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नाभिःहमारा केन्द्र बिन्दु
एक बार एक ग्रामीण व्यक्ति शहर में आया और किसी होटल में ठहर गया ! हावा खाया और मारी होटल की चकाचौंध उसने देखी और बड़ा आनन्दित हुआ। उसके बाद जब वह सोने की तैयारी करने लगा तो कमरे में एक बिजली का बल्ब जल रहा था । वह व्यक्ति उस बल्ब के सम्बन्ध में कुछ जानता था नहीं सो वह उसे बुझाने के लिये मुख से फूक मार रहा था। कई वार उसने मुख से फूक मारा पर वह बुझा नहीं । अन्त में हैरान होकर वह विना उस वल्म को वुझाये ही मो गया। प्रातः काल होते ही जब उस होटल का बैरा आया और उसने पूछा-बाबू जी आप रातभर आराम से रहे ना? तो वह व्यक्ति बोला- हाँ आराम से तो रहे पर मैंने इस दीप को बहुत-बहुत फूंक मारकर बुझाना चाहा पर वुझा नहीं। तो उस वैरे ने कहा- अरे यह दीप कहीं मुख से फेंकने से नहीं बुझा करता, यह बुझता है स्विच के आफ करने से। तुम्हें उस स्विच का पता नहीं है। आखिर बैरे ने स्विच को आफ कर दिया तो वह बल्ब बुझ गया।
एक दीपक बह होता है जो कि तेल से जला करता है पर वह दीपक हवा . का जरा सा झोंका आने पर थुझ जाता है, और एक यह दापक एक ऐसा
दीपक है जो कि हबा के तेज झकोरों से भी नहीं बुझ सकता। इसको बुझाने के लिये तो स्विच आफ करना होगा।
तो ऐसे ही हमारे जीवन में धर्म की बात मिलती है। हम दीपक जलाते हैं पर बिजली नहीं जलाने। दीपक जलता है और हवा का झोंका आने पर थोड़ी ही देर में बुझ जाता है । मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारों में जब पहुंचते हैं तो वहाँ पहुंचने पर कुछ दीपक जल जाता है लेकिन जैसे ही क्रोध आया, मानसम्मान की कोई बात आयी, या संयोग वियोग सम्बन्धी कोई घटना घट गई तो वहाँ इन आँधियों के झकझोरों से वह दीप बुझ जाता है और फिर वहीका-यही अन्धेरा हो जाता है। बस ऐसा ही दीपक जलता रहता है हमारे आपके जीवन में।
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और भी बात आप देखेंगे कि जब कभी आप दो एक दिन का उपवास कर लेते हैं तो वहाँ आपके शरीर में बड़ी शिथिलता सी आ जाती है। आपकी आँखें गड्ढे में चली जाती हैं और आपको चक्कर से आने लगते हैं। आप में इतनी ही क्षमता है कि एक दो दिन का उपवास कर सकते, किसी में इतनी भी क्षमता हो सकती कि वह कुछ अधिक दिनों का भी उपवास कर ले . लेकिन उसके चेहरे को देखकर क्या आप जान नहीं लेते कि यह आदमी भूखा है। और उसके शरीर की चर्बी सूख जाती है। उसके शरीर में शिथिलता आ जाती है। उसके चेहरे में मुस्कराहट नहीं आती। लेकिन पुराण पुरुषों की मूर्तियाँ देख लो, भगवान महावीर की मूर्तियाँ देख लो, उनके शरीर में कोई कमजोरी नहीं दिखाई पड़ती। उनका शरीर पूर्ण हृष्ट पुष्ट दिखता है। उनके चेहरे पर मुस्कान दिखाई देती है। तो बताओ यह फर्क कहाँ से आया जिससे हमारे और भगवान महावीर के शरीर में घना फर्क दिखाई पड़ा? तो यह फर्क इस बात का है कि हम कहीं ननः गये हैं अपनी गाना ॥ो ।
--- पुराण पुरुषों की एक भी मूर्ति ऐसी नहीं मिलती जिसका शरीर तपश्चरण से कृप गया हो। भगवान महावीर ने बारह वर्ष तपश्चरण किया उस में सिर्फ एक वर्ष आहार लिया बाकी ११ वर्ष का समय निराहार रहकर व्यतीत हुआ फिर भी उनकी मूर्ति देखने से ऐसा पता लगता है कि उनके शरीर पर रंच भी कमजोरी नहीं आयी । न तो उनके शरीर पर कहीं झुर्रियां दिखाई देती
न हड्डियां दिखाई देती और न उनके चेहरे पर रंच भी उदासी दिखाई देती, .. तो उसमें कारण क्या है कि उन्हें कोई सूत्र ऐसा मिल गया था जिससे उन्हें रंच भी चूक नहीं हुई।
भगवान ऋषभदेव सन्यास लेते ही ६ महीने की साधना में बैठ गये फिर भी उनकी मूर्ति देखने पर उनके शरीर में कुछ कमजोरी नहीं दिखाई देती । तो कुछ लोग ऐसा भी कह सकते कि उनके शरीर की क्षमता शक्ति ही ऐसी रहती होगी, उनको संहनन ही ऐसा मिला होगा जिससे कि उनके शरीर पर कोई फर्क नहीं आने पाता था लेकिन एक बात का और भी तो ध्यान करो, उनके साथ दीक्षित होने वाले अन्य लोग भी तो थे जिनको आहार विहार की विधि का पता न था वे निराहार न रह सके और मार्ग से च्यूत होकर रान्यास छोड़ दिया। तो क्यों छोड़ दिया? क्या उनके पास बह संहनन या वह क्षमता न थी? अरे थी तो सही पर मूल बात यह थी कि उनकी भी साधना में कहीं न कहीं चूक रही। जिस चूक के कारण वे अपनी साधना में
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ERSNISHES
। २३५ सफल न हुए। तो संहनन का सूत्र नहीं है । कोई और ही सूत्र है जिसके कारण से त्याग तपश्चरण में कोई जाय फिर भी उसका शरीर शिथिल नहीं होता।
तीसरी बात एक और है। महात्मा बुद्ध ने सर्व प्रथम गृह त्याग के पश्चात् जैन धर्म में दीक्षा ली और उन्होंने जैन धर्म की साधना की थी। बारह वर्ष ता. उन्होंने बड़ी तपस्या की थी। उस बारह वर्ष की तपस्या में महात्मा बुद्ध का शरीर कृष हो गया, केवल ढाँचा रह गया, उनके शरीर की सव हड्डियाँ झलकने लगीं, शरीर बिल्कुल सूख गया। और एक दिन की बात थी कि वे कोई निरंजना नाम की नदी पार कर रहे थे । अब नदी को पार करते हुए में नदी के किनारे पर चढ़ने के लिये कोई घाट तो बना नहीं था।
सीढ़ियाँ तो थीं नहीं सो वहाँ की बंटीली झाड़ियों को पकड़कर ऊपर चढ़ना _था । सो वहाँ पर चढ़ते हुए उन्हें ख्याल आया कि जब इस छोटी सी नदी को
पार करने की भी मेरे अन्दर सामर्थ्य नहीं है तो फिर इस विशाल भवसागर को मैं कैसे पार कर सकता हैं ? इस ख्याल के आते ही उन्होंने अपने वैर्य को खो दिया। आखिर किसी तरह से नदी पार करके जब वे बाहर पहुंचे तो एक वृक्ष के नीचे जाकर विश्राम करने के लिये बैठ गये। यहां उन्हें ख्याल आया कि मैं जरूर कोई सूत्र चूक गया हूँ मेरे से जरूर कोई ऐसी कमी रह गई है जिसके कारण मुझे ये सब परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं। . देखिये-सारी विधियाँ महात्मा बुद्ध ने बड़ी ईमानदारी से अपनायीं और उसी समय जब कि भगवान महावीर भी मौजूद थे, उस समय महात्मा बुद्ध का शरीर तो सूख गया और महावीर स्वामी का शरीर नहीं सूखा । कुछ लोग कहते है कि महात्मा बुद्ध का बुढ़ापा आया इसलिये शरीर सूखा, पर ऐसी बात नहीं है। शरीर के जो धर्म हैं बाल सफेद हो जाना, शरीर में झुर्रियां पड़ जाना, कमर झुक जाना आदि ये सब बातें तो महावीर स्वामी के शरीर में भी तो होनी चाहिये थी पर ये क्यों नहीं हुई ? शरीर के जो अवश्यम्भावी परिवर्तन हैं वे होने ही चाहिये पर महावीर स्वामी के शरीर में क्यों नहीं हुआ और महात्मा बुद्ध के शरीर में हुआ। तो बात यहाँ क्या थी कि महात्मा बुद्ध । की अपनी साधना में कहीं चूक हो गई थी और महावीर स्वामी को कहीं चूक
नहीं हुई। ... मुझे कबीरदास जी का यह वाक्य बड़ा सुन्दर लगता है-"ज्यों की त्यों
घर दीनी चदरिया"-याने इस शरीर को कितना ही तपश्चरण में लगाया फिर भी इसमें कुछ कमी न आयी, ज्यों की त्यों ही धरी रह गई।
सन्यास से शरीर में कोई कमी नहीं आनी चाहिये क्योंकि वहाँ पर किसी
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प्रकार की बाहरी चिन्तायें नहीं होतीं । गृहस्थी को तो गृहस्थी के बीच नाना प्रकार की चिन्तायें होती हैं, उन चिन्ताओं के कारण उनके शरीर में कमजोरी आ जाना स्वाभाविक ही है पर सन्यास से शरीर में कोई कमी न आनी चाहिये, बल्कि शरीर में अगर कोई कमी हो तो उसकी भी पूर्ति हो जानी चाहिये । तो इस सूत्र को पा लिया था भगवान महावीर ने जिसके पा लेने पर फिर उनके शरीर में कोई कमी नहीं आयी, उनके शरीर की शक्ति क्षीण होने के बजाय उनमें अनन्त वीर्य प्रकट हुआ। जिस शरीर में रहने वाले आत्मा में अनन्त वीर्य प्रकट हो जाता है वह शरीर भी अनन्त शक्तिशाली हो जाता है। तो शरीर भी क्यों शक्तिशाली हो जाता इसमें एक बहुत बड़ा महत्वपूर्ण राज है । उस राज को भी समझना होगा।
भगवान महावीर स्वामी के ध्यान में नासाग्र दृष्टि एक मुख्य बात थी। नाक के बिल्कुल सीध में उनकी दृष्टि थी। यह नाक की सीध का एक बड़ा प्रमुख केन्द्र है। और यदि वहां से भी शिथिल हो जावे तो फिर नाभि जीवन का एक बड़ा महत्वपूर्ण केन्द्र है। हमारा जन्म होता है तो नाभि से, हमारा पोषण होता है तो नाभि से और इस जन्म में जो हम भोजन करते हैं वह भी पचता है हमारी नाभि से ? इस शरीर में जो शक्ति सप्लाई होती है वह भी नाभि से होती है।
तो नाभि में कोई ऐसा सूत्र है जिसके कारण वह नाभि केन्द्र सक्रिय होता है। नामि जब प्रकाशित हो जाती है तो वह शक्ति ग्रहण करती है। देखिये नाभि में एक कमल है। वह कमल कहीं ऐसा भौतिक कमल नहीं है जो कि वनस्पति का बना हुआ हो । वह कमल है ऊर्जा रूप । जिसे कोई-कोई कहते ट्रांसमीटर । ऐसा कमल है और वह बन्द है । इस नासाग्र दृष्टि के द्वारा उस कमल को खोला जा सकता है। जब वह कमल खुल जाता है तो जैसे तालाबों में आपने देखा हो कि जब सूर्य उदित हो जाता है तो कमल खिल जाते हैं
और जब सूर्य छिप जाता है तो कमल बन्द हो जाते हैं। ऐसे ही हमारे नाभि में जो कमल है वह भी सूर्य के उदित होते ही खुल जाता है और जब सूर्य का
अस्त होता है तो वह बन्द हो जाता है। इसलिये तो कहा गया है कि आप __ दिन में भोजन करें।
हमारी नाभि सूर्य से ऊर्जा ले रही है और वह ऊर्जा हमारे भोजन को पचाने में सहयोगी होती है। इसलिये दिन में किया ह भोजन पचंगा और आपके शरीर में लगेगा और रात्रि में किया हुआ भोजन हमें शक्ति नहीं दे सकता क्योंकि वहाँ सूर्य की ऊर्जा नहीं मिल रही है। एक बात तो यह भोजन
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के सन्दर्भ में बतायी और दूसरी बात यह है कि अगर आपकी नाभि खिल चुकी है तो वह सूर्य से इतनी ऊर्जा स्टोर कर लेगी कि जिसको पा लेने के पश्चात् फिर आपको भोजन की आवश्यकता नहीं रह जाती।
आज के जमाने में इस बात को समझना कोई कठिन बात नहीं है। हमने एक इलेक्ट्रोनिक कालेज में जाकर देखा कि बहुत-बहुत रिसर्च (खोज) हो रही है। वहाँ हमने देखा कि ऐसे-ऐसे बल्ब तैयार कर लिये गये हैं जिनमें सूर्य से ऊर्जा का स्टोर कर लिया जाता है। वहाँ पर सूर्य की ऊर्जा से ६० बाट । का बल्ब जलाकर हमें दिखाया। अब भला बताओ एक ६० वाट का बल्ब जल .. सकता है धूप से, ऐसे ही और भी यन्त्र बने हैं जो कि आपके कमरों को ठण्ड के दिनों में भी गर्म कर सकते हैं। सूर्य की ऊर्जा से चलती हुई एक घड़ी भी । हमने देखी है। उस घड़ी में चाबी भरने की जरूरत नहीं रहती। वह सूर्य की । गर्मी से चलती है और दिन में वह इतनी गर्मी स्टोर कर लेती है कि फिर वह रात में भी चलती रहती है। "
आज सारे विश्व के अन्दर ऊर्जा की जो इतनी कमी चल रही है उसके । लिये यह खोज चल रही है कि सूर्य के प्रकाश से कैसे ऊर्जा को संग्रह किया। जाय, आजकल कुछ रिक्शे ऐसे भी तैयार हो गये हैं जो कि सूर्य की ऊर्जा से चलते हैं।
तो कहते हैं कि अगर सूर्य की ऊर्जा से रिक्शे घड़ी वगैरह तक चल सकते हैं तो फिर उससे हमारी नाभि में उस ऊर्जा का स्टोर कर लेने पर शरीर के अन्दर की मशीनरी चल उठे तो उसमें क्या आश्चर्य है। इस नाभि केन्द्र के द्वारा जब सूर्य की ऊर्जा का स्टोर किया जाता है तो इसे कहा है आतापनयोग। इस आतापन योग के द्वारा आपकी नाभि सौर्य ऊर्जा का स्टोर कर लेगी और वह आपकी सारी मशीनरी को चलायगी। आप जब भोजन करते हैं तो इसको पचाने के लिये आपको शक्ति चाहिये। उसमें आपके दांत काम करते हैं। आपकी आंतें काम करती हैं, आपका लीवर काम करता है तब जाकर ऊर्जा पैदा होती है और जब सीधे ऊर्जा मिल जाय तो फिर वह ऊर्जा सारे शरीर को मिलती रहेगी। .
जितनी भी मशीनरी चलती हैं वे सामान्य रूप से ६ से 6 वोल्टेज से चलती हैं। इतनी ही ऊर्जा अगर शरीर को मिलती रहे तो वहाँ शरीर कृष न होगा। तो भगवान महावीर के पास यह पद्धति थी, उन्होंने सारी ऊर्जा को स्टोर कर लिया था जिससे उनको खाने पीने की भी आवश्यकता न थी। जैसे गर्म के अन्दर रहने वाले बच्चे को खाने पीने की क्या जरूरत ? वह तो
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नाभि की ऊर्जा से ही सब कुछ पाता रहता है, उसको खाना पीना न मिलने से उसके शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसी प्रकार भगवान महावीर ने जब सारी ऊर्जा को सीधे स्टोर कर लिया तो फिर उनके शरीर में कमजोरी कैसे आ सकती थी?
शरीर में अगर ऊर्जा की कमी होती है तो वहाँ आसन भी विचलित हो जाता है। आपको जो कमजोरी आती है, बीमारी आती है वह इसीलिए तो आती है कि जीवन के जो आवश्यक तत्व हैं वे इस बीमारी में कम हो जाते हैं। उन आवश्यक तत्वों के कम होने पर ही शरीर में ये सब बातें आती हैं।
इसलिए कहा कि जब ऊर्जा की कमी नहीं होती तो फिर शरीर कृप नहीं होता । शरीर थकता नहीं है एक बात । अब दूसरी बात यह है कि हमारे । मस्तिष्क के अन्दर ग्लैन्ड्स हैं जिन्हें योग में चक्र के नाम से कहा सहस्त्रार।
उनसे जो रस झरता है वह अगर पेट में पहुंच जाय तो नष्ट हो जाता है। उसकी अपनी साधना है, वह साधना जो होती है वह ध्यान से होती है। यदि ध्यान के बाद वह शरीर में रस पूरे रूप में पहुंचता है तो बुढ़ापा नहीं आता। __ क्या कारण है कि आज कल छोटे-छोटे बच्चों के भी बाल सफेद हो जाते हैं ? भगवान महावीर तो ७२ वर्ष की आयु के हो गये थे पर उनके बाल अन्त तक सफेद नहीं हये थे। तो बुढापा किन कारणों से आता ? इस कारण कि जैसे-जैसे चिन्तायें आती जाती हैं वैसे ही वैसे पेट काम करता है। बचपन में कुछ हारमोन्स काम करते हैं जवानी में और काम करते हैं और बुढ़ापा में और हारमोन्स काम करते हैं। कोई व्यक्ति बुढ़ापे में भी अगर चिन्तायें न रखे तो उसके बाल सफेद नहीं हो सकते । यह शरीर का तरीका है। वह योग से वैसा रखा जा सकता है जिससे कि बुढ़ापा न आये।
तीसरी वात-- भगवान महावीर ने सस्थास के लेते ही न अपना कोई गुरु बनाया। न किसी से कोई ग्रन्थ पढ़ा लिखा और न किसी से उन्होंने तत्वचर्चा की। बारह वर्ष तक उन्होंने जो तपश्चरण किया वह भी हमारे लिये कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उनको सिद्धि कैसे हुई । सिद्धि होना महत्वपूर्ण बात नहीं किन्तु सिद्धि कैसे हो यह महत्वपूर्ण बात है। किस विधि से उनको सिद्धि हुई उस विधि को हम अपना सकें यह महत्वपूर्ण बात है।
तो उन्होंने हमको क्या उपदेश दिया यह कोई हमारे लिये महत्व की बात नहीं। किन्तु वे बारह वर्ष तक कैसे जिये, कैसे रहे, यह हमारे लिये महत्त्वपूर्ण
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बात है। उससे हमें मार्ग दर्शन मिल सकता है। उन्होंने तत्व का क्या स्वरूप बताया वह हम नहीं जानना चाहते, किन्तु १२ वर्ष तक, उन्होंने क्या किया, यह हम जानना चाहते हैं।
बारह वर्ष तक उन्होंने ज्ञान का अर्जन नहीं किया, बारह वर्ष तक उन्होंने ध्यान किया। बारह वर्ष तक उन्होंने जो-जो भी आवरण थे उन सब को हटाया । बारह वर्ष तक वे प्रकृति के साथ जिये, बारह वर्ष तक उन्होंने जो साधना पी उस माधना का सार है नासाम। शरीर को बिल्कुल छोड़ दिया जा और नाभि पर ध्यान केन्द्रित किया जाय ।
धर्म है एक विज्ञान आपको आनन्द देने का, आपको अपनी सम्पत्ति जागृत कर देने का। धर्म पैदा नहीं होता, धर्म को उद्घाटित करना पड़ता है। वह धर्म तो अभी भी आपके पास है लेकिन आपको उसे परखना है। जैसे स्वर्ण जय खान से निकलता है तो वह पत्थर के रूप में होता है लेकिन जब उसे अग्नि में तपा कर उसका मैल दूर करके शुद्ध कर लिया जाता है तो वह स्वर्णत्व प्रकट हो जाता है ऐसे ही अपना धर्म अपने अन्दर है, उसको ढांको वाले आवरणों को सिर्फ हटाने भर की जरूरत है, वह धर्म स्वयमेव प्रकट हो जायगा।
धनं को आवरण करने वाले हैं ये रामद्वेषादिक विकार इनको हटाना है। इनके हटने पर अपना धर्म प्रकट हो जायगा।
इन आवरणों को हटाने की एक विधि तो यह है कि हम ध्यान करें अपनी नाभि पर । यह ध्यान ऐसा है कि ६-६ महीने बीत जायें फिर भी भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। भोजन लेना चाहें तो ले सकते हैं लेकिन कहीं ऐसा नहीं है कि भोजन कुछ दिन न मिले तो परेशान हो जायें।
आजकल के नवयुवक लोग यह कहते हैं कि हमें तो जो आज समागम मिला है उसका सुख भोग लें, आगे के स्वर्गों की बात को कौन देख आया कि मिलेगा किनहीं। सो मैं तो कहती कि वे बिल्कुल ठीक कहते, वर्तमान में शान्ति. सुख व आनन्द तो मिलना ही चाहिये, आगे फिर जो हो सो हो। तो उस वर्तमान आनन्द को पाने के लिए ध्यान के मार्ग में प्रयोगात्मक रूप में आना होगा। आप सुखासन या पद्मासन में किसी भी आसन से बैठकर अपनी नाभि पर ध्यान करना, नेत्रों को बिल्कुल ढीला छोड़कर नाभि पर ख्याल करना । जसका ख्याल करते हुए यह भी हो सकता है कि उसके साथ एक स्तर और जोड़ दें। ॐकार की तनि । उसमें जब आप श्वारा अन्दर ले जाते समय ख्याल करें तो सा स्यान करें कि जैसे ऊँ शब्द भीतर जा रहा है और जब श्वांस को बाहर,
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निकालें तो उस समय ऐसा ख्याल करें कि हमारे अन्दर से संकल्प, विकल्प, चिन्तायें ये सब बाहर निकली जा रही हैं।
यह सुनने मात्र की चीज नहीं है, प्रयोग करने की चीज है । अपनी श्वास को अन्दर और बाहर करते समय उस प्रकार का ख्याल प्रयोगात्मक रूप से करने की बात है । आपने देखा होगा कि जब कोई बच्चा सोता है तो वह बड़ी गहरी श्वांस लेता है । जब वह श्वांस अन्दर की ओर करता है तो उसका पेट फूल जाता है और जब वह श्वांस को बाहर निकालता है तब उसकी नाभि नीचे को दबती हुई दिखती है उस समय वह बच्चा निश्चित दशा में रहता हुआ श्वांस बाहर निकालता है तो उसका पेट खाली हो जाता है और जब । श्वांस को अन्दर की तरफ खींचता है तो उसका पेट घड़े की तरह भर जाता है । लेकिन वही बच्चा जब कुछ बड़ा होता है, नाना प्रकार की चिन्तायें करता है तो उस समय उसके शरीर का क्रम उल्टा हो जाता है याने जब श्वांस लेता है तो पेट खाली होता है और जब श्वांस को बाहर निकालता है तो पेट फूलता है। तभी तो आजकल के बच्चों की ऊँचाई कम हो गई।
पहले जमाने में तो ५८० धनुष तक के लोग होते थे पर आजकल तो ६ फुट भी मुश्किल से होते हैं। तो यह किस कारण से हुआ? इस कारण कि जो बच्चे अभी उग सकते थे। उनकी नाभि अभी विकसित हो सकती थी उन बच्चों के ऊपर बचपन से ही स्कूली शिक्षा का भारी बोझ लगा दिया गया और उस बोझ से उन बच्चों के मस्तिष्क पर तनाव आया जिससे उनका विकास रुक गया। उन चिन्ताओं के कारण उनकी ऊँचाई में फर्क आ गया। इसीलिए तो कहा कि जैसे-जैसे चिन्तायें बढ़ती है वैसे ही वैसे बुढ़ापा आता है और जैसेजैसे वुढ़ापा आता जाता है वैसे ही वैसे मानसिक तनाव बढ़ता जाता है जिससे यहाँ अशान्ति, पैनी, परेशानी और भी अधिक ती जाती है । तो उन सारी परेशानियों से बचने के लिए ध्यान की बात यहाँ कही जा रही है। ध्यान के प्रसंग में सबसे पहले नाभि करता की बात चल रही है। अपनी नाभि में एक कमल का ख्याल करें ताकि हमारे भीतर सौर ऊर्जा प्रस्फुटित हो सके। उससे हमारे शरीर में न कोई बीमारी आयगी, न भूख प्यास लगेगी, न गर्मी-सर्दी लगेगी। भूख प्यास आदिक ये सब बीमारी ही तो हैं।
आपने देखा होगा कि बुढ़ापे में सर्दी अधिक लगती है और जवानी में कम । जो १८ प्रकार के दोष कहे गए-जन्म, जरा, मरण, निद्रा, भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी, आदिक, ये सब बीमारी ही तो हैं। नाभि कमल के विकास के पश्चात् ज्यों-ज्यों वह विकसित होता जाता है त्यों-त्यों रोग दूर होने लगते हैं।
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________________ [ 241 किसी एक सीमा पर जाना है तो उसका उपाय क्या है ? उसका उपाय. यही है कि हम ध्यान की पद्धति सीखें। ध्यान की पद्धति सीखने पर फिर उसको प्रयोगात्मक रूप दें तो वहाँ सौर्य ऊष्मा प्रकट होगी जिससे शरीर से सम्बन्धित सारी बातें भी ठीक-ठीक चलती रहेंगी और साथ ही आत्मानुभव का काम भी चलता रहेगा / ये दोनों चीजें अगर चलती रहेंगी तो हम जीवन में आनन्द पा सकेंगे। इसके लिए हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना आनन्द नहीं आ सकता / शक्ति न होने पर फिर ध्यान का काम नहीं बन सकता। जैसे जब तक किसी व्यापार में आप धन नहीं लगाते तो व्यापार का काम चल नहीं सकता, इसी प्रकार शक्ति के बिना ध्यान का भी काम नहीं चल सकता। ध्यान के लिए यहाँ नाभि से शुरू किया। जीवन के ये तीन केन्द्र हैबुद्धि (मस्तिष्क), हृदय और नाभि, बुद्धि तर्क देती है, हृदय प्रेम देता है और नाभि तो केन्द्र ही है / वह शक्ति देती है। सबसे पहले उस केन्द्र बिन्दु का विकास चाहिये। ...... . . . . . .. .