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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३ मनुष्यको सतत् “सत्वेषु मैत्री वाला पाठ याद रखना चाहिए और दूसरोंके साथ पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा सत्य धर्मोके रूपमें ही अपना पवित्र आचरण बना लेना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कुटुम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक राष्ट्र अर्थात् विश्वका मानवमात्र जब तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्ममय अपना जीवन बना ले तभी वह अपनेको मानव या सभ्य कहलाने का अधिकारी हो सकता है तथा विश्वमें सच्ची अहिंसाका प्रसार भी इसी आधारपर हो सकता है और मानव-जीवन में इसी आधारपर सुख-शान्तिकी लहर दौड़ सकती है । ऊपर मनुष्यके सामाजिक-जीवनकी झाँकी बतलायी गयी है। इसके अतिरिक्त मनुष्यको जीवनमें सुखी बननेके लिए अपने व्यक्तिगत जीवनको भी धर्ममय बनाना होगा। अर्थात् लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोभके वशीभूत होकर सम्पत्तिके संग्रहमें जितना आनन्द लेते हैं, उतना आनन्द वे उसके उपभोगमें नहीं लेते, यहाँ तक कि वे अपने शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्ति में भी बड़ी कंजूसीके साथ काम लेते है। इसी तरह लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोलुपतावश पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका आवश्यकतासे अधिक उपभोग करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते। बात तो वास्तवमें यह है कि भोजनादि पदार्थ मनुष्यको मनसन्तुष्टि के लिए बिलकुल उपयोगी नहीं है, केवल शरीरके लिए ही वे उपयोगी सिद्ध होते है, फिर भी मनुष्य अपने मनके वशीभूत होकर ऐसा भोजन करनेसे नहीं चूकता, जो उसकी शारीरिक प्रकृतिके बिलकुल प्रतिकूल पड़ता है। इसी प्रकार वस्त्र या अन्य सभी उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंके विषयमें प्रायः प्रत्येक मनुष्य जितनी मानसिक अनुकूलताकी बात सोचता है, उतनी शारीरिक अनुकूलताकी बात वह कभी नहीं सोचता है। ऐसा करनेसे मनुष्यके जीवनका ह्रास तो होता ही है, परन्तु साथ ही उसके इस आचरणका मानव-समाजके ऊपर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । इसलिए तीर्थकर महावीरके उपदेशमें यह बात बतलायी गयी है कि भोजन आदि बाह्य-सामग्री जीवनके लिए बड़ी उपयोगी है । अतः मनुष्यको उसका जीवन में उपयोग तो करना चाहिए, लेकिन उसका दुरुपयोग न हो-इस बातका भी उसे पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्यको उपर्युक्त क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्मोके साथ ही संग्रहवृत्तिको समाप्त करनेवाले शौच-धर्म तथा विलासपूर्ण-वृत्तिको समाप्त करनेवाले संयम-धर्मका अवलम्बन अपने जीवनमें अवश्य लेना चाहिए। वास्तवमें विचार किया जाय तो लोक-शान्ति और जीवन-शान्तिके लिए क्षमा, मार्दव आजव. सत्य. शौच और संयम ये छह धर्म है। इसलिए जबतक मानव-समाज इनके महत्त्वको न समझकर इनकी उपेक्षा करता रहेगा, तबतक उसके जीवन में कुटुम्बमें, नगरमें, राष्ट्रमें और विश्वमें कभी भी शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, और न कोई भी मनुष्य पारमार्थिक सुखके कारणभूत पारमार्थिक धर्मकी ओर ही वास्तविक रूपमें अग्रसर हो सकता है। पारमार्थिक धर्मोको मोक्ष-कारणता ऊपर बतलाया गया है कि पारमार्थिक धर्म निःश्रेयस अर्थात् मक्ति या आत्मस्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक सूखके कारण है और यह भी बतलाया गया है कि मानव-जीवनमें जबतक उपर्युक्त लौकिक-धर्मोका समावेश नहीं होगा, तबतक उसमें उक्त पारमार्थिक धर्मोका विकास होना सम्भव नहीं है । अर्थात् उपर्युक्त प्रकार १. सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरोतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।।-सामायिक पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211132
Book TitleMahavir ki Dharmatattva Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size2 MB
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