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________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : 17 रूपमें ही निर्णीत होता है और यह धर्मतत्त्व जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है--लौकिक तथा पारमार्थिक सुखमें कारणभूत लौकिक और पारमार्थिक धर्मों के रूपमें विभक्त हो जाता है। इस धर्मतत्त्वको इसी रूपमें यदि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कूटम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक देश--इस तरह सम्पूर्ण विश्वकी मानव जाति हृदयंगम करके अपने जीवनका अंग बना ले तो एक तो विश्वमें सर्वत्र संघर्षकी स्थिति समाप्त होकर परस्पर प्रेमभावका संचार हो सकता है। दूसरे प्रत्येक मानव अन्तमें अपने महान लक्ष्य पूर्वोक्त पारमार्थिक सुखकी प्राप्तिकी ओर भी यथाशक्ति अग्रसर हो सकता है / यद्यपि तीर्थकर महावीरका तत्त्वज्ञान द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे छह प्रकारके द्रव्योंके रूपमें व करणानुयोग की दृष्टिसे सप्ततत्त्व या नवतत्त्वोंके रूप में भी निर्णीत होता है। साथ ही इस सभी प्रकारके तत्त्वज्ञानकी व्यवस्थाके लिए तीर्थकर महावीरकी देशनामें कर्मवाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद तथा प्रमाणवाद और नयवादकी भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। परन्तु जिस प्रकार ऊपर धर्मतत्त्वकी विस्तारसे विवेचना की गयी है, उसी प्रकार इन सबकी विवेचना भी विस्तारको अपेक्षा रखती है, जो कि स्वतन्त्र रूपसे अनेक लेखोंका रूप धारण करने योग्य है / अतः आवश्यक होकरके भी इन सबपर लेखमें विचार नहीं किया गया है। ये सभी विषय आवश्यक इसलिए हैं कि इनका सम्बन्ध मनुष्यके पारमार्थिक जीवनसे तो है ही, परन्तु उसके लौकिक जीवनसे भी कम सम्बन्ध नहीं है क्योंकि विचारकर देखा जावे तो समझमें आ सकता है कि प्रत्येक मनुष्य का एक क्षण भी इनके बिना नहीं व्यतीत होता अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनके प्रत्येक क्षणमें इनका उपयोग तो करता ही रहता है. परन्तु इनके स्वरूपसे वह हमेशा अनभिज्ञ बना हुआ है। INEA HONEIN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211132
Book TitleMahavir ki Dharmatattva Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size2 MB
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