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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ११ उक्त दश-धर्मोंका वर्गीकरण पूर्व में स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचारके अनुसार धर्मको सुखका कारण बतलाया गया है । धर्म और सुखका यह कार्य-कारणभाव दीपक और प्रकाशकी तरह सहभावी है । अर्थात् जिस प्रकार जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नहीं है वहाँ प्रकाश भी नहीं रहता है । इसी प्रकार जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख अवश्य होगा और जहाँ धर्म नहीं होगा वहाँ सुख भी नहीं होगा। पूर्वमें धर्मका जो यह स्वरूप निर्धारित किया गया है कि लोकमें जिस मार्गपर चलनेसे अभ्युदय ( जीवन में सुख शान्ति ) और अन्तमें निःश्रेयस (मक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य ) प्राप्त हो सकता है, वह धर्म है। इससे स्पष्ट होता है कि सुख दो प्रकारका होता है--एक तो अभ्युदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुख और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुख । इसके आधारपर धर्म भी मूलतः दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है-एक तो अभ्यदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुखका कारणभूत लौकिक-धर्म और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुखका कारणभूत पारमार्थिक-धर्म । जो मनुष्य उक्त पारमार्थिक-सुखको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो पारमार्थिक-धर्मकी शरणमें ही जाना होगा, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मकी शरण में अपनी अशक्तिवश नहीं जा सकता है, उसे कम-से-कम अपने लौकिकजीवनमें शान्तिरूप सुखकी प्राप्तिके लिए लौकिक-धर्मकी शरण में जाना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि मनुष्यका मुख्य कर्तव्य तो पारमार्थिक सुखको प्राप्तिके लिए पारमार्थिक-धर्म पर चलना ही है, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मपर चलने में असमर्थ है, उसे कम-से-कम लौकिक-जीवनमें सुख-शान्तिके उद्देश्यसे लौकिक-धर्मपर अवश्य ही चलना चाहिए । तीर्थकर महावीरकी देशनामें जो धर्मके उपर्युक्त दश भेद बतलाए गए हैं, वे इसी आशयसे बतलाए गए हैं। इसलिए उन दश धर्मों के दो वर्ग निश्चित हो जाते है-एक तो लौकिकधर्मोका वर्ग और दुसरा पारमार्थिक-धर्मोंका वर्ग । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम ये छह धर्म तो लौकिक-धर्म कहलाने योग्य हैं और तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये चार धर्म पारमार्थिक-धर्म कहलाने योग्य हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पारमाथिक-सुखकी प्राप्तिके लिए जिस प्रकार तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप पारमार्थिक-धर्मोंका मानव-जीवन में महत्व है, उसी प्रकार लौकिक-जीवन में सुख शान्ति प्राप्त करनेके लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच एवं संयम रूप लौकिक-धर्मो का भी मानव-जीवन में महत्व है। यही कारण है कि धर्मके उल्लिखित दोनों वर्गों को मानवकी बहत्तर कलाओंमेंसे प्रधान कलाके रूप में स्वीकार किया गया है। धर्मोंके क्रमिक-विकासकी दृष्टिसे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि मानवजीवनमें जब तक उक्त लौकिक धर्मो का समावेश नहीं होता, तब तक उसमें उक्त पारमार्थिक-धर्मों का विकास होना असम्भव ही है। मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका कारण मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका उपर्युक्त एक कारण तो यही है कि जब तक मानव-जीवनमें लौकिक धर्मोका समावेश नहीं होगा, तब तक उसमें पारमार्थिक धर्मोका विकास होना असम्भव है, लेकिन सामान्यरूपसे मानव-जीवनमें लौकिक-धर्मो का महत्त्व इसलिए है कि तीर्थंकरकी देशनाके अनुसार प्रत्येक सप्राण शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक्त जीवका अस्तित्व है । इतना ही नहीं, वह जीव शरीरके साथ इतना घुला-मिला है कि शरीरके अस्तित्वके साथ ही उसका अस्तित्व उसे समझमें आता है, उसके बिना नहीं। जीवके भीतर जो ज्ञान करनेकी शक्ति है वह भी शरीरको अंगभूत इन्द्रियोंके सहयोगके बिना पंगु बनी रहतो १. कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका द्वितीय जीव उद्धार ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211132
Book TitleMahavir ki Dharmatattva Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size2 MB
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