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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन पुनः ज्ञातृरूप व्यापार, ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप। यदि वह ज्ञानरूप निर्विवाद रूप से चले आ रहे हैं। यदि हम प्रमाण भेद की चर्चा को है तो अत्यंत परोक्ष नहीं हो सकता जैसा कि मीमांसक मानते हैं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो आगमिक साहित्य में स्थानांगरे३
और यदि जातरूप व्यापार अज्ञानरूप है. तो वह घट-पट की और भगवतीसत्र में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख तरह प्रमाण नहीं हो सकता।
मिलता है, जिनमें इन दो मुख्य प्रमाणों के अंतर्गत ही पञ्चज्ञानों की उपर्यक्त सभी समस्याओं के समाधान हेत जैन दार्शनिक योजना की गई है, परंतु साथ ही इनमें चार प्रमाणों का भी उल्लेख ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। 'प्रमीयतेऽस्तैिरिति प्रमाणानि'१६
मिलता है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमाणों के ये दो भेद इन अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों को भली प्रकार से जाना जाए, वह
दोनों ग्रन्थों में नियुक्तिकार भद्रबाहु के बाद ही दाखिल हुए होंगे, प्रमाण है। इस व्यत्पत्ति के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने क्योकि आवश्यकनियुक्ति जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और सम्याज्ञान को प्रमाण कहा है। उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय
जिसका आरंभ ही ज्ञान-चर्चा से होता है, उसमें मति, श्रुत आदि और केवल इन पाँच ज्ञानों को सम्यक् ज्ञान कहकर उन्हें स्पष्टतया
विभाग से ज्ञानचर्चा तो है परंतु प्रत्यक्षादि प्रमाणभेद की चर्चा का प्रमाण प्रतिपादित किया है। उमास्वाति के परवर्ती आचार्य ।
सूचन तक नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्ति के समय समन्तभद्र (ई. सन् ५७५-६२५) ने अपने प्रमाण की परिभाषा .
तक जैनाचार्य ज्ञानचर्चा करते थे तो पञ्चज्ञान के ही रूप में, किन्तु में उमास्वाति का ही आधार ग्रहण करते हुए तत्त्वज्ञान को प्रमाण
अन्यदर्शनों में प्रतिष्ठित प्रमाण चर्चा से पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं थे। माना है। प्रमाण को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है--(१)
इसका प्रमाण हमें उसी भद्रबाहुकृत दशवैकालिकनियुक्ति में मिल युगपत्सर्वभासी (२) क्रमभासी जो स्याद्वाद नय से सुसंस्कृत
जाता है जिसमें परार्थानुमान की चर्चा की गई है, यद्यपि वह अवयवांश होता है। यदि ध्यान दिया जाए तो उमास्वाति और समन्तभद्र के
न में अन्य दर्शनों की परार्थानुमान शैली से अनोखी है। प्रमाण लक्षणों में शब्दभेद को छोड़कर कोई मौलिक अर्थभेद संभवतः सबसे पहले अनुयोगद्वार में न्यायसम्मत प्रत्यक्ष, प्रतीत नहीं होता क्योंकि सम्यक्त्व और तत्त्व का एक ही अर्थ है अनुमानादि चार प्रमाणों को दाखिल किया गया। इससे पूर्व तो सत्य - यथार्थ । आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान को अन्यत्र जैनाचार्यों की मुख्य विचार-दिशा प्रमाणद्वय विभाग की ओर ही 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुविबुद्धिलक्षणम्' कहकर रही है। इसी परंपरा के अनुसार आचार्य उमास्वाति ने स्वपरावभासक ज्ञान के रूप में उपन्यस्त किया है। वस्तुतः तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाणों की ही स्वपरावभासक ज्ञान का अभिप्राय भी सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि चर्चा की है और प्रमाणचतुष्टय विभाग जो मूलतः न्यायदर्शन२९ ज्ञान का सामान्य धर्म ही है अपने स्वरूप को जानते हुए परपदार्थ का है, को 'नयवादान्तरेण३० कहकर प्रमाणद्वय विभाग को ही को जानना। समन्तभद्र की इस परिभाषा में न्यायावतारकर्ता जैन परंपरा सम्मत माना है। उन्होंने इन दो प्रमाणों में ही दर्शनान्तरीय (न्यायवतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं)१८ ने बाधविवर्जित अन्य प्रमाणों को भी अन्तर्भूत माना है। पद जोड़कर 'प्रमाणं स्वपरभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्१९' कहा।
भारतीय दर्शन के अन्य दार्शनिक निकायों में चार्वाक एक किन्तु बाधविवर्जित पद विशेषण से जिस अर्थ की उत्पत्ति होती है,
मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष उसका संकेत आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्ज्ञान में प्रयुक्त
और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और 'सम्यक्शब्द' के द्वारा ही कर दिया था। उमा स्वाति के सम्यग्ज्ञान
शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है। नैयायिक सांख्य के तीन भेदों प्रमाण की उपर्युक्त परिभाषा को ही आधार मानकर सर्वार्थसिद्धिकार में उपमान को जोडकर चार भेद स्वीकार करते हैं। मीमांसकों में पूज्यपाद, २० भट्टअकलंक २१ (७वीं शती), विद्यानन्दि (वि. १०वीं
प्रभाकरानुयायी चार भेदों में अर्थापत्ति को जोड़कर पाँच एवं शती), माणिक्यनंदी २२ (वि.१०वीं शती), हेमचन्द्र तथा अनंतवीर्य
कुमारिल भट्टानुयायी और वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, आदि परवर्ती आचार्यों ने भी अपनी प्रमाण संबंधी परिभाषाएँ दीं।
अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये छह प्रमाण मानते हैं। पौराणिक प्रमाण के प्रकार
लोग सम्भव और एतिह्य को मिलाकर आठ एवं तांत्रिक इसमें चेष्टा
नामक एक प्रमाण जोड़कर नौ प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। प्राचीनकाल से ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद
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