________________ रेखा को आसानी से पहचाना भी जा सकता है। पहला अकाल (382-370 ई० पू०) सार्वभौम था, जबकि दूसरा अकाल सार्वभौम न था, बल्कि उत्तर भारत तक सीमित था। जैनशास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है उक्त अकाल की विभीषिका से संत्रस्त असंख्य मुनि, उपाध्याय एवं आचार्यगण दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए। इससे जाहिर है कि उस समय (160-148 ई० पू०) दक्षिण भारत अकाल की दुश्छाया से सुरक्षित रहा होगा। भद्रबाह : जैन-जगत की आचार्य परम्परा में महास्थविर भद्र बाहु का स्थान अत्यन्त वरेण्य नजर आता है। पहले अकाल के दुश्चक्र से बच निकले आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनके सान्निध्य में जैन-आगमों की पुनरुद्धार-भावना से प्रेरित जैन-मुनियों ने भगीरथ प्रयत्न करके जैन-शास्त्रों का आकलन किया था। बल्कि यूं कहना चाहिए कि जन-आगमों की रक्षा में भद्रबाहु का योगदान दिव्य एवं प्रथम कोटि का था। भद्रबाहु के समनामधारी एक अन्य भद्रबाहु भी हुए हैं, जो जन्मना ब्राह्मण थे और प्रसिद्ध आचार्य वराहमिहिर के भाई थे। सामान्यतया यह बताया जाता है कि पहले तो दोनों भाई जैन-दीक्षा लेकर श्रमण-जीवन यापन करने लगे, परन्तु भद्रबाहु को कनिष्ट होने पर भी शीघ्र ही 'आचार्यत्व-पद' पर प्रतिष्ठित किया गया; अतः आचार्यत्व-वंचित वराहमिहिर क्रोध के वशीभूत पुनः 'ब्राह्मणत्व' अंगीकार करके ज्योतिर्विद्या के बलपर जीवन-यापन करने लगा। चिन्तन : दो व्यक्तियों का समनामधारी होना भ्रान्ति-सृजन में अपने-आप में एक अपूर्व कारण है, जो कहीं भी दो समनामधारी व्यक्तियों में प्रायः होता रहता है, पर यहाँ दोनों भद्रबाहुओं के युग में अकाल के अस्तित्व ने उनके समीकरण को और अधिक गंभीर बना दिया है। इतना ही नहीं, चन्द्रगुप्तों का (जो सौभाग्यवश दोनों मौर्य थे) अस्तित्व भी इनके समीकरण में पर्याप्त योगदानी प्रतीत हो रहा है। यहाँ बड़े गंभीर अनुसंधान की अपेक्षा है, ताकि समीकरण को बिलगाकर भद्रबाहुओं की ठीक-ठीक पहचान हो सके। साहसाङ क-संवत् : 146 ईसवी पूर्व का साल : उज्जयिनी में एक राजा साहसाङ्क हुआ है, जिसने अपने नाम से 'साहसाङ कसंवत्' चलाया था। बड़े संतोष की बात है कि साहसाङ क-संवत् की परम्पराएँ मिल गई हैं। यथाप्राप्त काल-परम्परा के परिशीलन से मालूम पड़ता है कि साहसाङ क-संवत् का प्रतिष्ठान-वर्ष 146 ईसवी पूर्व का साल है। इसी वर्ष की एक अन्य महत्त्वपूर्ण सूचना भी है। वराहमिहिर ने 'कुतूहलमंजरी' की रचना युधिष्ठिर-संवत् ३०४२=जय संवत्सर में की थी। विषयान्तर होने पर भी यह जान लेना निहायत जरूरी है कि महाराजा युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था-पहला अभिषेक पाण्डु-निधन के पश्चात् 3188 ई० पू० में हुआ था; दूसरा अभिषेक भारती संग्राम के पश्चात् 3148 ई०पू० में हुआ था। अतः प्रथम अभिषेक-काल (3158 ई०पू०) के 3042 वर्षों के पश्चात् अर्थात् 3188-3042-146 ई० पू० में 'कुतूहल-मंजरी' की रचना हुई-इसे शंकातीत ही समझो / इस अद्भुत संयोग-लब्ध संबत्सरसामंजस्य को देखते हुए महाराजा साहसाङक तथा आचार्य वराहमिहिर की 'समसामयिकता' को केवल अनुमेय नहीं मान सकते / यह एक वास्तविकता है, जिससे यथासमय लाभ उठाया जाएगा। प्राचीन शक : भारतीय इतिहास, विशेषतया जैन इतिहास, शक-संवत् के माध्यम से ही जाना-पहचाना जाता है / शक-संवत् को एक तरह से इतिहास का मील-पत्थर मान लिया गया है। आनन्द की बात यह है कि शक-संवत् की प्रामाणिक प्रतिष्ठापना वराहमिहिर के काल-सूत्र से : 'षट्-द्विक-पंच-द्वियुतः शककालः तस्य राज्यस्य।" मानी जाती है। इस प्रसंग में वराहमिहिर की आप्तता इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गई है कि वराहमिहिर 'द्रव्यवर्धन-चन्द्रगुप्त-साहसाङक' का निकट-सम्पृक्त व्यक्ति है। वराहमिहिर का 1. "इतश्च तस्मिन् दुष्काले कराले कालरात्रिवत् / निर्वाहार्थ साधुसंघ: तीरं नीरनिधेर्यो।" -परिशिष्ट पर्व 6/55 ! "प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रबाहु द्विजो बांधवी प्रवजितो। भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्ट: सन् वराहो द्विजवेषमादृत्य वाराही संहितां कृत्वा निमित्तै जीवति / " -कल्पकिरणावली 163 चतुर्विशत्यधिकेऽब्दे चतभिनवमे शते शु के साहसमल्लाङ्के नाभ स्ये प्रथमे दिने संवत् 644, भाद्रपद सृदि 1, शुके श्रीमद् विजयसिंहदेव राज्ये / यथा२४४४=६६+६००-६६६-१४६=८५० ईसवी सन् ; संवत 144-64-850 ईसवी सन् / विदित हो, गर्द भिल्ल वंश ने चार संवत् चलाए , इनमें से प्रथम "विक्रम संवत् 15-64 ईसवी पूर्व से चला था। 4. स्वस्ति श्री नप सूर्य मनजशके शाके द्विवेदाम्बर --(2042) मानाब्दमिते स्वनेह सि जये वर्षे वसन्तादिके / वर्षनाम फाल्गुनः / जैन इतिहास कला और संस्कृति 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org