Book Title: Maurya Chandragupta Vishakhacharya
Author(s): Chandrakant Bali
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य चन्द्रगुप्त विशाखाचार्य जैन-जगत् के बड़े बड़े तपस्वी, वीतराग जितेन्द्रिय एवं मेधावी मुनियों, उपाध्यायों एवं आचायों ने अपने विचक्षण व्यक्तित्व के बल पर महान्-से-महान् सम्राटों को श्रमन-जीवन यापन केलिए प्रेरित किया यह बात जैन समाज के लिए गौरवपूर्ण एवं महिमामयी मानी जाएगी। इसी संदर्भ में हम मौर्यवंशी - संक्षिप्त सीमा के अन्तर्गत गुप्तवंशी - चन्द्रगुप्त का समयांकन करने चले हैं। एतन्निमित्त कुछ एक महत्वपूर्ण मुद्दों का सरल परिचय देना हम साम्प्रत समझते हैं । - मौर्यवंश: उक्त वंश की स्थापना किसने की ? इसका समाधान अब इतना जटिल नहीं रहा। अब इतिहासकार इस बात पर सहमत हुए जाते हैं कि मौर्यवंश की स्थापना नंदवंश में से आठवें नन्द 'मौर्यनन्द' ने की। इस प्रसंग में मौर्यनन्द का उल्लेख इसलिए भी अनिवार्य हो गया है कि जैन समाज का इतिहास मौर्यनन्द के युग से स्पष्ट-से स्पष्टतर होने लगा है। कहते हैं— मौर्यनन्द ने कलिंग देश पर आक्रमण किया था और वहां से महावीरस्वामी की प्रतिमा उठा लाया था। जैन-संदर्भों से यह भी ज्ञात हो जाता है कि आठवें नन्द (मौर्यनन्द) ने कलिंग पर कब आक्रमण किया था ? परन्तु उनको संदर्भ-संप्रेषित तिथि' भरोसे के योग्य नहीं है। यूनानी इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित भारतीय काल-संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में हम जानते हैं कि आठवें नन्द ने ४५१ ई० पू० में कलिंग देश पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि 'खारवेल-प्रशस्ति' नाम से विख्यात अभिलेख से हो जाती है। इस प्रकार जैन इतिहास से जुड़ े हुए मौर्य नन्द को हम मौर्यवंश का प्रथम पुरुष मानते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य नाम से विख्यात मगध सम्राट् क्या मौर्यनन्द का पुत्र है ? इस प्रश्न के समाधान में 'अस्ति' और 'नास्ति'- दोनों किस्म के उत्तर मिलते हैं । जहाँ तक जैन-साक्ष्य का सम्बन्ध है, उससे पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य पुत्र है। इस स्थापना की दृढ़तर पुष्टि 'मुद्राराक्षस' नामक संस्कृत नाटक से भी हो जाती है । परन्तु हम समझते हैं कि कालगत वैषम्य के कारण मौर्यनन्द और चन्द्रगुप्त के दरम्यान पिता-पुत्र के रिश्ते की संभावना क्षीण है । 'नन्द' की भ्रान्ति में आकर लोग-बाग चन्द्रगुप्त मौर्य को पद्मनन्द का पुत्र मान बैठे हैं । यह भी अश्रद्धेय प्रसंग है। मौर्यनन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य के मध्य तीसरे व्यक्ति की चर्चा एक वरेण्य सत्य के रूप में सामने आ रही है। मौर्यनन्द के एवं चन्द्रगुप्त के पिता के रूप में 'पूर्वनन्द' का उल्लेख ' मनोरंजक भी है और अभिनन्दनीय भी है । यही कारण है कि 'कामन्दकीय नीतिसार' के टीकाकार ने लिखा है ''यह चन्द्रगुप्त का विशेषण है। इन संदर्भों के आलवाल में विकसित मौर्यवंश का परिचय इस प्रकार है : पुत्र १. जैन काल-गणना विषयक प्राचीन परम्परा (हिमवन्त थेरावली) से ज्ञात होता है कि वीरनिर्वाण संवत् १४९३७८ ई० पू० में झाटवेंनद ने कलिंग पर चढ़ाई की थी। यह विश्वसनीय नहीं है। कारण, ४३०-३४२ ईसवी पूर्व में मगध पर नवम नंद शासन कर रहा था। अलबत्ता यदि यह संख्या वीरजन्म से मान ली जाय तो यथार्थपरक हो भी सकती है। यथा ५६६-१४६ ४५० ई० पू० में आटवें नन्द ने कलिंग पर आक्रमण किया होगा । २. वेदवाणी, बहालगढ़ (सोनीपत) वर्ष ३३, अंक ७. ३. वीर निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना मृनि कल्याण विजय; पृष्ठ १६६ । ४. द्रष्टव्य अंक २ और श्लोक संख्या ६ । - श्री चन्द्रकान्त बाली, शास्त्री (क) पूर्वनन्दनं कुर्यात् चन्द्रगुप्तं हि भूमिपम् ॥ (ख) योग यशः शेषे पूर्व नन्दसुतस्ततः । चन्द्रगुप्तः कृतो राजा चाणक्येन महौजसा ।। अंग इतिहास, कला और संस्कृति ५. - कथा सरित्सागर : १४/११९ - ७३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( (मगध सम्राट) पद्मनन्द / मौर्यनन्द [ कुणाल-बन्धुपालित-इन्द्र पालित-देववर्मा-शतधार / पूर्वनन्द-चन्द्रगुप्त (१)-बिन्दुसार-अशोक 3 -1 बृहदश्व तिष्यगुप्त पुष्यमित्र (उज्जयिनी) बलमित्र (184-60) सम्प्रति द्रव्यवर्धन | मगधसत्ता बृहस्पति चन्द्रगुप्त (2) | पर वृषसेन साहसाङक | शुंगवंश का अधिकार रहा पुष्यधर्मा विक्रमार्क पुष्यमित्र' प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्यवर्धन (दधिवाहन वा) का पुत्र चन्द्रगुप्त एक वरेण्य व्यक्तित्व है, जिसकी अमर गाथाओं से जैन-साहित्य सम्यक्तया आप्लावित है। गुप्तवंश : जैन-ग्रन्थों से पता चलता है कि सम्राट-अशोक ने गुप्त-संवत्सर' चलाया। इस पर दिवंगत मुनिश्री कल्याणविजय ने अपनी नकारात्मक टिप्पणी भी लिखी है। इसके विपरीत हम इस गुप्त-संवत्सर पर अनुसंधानपूर्वोचित श्रद्धा रखते हैं और एतन्निमित्त साक्ष्य ढढने में तत्पर हैं / यह तो जैन-शास्त्रों में लिखा है कि जब उज्जयिनी पर से सम्प्रति (वंश) का शासन समाप्त हो गया, तब "वहाँ का राज्यासन अशोक के पुत्र तिष्यगुप्त के पुत्र बलमित्र और भानुमित्र नामक राजकुमारों को मिला।" बहुत संभव है, तिष्यगुप्त से इस वंश का नाम ‘गुप्तवंश' पड़ा हो ! हम जानते हैं कि सूर्यवंश से 'इक्ष्वाकुवंश' और इश्वाकुवंश से 'रघुवंश' का शाखा-उपशाखा के रूप में प्रस्फटन इतिहास-सम्मत है; तद्वत्, नंदवंश से 'मौर्यवंश' और मौर्यवंश से 'गुप्तवंश' का प्रस्फुटन वंश-विज्ञान की दृष्टि से प्रशस्त है और ऐतिह्य है। हम चन्द्रगुप्त के परिचय-विश्लेषण में 'गुप्तवंश' को ध्यान में रखेंगे। 12 वर्षीय अकाल : भारत में 12-12 वर्ष के अकाल पड़ने का इतिहास काफी पुराना है। पुराण-शास्त्रों से ज्ञात होता है कि महाराजा प्रतीप के जमाने में १२-वर्षीय (3364-3352 ई० पू०) अकाल पड़ा था / जैन-इतिहास के अनुसार भी १२-वर्षीय दो अकाल पड़ने की सूचना है। पहला अकाल पद्मनन्द (अर्थात् नवम नंद) के शासनकाल में, 382-370 ईसवी पूर्व में पड़ा था। दूसरा अकाल शंगवंशी पुष्यमित्र के शासनकाल में, अर्थात् 160-148 ईसवी पूर्व में पड़ा था / इन दो अकाल-घटनाओं की वजह से जैन-जगत को महती अपुरणीय क्षति उठानी पड़ी। चूंकि प्राङ मौर्य युगों में जैन-आगम केवल कण्ठस्थ हुआ करते थे, अतः अकाल के दुष्प्रभावों के परिणामस्वरूप असंख्य जैनमुनि दिवंगत हुए और उनके अमर निर्वाण के साथ ही कण्ठस्थ जैन-आगम भी तिरोहित हो गए। उनके पनरआविर्भाव की सर्वविध संभावनाएँ भी लुप्त हो गई थीं। लगभग यही स्थिति दूसरे अकाल में भी थी। इन दोनों अकालों के बीच में एक स्पष्ट विभाजक 1. यदा पुष्यमित्रो राजा प्रघातितः तदा मौर्य वंशः समच्छिन्नः // -प्रशोकावदान 2. विक्रमार्क का उज्जयिनी में राज्याभिषेक; हिमवन्त थेरावली (वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणनाः पृष्ठ 185) और निर्वाण से 236 वर्ष बीतने पर मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की और वहां के राजा क्षेमराज को अपनी प्राज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना 'गप्त-संवत्सर' चलाया।' इस पर मनिधी की टिप्पणी (3) ध्यानाकर्षित करती है : "मालम होता है थेरावली-लेखक ने अपने समय में प्रचलित गात राजामों के चलाए गुप्त-संवत् को अशोक का चलाया हुया मान लेने का धोखा खाया है। -वीर निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना : पृष्ठ 171 आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेखा को आसानी से पहचाना भी जा सकता है। पहला अकाल (382-370 ई० पू०) सार्वभौम था, जबकि दूसरा अकाल सार्वभौम न था, बल्कि उत्तर भारत तक सीमित था। जैनशास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है उक्त अकाल की विभीषिका से संत्रस्त असंख्य मुनि, उपाध्याय एवं आचार्यगण दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए। इससे जाहिर है कि उस समय (160-148 ई० पू०) दक्षिण भारत अकाल की दुश्छाया से सुरक्षित रहा होगा। भद्रबाह : जैन-जगत की आचार्य परम्परा में महास्थविर भद्र बाहु का स्थान अत्यन्त वरेण्य नजर आता है। पहले अकाल के दुश्चक्र से बच निकले आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनके सान्निध्य में जैन-आगमों की पुनरुद्धार-भावना से प्रेरित जैन-मुनियों ने भगीरथ प्रयत्न करके जैन-शास्त्रों का आकलन किया था। बल्कि यूं कहना चाहिए कि जन-आगमों की रक्षा में भद्रबाहु का योगदान दिव्य एवं प्रथम कोटि का था। भद्रबाहु के समनामधारी एक अन्य भद्रबाहु भी हुए हैं, जो जन्मना ब्राह्मण थे और प्रसिद्ध आचार्य वराहमिहिर के भाई थे। सामान्यतया यह बताया जाता है कि पहले तो दोनों भाई जैन-दीक्षा लेकर श्रमण-जीवन यापन करने लगे, परन्तु भद्रबाहु को कनिष्ट होने पर भी शीघ्र ही 'आचार्यत्व-पद' पर प्रतिष्ठित किया गया; अतः आचार्यत्व-वंचित वराहमिहिर क्रोध के वशीभूत पुनः 'ब्राह्मणत्व' अंगीकार करके ज्योतिर्विद्या के बलपर जीवन-यापन करने लगा। चिन्तन : दो व्यक्तियों का समनामधारी होना भ्रान्ति-सृजन में अपने-आप में एक अपूर्व कारण है, जो कहीं भी दो समनामधारी व्यक्तियों में प्रायः होता रहता है, पर यहाँ दोनों भद्रबाहुओं के युग में अकाल के अस्तित्व ने उनके समीकरण को और अधिक गंभीर बना दिया है। इतना ही नहीं, चन्द्रगुप्तों का (जो सौभाग्यवश दोनों मौर्य थे) अस्तित्व भी इनके समीकरण में पर्याप्त योगदानी प्रतीत हो रहा है। यहाँ बड़े गंभीर अनुसंधान की अपेक्षा है, ताकि समीकरण को बिलगाकर भद्रबाहुओं की ठीक-ठीक पहचान हो सके। साहसाङ क-संवत् : 146 ईसवी पूर्व का साल : उज्जयिनी में एक राजा साहसाङ्क हुआ है, जिसने अपने नाम से 'साहसाङ कसंवत्' चलाया था। बड़े संतोष की बात है कि साहसाङ क-संवत् की परम्पराएँ मिल गई हैं। यथाप्राप्त काल-परम्परा के परिशीलन से मालूम पड़ता है कि साहसाङ क-संवत् का प्रतिष्ठान-वर्ष 146 ईसवी पूर्व का साल है। इसी वर्ष की एक अन्य महत्त्वपूर्ण सूचना भी है। वराहमिहिर ने 'कुतूहलमंजरी' की रचना युधिष्ठिर-संवत् ३०४२=जय संवत्सर में की थी। विषयान्तर होने पर भी यह जान लेना निहायत जरूरी है कि महाराजा युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था-पहला अभिषेक पाण्डु-निधन के पश्चात् 3188 ई० पू० में हुआ था; दूसरा अभिषेक भारती संग्राम के पश्चात् 3148 ई०पू० में हुआ था। अतः प्रथम अभिषेक-काल (3158 ई०पू०) के 3042 वर्षों के पश्चात् अर्थात् 3188-3042-146 ई० पू० में 'कुतूहल-मंजरी' की रचना हुई-इसे शंकातीत ही समझो / इस अद्भुत संयोग-लब्ध संबत्सरसामंजस्य को देखते हुए महाराजा साहसाङक तथा आचार्य वराहमिहिर की 'समसामयिकता' को केवल अनुमेय नहीं मान सकते / यह एक वास्तविकता है, जिससे यथासमय लाभ उठाया जाएगा। प्राचीन शक : भारतीय इतिहास, विशेषतया जैन इतिहास, शक-संवत् के माध्यम से ही जाना-पहचाना जाता है / शक-संवत् को एक तरह से इतिहास का मील-पत्थर मान लिया गया है। आनन्द की बात यह है कि शक-संवत् की प्रामाणिक प्रतिष्ठापना वराहमिहिर के काल-सूत्र से : 'षट्-द्विक-पंच-द्वियुतः शककालः तस्य राज्यस्य।" मानी जाती है। इस प्रसंग में वराहमिहिर की आप्तता इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गई है कि वराहमिहिर 'द्रव्यवर्धन-चन्द्रगुप्त-साहसाङक' का निकट-सम्पृक्त व्यक्ति है। वराहमिहिर का 1. "इतश्च तस्मिन् दुष्काले कराले कालरात्रिवत् / निर्वाहार्थ साधुसंघ: तीरं नीरनिधेर्यो।" -परिशिष्ट पर्व 6/55 ! "प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रबाहु द्विजो बांधवी प्रवजितो। भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्ट: सन् वराहो द्विजवेषमादृत्य वाराही संहितां कृत्वा निमित्तै जीवति / " -कल्पकिरणावली 163 चतुर्विशत्यधिकेऽब्दे चतभिनवमे शते शु के साहसमल्लाङ्के नाभ स्ये प्रथमे दिने संवत् 644, भाद्रपद सृदि 1, शुके श्रीमद् विजयसिंहदेव राज्ये / यथा२४४४=६६+६००-६६६-१४६=८५० ईसवी सन् ; संवत 144-64-850 ईसवी सन् / विदित हो, गर्द भिल्ल वंश ने चार संवत् चलाए , इनमें से प्रथम "विक्रम संवत् 15-64 ईसवी पूर्व से चला था। 4. स्वस्ति श्री नप सूर्य मनजशके शाके द्विवेदाम्बर --(2042) मानाब्दमिते स्वनेह सि जये वर्षे वसन्तादिके / वर्षनाम फाल्गुनः / जैन इतिहास कला और संस्कृति 75 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निधन शक संवत् 506=113 ईसवी पूर्व में हुआ माना जाता है। संदर्भ+दन्तवार्ता के समन्वय से उसकी आयु 195-113 ईसवी पूर्व की मानी जा रही है। यहाँ यह शंका होनी नितरां नैसर्गिक है कि राष्ट्रीय एवं बहु-चचित शक-संवत् की उपेक्षा करके प्राचीन शक-संवत् की कल्पना करना तथा उसकी संदिग्ध उपयोगिता की स्थिति में उससे काम चलाना कहाँ तक उचित है ? इस शंका का समाधान आवश्यक है। जैनग्रन्थों से ज्ञात होता है कि मौर्य-वंश से पूर्व नन्द-वंश था, नंद-वंश से भी पूर्व शक-वंश था। इस पूर्वोत्तर शृंखला में आबद्ध' शक-वंश की सत्ता' लगभग जैन-जागरण की समकालिक वास्तविकता है, इसलिए नन्द-पूर्व शक-वंश द्वारा स्थापित शक-संवत् ही जैन-इतिहास का सशक्त काल-बोधक सूत्र है, जिसकी उपेक्षा कर सकना संभव नहीं है / ___ चूंकि बराहमिहिर ने अपनी रचना (कुतूहल मंजरी) में युधिष्ठिर संवत् 3042 का संकेत दिया है, अतः उसी से 2566 वर्ष पश्चात : 318:-2566 = 622 ई० पू० में स्थापित शक-संवत् की प्रासंगिकता को मंजूर करके ही हमें जैन-अनुसंधान में उद्यत होना चाहिए। ऐतिहासिक स्थिति : "भारतवर्ष' समग्र ऐतिहासिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में मान्यताप्राप्त था, अर्थात् सारा भारतवर्ष एक था और आज भी उसकी यही स्थिति है / परन्तु शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसके अनेक प्रभाग' परिकल्पित किये गए थे। केन्द्रीय सत्ता एकमेव थी और वह पाटलीपुत्र में सन्निहित थी। कम-से-कम सिकन्दर-आक्रमण तक उसकी यही 'एकात्मता' सर्वमान्य थी; जैसा कि हमने लिखा है। उस समय कौशल, कौशाम्बी, मालव, सिन्ध, साँवीर, लाट, काश्मीर, हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ आदि प्रदेश भारतीय भौगोलिक एवं राजनयिक इकाई के अंग-स्थानीय प्रदेश माने जाते थे / मगध-सत्ता को सहज भाव से केन्द्र सरकार तथा अन्य प्रभागीय सत्ता को प्रदेश सरकार कह सकते हैं / यही कारण है पुराण-शास्त्रों में मगधावीशों का शासन-काल संवत्सरोल्लेख-पूर्वक है, जबकि प्रादेशिक राजाओं का नामाङ कन मात्र से काम चलाया गया है। हमारे आलोच्य समय में मगध पर पुष्यमित्र का शासन था और मालवा पर गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन था। उज्जयिनी उस समय मालवा की राजधानी थी। विमर्श-परामर्श समनामधारी दो चन्द्रगुप्तों के अस्तित्व से भारतीय इतिहास अस्तव्यस्त हुआ ही है। अथवा हम उसे समझने में असफल रहे हैं / इस भ्रान्ति के आविर्भाव का कारण दो-दो अकालों का घटित होना भी है, और अपरिपक्व अनुसंधायकों में अकाल-घटनाओं का कालगत विश्लेषणात्मक परिचय प्राप्त करने की अक्षमता भी है, फिर चन्द्र गुप्त एवं अकाल-घटना से जुड़े हुए समनामधारी दो भद्रबाहुओं का वस्तुपरक परिचय खोजना भी किसी ने आवश्यक नहीं समझा / हम भद्र बाहुओं के प्रति श्रद्धाभिभूत जरूर थे, पर आँख उठा कर उन्हें देखने और परखने की योग्यता से हम 'कोरे' थे . परिणामतः यह भ्रान्ति अपनी जड़ जमाकर उद्भूत हुई कि पूर्वनन्दपुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य भद्र बाहु के प्रभावाकर्षण से जैन-साधु हो गया था। किसी ने यह सोचने की आवश्यकता नहीं समझी कि क्या चन्द्रगुप्त युग में महास्थविर भद्रबाहु विद्यमान भी थे ? जैन-साक्ष्यों से हम पूर्णतया अवगत है कि महास्थविर का महाप्रयाण' वीर-संवत् 170 =357 ई० पूर्व में हुआ था। उस समय तक चन्द्र गुप्त पदासीन नहीं हुआ था। पौराणिक एवं जैन-साक्ष्यों से हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं: चन्द्रगुप्त मौर्य 342 ईसवी पूर्व में अभिषिक्त हुआ था। हालाँकि आधुनिक इतिहासकार चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए 322-21 ईसवीपूर्व का समय बताते हैं / चूंकि हम आधुनिक विचारों की अवहेलना करना नहीं चाहते और अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रति अविचल निष्ठा भी हमें अभीष्ट है, अतः चन्द्रगुप्त मौर्य का समय 342-321 ईसवीपूर्व मानने में कोई विप्रतिपत्ति शेष नहीं रह जाती। पौराणिक साक्ष्यों को उपस्थापित करने से निबन्ध का विस्तार हो जाएगा, अतः हम अधिक-से-अधिक जैन-साक्ष्यों तक सीमित रह कर विचार करते हैं / जैनपट्टावलियों के अनुसार : -तित्थोगाली 705. 1. नवाधिकपंचशतसंखए शाके (506) वराहमिहिराचार्यों दिवंगतः / 622-506=113 ईसवी पूर्व में वराहमिहिर का निधन हुप्रा / ता एवं सगसो य नंदवंसो य मरुयवंसो य / सयराहेण पणट्ठा समयं सज्झाणवंसेण // (क) चौदस पूव च्छेदो वरिससते सत्तरे विणिदिट्ठो / साहम्मि थूलभद्दे अन्ने य इमे भवे भावा / (ख) प्रार्य सुधर्मा 20, जम्बू 44, प्रभाव 11. शय्यंभव 23. यशोभद्र 50, संभूति विजप 8, भद्रबाहु 14-170, 527-170 = 357 ई० पूर्व का साल। -तित्थोगाली पइन्नय आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति हरिवंशपुराण तित्थोगालीपइन्नय राजा पालक == नंद राज्य = विविध तीर्थ कल्प 60 155 155 215 215 215 215 वीर-निर्वाण से 215 वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हआ। यहाँ एक विशेष 'शब्द' हमारा ध्यान आकर्षित करता है, वह है-निर्वाण / हमने निर्वाण का अर्थ समझ लिया है- 'मोक्ष' / जबकि कोशग्रन्थानुसार नानार्थक 'निर्वाण' का अर्थ केवल मोक्ष ही नहीं है, बल्कि केवली ज्ञान को भी 'निर्वाण' कहते हैं। यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है कि 42 वर्ष की वय में महावीरस्वामी को केवली ज्ञान हुआ था। वह वर्ष 566 - 42=557 ई० पू० का था, सो 557-215 = 342 ई० पू० में चन्द्र गुप्त मौर्य का चाणक्य की सहायता से मगधसम्राट के रूप में अभ्युदय जैन-मान्यता के सर्वथा अनुरूप है और यही मान्यता पुराण-शास्त्रों की भी है। इस आकलन के अनुसार नन्दकालीन अकाल (382-370 ई० पू०) चन्द्र गुप्त-अभिषेक के २८-वर्ष-प्राक् समाप्त हो चुका था। इतना ही नहीं, उस समय तक महास्थविर भद्रबाहु के दिवंगमन को भी 15 वर्ष व्यतीत हो चुके थे। निष्कर्षतः काल-विसंगति के संदर्भ में अकालघटना के परिप्रेक्ष्य में चन्द्र गुप्त और भद्रबाहु को करीब-करीव लाना या बताना निरा अनैतिहासिक है। फिर कहाँ रह जाता हैचन्द्रगुप्त मौर्य का मुनिवेश धारण करना और जैन-यतियों के साथ दक्षिण में चले जाना ? इस समग्र सन्दर्भ-जाल के परिवेश में चन्द्रगुप्त मौर्य की जैन दीक्षा लेने की बात हठपूर्वक मन और मस्तिष्क से निकालनी ही होगी। अब गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य की बात करते हैं। हम पतञ्जलिविरचित 'महाभाष्य' तथा वामनजयादित्य-विरचित काशिका' में पड़ते हैं-'पुष्यमित्र सभम्' 'चन्द्रगुप्त सभम्। इन दो नरनाथों की सभा में कौन-कौन कोविद-कवि विद्यमान थे-यह बताना यहाँ अप्रासंगिक है, अलबत्ता इतना स्मरण रख लेना बहुत जरूरी है-पुष्यमित्र की सभा में व्याकरणमूति पतंजलि विद्यमान थे, चन्द्रगुप्त की सभा में वामन-जयादित्य जैसे भाषामूर्ति व्याकरण-रत्न विद्यमान थे / अतः इनका एक अत्यल्पाक्षरी संदर्भ बड़ा निर्णायक सिद्ध हुआ है / पहले तो इन संदर्भो से इनका पौर्वापर्य का ज्ञान होता है। मगधनरेश पुष्यमित्र पूर्वोदित व्यक्ति है, उज्जयिनो-नाथ चन्द्रगुप्त पश्चादुदित व्यक्ति है / पुष्यमित्र 185-184 ई०पू० में मगध-सम्राट् बना था / पुरणा-शास्त्र प्रतिपादित करते हैं कि (चन्द्रगुप्त मौर्य के) १३७वे वर्ष बाद पुष्यमित्र हुआ। पौराणिक काल-गणना के अनुसार सप्तर्षिसंवत् (1) 124 =321 ईसवी पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य का निधन हुआ, सो 321-137-+184 ई०पू० से पुष्यमित्र का युग आरम्भ होता है। आधुनिक इतिहासकारों का अभिमत भो इस मान्यता से भिन्न नहीं है। उनके मतानुसार सम्राट अशोक का निधन 232 ईसवीपूर्व में हुआ। तत्पश्चात् कुणाल ८+बन्धुपालित ८+इन्द्र पालित १०+देववर्मा 7+ शतधार 8+ बृहदश्व 7 - योग 48 वर्ष; सो, 232 48= 184 ई० पू० में सम्राट् पुष्यमित्र का आगमन पौराणिक भी है, ऐतिहासिक भी है। यदि पट्टावलियों में अंकित पुष्पमित्र वही है, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, तो मानना होगा कि जैन-मान्यता भी पौराणिक स्वीकृति से बहुत दूर नहीं है। हम पिछले अनुच्छेद में पढ़ आए हैं त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति, हरिवंश पुराण, तित्थोगाली और विविधतीर्थकल्प के अनुसार वीरनिर्वाण से 215 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हुआ। उससे 160 वर्ष बाद पुष्पमित्र मगध-सम्राट् बना। ये सब मिलाकर 215+160 =375 वर्ष हुए। अतः महावीरस्वामी के केवली ज्ञान से 371 वर्ष बाद, अर्थात् 557-375=182 ई० पू० में पुष्यमित्र का अभ्युदय जैन-कालगणना सम्मत है, जो पौराणिक स्वीकृति से केवल दो वर्ष न्यून है। हमने पुष्यमित्र के काल-निर्धारण पर इतनी विस्तृत चर्चा इसलिए की है कि पुष्पमित्र के संदर्भ में गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य का समय निश्चित कर सकें। चन्द्रगुप्त मौर्य (२)पुष्यमित्र के बाद उज्जयिनीश्वर बना, पर वह कब बना ? इसका उत्तर हम विपरीत क्रम से लेते हैं। चन्द्रगुप्त के पुत्र साहसाङ क ने अपना संवत् चलाया, जो 146 ई० पू० से परिगणित हुआ : हम मान लेते हैं -146 ई० पू० में 1. कैवल्य निर्वाणं नि:श्रेयसममृतमक्षरं ब्रह्म। अपुनर्भवोऽपवर्ग : मुक्ति मोक्षो महानन्दः / / 2. (क) संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः। (ख) संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास : प्रथम भाग : पृष्ठ 325 / 3 सप्तविंशत् शतं पूर्ण तेभ्यो शुगान गमिष्यति / -हलायुधकोश 124 -किरात 0 3/14 -वाय जैन इतिहास, कला और संस्कृति Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहसाङ क उज्जयिनीश्वर बना होगा / 146 ई० पू० चन्द्रगुप्त राज्य की अवरसीमा मानने में कोई आपत्ति नहीं है। फिर इस युग में १२-वर्षीय अकाल का उल्लेख महत्त्वपूर्ण निर्णायक दस्तावेज की हैसियत पा गया है। हम अकाल-प्रकरण में पढ़ आये हैं दूसरा अकाल 160-148 ई० पू० में पड़ा था। और यहा थोड़े से अनुमान की भी गुंजाइश है कि चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक' 170 ई०पू० में हुआ होगा। इस तरह अनुमान+संवत्संदर्भ दोनों के परिणामस्वरूप उज्जयिनीश्वर चन्द्रगुप्त का शासनकाल 170-147 ई० पू० तक सहज भाव से स्वीकार किया जा सकता है / १२-वर्षीय 'अकाल' इस काल-सीमा के अन्तभुक्त हो ही जाता है। यही इसके पूर्वापर-क्रम का हमने उज्जयिनीश्वर चन्द्रगुप्त को बार-बार गुप्तान्वयी लिखा है। इसका प्रमुख कारण अशोक पुत्र तिष्यगुप्त की वंशवल्लरी में चन्द्रगुप्त को गुप्तान्वयी मानना वंशविज्ञान-सम्मत है। फिर इसके सभा-पंडित वामन-जयादित्य का होना एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ से अवगत होता है। उसके अनुसार साहसाङ क को गुप्तान्वयी लिखा गया है। अत: साहसाङक के संवत् से प्राग्वर्ती चन्द्रगुप्त को वामनजयादित्य के उल्लेख के साथ गुप्तान्वयी मानना विज्ञान-सम्मत है, तर्क-संगत है और संदर्भ-सिद्ध भी है। भद्रबाहु के समनामधारी भद्रबाहु की पहचान अब इतनी जटिल नहीं रही। भद्रबाह ने चन्द्रगुप्त को संभाव्य दुष्काल की सूचना दी थी। इसका प्रभाव चन्द्रगुप्त पर पड़ा / चन्द्रगुप्त का अन्य नाम 'चन्द्रगप्ति' भी सुनने में आता है। यही चन्द्रगुप्त भद्र बाहु से जैन दीक्षा लेकर विशाखाचार्य बन गया। भद्रबाह का समय 160-100 ईसवीपर्व तक मानने योग्य है / चन्द्रगुप्त ने योगबल द्वारा देह-विसर्जन किया / यहाँ भूयोभूयः स्मरण रखने की बात यह है कि विशाखाचार्य होनेवाले चन्द्रगुप्त को सर्वत्र उज्जयिनीश्वर ही लिखा है। चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु के शिष्यत्व-गुरुत्व की मान्यता सर्वत्र देखने में आती है / बस अन्तिम चर्चा | श्रवणबेलगोल जैन-तीर्थ पर भद्रबाह-चन्द्रगुप्त की चर्चा एक विख्यात शिलालेख में वर्तमान है। यह भी अनुमान है कि उसका समय शक-संवत् 572 है / यदि उक्त शिलालेख पर 572 शक उत्कीर्ण हैं, तो मानना होगा उज्जयिनी की उक्त धार्मिक गाथा का यह प्राचीनतम साक्ष्य है, जो 622 ईसवी पूर्व से गिना जाता है : 622-572=50 ई०पू० के प्रमाण से बढ़कर और प्रमाण क्या होगा? 1. "गुप्तान्वय जलधर मार्ग यभस्ति वामनजयादित्य प्रमुख मुख कमल विनिर्गत-सूक्तिमुक्तावली मणिकल मंडित वर्णन विक्रमाङ्कनं साहसाङ्कम् / -कन्नड़ पंचतन्त्र, आल इंडिया ओरिएण्टल कान्फ्रेंस मैसूर, दिसम्बर 1935, पृष्ठ 568 / 2 ".."भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्यामष्टांगमहानिमित्ततत्वज्ञेन काल्यशिना निमित्तेन द्वादश संवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्वसंघ: उत्तरपथाद् दक्षिणपय प्रस्थितः।" -पार्श्वनाथबस्ति का लेख (क) “चन्द्रगुप्ति प स्तवाऽचकच्चारु गुणोदय: / " -रत्ननंदिरचित भद्रबाहुचरित्र (ख) “चन्द्रगुप्तिमुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूणिताम / सर्वसंधाधिपो जातः विषखाचार्य संज्ञक: / / " -बृहत्कथाकोश 4. "ततश्चोज्जयिनीनाथ: चन्द्रगुप्तो महीपतिः / वियोगात यतिनां भद्रबाहु नत्वाऽभवन्मनिः।" - भद्रबाहुचरित्र 5. "समाधिमरणं प्राप्य चन्द्रगुप्तो दिवं ययो" .- परिशिष्ट पर्व 8/444 6. (द्रप्टव्य टिप्पणी संख्या-३) 7. (क) “यदीय शिष्योऽजनि चन्द्रग प्तः समग्रशीलानत देववृद्धः / विवेश यत्तीवतपः प्रभावात प्रभृतीति भुवनान्तराणि / " (ख) 'चन्द्रप्रकाशोज्ज्वलसान्द्रकीतिः श्रीचन्द्रग तोऽजनि तस्य शिष्यः / यस्य प्रभावात् बनदेवताभि: पाराधित: स्वस्थगणो मनीनाम // " 8. वीर नीर्वाण-संवत् पोर जैन काल-गणना : मुनिश्री कल्याण विज प ; 67-77 पृष्ठ / 78 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्ष : पुष्यमित्र और चन्द्रगुप्त की समकालिकता इस रहस्य को द्योतित करती हैं कि मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को यहाँ अप्रासंगिक ही समझा जाय / यदि साहसांक-संवत् के संदर्भ द्वारा चन्द्रगुप्त-शासन की अवरसीमा 146 ई० पू० प्रमेय है तो उसकी ऊर्ध्वसीमा 170 ई० पू० अनुमेय है / वराहमिहिर एवं भद्रबाहु का 'भ्रातृत्व' दोनों को 200-100 ईसवीपूर्व के मध्यान्तर में ले जाता है, जो मध्यान्तर चन्द्रगुप्त मौर्य (1) के प्रतिकूल पड़ता है / वराहमिहिर का प्रस्तावित प्राचीन शक 622 ई०पू० का है, जो पार्श्वनाथ बस्ती के अभिलेख को आलोकित करता है और वही अभिलेख गाथा को और काल-गणना को प्रमाणित करता है / अत: तिष्यगुप्त के वंश में हुए मौर्यचन्द्रगुप्त (२)का विशाखाचार्य बन जाना जैन-इतिहास की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है / ईसवी पूर्व 382-370 357 342 276 257 167 184 190-100 170 160-148 146 काल-सारिणी घटनाएं नवम नंद का राज्याभिषेक / नन्दयुगीन प्रथम अकाल / महास्थविर भद्रबाहु का निधन / चन्द्रगुप्त मौर्य (1) का अभ्युदय / सम्राट अशोक का अभिषेक / सम्प्रति को उज्जयिनी का राज्य मिला। बलमित्र (तिष्यगुप्त का पुत्र) उज्जयिनीश्वर बना। पुष्यमित्र मगध-सम्राट् बना / आचार्यश्री भद्रबाहु का समय चन्द्रगुप्त मौर्य (2) उज्जयिनीश्वर बना। १२-वर्षीय दूसरा अकाल / साहसांक-संवत् की स्थापना / वराहमिहिर का निधन / चन्द्रगुप्त विशाखाचार्य का निधन / ईसवीपूर्व के लगभग पार्श्वनाथबस्नि का अभिलेख / -पुराणशास्त्र+जैनशास्त्र+अन्य संदर्भो का समवेत निष्कर्ष 100 लगभग सैन्य-प्रयाण के अनन्तर, यूनानी दाशनिक अरस्तु केपरामर्श पर साथ आए हुए यूनानी दर्शनशास्त्रियों के दल ने सिकन्दर को रक्तपात से विमुख करने के लिए भारतीय ऋषियों, विशेषतः दिगम्बर साधओं (जिम्नोसोफिस्त) के प्रभाव क्षेत्र एवं आत्मबल से प्रभावित होकर कलानोस एवं दन्दामिस (दौलामस) से भेंट करने के लिए प्रेरित किया इतिहासवेत्ताओं के अनुसार कलानोस तथा दन्दामिस ही क्रमशः मुनि कल्याण और आचार्य धृतिसेन थे। डा० भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के स्रोत' में निम्नलिखित मत प्रस्तुत किया है "सिकन्दर को सलाह दी गयी थी कि वह दो सम्मानित तर्कशास्त्रियों (जिम्नोसोफिस्त) से भेंट करे जिनके नाम कलानोस जौर दन्दामिस थे। उसने उन्हें बुलाया, पर उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया / ओनेसितोस नामक यूनानी दार्शनिक को (जिसने एथेन्स में दियोजिनीज की परम्परा के सिनिक, दार्शनिक के रूप में नाम कमा लिया था) सिकन्दर ने उन तर्कशास्त्रियों को लाने के लिए भेजा। कलानोस ने यूनानी दार्शनिक को अपने कपड़े उतार कर बातचीत करने के लिए कहा और जब यूनानी दार्शनिक ते उसका पालन किया तब उससे बातचीत की, और बड़े समझाव-बझाव के बाद वह सिकन्दर से मिलने के लिए राजी हुआ / सिकन्दर उसकी निर्भीक स्वतंत्र वत्ति से प्रभाबित हुआ, हालांकि उसने इतनी बड़ी सेना लेकर इधर-उधर भटकने और लोगों का सुख-चैन बिगाड़ने के लिए सिकन्दर की भर्त्सना की। कलानोस ने चमड़े का एक रूखा टुकड़ा धरती पर फेंका और दिखाया कि जब तक कोई चीज केन्द्र पर स्थित नहीं होती तब तक उसके सिरे ऊपर-नीचे होते रहेंगे और कि यही उसके साम्राज्य का चरित्र था जिसके सीमान्त सदा अलग होने के लिए सिर उठाते रहते थे। "अन्ततः अपनी मृत्यु के बाद तम्हें उतनी ही धरती की आवश्यकता होगी जितनी की तुम्हारे शरीर की लम्बाई है," उसने कहा / अपनी इच्छा के विपरीत यह सिकन्दर के साथ फारस गया जहां उसने आग में प्रवेश कर समाधि ली। दन्दामिस को अपनी मातभूमि छोड़ने के लिए सहमत नहीं किया जा सका।" -सम्पादक जैन इतिहास, कला और संस्कृति