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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन हैं। दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता बिना किसी अन्य प्रमाण के होता है, या यह इदन्तया प्रतिभासित अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है। अनुमान में लिंगादि होता है उसे वैशद्य कहते हैं। 'प्रमाणान्तरान्पेक्षेदन्तया प्रतिभासो की आवश्यकता पड़ती है, परंतु प्रत्यक्ष में किसी अन्यज्ञान की वा वैशद्यम्' अर्थात् प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं होने का कथन आवश्यकता नहीं होती।
माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र का अनुसरण प्रतीत होता है, किन्तु अवधेय है कि बौद्ध दार्शनिक भी विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष
इदन्तया प्रतिभास प्रत्यक्ष में ही होता है, अनुमानादि में नहीं मानते हैं४५ परंत वे केवल निर्विकल्पक जान को ही प्रत्यक्ष की अतः विशदता की यह नई विशेषता कही जा सकती है। प्रश्न सीमा में रखते हैं ४६ । प्रत्यक्ष की उनकी परिभाषा है 'कल्पनापोढम्
उठता है कि जैन दर्शन में इन्द्रिय व्यापार से जनित ज्ञान को भ्रान्तं प्रत्यक्षम्' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान को कल्पना स्वभाव, और ।
अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति प्रत्यक्ष एवं व्यापार से रहित किसी भी प्रकार के विपर्यय या भ्रांति से रहित होना चाहिए।
ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं कहा गया? पूज्यपाद ने जैन ज्ञान जैनदार्शनिक परंपरा को बौद्धों का उक्त निर्विकल्पक या
मीमांसा के आधार पर इसका समाधान प्रस्तुत किया है। जैन कल्पनापोढ प्रत्यक्ष लक्षण मान्य नहीं है। भट्ट अकलंक, विद्यानन्दी,
दर्शन में सर्वज्ञ आप्तपुरुष प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्राचार्य तथा अभिनवभूषण ने बौद्धों के
जानता है। यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो उक्त प्रत्यक्ष काखण्डन किया है। कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक
सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षपूर्वक नहीं जान सकेगा, अर्थात् प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है तो प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष
उसकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, किन्तु आप्तपुरुष सर्वज्ञ है कल्पनापोढ है, इत्यादि कल्पनाएँ भी उसमें नहीं की जा सकेंगी
तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी और इस प्रकार उसके अस्तित्व आदि की कल्पना भी नहीं की यह
यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह मात्र आत्मा द्वारा जा सकेगी। उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव सिद्ध नहीं ।
समस्त अर्थों को जानता हो। पूज्यपाद के समाधान को अकलंक होगा, एवं यदि उसमें इन कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है ने भी विस्तृतरूपेण प्रस्तुत कर पुष्ट किया है। तो वह स्ववचन-व्याघात है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन्द्रियादि के बिना आत्मा को अत: जैन दार्शनिक सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानकर
बाह्यार्थों का प्रत्यक्ष किस प्रकार होता है? अकलङ्क ने इसका विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में रखते हैं। विशदता और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रथ का निश्चयता विकल्प का अपना धर्म है और वह ज्ञानावरण के
निर्माता तपोविशेष के प्रभाव से ऋद्धिविशेष प्राप्त करके बाह्य क्षयोपशम के अनुसार इसमें पाया जाता है। अत: जिन विकल्प
उपकरणादि के बिना भी रथ का निर्माण करने में सक्षम होता है, ज्ञानों का विषयभूत पदार्थ बाह्य में नहीं मिलता वे विकल्पाभास उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष हैं, प्रत्यक्ष नहीं। मणिक्यनन्दी, वादिदेवसूरि तथा हेमचन्द्र ने
अथवा सम्पूर्णक्षय से इंद्रियादि बाह्यसाधनों के बिना ही बाह्यार्थों प्रत्यक्ष को क्रमश: निम्नप्रकार से परिभाषित किया है--
को जानने में सक्षम होता है। (क)विशदं प्रत्यक्षमिति
संक्षेप में यह कहा जा सकता है आगमिक परंपरा के
अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माश्रित है तथा ज्ञानावरण कर्म के ... (ख)स्पष्टं प्रत्यक्षं
क्षयोपशम अथवा क्षय से बाहयार्थों का ज्ञान होता है, इसमें (ग) विशदः प्रत्यक्षं
इन्द्रियादि के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती है। माणिक्यनन्दी विशद की व्याख्या करते हुए कहते हैं--
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण का मुख्य लक्षण प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेषणतया या प्रतिभासनं 'आत्मसापेक्ष एवं विशद या स्पष्ट ज्ञान' ही जैन परंपरा में मान्य है। वैशद्यमिति'अर्थात् वह ज्ञान जो अन्यजन के व्यवधान से रहित प्रत्यक्ष के प्रकार-- होता है तथा जो विशेषणों के साथ प्रतिभासित होता है, उसे वैशद्य कहते हैं। हेमचन्द्रचार्य के अनुसार जिसका प्रतिभासन
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने प्रत्यक्ष प्रमाण में tooardwariyanararianardaridratariwarodrividi३ १ dmirikardinianiramidnidaridaridrbarsaarddada
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