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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शदा को लेकर विस्तृत विचार हुआ है। 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' प्रमाण है, इन्दियाँ नहीं, क्योंकि हेय या उपादेय वस्तु के त्याग जिसके द्वारा प्रमा (अज्ञाननिवृत्ति) हो वह प्रमाण है। प्रमाण शब्द या ग्रहण करने का अतिशय साधन ज्ञान ही है अतः वही प्रमाण की इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही न्यायदर्शन के भाष्यकार है। इस प्रकार बौद्ध ज्ञान को प्रमाण मानते हैं किन्तु उनके अनुसार वात्स्यायन ने ज्ञानोपलब्धि के साधनों को प्रमाण कहा है। ज्ञान के दो भेद हैं--निर्विकल्पक और सविकल्पक। बौद्ध मत इसकी व्याख्या करने वालों में मतभेद हैं। न्यायवार्तिककार में प्रत्यक्षरूप ज्ञान निर्विकल्पक होता है और अनुमानरूप ज्ञान उद्योतकर अर्थ की उपलब्धि में सन्निकर्ष को साधकतम मानकर सविकल्पक। ये दो ही प्रमाण बौद्ध मानते हैं, क्योंकि उनके उसे ही प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार अर्थ का ज्ञान कराने में अनुसार विषय भी दो प्रकार का होता है- (१) स्वलक्षणरूप सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष हैं। क्योंकि चक्षु का घट के एवं (२) सामान्यलक्षणरूप। स्वलक्षण का अर्थ है वस्तु का साथ संयोग होने पर ही घट का ज्ञान होता है, जिस अर्थ का स्वरूप जो शब्द आदि के बिना ही ग्रहण किया जाता है। इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान नहीं होता। सामान्यलक्षण का अर्थ है--अनेक वस्तुओं के साथ गृहीत नैयायिक संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, वस्तु का सामान्य रूप जिसमें शब्द का प्रयोग होता है। स्वलक्षण समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव इन छह प्रकार के प्रत्यक्ष का विषय है और सामान्यलक्षण अनुमान का। जो सन्निकर्षों के आधार पर प्रमाण की व्याख्या करते हैं। इसके कल्पना से रहित निर्धान्त ज्ञान होता है, उसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष अतिरिक्त नैयायिक कारक-साकल्य को भी प्रमा का कारण कहा गया है। मानते हैं। जो साधकतम होता है वह करण है और अर्थ का
__ जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के संबंध में उक्त मतों को व्याभिचाररहित ज्ञान कराने में जो करण है, वह प्रमाण है। उनकी
अस्वीकार किया है। जैनों के अनुसार नैयायिकों द्वारा मान्य मान्यता है कि ज्ञान किसी एक कारक से नहीं होता अपितु समग्र
सन्निकर्षादि को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि उक्त कारकों के होने पर नियम से होता है। इसलिए कारक-साकल्य
कल्य सन्निकर्षादि (जड़) अज्ञानरूप हैं और अज्ञान से अज्ञाननिवृत्ति ही ज्ञान की उत्पत्ति में करण है, अत: वही प्रमाण है।
रूप प्रमा संभव नहीं है। अज्ञान निवृत्ति में अज्ञान का विरोधी सांख्य अर्थ की प्रमिति में इन्द्रिय-वृत्ति को साधकतम मानते ज्ञान ही कारण हो सकता है, जिस प्रकार अंधकार की निवृत्ति में हुए उसे ही प्रमाण मानता है। इन्द्रियाँ जब विषय के आकार परिणमन अंधकार का विरोधी प्रकाश। इन्द्रियसन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पत्ति करती हैं तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती में साक्षात् कारण हो सकते हैं पर प्रमा में साधकतम तो ज्ञान ही हैं। इंद्रियों की विषयाकार-परिणित वृत्ति ही प्रमाण है। हो सकता है। दूसरे, जिसके होने पर ज्ञान हो और नहीं होने पर न मीमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते हैं। उनका मानना
हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है। जबकि सन्निकर्ष में ऐसी
बात नहीं है। कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता. है कि ज्ञातृव्यापर के बिना पदार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमें क्रिया होती है। इसलिए
जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्ष का संयोग क्रिया से यक्त द्रव्य को कारक कहा गया है. जैसे-रसोई पकाने रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता। एक ज्ञान ही है जो के लिए चावल, पानी, आग आदि अनेक कारक जो पहले से
बिना किसी व्यवधान के अपने विषय का बोध कराता है। अतः तैयार होते हैं, उनके मेल से रसोई होती है, उसी प्रकार आत्मा,
वही प्रमिति में साधकतम है और इसलिए वही प्रमाण है, मन, इन्द्रिय और पदार्थ इन चारों का मेल होने पर ज्ञाता का
सन्निकर्षादि नहीं। तीसरे, यदि सत्रिकर्षादि को प्रमाण माना जाए व्यापार होता है, जो पदार्थ के ज्ञान में साधकतम कारण है। तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियों का अतः ज्ञातृव्यापार ही प्रमाण है।
संबंध न होने से उनके द्वारा उन पदार्थों का ज्ञान असंभव है,
___ फलतः सर्वज्ञता का अभाव हो जाएगा। इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ बौद्धों के अनुसार प्रमाण का लक्षण है--अर्थसारूप्य। वे
अल्प - केवल स्थूल, वर्तमान और आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय मानते हैं कि अर्थ के साथ ज्ञान का जो सादृश्य होता है, वही
सूक्ष्म अपरिमिति है। ऐसी स्थिति में इंद्रियों और सत्रिकर्ष से प्रमाण है। उनके सारूप्य लक्षण प्रमाण का तात्पर्य है कि बुद्धि
समस्त ज्ञेयों का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। चक्ष और मन ये
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