________________ निधन शक संवत् 506=113 ईसवी पूर्व में हुआ माना जाता है। संदर्भ+दन्तवार्ता के समन्वय से उसकी आयु 195-113 ईसवी पूर्व की मानी जा रही है। यहाँ यह शंका होनी नितरां नैसर्गिक है कि राष्ट्रीय एवं बहु-चचित शक-संवत् की उपेक्षा करके प्राचीन शक-संवत् की कल्पना करना तथा उसकी संदिग्ध उपयोगिता की स्थिति में उससे काम चलाना कहाँ तक उचित है ? इस शंका का समाधान आवश्यक है। जैनग्रन्थों से ज्ञात होता है कि मौर्य-वंश से पूर्व नन्द-वंश था, नंद-वंश से भी पूर्व शक-वंश था। इस पूर्वोत्तर शृंखला में आबद्ध' शक-वंश की सत्ता' लगभग जैन-जागरण की समकालिक वास्तविकता है, इसलिए नन्द-पूर्व शक-वंश द्वारा स्थापित शक-संवत् ही जैन-इतिहास का सशक्त काल-बोधक सूत्र है, जिसकी उपेक्षा कर सकना संभव नहीं है / ___ चूंकि बराहमिहिर ने अपनी रचना (कुतूहल मंजरी) में युधिष्ठिर संवत् 3042 का संकेत दिया है, अतः उसी से 2566 वर्ष पश्चात : 318:-2566 = 622 ई० पू० में स्थापित शक-संवत् की प्रासंगिकता को मंजूर करके ही हमें जैन-अनुसंधान में उद्यत होना चाहिए। ऐतिहासिक स्थिति : "भारतवर्ष' समग्र ऐतिहासिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में मान्यताप्राप्त था, अर्थात् सारा भारतवर्ष एक था और आज भी उसकी यही स्थिति है / परन्तु शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसके अनेक प्रभाग' परिकल्पित किये गए थे। केन्द्रीय सत्ता एकमेव थी और वह पाटलीपुत्र में सन्निहित थी। कम-से-कम सिकन्दर-आक्रमण तक उसकी यही 'एकात्मता' सर्वमान्य थी; जैसा कि हमने लिखा है। उस समय कौशल, कौशाम्बी, मालव, सिन्ध, साँवीर, लाट, काश्मीर, हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ आदि प्रदेश भारतीय भौगोलिक एवं राजनयिक इकाई के अंग-स्थानीय प्रदेश माने जाते थे / मगध-सत्ता को सहज भाव से केन्द्र सरकार तथा अन्य प्रभागीय सत्ता को प्रदेश सरकार कह सकते हैं / यही कारण है पुराण-शास्त्रों में मगधावीशों का शासन-काल संवत्सरोल्लेख-पूर्वक है, जबकि प्रादेशिक राजाओं का नामाङ कन मात्र से काम चलाया गया है। हमारे आलोच्य समय में मगध पर पुष्यमित्र का शासन था और मालवा पर गुप्तान्वयी चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन था। उज्जयिनी उस समय मालवा की राजधानी थी। विमर्श-परामर्श समनामधारी दो चन्द्रगुप्तों के अस्तित्व से भारतीय इतिहास अस्तव्यस्त हुआ ही है। अथवा हम उसे समझने में असफल रहे हैं / इस भ्रान्ति के आविर्भाव का कारण दो-दो अकालों का घटित होना भी है, और अपरिपक्व अनुसंधायकों में अकाल-घटनाओं का कालगत विश्लेषणात्मक परिचय प्राप्त करने की अक्षमता भी है, फिर चन्द्र गुप्त एवं अकाल-घटना से जुड़े हुए समनामधारी दो भद्रबाहुओं का वस्तुपरक परिचय खोजना भी किसी ने आवश्यक नहीं समझा / हम भद्र बाहुओं के प्रति श्रद्धाभिभूत जरूर थे, पर आँख उठा कर उन्हें देखने और परखने की योग्यता से हम 'कोरे' थे . परिणामतः यह भ्रान्ति अपनी जड़ जमाकर उद्भूत हुई कि पूर्वनन्दपुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य भद्र बाहु के प्रभावाकर्षण से जैन-साधु हो गया था। किसी ने यह सोचने की आवश्यकता नहीं समझी कि क्या चन्द्रगुप्त युग में महास्थविर भद्रबाहु विद्यमान भी थे ? जैन-साक्ष्यों से हम पूर्णतया अवगत है कि महास्थविर का महाप्रयाण' वीर-संवत् 170 =357 ई० पूर्व में हुआ था। उस समय तक चन्द्र गुप्त पदासीन नहीं हुआ था। पौराणिक एवं जैन-साक्ष्यों से हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं: चन्द्रगुप्त मौर्य 342 ईसवी पूर्व में अभिषिक्त हुआ था। हालाँकि आधुनिक इतिहासकार चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए 322-21 ईसवीपूर्व का समय बताते हैं / चूंकि हम आधुनिक विचारों की अवहेलना करना नहीं चाहते और अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रति अविचल निष्ठा भी हमें अभीष्ट है, अतः चन्द्रगुप्त मौर्य का समय 342-321 ईसवीपूर्व मानने में कोई विप्रतिपत्ति शेष नहीं रह जाती। पौराणिक साक्ष्यों को उपस्थापित करने से निबन्ध का विस्तार हो जाएगा, अतः हम अधिक-से-अधिक जैन-साक्ष्यों तक सीमित रह कर विचार करते हैं / जैनपट्टावलियों के अनुसार : -तित्थोगाली 705. 1. नवाधिकपंचशतसंखए शाके (506) वराहमिहिराचार्यों दिवंगतः / 622-506=113 ईसवी पूर्व में वराहमिहिर का निधन हुप्रा / ता एवं सगसो य नंदवंसो य मरुयवंसो य / सयराहेण पणट्ठा समयं सज्झाणवंसेण // (क) चौदस पूव च्छेदो वरिससते सत्तरे विणिदिट्ठो / साहम्मि थूलभद्दे अन्ने य इमे भवे भावा / (ख) प्रार्य सुधर्मा 20, जम्बू 44, प्रभाव 11. शय्यंभव 23. यशोभद्र 50, संभूति विजप 8, भद्रबाहु 14-170, 527-170 = 357 ई० पूर्व का साल। -तित्थोगाली पइन्नय आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.