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________________ १२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ है और यह भी बात है कि जीन शरीरके इतना अधीन हो रहा है कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरतापर अवलम्बित है । जीवकी शरीरावलम्बनताका यह भी एक विचित्र किन्तु तथ्यपूर्ण अनुभव है कि यदि शरीर में शिथिलता आदि विकार पैदा हो जाते हैं, तो जीवको क्लेश होता है और जब उन विकारोंके नाशके अनुकूल साधनोंका सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है, तो उन विकारोंका नाश हो जानेपर जीवको सुखानुभव होने लगता है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि वे साधन अपना प्रभाव शरीरपर ही डालते हैं, परन्तु शरीरकी अधीनताके कारण सुखानुभोक्ता जीव होता है । अब यदि यह कथन मनुष्यके ऊपर लागू किया जाय तो समझ में आ जायगा कि मानव प्राणी भी शरीर के अधीन है और उसका वह शरीर भी भोजनादिकके अधीन है । इसीलिए प्रत्येक मनुष्य भोजनादिक के उपभोग में प्रवृत्त होता है । प्रत्येक मनुष्यको भोजनादिककी प्राप्ति अन्य मनुष्योंके सहयोगसे ही होती है । यही कारण है कि तीर्थंकर महावीरने "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (त० सू० ५।२१ ) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था । वैसे तो यह सिद्धान्त सम्पूर्ण संसारी जीवोंपर लागू होता है, परन्तु मानव जीवनमें तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसीलिए मनुष्यको सामाजिक प्राणी स्वीकार किया गया है। जिसका अर्थ यह है, कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवन में सुख प्राप्त करनेके लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और यहाँ तक कि विश्व सहयोगकी आवश्यकता है । इसका निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और विश्वके रूपमें मानव संगठन के छोटे-बड़े जितने रूप हो सकते हैं, उन सबको ठोस रूप देनेका सतत् प्रयत्न करते रहना चाहिए । इसलिए तीर्थंकर महावीरकी देशना में प्रत्येक मनुष्यको सर्वप्रथम उपदेश दिया गया है कि “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” अर्थात् दूसरोंका जो आचरण उसको अपने प्रतिकूल जान पड़ता है वैसा आचरण उसको दूसरोंके साथ नहीं करना चाहिए, इतना ही नहीं, दूसरोंसे अपने प्रति वह जैसा आचरण चाहता है, वैसा ही आचरण उसे दूसरोंके साथ भी करना चाहिए । वास्तव में देखा जाय तो वर्तमानमें प्रत्येक मनुष्यकी यह दशा है कि वह दूसरोंको निरपेक्ष भावसे सहयोग देनेके लिए तो तैयार ही नहीं होता है, परन्तु अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिए वह न केवल दूसरोंसे निरपेक्ष-सहयोग प्राप्त करनेका सतत् प्रयत्न करता रहता है, प्रत्युत दूसरोंके साथ संघर्ष करने, उन्हें तिरस्कृत करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी नहीं चूकता है । इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ है कि वह अपना प्रयोजन रहते अथवा न रहते भी दूसरोंके साथ हमेशा अनुचित आचरण करनेमें आनन्दित होता है । तीर्थंकर महावीरके समयमें भी मानव समाजकी यही दशा थी और उन्होंने जाना था कि यह दशा मानव समाजको विघटित करके प्रत्येक मनुष्य के जीवनको त्रस्त करनेवाली है, अतः उन्होंने अपनी देशनामें यह सिद्धान्त प्रस्थापित किया था कि मानव जीवनमें शान्ति स्थापनाकी रीढ़ सामाजिक संगठनको सुदृढ़ करनेके लिए प्रत्येक मनुष्यको दूसरे मनुष्योंके साथ, प्रत्येक कुटुम्बको दूसरे कुटुम्बोंके साथ, प्रत्येक नगरको अन्य नगरोंके साथ और प्रत्येक राष्ट्रको अन्य सभी राष्ट्रोंके साथ अपना प्रयोजन रहते न रहते कभी भी अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, आवश्यकता पड़नेपर सभीको सभीके साथ निरपेक्ष भावसे सतत् सहायकपनेका आचरण करते रहना चाहिए । तीर्थंकर महावीरकी देशनामें तो यज्ञोंमें धर्मके नामपर होनेवाले पशुओंकी रक्षाके अनुकूल जनमत जागृत करनेके लिये यहाँ तक कहा गया था कि जब प्राणीमात्र एक- दूसरे प्राणीका उपकारक है तो प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211132
Book TitleMahavir ki Dharmatattva Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size2 MB
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