Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutra me Pratyaksha Praman
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 1
________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...by तत्त्वार्थाधिगमसूत्र-भाष्य वाचक उमास्वाति (ई. सन् ३६५- उत्तरार्द्ध) द्वारा उद्धृत तत्त्वार्थ के एक सूत्र, ४००) द्वारा रचित स्वोपज्ञ कृति है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैन 'तहगिद्धपिंछाइरियाप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि वर्तना परिणामक्रियाः आगमिक-दार्शनिक साहित्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ परत्वा परत्वे च कालस्य',२ विद्यानन्द (९वीं शती उत्तरार्द्ध) द्वारा है। पूरे जैन वाङ्मय में यदि कोई एक ग्रन्थ चुनना हो जो उनके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में 'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त जैनदर्शन के लगभग प्रत्येक आयाम पर प्रकाश डालता हो तो मुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता' के आधार पर तत्त्वार्थ के कर्ता वह वाचक उमास्वाति-रचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ही है, जिसे जैन के रूप में 'गृध्रपिच्छ' का उल्लेख एवं वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथ वाङ्मय का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ होने का गौरव भी प्राप्त है। चरित में गृध्रपिच्छ नतोऽस्मि किए गए इन तीन उल्लेखों को सूत्रशौली में निबद्ध दशाध्यायात्मक इस लघुकाय ग्रन्थ में आचार्य अपना आधार बनाया है। इनमें दो प्रमाण नवीं शती के उत्तरार्द्ध उमास्वाति ने समस्त जैन-तत्त्वज्ञान को संक्षेप में गागर में सागर एवं एक प्रमाण ग्यारहवीं शती का है। परंतु जहाँ दिगंबर परंपरा की तरह भर दिया है जो उनकी असाधारण प्रज्ञा, क्षमता एवं में तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में ९वीं शती के उत्तरार्द्ध से गृध्रपिच्छाचार्य उनके विशाल ज्ञानभंडार का परिचायक है। जैन परंपरा के सभी के और १३वीं शती से 'गृध्रपिच्छ उमास्वाति' ऐसे उल्लेख संप्रदायों में इस ग्रन्थ को समानरूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता मिलते हैं, वहाँ श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थभाष्य (तीसरी-चौथी है। श्वेताम्बर एवं दिगंबर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने इस ग्रन्थ शती) तथा सिद्धसेनगणि (८वीं शती) और हरिभद्र (८वीं शती) पर भाष्य, वृत्तियाँ एवं टीकाएँ लिखीं तथा सूत्रों का अवलम्बन की प्राचीन टीकाओं में भी उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति लेकर अपने-अपने अभीष्ट मतप्रदर्शक कतिपय सिद्धान्त का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। यही नहीं, उनके वाचक वंश और प्रतिफलित किए। परंतु इस सबके बावजूद एक वस्तु निर्विवाद उच्चैर्नागर शाखा का भी उल्लेख है, जिसे श्वेताम्बर परंपरा अपना रही है और वह है ग्रन्थ की लोकप्रियता। मानती है। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ही हैं और गृध्रपिच्छ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का संकलन आगमिक दृष्टि से जितना उनका विशेषण है इस बात को दिगम्बर विद्वान् पं. जुगलकिशोर अधिक संदर और आकर्षक हआ है. उसके रचयिता के विषय मुख्तार ने भी स्वीकार किया है । पं. नाथूराम प्रेमी जैसे तटस्थ में उतना ही अधिक विवाद है। यही कारण है कि आज भी इस विद्वानों ने भी तत्त्वार्थभाष्य को स्वोपज्ञ मानकर उसके कर्ता के ग्रन्थ के रचियता उमास्वाति हैं या उमास्वामी या गृध्रपिच्छ इसको रूप में उमास्वाति को ही स्वीकार किया है। पं. फूलचंद शास्त्री लेकर विवाद कायम है। उसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगम सूत्रभाष्य संभवत: इस भय के कारण कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति को रचना को लेकर भी विवाद के बादल पूर्ववत् छाये हुए हैं। स्वीकार करने पर कहीं भाष्य को भी स्वोपज्ञ न मानना पड़े, उसके कर्ता के रूप में गृध्रपिच्छाचार्य का उल्लेख किया है। तत्त्वार्थाधिमगसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता के अत: यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्धाधिगमसूत्रभाष्य वाचक उमास्वाति रूप में उमास्वाति का नाम सामान्यतया श्वेताम्बर परंपरा में द्वारा रचित प्रस्तुत शास्त्र पर उन्हीं की स्वोपज्ञ कृति है। सर्वमान्य है। किन्तु पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री प्रभृति दिगम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में उमास्वाति के स्थान पर चूँकि हमारा मुख्य विवेच्य ग्रन्थ का कर्ता और उसका समय गृध्रपिच्छाचार्य को स्वीकार किया है। उनके शब्दों में वाचक नहीं है, इसलिए इन विवादों में न पड़कर अपने मूल विवेच्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम की रचना की थी किन्तु यह नाम तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विवेचन करेंगे। तत्त्वार्थसूत्र का न होकर तत्त्वार्थ के भाष्य का है। इस सन्दर्भ में दार्शनिक चिंतनधारा में प्रमाण को एक अत्यंत विचारगर्भ उन्होंने षट्खण्डागम की धवलाटीका में वीरसेन (९वीं शती विषय माना गया है। इसीलिए सभी दार्शनिक निकायों में प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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