________________ ( (मगध सम्राट) पद्मनन्द / मौर्यनन्द [ कुणाल-बन्धुपालित-इन्द्र पालित-देववर्मा-शतधार / पूर्वनन्द-चन्द्रगुप्त (१)-बिन्दुसार-अशोक 3 -1 बृहदश्व तिष्यगुप्त पुष्यमित्र (उज्जयिनी) बलमित्र (184-60) सम्प्रति द्रव्यवर्धन | मगधसत्ता बृहस्पति चन्द्रगुप्त (2) | पर वृषसेन साहसाङक | शुंगवंश का अधिकार रहा पुष्यधर्मा विक्रमार्क पुष्यमित्र' प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्यवर्धन (दधिवाहन वा) का पुत्र चन्द्रगुप्त एक वरेण्य व्यक्तित्व है, जिसकी अमर गाथाओं से जैन-साहित्य सम्यक्तया आप्लावित है। गुप्तवंश : जैन-ग्रन्थों से पता चलता है कि सम्राट-अशोक ने गुप्त-संवत्सर' चलाया। इस पर दिवंगत मुनिश्री कल्याणविजय ने अपनी नकारात्मक टिप्पणी भी लिखी है। इसके विपरीत हम इस गुप्त-संवत्सर पर अनुसंधानपूर्वोचित श्रद्धा रखते हैं और एतन्निमित्त साक्ष्य ढढने में तत्पर हैं / यह तो जैन-शास्त्रों में लिखा है कि जब उज्जयिनी पर से सम्प्रति (वंश) का शासन समाप्त हो गया, तब "वहाँ का राज्यासन अशोक के पुत्र तिष्यगुप्त के पुत्र बलमित्र और भानुमित्र नामक राजकुमारों को मिला।" बहुत संभव है, तिष्यगुप्त से इस वंश का नाम ‘गुप्तवंश' पड़ा हो ! हम जानते हैं कि सूर्यवंश से 'इक्ष्वाकुवंश' और इश्वाकुवंश से 'रघुवंश' का शाखा-उपशाखा के रूप में प्रस्फटन इतिहास-सम्मत है; तद्वत्, नंदवंश से 'मौर्यवंश' और मौर्यवंश से 'गुप्तवंश' का प्रस्फुटन वंश-विज्ञान की दृष्टि से प्रशस्त है और ऐतिह्य है। हम चन्द्रगुप्त के परिचय-विश्लेषण में 'गुप्तवंश' को ध्यान में रखेंगे। 12 वर्षीय अकाल : भारत में 12-12 वर्ष के अकाल पड़ने का इतिहास काफी पुराना है। पुराण-शास्त्रों से ज्ञात होता है कि महाराजा प्रतीप के जमाने में १२-वर्षीय (3364-3352 ई० पू०) अकाल पड़ा था / जैन-इतिहास के अनुसार भी १२-वर्षीय दो अकाल पड़ने की सूचना है। पहला अकाल पद्मनन्द (अर्थात् नवम नंद) के शासनकाल में, 382-370 ईसवी पूर्व में पड़ा था। दूसरा अकाल शंगवंशी पुष्यमित्र के शासनकाल में, अर्थात् 160-148 ईसवी पूर्व में पड़ा था / इन दो अकाल-घटनाओं की वजह से जैन-जगत को महती अपुरणीय क्षति उठानी पड़ी। चूंकि प्राङ मौर्य युगों में जैन-आगम केवल कण्ठस्थ हुआ करते थे, अतः अकाल के दुष्प्रभावों के परिणामस्वरूप असंख्य जैनमुनि दिवंगत हुए और उनके अमर निर्वाण के साथ ही कण्ठस्थ जैन-आगम भी तिरोहित हो गए। उनके पनरआविर्भाव की सर्वविध संभावनाएँ भी लुप्त हो गई थीं। लगभग यही स्थिति दूसरे अकाल में भी थी। इन दोनों अकालों के बीच में एक स्पष्ट विभाजक 1. यदा पुष्यमित्रो राजा प्रघातितः तदा मौर्य वंशः समच्छिन्नः // -प्रशोकावदान 2. विक्रमार्क का उज्जयिनी में राज्याभिषेक; हिमवन्त थेरावली (वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणनाः पृष्ठ 185) और निर्वाण से 236 वर्ष बीतने पर मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की और वहां के राजा क्षेमराज को अपनी प्राज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना 'गप्त-संवत्सर' चलाया।' इस पर मनिधी की टिप्पणी (3) ध्यानाकर्षित करती है : "मालम होता है थेरावली-लेखक ने अपने समय में प्रचलित गात राजामों के चलाए गुप्त-संवत् को अशोक का चलाया हुया मान लेने का धोखा खाया है। -वीर निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना : पृष्ठ 171 आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .