________________
१४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
लौकिक धर्मोपर चलनेवाला मानव जब शारीरिक और ऐहिक दृष्टिसे सुखी हो जाता है, तभी वह यह सोचनेके लिए सक्षम होता है कि मेरा जीवन शरीरके अधीन है और शरीरकी स्थिरता के लिए मुझे भोजन, वस्त्र, आवास और इनकी पूर्ति के लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र तथा विश्व तकका सहारा लेना पड़ता है । इस तरह मैं मानव-संगठनके विशाल- जाल में फँसा हुआ हूँ । ऐसी स्थिति में वह अपना भावी कर्त्तव्यका मार्ग इस प्रकार निश्चित करता है कि जिससे वह शरीर बन्धन से छुटकारा पा सके। उसके उस कर्त्तव्य मार्गको तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस प्रकार बतलाया गया है कि सर्व प्रथम उसे अनशन आदि पूर्वोक्त बाह्य प्रयत्नों (तपों) द्वारा शरीरमें आत्म-निर्भरता लानेका व प्रायश्चित आदि पूर्वोक्त अन्तरंग प्रयत्नों (तपों) द्वारा आत्मामें स्वावलम्बनता लानेका पुरुषार्थ करना चाहिए तथा इन बहिरंग और अन्तरंग प्रयत्नोंके आधारपर ही जैसी - जैसी शरीरकी आत्मनिर्भरता और आत्माकी स्वावलम्बनता बढ़ती जाए, उसके आधारपर उसे बाह्य-पदार्थां अवलम्बनको छोड़ने रूप त्याग धर्म (अणुव्रत आदि श्रावक धर्म) और इसके भी आगे आकिंचन्य धर्म (महाव्रत आदि मुनि-धर्म) को अंगीकार कर लेना चाहिए । इस तरहका पुरुषार्थ उसे तबतक करते रहना चाहिए, जबतक कि उसका शरीर पूर्णं आत्मनिर्भर न हो जावे और आत्मा पूर्ण स्वावलम्बी न बन जावे । शरीरके पूर्ण आत्मनिर्भर हो जाने और आत्माके पूर्ण स्वावलम्बी बन जानेपर वह सर्व प्रथम जीवन्मुक्त परमात्मा बनता है और अन्तमें वह शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर लेनेपर ब्रह्मचर्यका धारक ( आत्मलीन परमात्मा ) बन जाता है अर्थात् निःश्रेयस ( मुक्ति या आत्मस्वातन्त्र्य) को प्राप्तकर पारमार्थिक सुखका भोक्ता परमात्मा बन जाता है और वह सर्वदा अजर व अमर बना रहता है ।
तीर्थंकर महावीरकी देशनामें उपदिष्ट धर्मतत्त्वका यह विवेचन आगमके एक भेद चरणानुयोगके आधार पर किया गया है, क्योंकि तीर्थंकर महावीरके धर्मतत्त्वको समझने के लिए हमें चरणानुयोग ही एक सहारा है । चरणानुयोगमें धर्मतत्त्वको समझने के लिए यद्यपि और भी कई प्रकार बतलाए गए हैं, परन्तु वे सब प्रकार भी धर्मतत्त्वको उपर्युक्त रूपमें ही प्रदर्शित करते हैं । यथा---
१. मिथ्यादर्शन ( सुख की अभिलाषासे दुःखके कारणोंमें रुचि रखना), मिथ्याज्ञान ( दुःखके कारणोंको सुखके कारण समझना) और मिथ्याचारित्र ( सुखकी प्राप्ति के लिए दुःखजनक प्रवृत्ति करना) यह सब अधर्म हैं तथा इनके ठीक विपरीत अर्थात् सम्यग्दर्शन ( सुखकी अभिलाषासे सुखके कारणोंमें ही रुचि रखना ), सम्यग्ज्ञान (सुखके कारणों को ही सुखके कारण समझना) और सम्यक्चारित्र ( सुख प्राप्ति के लिए सुखके ही कारणों में प्रवृत्त होना) यह सब धर्म है ।'
२. हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, भोगविलासमे जीवन बिताना और धनादिकके संग्रहको ही जीवनका लक्ष्य बना लेना -- यह सब अधर्म है तथा इस प्रकारकी प्रवृत्तियोंको जीवनसे निकाल देना-यह सब धर्म है । २
३. धार्मिक प्रवृत्ति (धर्मपुरुषार्थ ), आर्थिक प्रवृत्ति ( अर्थ पुरुषार्थं ) और भोग में प्रवृत्ति ( काम पुरुषार्थं ) इनका जीवनमें समन्वय नहीं करना अधर्म है तथा इनका जीवनमें समन्वय करते हुए अन्तमें केवल धर्मपुरुषार्थ - पर आरूढ़ हो जाना अर्थात् मोक्षपुरुषार्थमय जीवनको बना लेना धर्म है ।
पहले प्रकार में जो सम्यग्दर्शनादिकको धर्म कहा गया है, उनमेंसे सम्यग्दर्शनका अन्तर्भाव तो क्षमा,
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३ ।
२. हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । - तत्त्वार्थसूत्र ७१९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org