रत्यक्ष काखण्डन किया है। कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक
सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षपूर्वक नहीं जान सकेगा, अर्थात् प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है तो प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष
उसकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, किन्तु आप्तपुरुष सर्वज्ञ है कल्पनापोढ है, इत्यादि कल्पनाएँ भी उसमें नहीं की जा सकेंगी
तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी और इस प्रकार उसके अस्तित्व आदि की कल्पना भी नहीं की यह
यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह मात्र आत्मा द्वारा जा सकेगी। उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव सिद्ध नहीं ।
समस्त अर्थों को जानता हो। पूज्यपाद के समाधान को अकलंक होगा, एवं यदि उसमें इन कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है ने भी विस्तृतरूपेण प्रस्तुत कर पुष्ट किया है। तो वह स्ववचन-व्याघात है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन्द्रियादि के बिना आत्मा को अत: जैन दार्शनिक सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानकर
बाह्यार्थों का प्रत्यक्ष किस प्रकार होता है? अकलङ्क ने इसका विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में रखते हैं। विशदता और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रथ का निश्चयता विकल्प का अपना धर्म है और वह ज्ञानावरण के
निर्माता तपोविशेष के प्रभाव से ऋद्धिविशेष प्राप्त करके बाह्य क्षयोपशम के अनुसार इसमें पाया जाता है। अत: जिन विकल्प
उपकरणादि के बिना भी रथ का निर्माण करने में सक्षम होता है, ज्ञानों का विषयभूत पदार्थ बाह्य में नहीं मिलता वे विकल्पाभास उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष हैं, प्रत्यक्ष नहीं। मणिक्यनन्दी, वादिदेवसूरि तथा हेमचन्द्र ने
अथवा सम्पूर्णक्षय से इंद्रियादि बाह्यसाधनों के बिना ही बाह्यार्थों प्रत्यक्ष को क्रमश: निम्नप्रकार से परिभाषित किया है--
को जानने में सक्षम होता है। (क)विशदं प्रत्यक्षमिति
संक्षेप में यह कहा जा सकता है आगमिक परंपरा के
अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माश्रित है तथा ज्ञानावरण कर्म के ... (ख)स्पष्टं प्रत्यक्षं
क्षयोपशम अथवा क्षय से बाहयार्थों का ज्ञान होता है, इसमें (ग) विशदः प्रत्यक्षं
इन्द्रियादि के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती है। माणिक्यनन्दी विशद की व्याख्या करते हुए कहते हैं--
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण का मुख्य लक्षण प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेषणतया या प्रतिभासनं 'आत्मसापेक्ष एवं विशद या स्पष्ट ज्ञान' ही जैन परंपरा में मान्य है। वैशद्यमिति'अर्थात् वह ज्ञान जो अन्यजन के व्यवधान से रहित प्रत्यक्ष के प्रकार-- होता है तथा जो विशेषणों के साथ प्रतिभासित होता है, उसे वैशद्य कहते हैं। हेमचन्द्रचार्य के अनुसार जिसका प्रतिभासन
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने प्रत्यक्ष प्रमाण में tooardwariyanararianardaridratariwarodrividi३ १ dmirikardinianiramidnidaridaridrbarsaarddada
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अवधि, मनःपर्याय एवं केवल इन तीनों ज्ञानों का ही समावेश उमास्वाति ने जो यथायोग्य ५४ शब्द का निर्देश किया है उसका किया है और इन्हीं की व्याख्या प्रत्यक्ष के रूप में की है। 'अक्ष' तात्पर्य है कि सभी देव अथवा नारकियों का अवधिज्ञान समान शब्द का अर्थ आत्मा मान लेने पर एवं तदनुसार केवल आत्म नहीं होता। जिसमें जितनी योग्यता है उसके अनुसार उन्हें उतना -सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लेने पर लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष ही होता है। अवधेय है कि तीर्थंकरों को जन्म से अवधि ज्ञान रूप से प्रसिद्ध इन्द्रिय-प्रत्यक्ष मानस - प्रत्यक्ष की समस्या के होने पर भी उनके अवधिज्ञान को भवप्रत्यय नहीं मानते, क्योंकि समन्वय हेतु उमास्वाति के उत्तरवर्ती आचार्यों ने प्रत्यक्ष के उक्त अवधि में तीर्थंकर की आत्मा के गुण कारणभूत हैं। सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष एवं पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ये दो भेद किए।
प्रश्न उठता है कि देवों तथा नारकों को उस भव में जन्मग्रहण इन दोनों भेदों का कोई सूचन तत्त्वार्थाधिगमसूत्र या भाष्य में समान अवधिनात पाप्त हो जाता है उन्हें नियमाटि नहीं मिलता। उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से इन्द्रियादि निमित्त से
पालन करने की आवश्यकता नहीं होती, तो मनुष्यादि को इसके होने वाले ज्ञान को परोक्ष की संज्ञा दी है, प्रत्यक्ष की नहीं। ऐसा ।
लिए प्रयास क्यों करना पड़ता है? प्रतीत होता है कि बाद के आचार्यों ने कमोबेश नैयायिकों से प्रभावित होकर अपनी प्रमाणमीमांसा में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का
वस्तुत: क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है। अंतर समावेश किया और उमास्वाति के बताए अवधि, मन:पर्याय
साधन में है। जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते एवं केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी। अत: हम प्रथमतया
हैं, उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है एवं जिन्हें इसके लिए विशेष अवधि, मनःपर्यय की और केवल की ही विवेचना करेंगे एवं
प्रयत्न करना पड़ता है, उनका अवधिज्ञान क्षयोपशम निमित्तक
या गुणप्रत्यय है। उमास्वाति 'देवनारकाणाम्' पद से सम्यग्दृष्टियों यथास्थान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भी संक्षिप्त व्याख्या करेंगे।
का ग्रहण करते हैं, क्योंकि सूत्र में अवधिपद का ग्रहण है। (१) अवधिज्ञान
मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। अतः उमास्वाति अवधि का अर्थ है - सीमा या मर्यादा, अर्थात् वह
यह मानते हैं कि देव व नारकियों में भी उन्हीं को भव के प्रथम मर्यादित ज्ञान जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा इन्द्रिय
समय में अवधिज्ञान होता है, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियों और मन की सहायता के बिना केवल रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूप
को विभंगज्ञान होता है।६।। से जानता है, अवधिज्ञान है। यह ज्ञान अवधिज्ञानावरण के (२) गुण प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक)- क्षयोपशमनिमित्तक क्षयोपशम से उत्पन्न होता है।
ज्ञान शेष दो गतिवाले जीव तिर्यञ्च और मनुष्य को होता है। .. अवधिज्ञान दो प्रकार का हैं५१- (१) भवप्रत्यय (२) गुण
अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए
सर्वघाती स्पर्धकों का उदयभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं के प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तिक)
सद्वस्थारूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता है वह (१) भवप्रत्यय- नारक और देवों को जो अवधिज्ञान होता है,
क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है। तिर्यञ्च और मनुष्य को उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं५२। भव कहते हैं--आयुनाम
होने वाला यह गुण प्रत्यय अवधिज्ञान सबको नहीं होता, उनमें कर्म के उदय का निमित्त पाकर होने वाली जीव की पर्यायों को
भी जिनको सामर्थ्य है उन्हीं को होता है। असंज्ञी और अपर्याप्तकों और प्रत्यय शब्द का अर्थ है - हेतु अथवा निमित्त कारण। अतः
को यह सामर्थ्य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबको यह भव ही जिसमें निमित्त हो, वह भवप्रत्यय है। नारक और देवों के
सामर्थ्य नहीं होती केवल उनको, जिनके सम्यग्दर्शनादि निमित्तों अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना गया है।
के मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म शांत एवं क्षीण हो गया जैसे पक्षियों का आकाश में गमन करना स्वभाव से या उस भव
हो५९। क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है
। में जन्म लेने मात्र से ही आ जाता है, उसके लिए शिक्षा या तप कारण नहीं है, उसी प्रकार जो जीव नरकगति या देवगति को
(१) अनानुगामी (२) आनुगामी (३) हीयमानक (४) प्राप्त होते हैं, उन्हें अवधिज्ञान भी स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।३। '
१३ वर्धमानक (५) अनवस्थित और (६) अवस्थित। आचार्य
उमास्वाति ने इन छह ज्ञानों को इसी क्रम में रखा है। पूज्यपाद
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्दसूरि स्मारकास जैन दर्शन एवं भट्टअकलंक ने क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक केवल ज्ञान की प्राप्ति न हो जाए या उसका वर्तमान मनुष्यजन्म में इसे भिन्न क्रम में रखा है यथा - अनुगामी, अननुगामी, छूटकर उसे भवान्तर की प्राप्ति न हो जाए, अवस्थित अवधिज्ञान वर्धमान, हीयमान, अवस्थित एवं अनवस्थित।
कहलाता है। अर्थात् जिसे अवस्थित अवधिज्ञान होता है, उससे (१) अनानगामी६३- जो अवधिज्ञान केवल अपने उत्पत्ति वह तब तक नहीं छूटता जब तक कि उसको केवलज्ञानादि की स्थल में ही योग्य विषयों को जानता है-अनानुगामी अवधिज्ञान
प्राप्ति न हो जाए क्योंकि केवल ज्ञान क्षायिक है, उसके साक्ष: है। जैसे किसी ज्योतिषी या निमित्तज्ञानी आदि के विषय में देखा
क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता। यदि उसी जन्म में केवल जाता है कि वह एक निश्चित स्थान पर ही प्रश्नों का उत्तर दे शान
ज्ञान हो, तो वह जन्मान्तर में भी उस जीव के साथ ही जाता है। सकता है सर्वत्र नहीं। उसी प्रकार अनानुगामी अवधिज्ञान जिस गोम्मटसार में अवधिज्ञान के सामान्य से तीन भेद किए स्थान पर उत्पन्न होता है उससे अन्यत्र वह काम नहीं कर पाता। गए हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। भवप्रत्यय-अवधि (२) आनुगामी६४- जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति-स्थल और ।
ना आरमान और नियम से देशावधि ही होता है तथा परमावधि एवं सर्वावधि स्थानान्तर दोनों ही जगह अपने योग्य विषयों को जानता है, वह
नियम से क्षयोपशमनिमित्तक या गणप्रत्यय ही होते हैं। गोम्मटसार आनुगामी अवधिज्ञान है। जैसे सूर्य पूर्व दिशा के साथ-साथ
में द्रव, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर भी अवधि ज्ञान का अन्य दिशाओं को भी प्रकाशित करता है।
विवेचन मिलता है जिसके अनुसार जघन्य भेद से लेकर उत्कृष्ट
भेद पर्यन्त अवधिज्ञान के जो असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं वे (३) हीयमानक५ - असंख्यात द्वीप समुद्र, पृथ्वी, विमान
सब ही द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से प्रत्यक्षतया रूपी और तिर्यक, ऊपर अथवा नीचे जितने क्षेत्र का प्रमाण लेकर
द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं तथा उसके संबंध में संसारी जीव उत्पन्न हुआ है, क्रम से उस प्रमाण से घटते-घटते जो अवधिज्ञान
द्रव्य को भी जानते हैं किन्तु सर्वावधिज्ञान में जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक के क्षेत्र को विषय करने
आदि भेद नहीं हैं। वह निर्विकल्प एक प्रकार का है। वाला रह जाए तो उसे हीयपालक अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे
आवश्यकनियुक्ति में अवधिज्ञान को क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी यदि उससे योग्य ईंधन आदि
तीव्र, मंद इत्यादि चौदह दृष्टकोणों से विवेचित किया गया है। न मिल तो धीरे-धीरे बुझने या कम होने लगती है।
विशेषावश्यकभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (४) वर्धमानक ६ - जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें एवं भव इन सात निक्षेपों के माध्यम से अवधिज्ञान को विश्लेषित भाग आदि के बराबर प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ हो और उस किया गया है। प्रमाण से बढ़ता ही चला जाए तो उसे वर्धमानक अवधिज्ञान ,
२) मन:पर्यायज्ञान तत्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य के अनुसार कहते हैं।
मनःपर्याय ज्ञान के संबंध में जैन दार्शनिकों में दो मत हैं-प्रथममत (५) अनवस्थित ७- जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक नन्दीसूत्र, आवश्यकनियुक्ति एवं तत्त्वार्थाधिगम मूल भाष्य पर रूप धारण करे वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान आधारित है, जिसके अनुसार मनः पर्याय ज्ञान के द्वारा दूसरे के उत्पन्न प्रमाण से कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी छूट मन में चिंत्यमान अर्थों को जाना जाता है, दूसरा मत भी जाता है। जैसे किसी जलाशय की लहरें वायुवेग का निमित्त विशेषावश्यकभाष्य नन्दीचूर्णि आदि पर आधारित है, जिसके पाकर कभी ऊँची-नीची या नष्टोत्पन्न हुआ करती हैं उसी प्रकार अनुसार मनः पर्याय ज्ञान द्वारा मात्र दूसरे की मन की पर्ययों को शुभ अथवा अशुभरूप जैसे भी परिणामों का इसको निमित्त जाना जाता है और उसमें चिंत्यमान पदार्थों का ज्ञान अनुमान के मिलता है उसके अनुसार इस अवधिज्ञान की हानि, वृद्धि आदि द्वारा होता है। जीव के द्वारा ग्रहीत और मन के आकार में परिणत अनेक अवस्थाएँ हुआ करती हैं।
द्रव्यविशेषरूप मनोवर्गणाओं के आलंबन से विचाररूप पर्यायों (६) अवस्थित८ - वह अवधिज्ञान जो जितने प्रमाण क्षेत्र के को बिना इन्द्रियादि साधनों के साक्षात् जान लेना मनःपर्यय ज्ञान विषय में उत्पन्न हो. उससे वह तब तक नहीं छटता जब तक कि है। संपूर्ण प्रमादों से रहित और जिसे मनःपर्याय ज्ञानावरण का
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
- चीन्द्रसरि स्मारकग्रन्यय जैन दर्शन क्षयोपशम प्राप्त हो चुका है उसे ही यह अत्यंत विशिष्ट अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान में अंतर - क्षायोपशमिक किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे वह मनुष्य लोकवर्ती मनःपर्याप्ति धारण करने वाले पंचेन्द्रिय
उमास्वाति ने इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत प्राणिमात्र के त्रिकालवी मनोगत विचारों को बिना इन्द्रिय और और विषयकृत इन चार भेदों का उल्लेख किया है-- मन की सहायता से ही जान सकता है। आवश्यकनियुक्ति५ के (१) विशुद्धिकृत - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है। अवधिज्ञान अनसार मन:पर्याय ज्ञान का अधिकारी केवल मनुष्य ही होता की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान की विशद्धि या निर्मलता अधिक है और मनुष्यों में भी वह चरित्रवान होता है। नन्दीसूत्र में द्रव्य, होती है, क्योंकि वह अपने विषय को अवधिज्ञान से अधिक क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से मनः पर्यायज्ञान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि द्रव्यादि की दृष्टि से मन:पर्यायज्ञान के अंतर्गत वे पुद्गल द्रव्य जो मन के रूप में परिवर्तित होते हैं, आते
(२) क्षेत्रकृत - दोनों में क्षेत्रकृत विशेषता यह है कि अवधिज्ञान
। हैं, क्षेत्र की दृष्टि से यह मनुष्यक्षेत्र में पाया जाता है. काल की का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर संपूर्ण लोक पर्यंत दृष्टि से यह असंख्यात काल तक स्थित रहता है और भाव की
है। जबकि मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र मनुष्यलोक प्रमाण है, वह उतने दृष्टि से इनमें मनोवर्गणाओं की अनन्त अवस्थाएं देखी जा सकती
क्षेत्र के भीतर ही संज्ञी जीवों की मनोगत पर्यायों को जानता है। हैं। संयम की विशुद्धता मनः पर्यायज्ञान का बहिरंग कारण है (३) स्वामीकृत - अवधिज्ञान संयमी, साधु, असंयमी जीव और मनःपर्यायज्ञानावरण का क्षयोपशम अंतरंग कारण है। इन।
तथा संयतासंयत श्रावक इन सभी को हो सकता है तथा चारों दोनों कारणों के मिलने पर उत्पन्न होने वाला ज्ञान इंद्रिय अनिन्द्रिय
ही गति वाले जीवों को हो सकता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान सहायता के बिना मनुष्य के मनोगत विचारों को जान लेता है।
प्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान तक के उत्कृष्ट विषयभेद की अपेक्षा से इस ज्ञान के दो भेद हैं - चारित्र से युक्त जीवों में ही पाया जाता है। (१) ऋजुमति (२) विपुलमति७७
(४) विषयकृत - ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाना जाए उसे ज्ञेय ऋजुमति, जीव के द्वारा ग्रहण में आई हुई और मन के अथवा विषय कहते हैं। विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान रूपी आकार में परिणत द्रव्य विशेष रूप मनोवर्गणाओं के अवलंबन द्रव्यों८२ एवं उसकी असंपूर्ण पर्यायों को जानता है परंतु अवधि से विचार रूप पर्यायों को इंद्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा के के विषय का अनन्तवाँ भाग मनःपर्याय का विषय है.३ अत: बिना ही जानता है। ऋजुमति, ऋजु-सामान्य दो तीन एवं केवल अवधि की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान का विषय अति सूक्ष्म है। वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है। जबकि विपुलमति
(३) केवलज्ञान केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है। मोह मन:पर्याय ज्ञान त्रिकालवर्ती, मनुष्य के द्वारा चिंतित, अचिंतित
ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्म के क्षय से यह ज्ञान एवं अर्द्धचिंतित ऐसे तीनों प्रकार की पर्यायों को जान सकता है।
प्रकट होता है। केवलज्ञान का विषय संपूर्ण द्रव्य और उनकी ये दोनों ही प्रकार के ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करते जबकि
सभी पर्यायें हैं। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और अवधिज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी दर्शनपूर्वक होता है।
काल इन सभी द्रव्यों की पृथक्-पृथक् तीनों कालों में होने मन:पर्याय ज्ञान के इन दोनों भेदों में उमास्वाति ने दो वाली अनंतानन्त पर्यायें हैं। अत: जो ज्ञान इन सबको जानता है विशेषताएँ और बताई हैं--(१) विशुद्धकृत (२) अप्रतिपातकृत वह केवल ज्ञान है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा
ऋजुमति-मन:पर्यायज्ञान की अपेक्षा विपुलमति पर्यायज्ञान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सभी पदार्थों को ग्रहण करता है और अधिक विशुद्ध हुआ करता है तथा विपुलमति अप्रतिपाती है। संपूर्ण लोक-अलोक को विषय करता है। इससे उत्कृष्ट और क्योंकि ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होकर छूट भी जाता है, कोई भी ज्ञान नहीं है और न ही कोई ऐसा ज्ञेय है जो केवलज्ञान
और एक ही बार नहीं अनेक बार उत्पन्न होकर छूट जाता है, परंतु का विषय न हो। केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति को विपुलमति अप्रतिपाती होने से उत्पन्न होने के अनंतर जब तक कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, अत: उसे सर्वज्ञ कहा जाता है। केवल ज्ञान प्रकट न हो तब तक नहीं छूटता।
सर्वज्ञ विश्व के समस्त पदार्थों के तीनों कालों की समस्त पर्यायों
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
- गतीन्द्रसूरि स्मारकग्रत्य - जैन दर्शन - को जानता है। इसे केवल, परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्९ कहकर इसे मतिज्ञान की श्रेणी में विशुद्ध, सर्वभावज्ञापक लोकालोक विषय और अनन्तपर्यायज्ञान रखा है और इसे प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष ज्ञान कहा है। इन्द्रिय भी कहते हैं। यह अपनी तरह का अकेला ज्ञान है इसलिए इसे निमित्तक और अनिन्द्रिनिमित्तक ज्ञानरूप मतिज्ञान के ४ भेद९० केवल ज्ञान कहते हैं।
किए गए हैं--(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय (अपाय) सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक - प्रत्यक्ष-उमास्वामि ने प्रत्यक्ष आर (४) धारणा। के अंदर अवधि, मन:पर्याय एवं केवल इन तीन आत्म सापेक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संबंधित होने पर जो सामान्यज्ञान होता एवं इन्द्रिय अनिन्द्रिय की सहायता के बिना होने वाले ज्ञानों को है, जिसमें कोई विशेषण, नाम या विकल्प नहीं होता उसे अवग्रह ही लिया है। बाद में जब आगमिक विचार प्रक्रिया में तार्किकता कहते हैं। यह दो प्रकार का है - व्यञ्जना अवग्रह एवं अर्थावग्रह। का प्रवेश हुआ तो ऐसा महसूस किया जाने लगा कि लोकव्यवहार ईहा - अवग्रह द्वारा गहीत जान को विशेष रूप से जानने में प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष की समस्या के समन्वय
की इच्छा ईहा है। हेतु इन्हें भी प्रत्यक्ष में शामिल किया जाना चाहिए। नन्दीसूत्रकार ५ ने संभवतः सबसे पहले इन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष में शामिल
अवाय (अपाय) - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के कर प्रत्यक्ष के इंद्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष नामक दो
विषय में निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है। विभाग किए। इसके बाद जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने धारणा - अवाय से जिस अर्थ का बोध होता है, उसका
अतिविस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पञ्चज्ञान अधिक काल तक स्थिर रहना या स्मृतिरूप हो जाना धारणा है। विभाग (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय, केवल) का तर्कपुरःसर (२) पारमार्थिक या मख्य प्रत्यक्ष - पारमार्थिक प्रत्यक्ष समावेश किया और अनुयोगद्वारकर्ता एवं नंदीकार द्वारा स्वीकृत पर्णरूपेण विशद होता है। जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में मात्र आत्मा इंद्रियजन्य एवं नोइन्द्रियजन्यरूप से विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में के ही व्यापार की अपेक्षा रखता है. मन और इन्द्रियों की सहायता आने वाले उस विरोध का परिहार सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक जिसमें अपेक्षित नहीं है. वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष हे५२। प्रत्यक्ष ऐसे दो नाम देकर सर्वप्रथम करने का प्रयास किया जिसे
पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं--(१) अवधि, (२) भट्टअकलंक ६, हेमचन्द्राचार्य८७ आदि परवर्ती विद्वानों ने भी
मनः पर्याय और (३) केवल जिसका विवेचन हम पूर्व पृष्ठों में अपनी प्रमाणमीमांसा में स्थान दिया। इन दोनों प्रत्यक्षों का संक्षिप्त
कर चुके हैं। परिचय यहां अप्रासंगिक नहीं होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में (१) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - बाधारहित प्रवृत्ति-निवृत्ति और
प्रत्यक्षप्रमाण की जो व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने की है, उसका लोगों का बोलचाल रूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है। इस
मुख्य आधार आगमिक परंपरा-मान्य प्रमाणद्वय ही रहा है, संव्यवहार के लिए जो प्रत्यक्ष माना जाए वह सांव्यवहारिक
इसीलिए उन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद किए। प्रत्यक्ष है। यह अपरमार्थिक प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियों एवं मन की
प्रत्यक्ष के अंतर्गत उन्होंने सीधे आत्मा से होने वाली अवधि, सहायता से उत्पन्न होता है। यह दो प्रकार का है--
मनःपर्याय एवं केवल इन तीन ज्ञानों को ही लिया और इन्द्रिय - (१) इंद्रियज (२) अनिन्द्रियज।
तथा मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की कोटि में चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले को इन्द्रियज और रखा। परवर्ती आचार्यों ने इंद्रिय और मनसापेक्ष को सांव्यवहारिक मनोजनित को अनिन्द्रियज कहते हैं। ध्यातव्य है कि इन्द्रियजनित प्रत्यक्ष की संज्ञा दी एवं अवधि, मनःपर्याय और केवल को ज्ञान में भी मन का व्यापार होता है तथापि मन वहाँ साधारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा। देखा जाए तो यह इंद्रिय मन-प्रत्यक्ष कारण एवं इन्द्रिय असाधारण कारण होने से उसे इन्द्रियज या भी अनुमान के समान परोक्ष ही है, क्योंकि उमें संशय, विपर्यय इन्द्रियसांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की और अनध्यवसाय हो सकते हैं जैसे असिद्ध, विरुद्ध और सहायता से होने वाले ज्ञान को आचार्य उमास्वाति ने अनेकान्तिक अनुमान। जैसे शब्द-ज्ञान संकेत की सहायता से
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
होता है और अनुमान व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है, अतएव वे परोक्ष हैं उसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन तथा आत्मव्यापार की सहायता से उत्पन्न होता है अतः वह भी परोक्ष ही है। संभवतः उमास्वाति को इन तथ्यों का ज्ञान था इसलिए उन्होंने इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' कहकर उसे परोक्ष की कोटि रखा । भट्ट अकलंक, हेमचन्द्र आदि आचार्य जिन्होंने इंद्रियमनोनिमित्तक प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी उन पर नन्दीसूत्रकार
इन्द्रिय अनिन्द्रिय रूप से किए गए प्रत्यक्ष विभाग तथा नैयायिकों के 'इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् रूप से की गई प्रत्यक्ष की परिभाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं था कि उमास्वाति नैयायिकों की प्रमाणमीमांसा से परिचित नहीं थे, क्योंकि नयवादान्तरेण९४ कहकर तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष के अतिरिक्त अनुमान उपमानादि प्रमाणों को नैयायिकों का कहकर, उन सारे प्रमाणों को इन्हीं दो मुख्य प्रमाणों में अंतर्भूत माना है, पर यह जरूर था कि उनसे वे प्रभावित नहीं थे। फिर उमास्वाति की प्रत्यक्ष की परिभाषा में ऐसा कोई दोष परिलक्षित नहीं होता जिसका परिहार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को मान लेने मात्र से हो गया हो। क्योंकि परवर्ती आचार्य भी अवधि, मनःपर्याय और केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो मानते ही हैं। अतः उमास्वाति द्वारा प्रत्यक्षप्रमाण-विवेचन जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में हुआ है, वह अपने आप में पूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
सन्दर्भ
(१) सर्वार्थसिद्धि सम्पा. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, प्रस्तावना पृ. ६२ (२) षट्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित ) - पुष्पदन्त भूतबलि, जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय, अमरावती, प्रथम आवृत्ति १९५९ ।
(३) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सम्पा श्री विद्यानंद मनोहरलाल शा., रामचंद्र नथरंगजी गांधी, मांडवी, बंबई १९१८, पृ. ६ (४) पं. जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, वीरसेवा मंदिर सरसावा, सहारनपुर १९५६, पृ. २०२
(५) सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परंपरा, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी १९९४, पृ. ४
(६) प्रमाणपरीक्षा, सम्पा. दरबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७, पृ. ९
(अ) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ७० (ब) प्रमीयन्तेऽयस्तैरिति प्रमाणानि
उमास्वाति, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम अगास १९३२, १/१२
(७) न्यायभाष्य, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९, पृ. १८ (८) न्यायमञ्जरी, जयंत भट्ट, संपा. के. एस. वरदाचार्य, ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, मैसूर १९६९, पृ. १२ (९) न्यायबिन्दु, चौखम्भा सिरीज काशी, पृ. १३
(१०) अर्थसंन्निकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः । यदि सन्निकर्षः प्रमाणम्, सूक्ष्मव्यवहितप्रकृष्टानामर्थानाम् ग्रहणप्रसंग: । सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ६९.
(११) सर्वार्थसिद्धि - १/१९
(१२) जैनन्याय, सम्पा. पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी १९८८, पृ. २७ नोट : संदर्भ १३ से २९ तक अप्राप्त ।
(३०) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र - १/६
(३१) (अ) वैशेषिकसूत्र, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखंभा संस्कृत संस्थान, वाराणसी १९७७, ९/२/३
(ब) संख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, सम्पा. रमाशंकर त्रिपाठी, भदैनी, वाराणसी १९७८, कारिका-४
( स ) (द)
न्यायसूत्र १/१/३
प्रकरणपंचिका - शालिकनाथ संस्कृत सिरीज, वाराणसी, पृ. ४४
(य) शास्त्रदीपिका, सम्पा. पार्थसारथि मिश्र, निर्णयसागर, बंबई, प्रथम संस्करण, १९१५, पृ. २४६
(३२)सर्वाण्येतानिमतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमितत्त्वात् । सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र - १ / १२.
msmenims 3 & mobiμövõÿæbÿxóm
For Private Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (३३) वही, १/११
(४८) प्रमाण-नय-तत्त्वालोक, अनुवादक पं. शोभाचंद्र भारिल्ल, (३४) न्यायदर्शनम् (वात्स्यायनभाष्य), सम्पा. आचार्य ढुंढिराज
न्यायतीर्थ, आत्मजागृति कार्यालय, ब्यावर १९४२, २.२ शास्त्री, चौखंभा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९, (४९) प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्राचार्य, सम्पा. जिनविजयजी, सिंधी जैन १/१/३.
ज्ञानपीठ, अहमदाबाद, कलकत्ता १९३९, १/१/१३. (३५) इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पत्रं ज्ञान...प्रत्यक्षम्। न्यायदर्शनम् १/ (५०) (अ) प्रमाणान्तरमपेक्षते इत्येकं वैशद्यलक्षणम्। इदन्तया १/४
प्रतिभासो वा इति इदन्तया विशेषनिष्ठतया यः प्रतिभासः (३६) (अ) सर्वार्थसिद्धि १/१२
सम्यगर्थनिर्णयस्य सोऽपि वैशद्यम्-- (ब) 'जीवो अक्खो अत्थव्वावणभोयण गणण्णिओ जेण' प्रमाणमीमांसा १/१/१४ विशेषावश्यक भाष्य सम्पा. पं. दलसुख मालवणिया एवं (ब) तत्त्वार्थाधिः। १/२८ पं. बेचरदास दोसी, ला.द.मा.सं.वि. मंदिर, अहमदाबाद (५१) द्विविधोऽवधिः। सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/२१ १९६८, पृ.८९
(५२) नारकाणां देवानां च यथात्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं (स) तथा च भगवान भद्रबाहु जीवो अक्खो तं पई जं वट्टइ तं तु भवति।वही १/२२ होइपच्चक्खं न्यायावतार टि.पृ. ९५.
(५३) वही १/२२ (द) अक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति वेति अक्ष आत्मा। (५४) यथास्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति। वही १/२२ तत्त्वार्थवार्तिक १/१२
(५५) देवानामपि यद् यस्य सम्भवति तच्च यथास्वमिति विज्ञेयम् (३७) सर्वार्थसिद्धि- १/१२
भवप्रत्ययं भवकारणं अधोऽधो विस्तृतविषयमवधिज्ञानं (३८) वही १/१२
भवति। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर सिद्धर्षिटीका-सेठ देवचंद (३९) सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/१२
लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथांक ६७- बंबई १९२६, (४०) न्यायावतार-कारिका-४
भाग-१, १/२२, पृ. ९६ (४१) न्यायावतारविवृत्ति ४, पृ. ३
(५६) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/३२ (४२) इंद्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम्।
(५७) शेषाणमिति नारक देवेभ्यः शेषाणां तिर्यग्योनिजानां मनुष्याणां तत्त्वार्थवार्तिक, सिंधी जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद,
च। सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, १/२३ कलकत्ता १९३९, १/१२
(५८) सर्वार्थसिद्धि १/२२, पृ. ९० (४३) न्यायविनिश्चय, श्लोक-३
(५९) यथोक्त सम्यग्दर्शनादिमित्तसंनिधाने सति शांतक्षीण कर्मणां (४४) लघीयस्त्रय, सम्पा न्यायकुमुदचंद्र, सिंधी जैन ग्रंथमाला,
तस्योपलब्धिर्भवति। वही-१/२२, पृ. ९० अहमदाबाद, कलकत्ता १९३९, ४
(६०) तद्यथा अनानुगामिकं, आनुगामिकं, हीयमानक, वर्धमानकं, (४५) प्रत्यक्षं कल्पनापोडं वेद्यतेऽति परिस्फुटम्। तत्त्वसंग्रह,
अनवस्थितम् अवस्थितमिति. सभाष्यतत्त्वार्थाधि. १/२३ 'कमलशीत, सम्पा. द्वारिकादास शास्त्री, बौद्ध भारती, (६१) सर्वार्थसिद्धि १/२२
वाराणसी प्रथम संस्करण, १९६८, कारिका १२३४. (६२) तत्त्वार्थवार्तिक १/२२ (४६) तच्च ज्ञानरूपवेदनमात्मनः साक्षात्कारि निर्विकल्पं अभ्रांतं (६३) सभाष्यतत्त्वार्थाधि. १/२२
च। ततः प्रत्यक्षं। न्यायबिन्दु, सम्पा. पी.आई. तर्कस, नूतन (६४) वही. १/२२ मुद्रणालय, अकोला १९५२, १/१०
(६५) वही. १/२२ (४७) परीक्षामुख-२-३
(६६) वही. १/२२ saasudridrbaridroidroidroidroinsanilaodindow३७ Hardranitronidanitariandidroidisaoratdadadaudra
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________ -चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शद (67) वही. 1/22 (82) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र. 1/28 (68) वही. 1/22 (83) तद्दन्तभागेमनःपर्यायस्य। वही-१/२९. (69) देसोही, परमोही, सव्वोहि ति य तिघा ओही। (84) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-१/३०. गोम्मटसार जीवकाण्ड 372 श्रीपरमश्रुत प्रभावक मंडल (85) नन्दीसूत्र-३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास वि.सं. 2041 (86) एगन्तेण परोक्खं लिंगिय मोहाइयं च पच्चक्खं। इंद्रिय (70) गोम्मटसार, जीवकांड - 376 मणोमवं जं तं संववहार पच्चक्खं।। विशेषावश्यकभाष्य (71) आवश्यकनियुक्ति श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी गा. 95. धार्मिक ट्रस्ट मुंबई, वि.सं. 2038, 26-28.76. (87) (अ) तत्र सांव्यावहारिक इन्द्रियानिन्द्रियम् प्रत्यक्षं। (72) विशेषावश्यकभाष्य, गा. 578 लघीयस्त्रय-४ (73) सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र 1/24, पृ. 42 (ब) मुख्यसांव्यवहारिकभेदेन द्वैविध्यं प्रत्यक्षस्य .... प्रमाण (74) आहारसरीरिंदियपज्जत्ती आणपाणभास माणो। गोम्मटसार मीमांसा-१/१४ जीवकाण्ड 118. (स) प्रत्यक्षं द्विविधं-सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं चेति। जैन (75) आवश्यकनियुक्ति-७६। तर्कभाषा, सम्पा. पं. सुखलालजी संघवी, सरस्वती पुस्तक (76) नन्दीसूत्र (नन्दीसूत्र अनुयोगदाराई) 23-25. भंडार, अहमदाबाद 1993, पृ. 4 (88) एतच्च द्विविधं इंद्रियजम, अनिन्द्रियजं च। जैनतर्कभाषा. (77) ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र पृ.५ (78) गोम्मटसार-जीवकाण्ड-४४०. (89) सभाष्यतत्त्वार्थाधि. 1/14. (79) सर्वार्थसिद्धि 1/9, तत्त्वार्थराजवार्तिक-१.२६. (90) अवग्रहेहापायधारणा भेदाच्चतुर्विधम्-जैनतर्कभाषा-पृ. 6. (91) प्रमाणनयतत्त्वालोक-२.८ (80) विशेषावश्यकभाष्य-८४ (92) स्वोत्पत्तावात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमार्थिक। जैनतर्कभाषा-पृ. 291 / (81) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-१/२६. 1/24 arordroinod-orbrotrowonidiromanimoombridwo[38 r ordNGrodrowdnidrord-66rdnanbarodnirdwordwar