Book Title: Mahavir ki Dharmatattva Deshna
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211132/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीरकी धर्मतत्व-देशना आगम और आगमाभास की परिभाषा परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके तृतीय समुद्देश में आगमकी परिभाषा निम्न प्रकार बतलायी गयी हैआप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः | ३ - ९९| अर्थ- आप्त के वचन आदिके आधारपर जो पदार्थ-ज्ञान हमें होता है वह आगम है । सूत्र में 'वचन' शब्द के आगे पठित 'आदि' शब्दका अभिप्राय सूत्रकी टीका प्रमेयरत्नमालामें अंगुलि आदिके संकेतोंके रूपमें ग्रहण किया गया है । अतः जिस प्रकार आप्तके वचनोंके आधारपर हमें होने वाला पदार्थ - ज्ञान आगम है उसी प्रकार उसकी अंगुल्यादिके संकेतोंके आधारपर हमें होनेवाला पदार्थ - ज्ञान भी आगम है। यह परिभाषा भावात्मक आगमकी है । लेकिन सूत्रका यह भी आशय है कि हमें उपर्युक्त प्रकारसे होनेवाले ज्ञानरूप भावात्मक आगमके उद्भव में निमित्तभूत आप्तके वचनों और उसकी अंगुलि आदिके संकेतोंको द्रव्यात्मक आगम जानना चाहिए। स्वामी समन्तभद्रने वचनरूप द्रव्यात्मक आगमकी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में निम्न लिखित परिभाषा बतलाई है आप्तोपज्ञ मनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ||९|| अर्थ - शास्त्र ( वचनरूप द्रव्यात्मक - आगम) वह है, जो आप्तके द्वारा कहा गया हो, अन्य मतों द्वारा अकाट्य हो, दृष्ट (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (अनुमान) द्वारा अबाधित हो, तत्त्व ( तथ्यात्मक व सत्यात्मक प्रयोभूत वस्तु) का प्रतिपादक हो, सम्पूर्ण जीवोंके लिए हितकर हो और कुमार्ग ( जीवोंके लिए अहितकर मार्ग ) का निषेध करने वाला हो । स्वामी समन्तभद्रने उक्त परिभाषामें आगमका प्रत्यक्ष और अनुमानसे समर्थित होना न बतलाकर जो " अदृष्टेष्टविरोधकम्" पद द्वारा प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित होना बतलाया है, इसका अभिप्राय यह हैं कि आप्तके वचनरूप सम्पूर्ण द्रव्यात्मक - आगमका हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अल्पज्ञ होनेके कारण समर्थित होना सम्भव नहीं है, लेकिन अबाधित होना अवश्य सम्भव है -- इस तरह आप्तके वचनरूप जो द्रव्यात्मकआगम हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे समर्थित हो, वह तो आगम है ही, लेकिन आप्तके वचनरूप जो द्रव्यात्मकआगम हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित हो, उसे भी आगम जान लेना चाहिए । परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके उक्त सूत्रमें व रत्नकरण्ड श्रावकाचारके उक्त पद्यमें पठित 'आप्त' शब्दसे यह भी निर्णीत होता है कि पुरुष आप्त और अनास के भेदसे दो प्रकार के होते हैं । उनमेंसे आप्तके वचन व उसकी अंगुल आदि संकेतही आगम हैं, अनाप्तके वचन और उसकी अंगुलि आदिके संकेत आगम नहीं हैं । अतः अनात के वचन व उसकी अंगुलि आदिके संकेतोंको आगमाभास जानना चाहिए । १. आदिशब्देनांगुल्यादिसंज्ञापरिग्रहः । २. परनिरपेक्ष (स्वतः सिद्ध) वस्तुस्थितिरूप | ३. परसापेक्ष वस्तुस्थितिरूप । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सरस्वती - वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ आप्त और अनाप्तके लक्षण स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में ही आप्तका लक्षण निम्न प्रकार बतलाया हैआप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ अर्थ - जो अपने सम्पूर्ण दोषोंको नष्ट कर चुका हो, सर्वज्ञ हो गया हो और धर्म-मार्गका प्रवर्तक बन चुका हो, उसे ही आप्त जानना चाहिए, क्योंकि इन तीन गुणोंक प्रकट हुए बिना आप्तता सम्भव नहीं है । परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ के उपर्युक्त सूत्रकी टीका प्रमेय रत्नमाला में आप्तका लक्षण निम्न प्रकार निश्चित किया गया है यो यत्रावंचकः स तत्राप्तः । अर्थ- जो पुरुष जिस विषय में अवचक है अर्थात् दूसरोंके साथ उगाई नहीं करता है, वह पुरुष उस विषय में आप्त है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार और प्रमेयरत्नमालाके उपर्युक्त उद्धरणोंसे यह बात निर्णीत होतो है कि सर्वज्ञ तो आप्त होता ही है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जानेसे सर्वथा अवंचकवृत्ति हो जाता है । लेकिन अल्पज्ञ भी यदि किसी विषय में अवचकवृत्ति हो तो उसे भी उस विषयमें आप्त जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि हितकर उपदेशका नाम आगम है और जो हितकर उपदेश देता है वह आप्त है । उस उपदेशकी हितकारिताका आधार उपदेश देनेवाले पुरुषकी अवंचक वृत्ति ही हुआ करती है तथा अवचकवृत्तिका निर्णय उसमें (उपदेश देनेवाले पुरुष में) पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति) से होता है। अतः आप्तताका निर्णय पुरुषमें विद्यमान वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति) के आधारपर ही करना चाहिए। इस तरह सर्वज्ञके साथ अल्पज्ञ भी आप्तकी कोटि गर्भित हो जाता है। उक्त कथनसे यह भी सिद्ध होता है कि अल्पज्ञ भी सर्वज्ञकी तरह तभी आप्त हो सकता है जब कि यह अवंचक वृत्ति हो। इसका फलितार्थ यह है कि अल्पश आप्त और अनाप्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । उनमें से जो अल्पज्ञ अपने में यथासम्भव पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थ वृत्ति) के आधारपर अवंचक वृत्ति होते है, वे आप्त कहलाते हैं और जो अल्पज्ञ अपने में पाई आनेवाली सरागता ( स्वार्थपूर्ण वृत्ति) के आधारपर वंचकवृत्ति होते हैं, वे अनाप्त कहलाते हैं । आगम और आगमाभासका प्रवर्तन आगम और आगमाभासका प्रवर्तन अनादिकाल से चला आ रहा है, जिसका विवेचन इस प्रकार है कि निश्चयकाल ( स्वतः सिद्ध कालनामा पदार्थ) नित्य (अनादिसे अनन्त काल तक रहनेवाला) है। इस निश्चय कालकी पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द-गमनके आधारपर विभक्त अखण्ड-वृत्तिरूप समय और यथायोग्य समयोंके समूहरूय आवली, घड़ी, मुहूर्त घण्टा प्रहर दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष तथा वर्षांक भी समूह -- यह सब व्यवहारकाल है । यद्यपि ये सब निश्चय - कालकी पर्याएँ है परन्तु इन्हें व्यवहारकाल इसलिए कहते हैं कि इनका अस्तित्व मूलतः परवस्तुभूत पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द गमनके आधार पर निष्पन्न होनेसे इनमें परावितता पाई जाती है। 2 इस व्यवहारकालका प्रवर्तन प्रवाहरूपसे अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ५ जायगा | आगममें बतलाया गया है कि व्यवहारकालका यह प्रवर्तन एकके बाद एक कल्पके रूपमें चल रहा है । एक कल्पकी मर्यादा बीस कोड़ाकोड़ी सागर वर्षोंकी है, जो कि असंख्यात वर्षं प्रमाण होती है । , प्रत्येक कल्प भी अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके रूप में अपना प्रवर्तन किया करता है। अवसर्पिणी वह हैं, जिसमें मानव समाज अपनी उच्चतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमशः हीनतम स्थिति तक पहुँचता है और उत्सर्पिणी वह है, जिसमें मानव समाज अपनी हीनतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर ही धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमश: उच्चतम स्थिति तक पहुँचता है। इस तरह अवसर्पिणीका प्रवर्तन सुषमा- सुषम ( अत्यन्त सुखमय समय) सुषमा ( सुखमय समय), सुषमा दुःषमा (दुःख मिश्रित सुखमय समय), दुःखमा- सुषमा ( सुख मथित दुःसमय समय), दुःषमा ( दुःखमय समय) और दुःषमादुःषमा (अत्यन्त दुःखमय समय ) - इन छह भेदोंके रूपमें तथा इसके पश्चात् उत्सर्पिणीका प्रवर्तन दुःषमादुःपमा (अत्यन्त दुःखमय समय), दुःषमा ( दुःखमय समय), दुःषमा- सुषमा (सुखमिश्रित दुःसमय समय), सुषमा दुधमा (दुःखमिश्रित सुखमय समय), सुपमा ( सुखमय समय ) और सुषमा- सुषमा ( अत्यन्त सुखमय समय ) इन छह भेदोंके रूपमें हुआ करता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि क्रमशः एकके बाद एकके रूपमें अवसर्पिणो और उत्सर्पिणीका प्रवर्तन होते हुए अनादिसे अबतक अनन्त कल्पकाल व्यतीत हो चुके हैं तथा आगे इन बीते हुए कल्प- कालोंसे अनन्तगुणे कल्पवाल व्यतीत हो जानेपर भी काल-द्रव्य ( निश्चयकाल) का अस्तित्व अनादिनिधन होने से कल्पकालोंका प्रवर्तन कभी समाप्त नहीं होगा । प्रत्येक कल्पकालकी अवसर्पिणीके चतुर्य दुःषमा सुषमा भागमें और प्रत्येक उत्सर्पिणीके तृतीय दुःषमा- सुषमा भागमें संसारी जीवोंके लिए मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत धर्म तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले चौबीस महापुरुष उत्पन्न होते हैं, जिन्हें आगममें 'तोर्थंकर' नामसे पुकारा गया है। इस तरह अनादि कालसे अबतक अनन्त तीर्थंकरोंकी अनन्त चोवीनियाँ हो चुकी है और आगे भी सतत तीर्थंकरोंकी चौवोसियोंके होने का यही क्रम चलता जायगा । प्रत्येक तीर्थंकरने अपने समय में अपनी दिव्यवाणी ( दिव्यध्वनि ) द्वारा जो धर्मतीर्थका उपदेश संसारी जीवोंको दिया था, उसे आगम में 'देशना नामसे पुकारा गया है और उस देशनाको तथा उस देशनाके आधारपर गणधर आदि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा ग्रथित उपदेशको 'आगम' नामसे पुकारा गया है । इस तरह कहना चाहिए कि आगमका प्रवर्तन अनादि कालसे चला आ रहा है और अनन्त कालतक चलता जायगा । यही स्थिति आगमाभास के प्रवर्तनकी समझना चाहिए । वर्तमान आगमकी आधारभूमि वर्तमानकाल अवसर्पिणीका पंचम भाग दुःषमाकाल है । इससे २५१४ वर्ष पूर्व इसी अवसर्पिणीका चतुर्य भाग दुःखमा सुषमा काल चल रहा था। उस समय तक इस अवसर्पिणी में होनेवाले चौबीस तीर्थकरों में अन्तिम तोकर भगवान महावीर इस भारतभूमिपर विद्यमान थे, जिन्होंने अपनी पूर्व वीतरागता और सर्वज्ञताके आधारपर जगत् के प्राणियोंको हितकारी उपदेश दिया था, जिसे तीर्थंकर महावीरकी देशना कहते हैं। यद्यपि तीर्थंकर महावीरकी वाणी आज हमें उपलब्ध नहीं है, फिर भी उनकी वाणीके आधारपर उत्तरोत्तर अल्पश आप्तों द्वारा रचित आगम वर्तमान में भी उपलब्ध है, जिसके द्वारा उनकी ( तीर्थंकर महावोरकी ) देशनाकी झांकी हमें वर्तमान में भी उपलब्ध हो रही है। इस तरह कहना चाहिए कि वर्तमान आगम यद्यपि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा रचा गया है, परन्तु उसकी आधारभूमि तीर्थकर महावीरकी देशना ही है । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सरस्वती वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ अल्पज्ञको आप्त मानने का प्रयोजन ऊपर कहा गया है कि वर्तमानमें जितने कल्याणकारी उपदेशके रूपमें आगम उपलब्ध है वह साक्षात् तीर्थंकर महावीरकी वाणी नहीं है, अल्पज्ञ आप्तोंकी ही वाणी है । अब यदि अल्पज्ञोंको आप्त नहीं माना जाता तो सर्वज्ञ अभाव रहनेके कारण वर्तमान में कल्याणकारी मार्ग समाप्त हो जाता। दूसरी बात यह है कि अल्पज्ञको आप्त न मानने पर लोक व्यवहारकी चल रही सम्पूर्ण व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती। तीसरी बात यह भी है कि सर्वज्ञकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकताका निर्णय हम अल्पज्ञ आप्तों द्वारा विरचित आगमके आधारपर ही तो वर्तमानमें कर सकते हैं। अतः अल्पज्ञको आप्त न मानने पर सर्वशकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकता के निर्णय के लिए आधार हो समाप्त हो जाता। ये सब कारण हैं जिसकी वजह से अल्पज्ञको भी आप्त मानना अनिवार्य हो जाता है। इतनी बात अवश्य है और जैसा कि पूर्व में बतलाया भी जा चुका है कि सर्वज्ञकी आप्तता तो असंदिग्ध है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जाने से सर्वथा अवचक वृत्ति हो जाता है परन्तु अल्पज्ञकी आप्तताका निर्णय उसमें अवधक वृत्तिका निर्णय हो जानेपर ही हो सकता है ऐसा जानना चाहिए। फिर भी जैसे सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है वैसे ही अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए । सर्वज्ञ से अल्पज्ञ - आप्तके उपदेश में अन्तर भी है यद्यपि ऊपर यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है । उसी प्रकार अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए। परन्तु सर्वज्ञसे अल्पज्ञ आप्तके उपदेश में यह अन्तर भी समझना चाहिए कि जहाँ सर्वज्ञका उपदेश उसकी सर्वज्ञताके कारण हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे नियमतः समर्थित या अबाधित होनेसे निर्विवाद रूपसे आगम कहलाता है, वहाँ अल्पज्ञ आप्तका उपदेश उसकी अल्पज्ञताके कारण जबतक हमारे प्रत्यक्ष और अनुमान से समर्थित या अबाधित रहेगा तभी तक वह आगम कहलावेगा । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अल्पज्ञ आप्तका कोई उपदेश यदि कालान्तर में प्रत्यक्ष या अनुमानसे बाधित हो जाय, तो उसे तब हमारे लिए आगम न मानने में कठिनाई नहीं होना चाहिए । उदाहरण के रूप में यह कहा जा सकता है कि चन्द्रमाकी रचना और भूमितल से उसकी दूरी जिस रूपमें आगम में बतलायी गई है, उससे विलक्षण ही चन्द्रमाकी रचना और भूमितलसे उसकी दूरी, उत्कर्षक एक सीमा तक पहुँचे भौतिक विज्ञानने निर्णीत की है, जिसे अस्वीकार करना सम्भव नहीं है, इसलिये इस सम्बन्धमें यही मानना श्रेयस्कर है कि वर्तमान आगमके रचयिता आप्त चूँकि अल्पज्ञ थे, अतः तथ्यपूर्ण स्थितिका पता लगाने के साधनोंकी कमीके कारण जैसा उनकी समझमें आया वैसा प्रतिपादन चन्द्रमाकी रचना और भूमितल से उसकी दूरी आदिका उस समय उन्होंने वर्णन किया था । इस प्रतिपादनको सर्वज्ञ आप्तके उपदेश के आधारपर किया हुआ नहीं समझना चाहिए। कारण कि सर्वज्ञके ज्ञानमें असंख्य परमाणुओंके पिण्ड स्वरूप चन्द्रमाका प्रत्येक परमाणु अपनी परिणतियोंके साथ पृथक् पृथक् ही प्रतिभाषित हो रहा है, ऐसी दशामें उसको उन समस्त परमाणुओंका चन्द्र पिण्डरूपसे ज्ञान होना सम्भव नहीं है तथा श्रुतज्ञानका अभाव हो जानेसे श्रुतज्ञानको विषयभूत चन्द्रमाको भूमितलसे दूरी आदिका ज्ञान भी सर्वज्ञको सम्भव नहीं है, अतः निर्णीत होता है कि इन बातोंका प्रतिपादन सर्वज्ञ द्वारा नहीं किया गया है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि सर्वज्ञ स्वतः - सिद्ध, अनादि-निधन और अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताविशिष्ट प्रत्येक वस्तुका दृष्टा और ज्ञाता है तथा प्रत्येक वस्तुकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय सभी पर्याएँ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ७ भी वस्तुरूपसे उसके दर्शन और ज्ञानमें प्रति समय प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होती हैं । दो आदि वस्तुओंका संयोग या बन्ध (मिश्रण) उनके दर्शन और ज्ञानमें प्रतिविम्बित और प्रतिभासित नहीं होता है । इसका कारण यह है कि संयुक्त अथवा बद्ध (मिश्रित ) वस्तुओंकी अखण्ड एकरूपता कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि एक वस्तु के गुण-धर्म कभी दूसरी वस्तुमें प्रविष्ट नहीं हो सकते हैं । जैसे द्वयणुक दो पुद्गल परमाणुओंके बन्ध (मिश्रण) से बना है, परन्तु उसमें प्रत्येक परमाणु एक-दूसरे परमाणुके निमित्तसे अपना-अपना पृथक्-पृथक् ही परिणमन कर रहा है । दोनों परमाणुओंका एक परिणमन नहीं हो रहा है । अतः जब दो परमाणु मिलकर एक परिणमन नहीं कर रहे हैं, तो वे उस मिले हुए रूप में सर्वज्ञके ज्ञानके विषय कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं । इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञके दर्शन व ज्ञानमें द्वयणुक में विद्यमान दोनों परमाणु एकदूसरेके निमित्तसे होनेवाले अपने-अपने परिणमनके साथ तादात्म्यको प्राप्त होते हुए पृथक्-पृथक् ही प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होते हैं । यही बात द्वयणुकसे ऊपर छोटे-बड़े सभी स्कन्धोंके विषयमें जान लेना चाहिए । एक प्रश्न यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जब चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदिका तथ्यात्मक (जैसा है वैसा) ज्ञान अल्पज्ञ आप्तोंको नहीं था तो फिर उन्होंने उनका अतथ्यात्मक ( जैसा नहीं है वैसा ) प्रतिपादन क्यों किया है ? समाधान उक्त प्रश्नका समाधान यह है कि अल्पज्ञ आप्तोंने चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदि का तथ्यात्मक प्रतिपादन किसी कषायवश नहीं किया है, केवल तथ्यात्मक ( जैसा है वैसा) प्रतिपादन के लिए साधनों की कमी होने के कारण ही वह अतथ्यात्मक (जैसा नहीं है वैसा) प्रतिपादन जैसा समझ में आया वैसा प्रयोजनभूत समझकर किया है । इसलिये इन्हें मिथ्यादृष्टि या मिथ्याज्ञानी नहीं समझना चाहिए, क्योंकि गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह स्पष्ट लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव तथ्यात्मक वस्तुका श्रद्धान तो करता ही है। लेकिन साधनों के अभाव में वह अतथ्यात्मक वस्तुको भी तथ्यात्मक समझकर उसका भी श्रद्धान करता है और ऐसा श्रद्धान करते हुए भी वह मिध्यादृष्टि न होकर सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है । इतना अवश्य है कि यदि उसे कालान्तर में अपनी भूल किसो प्रकार समझ में आ जावे, फिर भी वह उस अतथ्यात्मक प्रतिपादनको तथ्यात्मक मानने का ही आग्रह करता है तो तब वह सम्यग्दृष्टि न रहकर मिथ्यादृष्टि ही हो जाता है ।" इस तरह आज भौतिक विज्ञान द्वारा किया गया चन्द्रमाकी रचना व उसकी भूमितलसे दूरी आदिका निर्णय अल्पज्ञ आप्तों द्वारा प्रतिपादित आगमसे विपरीत होते हुए भी यदि तथ्यात्मक हो तो उसे स्वीकार करनेमें हमें संकोच नहीं होना चाहिए; क्योंकि इससे हमारे आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानको कोई ठेस पहुँचनेकी सम्भावना नहीं है। एक बात और है कि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा लोक-कल्याण भावनासे जान-बूझकर भी अतथ्यात्मक विवेचन कर दिया जाता है । जैसे भोले बच्चे की माँ बच्चेकी सुरक्षाकी दृष्टिसे कह दिया करती है कि "बेटा ! १. सम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहृदि । सहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥ २८ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सड़क पर नहीं जाना, क्योंकि वहाँ हौवा बैठा हुआ है" तो यह कथन यद्यपि अतथ्यात्मक है, परन्तु बच्चेके प्रति कल्याण-भावनाकी दृष्टिसे कहा जानेके कारण लोकमें सत्य मान लिया जाता है । इसी तरह गायकी सुरक्षाकी दृष्टिसे अल्पज्ञ आप्तों द्वारा कसाईको गायके जानेका सही मार्ग न बतलाया जाकर जो गलन मार्ग भी बतला दिया जाता है, उसे भी सत्यात्मक लोकमें मान लिया जाता है। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्र - ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में किसी प्राणीके लिए विपत्तिकारक सत्य-वचनको भी असत्य और हितकारक असत्य-वचनको भी सत्य-वचन कहा है। तथा संकल्पी हिंसाके समान पाप होते हए भी स्वपर-कल्याणभावनाके आधारपर की गई आरम्भी हिंसाको यथास्थान उचित बतलाया गया है। आगमके भेद और उनके लक्षण वर्तमानमें जितना भी आगम है, उसे चार भागोंमें विभक्त किया गया है-१. द्रव्यानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. प्रथमानुयोग । १. द्रव्यानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर विश्वकी समस्त वस्तुओंकी स्वतन्त्र सत्ता, उपयोगिता और उनकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्ययपर्यायोंका निर्धारण किया गया हो। इस अनुयोगसे संसारी प्राणि योंके लिए अपना लक्ष्य निर्धारित करनेमें सहायता मिलती है। २. करणानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों और उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंको अपनी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों व उनके कारणोंका परि ज्ञान होता है। ___३. चरणानुयोग वह है जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंको पाप, पुण्य और धर्मके मार्गोंका परिज्ञान कराया गया हो। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंमें अपने लक्ष्यको पूर्तिके लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है । ४. प्रथमानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर तथ्यात्मक (जैसे हों वैसे) और आपेक्षिक सत्यताको प्राप्त प्रयोजनभत कथानकोंके आधारपर संसारी प्राणियोंको पाप, पुण्य और धर्मके फलोंका दिग्दर्शन कराया गया हो। इस अन्योगसे प्राणियोंमें अपने लक्ष्यकी पूतिके मार्गमें श्रद्धा ( रुचि ) जागृत होती है । अध्यात्म (आत्महित) और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? । श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढालाके प्रथम पद्यमें अध्यात्म (आत्महित) का अर्थ सुख बतलाया है। और प्रथम ढालके प्रथम पद्यमें यह बतलाया है कि संसारके सभी अनन्तानन्त जीव सुख चाहते हैं और दुःखसे डरते हैं। सुखप्राप्तिका साधन (मार्ग) स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकथावकाचारमें धर्मको बतलाया है। १, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ५५ । २. वही, श्लोक ५३। ३. प्रथम चरणं करणं द्रव्यं नमः (शान्तिपाठ) व रत्नकरण्डकश्रावकाचारके पद्य ४३, ४४, ४५, व ४६ । ४. आतमको हित है सुख इत्यादि । ५. जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहें दुःखतें भयवन्त । ६. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिर्वहणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ९ इसलिए कहना चाहिए कि तीर्थकर महावीरकी देशनाका मुख्य उद्देश्य भी संसारी प्राणियोंको दुःखके जनक अधर्मसे हटाकर सुखके जनक धर्मकी ओर मोड़ना ही था, जिसका प्रतिपादन चरणानुयोगमें किया गया है । धर्म और अधर्मका स्वरूप ___ धर्म और अधर्मका स्वरूप बतलानेके पूर्व इस सम्बन्धमें लोकको दृष्टिको भी समझ लेना आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है : १. प्रायः प्रत्येक मनुष्यकी दृष्टिमें वही सम्प्रदाय श्रेष्ठ है, जिसमें वह पैदा हुआ है, वही दर्शन सत्य है जिसे वह मानता है और उसी क्रियाकाण्डसे स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जो उसे कुल-परम्परासे प्राप्त है। इसके अतिरिक्त शेष सभी सम्प्रदाय निम्न कोटिके, सभी दर्शन असत्य और सभी क्रियाकाण्ड आडम्बर मात्र हैं। इस तरह लोकका प्रायः प्रत्येक मनुष्य इसी आधारपर अपनेको धर्मात्मा और दुसरोंको अधर्मात्मा मान रहा है। २. लोकमें धर्मात्मा व्यक्तिके लिए आस्तिक और अधर्मात्मा व्यक्तिके लिए नास्तिक शब्दोंका प्रयोग किया जाता है और इन दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्ति व्याकरणरमें निम्न प्रकारकी गई है अस्ति परलोके मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्ति परलोके मतिर्यस्य स नास्तिकः । अर्थात् जो परलोकको मानता है, वह धर्मात्मा है और जो परलोकको नहीं मानता है वह अधर्मात्मा है। वास्तवमें देखा जाय तो धर्म और अधर्मकी ये व्याख्याएँ पूर्णतः सही न होकर ये व्याख्याएँ ही पूर्णतः सही हैं कि लोकमें जिस मार्ग पर चलनेसे अभ्युदय (शान्ति) और अन्तमें निःश्रेयस (मुक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य) प्राप्त हो सकता है, वह तो धर्म है और जो लोक तथा परलोक सर्वत्र दुःखका कारण हो वह अधर्म है । तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस बातको लक्ष्य में रखकर ही चरणानुयोगमें प्रतिपादित धर्मके दश भेद स्वीकार किए गए हैं। धर्मके दश भेद और उनका स्वरूप क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये धर्मके दश भेद है। जीवन में क्रमिक-विकासके आधारपर ही तीर्थंकर महावीरकी देशनामें धर्मकी यह दश संख्या निश्चित की गयी है । आगे इनका पृथक्-पृथक् विकास-क्रमके आधारपर स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है। १ क्षमा-कभी क्रोधावेशमें नहीं आना, कभी किसीको कष्ट नहीं पहँचाना, कभी किसीके साथ गाली-गलौज या मार-पीट नहीं करना तथा सबके साथ सदा सहिष्णुताका बर्ताव करना। २. मार्दव-कभी अहंकार नहीं करना, कभी किसीको अपमानित नहीं करना, सबके साथ सदा समानताका व्यवहार करना और मनमें कभी प्रतिष्ठाकी चाह नहीं करना। ३. आर्जव-कभी किसीके साथ छल-कपट नहीं करना, कम देकर अधिक लेने और असली वस्तुमें नकली वस्तु देनेका कभी प्रयत्न नहीं करना-इस तरह अपने जीवनको लोकका विश्वासपात्र बना लेना। ४. सत्य-सबके साथ सदा सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करना, हित, मित और प्रिय १. तत्त्वार्थसूत्र ९।६। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वचन बोलना, आवश्यकतानुसार दूसरोंकी यथाशक्ति तन, मन और धनसे सहायता करना तथा जीवनके लिए उपयोगी कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, मानवोचित और सांस्कृतिक-संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करना। ५. शौच-अपने जीवनकी सुरक्षा और शान्तिके लिए कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करते हुए जीवन-रक्षामें उपयोगी साधनोंके संग्रह और उपयोगका यथोचित ध्यान रखना अर्थात् न तो जीवन रक्षाके लिए पराश्रित-वृत्ति अपनाना और न उपयोगमें कंजूसी करना। ६. संयम-अपने जीवनकी सुरक्षामें साधन-भूत सामग्रीके संग्रह और उपयोगमें कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए अपनी आवश्यकताओं और अपने अधिकारोंकी सीमा निर्धारित करना और अनावश्यक, प्रकृति-विरुद्ध, संस्कृति-विरुद्ध और लोक-विरुद्ध एवं अधिकारके बाहर उपयोग नहीं करना--इस प्रकार जीवनमें सादगी बना लेना। ७. तप-बाह्य प्रयत्नों द्वारा शरीरको आत्मनिर्भर बनानेका प्रयत्न करना तथा अन्तरंग प्रयत्नों द्वारा आत्माकी स्वालवम्बन शक्तिको जागृत करना-इस प्रकार जीवन की वर्तमान आवश्यकताओंको कम करना। ८. त्याग-बाह्य-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्मनिर्भरता और अन्तरंग-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वद्धिगत आत्माकी स्वावलम्बनशक्तिके अनुरूप भोगसामग्रीके संग्रह और उपभोगमें धीरेधीरे यथायोग्य क्रमसे कमी करते जाना अर्थात जीवनरक्षाकी साधनभत उपयोग-सामग्रीका धीरे-धीरे यथाक्रमसे यथाशक्ति त्याग करना । ९. आकिंचन्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा ही उत्तरोत्तर वृद्धिगत शरीरकी आत्मनिर्भरता व आत्माकी स्वावलम्बन-शक्तिके अनुरूप जीवन-रक्षाकी साधनभूत उपभोग-सामग्रीके अवलम्बनको यथोक्त क्रम से कम करते-करते अन्तमें अकिंचन ( नग्न, दिगम्बर-मद्राधारी बनकर मोक्ष (आत्मस्वातन्त्र्य ) की पूर्णता प्राप्त करने के लिए गृहवासको छोड़कर बनवासी हो जाना। १०. ब्रह्मचर्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्म-निर्भरता और आत्माकी स्वालम्बन-शक्तिके आधारपर ही भूख, प्यास, रोग आदि शारीरिक बाधाओंके पूर्णतः नष्ट हो जाने ( शरीरके पूर्णरूपसे आत्मनिर्भर हो जाने ), तथा आत्माकी स्वालम्बन, शक्तिका चरम-विकास हो जानेपर आत्माके स्वभावभूत अनन्त-चतुष्टय (असीमित-दर्शन, असीमित-ज्ञान असीमित-वीर्य और असीमितसुख ) का उद्भव हो जानेके पश्चात् यथासमय आयुकी समाप्ति हो जानेपर संसार ( शरीरके साथ आत्माके विद्यमान सम्बन्ध ) का सर्वथा विच्छेद हो जाना और तब आगे अनन्तकालतक आत्माका अपने स्वतन्त्रस्वरूप में ही रमण करते रहना। इस प्रकार दश धर्मोके स्वरूपका आगमके आधारपर जो यह दिग्दर्शन कराया गया है, वह मानवजीवनमें धर्मके क्रमिक-विकासको बतलाता है तथा इससे तीर्थंकर महावीरकी देशनामें प्रतिपादित धर्मका स्वरूप और उसका प्रारम्भिक व सर्वोत्कृष्ट रूप सरलतासे समझमें आ जाता है। १. तत्त्वार्थसूत्र ९।१६ । २. तत्त्वार्थसूत्र ९।२० । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ११ उक्त दश-धर्मोंका वर्गीकरण पूर्व में स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचारके अनुसार धर्मको सुखका कारण बतलाया गया है । धर्म और सुखका यह कार्य-कारणभाव दीपक और प्रकाशकी तरह सहभावी है । अर्थात् जिस प्रकार जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नहीं है वहाँ प्रकाश भी नहीं रहता है । इसी प्रकार जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख अवश्य होगा और जहाँ धर्म नहीं होगा वहाँ सुख भी नहीं होगा। पूर्वमें धर्मका जो यह स्वरूप निर्धारित किया गया है कि लोकमें जिस मार्गपर चलनेसे अभ्युदय ( जीवन में सुख शान्ति ) और अन्तमें निःश्रेयस (मक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य ) प्राप्त हो सकता है, वह धर्म है। इससे स्पष्ट होता है कि सुख दो प्रकारका होता है--एक तो अभ्युदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुख और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुख । इसके आधारपर धर्म भी मूलतः दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है-एक तो अभ्यदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुखका कारणभूत लौकिक-धर्म और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुखका कारणभूत पारमार्थिक-धर्म । जो मनुष्य उक्त पारमार्थिक-सुखको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो पारमार्थिक-धर्मकी शरणमें ही जाना होगा, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मकी शरण में अपनी अशक्तिवश नहीं जा सकता है, उसे कम-से-कम अपने लौकिकजीवनमें शान्तिरूप सुखकी प्राप्तिके लिए लौकिक-धर्मकी शरण में जाना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि मनुष्यका मुख्य कर्तव्य तो पारमार्थिक सुखको प्राप्तिके लिए पारमार्थिक-धर्म पर चलना ही है, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मपर चलने में असमर्थ है, उसे कम-से-कम लौकिक-जीवनमें सुख-शान्तिके उद्देश्यसे लौकिक-धर्मपर अवश्य ही चलना चाहिए । तीर्थकर महावीरकी देशनामें जो धर्मके उपर्युक्त दश भेद बतलाए गए हैं, वे इसी आशयसे बतलाए गए हैं। इसलिए उन दश धर्मों के दो वर्ग निश्चित हो जाते है-एक तो लौकिकधर्मोका वर्ग और दुसरा पारमार्थिक-धर्मोंका वर्ग । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम ये छह धर्म तो लौकिक-धर्म कहलाने योग्य हैं और तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये चार धर्म पारमार्थिक-धर्म कहलाने योग्य हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पारमाथिक-सुखकी प्राप्तिके लिए जिस प्रकार तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप पारमार्थिक-धर्मोंका मानव-जीवन में महत्व है, उसी प्रकार लौकिक-जीवन में सुख शान्ति प्राप्त करनेके लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच एवं संयम रूप लौकिक-धर्मो का भी मानव-जीवन में महत्व है। यही कारण है कि धर्मके उल्लिखित दोनों वर्गों को मानवकी बहत्तर कलाओंमेंसे प्रधान कलाके रूप में स्वीकार किया गया है। धर्मोंके क्रमिक-विकासकी दृष्टिसे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि मानवजीवनमें जब तक उक्त लौकिक धर्मो का समावेश नहीं होता, तब तक उसमें उक्त पारमार्थिक-धर्मों का विकास होना असम्भव ही है। मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका कारण मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका उपर्युक्त एक कारण तो यही है कि जब तक मानव-जीवनमें लौकिक धर्मोका समावेश नहीं होगा, तब तक उसमें पारमार्थिक धर्मोका विकास होना असम्भव है, लेकिन सामान्यरूपसे मानव-जीवनमें लौकिक-धर्मो का महत्त्व इसलिए है कि तीर्थंकरकी देशनाके अनुसार प्रत्येक सप्राण शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक्त जीवका अस्तित्व है । इतना ही नहीं, वह जीव शरीरके साथ इतना घुला-मिला है कि शरीरके अस्तित्वके साथ ही उसका अस्तित्व उसे समझमें आता है, उसके बिना नहीं। जीवके भीतर जो ज्ञान करनेकी शक्ति है वह भी शरीरको अंगभूत इन्द्रियोंके सहयोगके बिना पंगु बनी रहतो १. कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका द्वितीय जीव उद्धार ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ है और यह भी बात है कि जीन शरीरके इतना अधीन हो रहा है कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरतापर अवलम्बित है । जीवकी शरीरावलम्बनताका यह भी एक विचित्र किन्तु तथ्यपूर्ण अनुभव है कि यदि शरीर में शिथिलता आदि विकार पैदा हो जाते हैं, तो जीवको क्लेश होता है और जब उन विकारोंके नाशके अनुकूल साधनोंका सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है, तो उन विकारोंका नाश हो जानेपर जीवको सुखानुभव होने लगता है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि वे साधन अपना प्रभाव शरीरपर ही डालते हैं, परन्तु शरीरकी अधीनताके कारण सुखानुभोक्ता जीव होता है । अब यदि यह कथन मनुष्यके ऊपर लागू किया जाय तो समझ में आ जायगा कि मानव प्राणी भी शरीर के अधीन है और उसका वह शरीर भी भोजनादिकके अधीन है । इसीलिए प्रत्येक मनुष्य भोजनादिक के उपभोग में प्रवृत्त होता है । प्रत्येक मनुष्यको भोजनादिककी प्राप्ति अन्य मनुष्योंके सहयोगसे ही होती है । यही कारण है कि तीर्थंकर महावीरने "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (त० सू० ५।२१ ) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था । वैसे तो यह सिद्धान्त सम्पूर्ण संसारी जीवोंपर लागू होता है, परन्तु मानव जीवनमें तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसीलिए मनुष्यको सामाजिक प्राणी स्वीकार किया गया है। जिसका अर्थ यह है, कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवन में सुख प्राप्त करनेके लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और यहाँ तक कि विश्व सहयोगकी आवश्यकता है । इसका निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और विश्वके रूपमें मानव संगठन के छोटे-बड़े जितने रूप हो सकते हैं, उन सबको ठोस रूप देनेका सतत् प्रयत्न करते रहना चाहिए । इसलिए तीर्थंकर महावीरकी देशना में प्रत्येक मनुष्यको सर्वप्रथम उपदेश दिया गया है कि “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” अर्थात् दूसरोंका जो आचरण उसको अपने प्रतिकूल जान पड़ता है वैसा आचरण उसको दूसरोंके साथ नहीं करना चाहिए, इतना ही नहीं, दूसरोंसे अपने प्रति वह जैसा आचरण चाहता है, वैसा ही आचरण उसे दूसरोंके साथ भी करना चाहिए । वास्तव में देखा जाय तो वर्तमानमें प्रत्येक मनुष्यकी यह दशा है कि वह दूसरोंको निरपेक्ष भावसे सहयोग देनेके लिए तो तैयार ही नहीं होता है, परन्तु अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिए वह न केवल दूसरोंसे निरपेक्ष-सहयोग प्राप्त करनेका सतत् प्रयत्न करता रहता है, प्रत्युत दूसरोंके साथ संघर्ष करने, उन्हें तिरस्कृत करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी नहीं चूकता है । इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ है कि वह अपना प्रयोजन रहते अथवा न रहते भी दूसरोंके साथ हमेशा अनुचित आचरण करनेमें आनन्दित होता है । तीर्थंकर महावीरके समयमें भी मानव समाजकी यही दशा थी और उन्होंने जाना था कि यह दशा मानव समाजको विघटित करके प्रत्येक मनुष्य के जीवनको त्रस्त करनेवाली है, अतः उन्होंने अपनी देशनामें यह सिद्धान्त प्रस्थापित किया था कि मानव जीवनमें शान्ति स्थापनाकी रीढ़ सामाजिक संगठनको सुदृढ़ करनेके लिए प्रत्येक मनुष्यको दूसरे मनुष्योंके साथ, प्रत्येक कुटुम्बको दूसरे कुटुम्बोंके साथ, प्रत्येक नगरको अन्य नगरोंके साथ और प्रत्येक राष्ट्रको अन्य सभी राष्ट्रोंके साथ अपना प्रयोजन रहते न रहते कभी भी अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, आवश्यकता पड़नेपर सभीको सभीके साथ निरपेक्ष भावसे सतत् सहायकपनेका आचरण करते रहना चाहिए । तीर्थंकर महावीरकी देशनामें तो यज्ञोंमें धर्मके नामपर होनेवाले पशुओंकी रक्षाके अनुकूल जनमत जागृत करनेके लिये यहाँ तक कहा गया था कि जब प्राणीमात्र एक- दूसरे प्राणीका उपकारक है तो प्रत्येक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३ मनुष्यको सतत् “सत्वेषु मैत्री वाला पाठ याद रखना चाहिए और दूसरोंके साथ पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा सत्य धर्मोके रूपमें ही अपना पवित्र आचरण बना लेना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कुटुम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक राष्ट्र अर्थात् विश्वका मानवमात्र जब तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्ममय अपना जीवन बना ले तभी वह अपनेको मानव या सभ्य कहलाने का अधिकारी हो सकता है तथा विश्वमें सच्ची अहिंसाका प्रसार भी इसी आधारपर हो सकता है और मानव-जीवन में इसी आधारपर सुख-शान्तिकी लहर दौड़ सकती है । ऊपर मनुष्यके सामाजिक-जीवनकी झाँकी बतलायी गयी है। इसके अतिरिक्त मनुष्यको जीवनमें सुखी बननेके लिए अपने व्यक्तिगत जीवनको भी धर्ममय बनाना होगा। अर्थात् लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोभके वशीभूत होकर सम्पत्तिके संग्रहमें जितना आनन्द लेते हैं, उतना आनन्द वे उसके उपभोगमें नहीं लेते, यहाँ तक कि वे अपने शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्ति में भी बड़ी कंजूसीके साथ काम लेते है। इसी तरह लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोलुपतावश पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका आवश्यकतासे अधिक उपभोग करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते। बात तो वास्तवमें यह है कि भोजनादि पदार्थ मनुष्यको मनसन्तुष्टि के लिए बिलकुल उपयोगी नहीं है, केवल शरीरके लिए ही वे उपयोगी सिद्ध होते है, फिर भी मनुष्य अपने मनके वशीभूत होकर ऐसा भोजन करनेसे नहीं चूकता, जो उसकी शारीरिक प्रकृतिके बिलकुल प्रतिकूल पड़ता है। इसी प्रकार वस्त्र या अन्य सभी उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंके विषयमें प्रायः प्रत्येक मनुष्य जितनी मानसिक अनुकूलताकी बात सोचता है, उतनी शारीरिक अनुकूलताकी बात वह कभी नहीं सोचता है। ऐसा करनेसे मनुष्यके जीवनका ह्रास तो होता ही है, परन्तु साथ ही उसके इस आचरणका मानव-समाजके ऊपर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । इसलिए तीर्थकर महावीरके उपदेशमें यह बात बतलायी गयी है कि भोजन आदि बाह्य-सामग्री जीवनके लिए बड़ी उपयोगी है । अतः मनुष्यको उसका जीवन में उपयोग तो करना चाहिए, लेकिन उसका दुरुपयोग न हो-इस बातका भी उसे पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्यको उपर्युक्त क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्मोके साथ ही संग्रहवृत्तिको समाप्त करनेवाले शौच-धर्म तथा विलासपूर्ण-वृत्तिको समाप्त करनेवाले संयम-धर्मका अवलम्बन अपने जीवनमें अवश्य लेना चाहिए। वास्तवमें विचार किया जाय तो लोक-शान्ति और जीवन-शान्तिके लिए क्षमा, मार्दव आजव. सत्य. शौच और संयम ये छह धर्म है। इसलिए जबतक मानव-समाज इनके महत्त्वको न समझकर इनकी उपेक्षा करता रहेगा, तबतक उसके जीवन में कुटुम्बमें, नगरमें, राष्ट्रमें और विश्वमें कभी भी शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, और न कोई भी मनुष्य पारमार्थिक सुखके कारणभूत पारमार्थिक धर्मकी ओर ही वास्तविक रूपमें अग्रसर हो सकता है। पारमार्थिक धर्मोको मोक्ष-कारणता ऊपर बतलाया गया है कि पारमार्थिक धर्म निःश्रेयस अर्थात् मक्ति या आत्मस्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक सूखके कारण है और यह भी बतलाया गया है कि मानव-जीवनमें जबतक उपर्युक्त लौकिक-धर्मोका समावेश नहीं होगा, तबतक उसमें उक्त पारमार्थिक धर्मोका विकास होना सम्भव नहीं है । अर्थात् उपर्युक्त प्रकार १. सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरोतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।।-सामायिक पाठ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ लौकिक धर्मोपर चलनेवाला मानव जब शारीरिक और ऐहिक दृष्टिसे सुखी हो जाता है, तभी वह यह सोचनेके लिए सक्षम होता है कि मेरा जीवन शरीरके अधीन है और शरीरकी स्थिरता के लिए मुझे भोजन, वस्त्र, आवास और इनकी पूर्ति के लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र तथा विश्व तकका सहारा लेना पड़ता है । इस तरह मैं मानव-संगठनके विशाल- जाल में फँसा हुआ हूँ । ऐसी स्थिति में वह अपना भावी कर्त्तव्यका मार्ग इस प्रकार निश्चित करता है कि जिससे वह शरीर बन्धन से छुटकारा पा सके। उसके उस कर्त्तव्य मार्गको तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस प्रकार बतलाया गया है कि सर्व प्रथम उसे अनशन आदि पूर्वोक्त बाह्य प्रयत्नों (तपों) द्वारा शरीरमें आत्म-निर्भरता लानेका व प्रायश्चित आदि पूर्वोक्त अन्तरंग प्रयत्नों (तपों) द्वारा आत्मामें स्वावलम्बनता लानेका पुरुषार्थ करना चाहिए तथा इन बहिरंग और अन्तरंग प्रयत्नोंके आधारपर ही जैसी - जैसी शरीरकी आत्मनिर्भरता और आत्माकी स्वावलम्बनता बढ़ती जाए, उसके आधारपर उसे बाह्य-पदार्थां अवलम्बनको छोड़ने रूप त्याग धर्म (अणुव्रत आदि श्रावक धर्म) और इसके भी आगे आकिंचन्य धर्म (महाव्रत आदि मुनि-धर्म) को अंगीकार कर लेना चाहिए । इस तरहका पुरुषार्थ उसे तबतक करते रहना चाहिए, जबतक कि उसका शरीर पूर्णं आत्मनिर्भर न हो जावे और आत्मा पूर्ण स्वावलम्बी न बन जावे । शरीरके पूर्ण आत्मनिर्भर हो जाने और आत्माके पूर्ण स्वावलम्बी बन जानेपर वह सर्व प्रथम जीवन्मुक्त परमात्मा बनता है और अन्तमें वह शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर लेनेपर ब्रह्मचर्यका धारक ( आत्मलीन परमात्मा ) बन जाता है अर्थात् निःश्रेयस ( मुक्ति या आत्मस्वातन्त्र्य) को प्राप्तकर पारमार्थिक सुखका भोक्ता परमात्मा बन जाता है और वह सर्वदा अजर व अमर बना रहता है । तीर्थंकर महावीरकी देशनामें उपदिष्ट धर्मतत्त्वका यह विवेचन आगमके एक भेद चरणानुयोगके आधार पर किया गया है, क्योंकि तीर्थंकर महावीरके धर्मतत्त्वको समझने के लिए हमें चरणानुयोग ही एक सहारा है । चरणानुयोगमें धर्मतत्त्वको समझने के लिए यद्यपि और भी कई प्रकार बतलाए गए हैं, परन्तु वे सब प्रकार भी धर्मतत्त्वको उपर्युक्त रूपमें ही प्रदर्शित करते हैं । यथा--- १. मिथ्यादर्शन ( सुख की अभिलाषासे दुःखके कारणोंमें रुचि रखना), मिथ्याज्ञान ( दुःखके कारणोंको सुखके कारण समझना) और मिथ्याचारित्र ( सुखकी प्राप्ति के लिए दुःखजनक प्रवृत्ति करना) यह सब अधर्म हैं तथा इनके ठीक विपरीत अर्थात् सम्यग्दर्शन ( सुखकी अभिलाषासे सुखके कारणोंमें ही रुचि रखना ), सम्यग्ज्ञान (सुखके कारणों को ही सुखके कारण समझना) और सम्यक्चारित्र ( सुख प्राप्ति के लिए सुखके ही कारणों में प्रवृत्त होना) यह सब धर्म है ।' २. हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, भोगविलासमे जीवन बिताना और धनादिकके संग्रहको ही जीवनका लक्ष्य बना लेना -- यह सब अधर्म है तथा इस प्रकारकी प्रवृत्तियोंको जीवनसे निकाल देना-यह सब धर्म है । २ ३. धार्मिक प्रवृत्ति (धर्मपुरुषार्थ ), आर्थिक प्रवृत्ति ( अर्थ पुरुषार्थं ) और भोग में प्रवृत्ति ( काम पुरुषार्थं ) इनका जीवनमें समन्वय नहीं करना अधर्म है तथा इनका जीवनमें समन्वय करते हुए अन्तमें केवल धर्मपुरुषार्थ - पर आरूढ़ हो जाना अर्थात् मोक्षपुरुषार्थमय जीवनको बना लेना धर्म है । पहले प्रकार में जो सम्यग्दर्शनादिकको धर्म कहा गया है, उनमेंसे सम्यग्दर्शनका अन्तर्भाव तो क्षमा, १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३ । २. हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । - तत्त्वार्थसूत्र ७१९ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १५ मार्दव, सत्य, शौच और संयम धर्मों में हो जाता है, क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक अपने जीवन में इन छह धर्मोंको स्थान नहीं देगा तब तक सम्यग्दृष्टि त्रिकालमें नहीं हो सकता है। इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टिको वृत्ति और प्रवृत्ति कभी अन्याय, अत्याचार आदि उच्छृखलताओंको लिए हुए नहीं हो सकती है और यदि इस तरहकी वत्ति और प्रवत्ति किसीकी होती है तो वह सम्यग्दष्टि नहीं हो सकता है। इसी प्रकार सम्यकचारित्रका अन्तर्भाव तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मोंमें हो जाता है । जैसा कि इन धर्मोके पूर्वमें किए गए स्वरूप-विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है । सम्यग्ज्ञानके सम्बन्ध में यदि विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि ज्ञान अपने आपमें न तो धर्म है और न अधर्म है, इसलिए जब तक उसका सम्बन्ध मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्रसे रहता है तब तक तो उसका अन्तर्भाव अधर्म में होता और जब उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रसे हो जाता है तब उसका अन्तर्भाव धर्म में हो जाता है। दूसरे प्रकारमें जो अहिंसादिकको धर्म कहा गया है उनका समावेश क्षमा आदि धर्मों में निम्न प्रकार होता है। अहिंसा और अचौर्य ये दोनों निवृत्तिपरक धर्म है क्योंकि हिंसासे निवृत्ति अहिंसा, और चोरीसे निवत्ति अचौर्य कहलाता है। दूसरोंके लिए अप्रिय वचन बोलना अथवा बध, बन्धन, ताड़न, छेदन, भेदन आदि क्रियाओं द्वारा कष्ट पहँचाना हिंसा है, अतः इन सबसे निवृत्ति स्वरूप अहिंसाका समावेश क्षमाधर्ममें होता है। इसी प्रकार दूसरोंकी वस्तुओंको उनकी आज्ञाके बिना अपनी बना लेना चोरी है। यह चोरी अपने आपमें अधर्म न होकर दूसरोंको कष्ट पहुँचाने रूप हिंसाका कारण होनेसे ही अधमं है अतः कारणमें कार्यका उपचार होनेसे चोरी भी एक तरहसे हिंसाका ही रूप सिद्ध होती है, इसलिए चोरोसे निवृत्तिरूप अचौर्यधर्मका समावेश भी क्षमाधर्ममें हो जाता है । तथा यदि और बारीकीसे अहिंसा व अचौर्यका विश्लेषण किया जाय तो अहिंसाका समावेश क्षमाके साथ-साथ मार्दवधर्म में होता है, कारण कि अप्रिय वचन बोलनेका अर्थ दूसरोंका तिरस्कार करना ही तो है अतः दूसरोंका तिरस्कार नहीं करने रूप अहिंसाका समावेश मार्दवधर्ममें भी हो जाता है । इसी तरह अचौर्य धर्मका समावेश आर्जव धर्ममें करना उचित है कारण कि छल-कपट करना चोरीका ही रूपान्तर है। सत्य धर्म प्रवृत्तिपरक धर्म है । लोकमें दूसरोंको कष्ट नहीं पहुँचाना, इनका तिरस्कार नहीं करना और उन्हें धोखेमें नहीं डालना-यह तो धर्म है ही, परन्तु अहिंसा और अचौर्य धर्मोकी सीमा केवल इस तरहके अधर्मसे निवृत्ति रूपमें ही नहीं समाप्त हो जाती है प्रत्युत इस निवृत्तिके आगे इनका कुछ प्रवृत्तिपरक रूप भी होता है। इसलिये उक्त प्रकारसे अहिंसा और अचौर्यवृत्तिके धारक मनुष्यको तीर्थकर महावीरकी में यह उपदेश दिया गया है कि दूसरोंके प्रति हित-मित-प्रिय वचन बोलो, उनके साथ सहानुभति और सहृदयताका व्यवहार भी करो तथा आवश्यकतानुसार उन्हें यथाशक्ति तन-मन-धनसे सहायता भी पहुँचाओ। इस तरह अहिंसादि पाँच धर्मों में समाविष्ट सत्य-धर्म और क्षमा आदि दश धर्मों में समाविष्ट सत्य धर्म-इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता है । ये अहिंसा आदि तीन धर्म और क्षमा आदि चार धर्म लौकिक धर्म ही हैं, कारण कि ये सभी मानव-संगठनकी स्थिरताके आधार है। 'कुशील' शब्दका लौकिक दृष्टिसे अर्थ होता है पर वस्तुओंका जोवनको हानिकर एवं अमर्यादित होकर उपभोग करना, इसलिए इससे विपरीत अर्थक बोधक ब्रह्मचर्य धर्मका समावेश संयम धर्ममें होता है । परन्तु यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिए कि पारमार्थिक धर्मकी ओर बढ़ने वाले मनुष्यके लिए जो उपभोग आज आवश्यक है, कल वह उसे अनावश्यक भी हो जाता है । अतः ऐसे अनावश्यक उपभोगका त्याग Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ धर्म में और अन्ततोगत्वा आकिंचन्य धर्ममें समाविष्ट होता है । लोकमें और धर्मग्रन्थोंमे ब्रह्मचर्य धर्मका जो पर-पुरुष या पर-स्त्री-रमणका त्याग अथवा आगे स्वपुरुष और स्वस्त्री - रमणका भी त्याग अर्थ किया जाता है। वह यद्यपि मिथ्या नहीं है परन्तु वह अपूर्ण अवश्य है, कारण कि मनके वशीभूत होकर अथवा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितना पर वस्तुओंका अवलम्बन जीवनमें लिया जाता है वह सभी कुशीलमें अन्तर्भूत होता है । इसलिए परवस्तुओंके अवलम्बनका मानसिक दृष्टिसे तो सर्वथा त्याग हो जाना तथा शारीरिक दृष्टिसे शक्ति के अनुसार त्यागकर देना ही ब्रह्मचर्य धर्म है । 'अपरिग्रह' शब्द के दो अर्थ होते हैं - एक तो ईषत् परिग्रह ( संग्रह ) अर्थात् परिग्रह ( संग्रह ) का परिमाण और दूसरा परिग्रह ( संग्रह ) का त्याग । इस तरह परिग्रहके परिमाण रूप अपरिग्रह धर्मका समावेश लौकिक धर्म होनेके कारण शौच धर्ममें और परिग्रहके त्याग रूप अपरिग्रह धर्मका समावेश पारमार्थिक धर्म के रूप में त्याग तथा आकिंचन्य धर्ममें होता है । और अन्तमें उपभोग तथा परिग्रह दोनोंका त्याग दशम ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत होता है । यदि उक्त पाँचों पापोंके उद्भव के सम्बन्धमें विचार किया जाय तो समझ में आ जायगा कि उनमें से कुशील ( भोग ) और परिग्रह ( संग्रह ) ये दोनों पाप जीवकी लोभ-वृत्तिके परिणाम हैं तथा हिंसा, झूट और चोरी क्रोध, मान और माया-वृत्तिके परिणाम हैं लेकिन इनमें यदि परस्परके कार्यकारणभावपर विचार किया जाय, तो कहा जा सकता है कि कुशील ( भोग ) और परिग्रह ( संग्रह ) ये दोनों पाप ही सब पापोंके मूल हैं क्योंकि प्रायः देखने में आता है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये ही हिंसा करनेमें उद्यत होता है, झूठ बोलता है और चोरी भी करता है । इस तरह कहना चाहिए कि सबसे भयंकर पाप जीवकी स्वार्थवृत्तिका परिचायक लोभ ही है । यही कारण है कि चरणानुयोग-आगममें " लोभ पापका बाप बखाना" के रूपमें लोभको पापका बाप कहकर पुकारा गया है । अर्थात् ये सभी प्रकारके धर्म इस प्रकार धर्मकी चाहे सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप व्याख्या की जावे, चाहे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह रूप व्याख्या की जावे अथवा चाहे क्षमा आदि उपर्युक्त दश धर्म रूप व्याख्या की जावे – इन सभी व्याख्याओंमें भावका कुछ भी अन्तर नहीं है । पूर्वोक्त प्रकार धर्मके लौकिक और पारमार्थिक दोनों वर्गों में समाविष्ट होते । इसी धर्मका एक प्रकार जो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोके समन्वयरूप त्रिवर्गके रूपमें व केवल धर्म पुरुषार्थकी स्थितिको प्राप्त मोक्षपुरुषार्थरूप अपवर्गके रूप में बतलाया गया है वह भी त्रिवर्ग के रूपमें तो धर्मके लौकिक वर्ग में और अपवर्गके रूपमें धर्मके पारमार्थिक वर्ग में समाविष्ट होता है । यहाँपर मैं इतना और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि तीर्थंकर महावीरकी देशनाके अनुसार धर्मका सद्भाव सम्यग्दर्शनके रूपमें देवगति और नरक गतिमें तथा सम्यग्दर्शन और यत्किचित् चारित्र के रूपमें तिर्यग्गति में भी स्वीकार किया गया है । परन्तु लोकमें और धर्मग्रन्थों ( चरणानुयोग ) में धर्मके विषयमें जो कुछ सोचा और कहा गया है, उसमें मुख्यतया मानव-जीवनको ही लक्ष्य बनाया गया है । वास्तव में बात भी ऐसी है कि धर्मका जो महत्त्व मानव-जीवन में प्रस्फुटित होता है वह नारकियों, देवों और तियंचोंके जीवन में प्रस्फुटित नहीं होता, क्योंकि संसारमें मानव ही ऐसा प्राणी है जिसे अपना जीवन सुखमय बनानेके लिए मानव समाजको लेकर संगठनात्मक प्रयत्न करना और अपने जीवनके अधिकारोंकी सीमा निर्धारित करना अनिवार्य होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति भी मानव जीवनसे ही होती है । इस तरह चरणानुयोगकी दृष्टिसे निर्णीत किया जाय, तो तीर्थंकर महावीरका तत्वज्ञान धर्मतत्त्व Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : 17 रूपमें ही निर्णीत होता है और यह धर्मतत्त्व जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है--लौकिक तथा पारमार्थिक सुखमें कारणभूत लौकिक और पारमार्थिक धर्मों के रूपमें विभक्त हो जाता है। इस धर्मतत्त्वको इसी रूपमें यदि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कूटम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक देश--इस तरह सम्पूर्ण विश्वकी मानव जाति हृदयंगम करके अपने जीवनका अंग बना ले तो एक तो विश्वमें सर्वत्र संघर्षकी स्थिति समाप्त होकर परस्पर प्रेमभावका संचार हो सकता है। दूसरे प्रत्येक मानव अन्तमें अपने महान लक्ष्य पूर्वोक्त पारमार्थिक सुखकी प्राप्तिकी ओर भी यथाशक्ति अग्रसर हो सकता है / यद्यपि तीर्थकर महावीरका तत्त्वज्ञान द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे छह प्रकारके द्रव्योंके रूपमें व करणानुयोग की दृष्टिसे सप्ततत्त्व या नवतत्त्वोंके रूप में भी निर्णीत होता है। साथ ही इस सभी प्रकारके तत्त्वज्ञानकी व्यवस्थाके लिए तीर्थकर महावीरकी देशनामें कर्मवाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद तथा प्रमाणवाद और नयवादकी भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। परन्तु जिस प्रकार ऊपर धर्मतत्त्वकी विस्तारसे विवेचना की गयी है, उसी प्रकार इन सबकी विवेचना भी विस्तारको अपेक्षा रखती है, जो कि स्वतन्त्र रूपसे अनेक लेखोंका रूप धारण करने योग्य है / अतः आवश्यक होकरके भी इन सबपर लेखमें विचार नहीं किया गया है। ये सभी विषय आवश्यक इसलिए हैं कि इनका सम्बन्ध मनुष्यके पारमार्थिक जीवनसे तो है ही, परन्तु उसके लौकिक जीवनसे भी कम सम्बन्ध नहीं है क्योंकि विचारकर देखा जावे तो समझमें आ सकता है कि प्रत्येक मनुष्य का एक क्षण भी इनके बिना नहीं व्यतीत होता अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनके प्रत्येक क्षणमें इनका उपयोग तो करता ही रहता है. परन्तु इनके स्वरूपसे वह हमेशा अनभिज्ञ बना हुआ है। INEA HONEIN