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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
होता है और अनुमान व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है, अतएव वे परोक्ष हैं उसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन तथा आत्मव्यापार की सहायता से उत्पन्न होता है अतः वह भी परोक्ष ही है। संभवतः उमास्वाति को इन तथ्यों का ज्ञान था इसलिए उन्होंने इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' कहकर उसे परोक्ष की कोटि रखा । भट्ट अकलंक, हेमचन्द्र आदि आचार्य जिन्होंने इंद्रियमनोनिमित्तक प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी उन पर नन्दीसूत्रकार
इन्द्रिय अनिन्द्रिय रूप से किए गए प्रत्यक्ष विभाग तथा नैयायिकों के 'इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् रूप से की गई प्रत्यक्ष की परिभाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं था कि उमास्वाति नैयायिकों की प्रमाणमीमांसा से परिचित नहीं थे, क्योंकि नयवादान्तरेण९४ कहकर तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष के अतिरिक्त अनुमान उपमानादि प्रमाणों को नैयायिकों का कहकर, उन सारे प्रमाणों को इन्हीं दो मुख्य प्रमाणों में अंतर्भूत माना है, पर यह जरूर था कि उनसे वे प्रभावित नहीं थे। फिर उमास्वाति की प्रत्यक्ष की परिभाषा में ऐसा कोई दोष परिलक्षित नहीं होता जिसका परिहार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को मान लेने मात्र से हो गया हो। क्योंकि परवर्ती आचार्य भी अवधि, मनःपर्याय और केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो मानते ही हैं। अतः उमास्वाति द्वारा प्रत्यक्षप्रमाण-विवेचन जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में हुआ है, वह अपने आप में पूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
सन्दर्भ
(१) सर्वार्थसिद्धि सम्पा. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, प्रस्तावना पृ. ६२ (२) षट्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित ) - पुष्पदन्त भूतबलि, जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय, अमरावती, प्रथम आवृत्ति १९५९ ।
(३) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सम्पा श्री विद्यानंद मनोहरलाल शा., रामचंद्र नथरंगजी गांधी, मांडवी, बंबई १९१८, पृ. ६ (४) पं. जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, वीरसेवा मंदिर सरसावा, सहारनपुर १९५६, पृ. २०२
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(५) सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परंपरा, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी १९९४, पृ. ४
(६) प्रमाणपरीक्षा, सम्पा. दरबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७, पृ. ९
(अ) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ७० (ब) प्रमीयन्तेऽयस्तैरिति प्रमाणानि
उमास्वाति, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम अगास १९३२, १/१२
(७) न्यायभाष्य, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९, पृ. १८ (८) न्यायमञ्जरी, जयंत भट्ट, संपा. के. एस. वरदाचार्य, ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, मैसूर १९६९, पृ. १२ (९) न्यायबिन्दु, चौखम्भा सिरीज काशी, पृ. १३
(१०) अर्थसंन्निकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः । यदि सन्निकर्षः प्रमाणम्, सूक्ष्मव्यवहितप्रकृष्टानामर्थानाम् ग्रहणप्रसंग: । सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ६९.
(११) सर्वार्थसिद्धि - १/१९
(१२) जैनन्याय, सम्पा. पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी १९८८, पृ. २७ नोट : संदर्भ १३ से २९ तक अप्राप्त ।
(३०) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र - १/६
(३१) (अ) वैशेषिकसूत्र, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखंभा संस्कृत संस्थान, वाराणसी १९७७, ९/२/३
(ब) संख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, सम्पा. रमाशंकर त्रिपाठी, भदैनी, वाराणसी १९७८, कारिका-४
( स ) (द)
न्यायसूत्र १/१/३
प्रकरणपंचिका - शालिकनाथ संस्कृत सिरीज, वाराणसी, पृ. ४४
(य) शास्त्रदीपिका, सम्पा. पार्थसारथि मिश्र, निर्णयसागर, बंबई, प्रथम संस्करण, १९१५, पृ. २४६
(३२)सर्वाण्येतानिमतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमितत्त्वात् । सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र - १ / १२.
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