Book Title: Mahavir Vani Lecture 17 Samayik Samay me Thaher Jana
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
Catalog link: https://jainqq.org/explore/340017/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना सत्रहवां प्रवचन 311 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म-सूत्र धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमंसन्ति, जस्स धम्मे सया मणो।। धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म / जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। 312 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां तप या पांचवां अंतर-तप है ध्यान। जो दस तपों से गुजरते हैं उन्हें तो ध्यान को समझना कठिन नहीं होता। लेकिन जो केवल दस तपों को समझ से समझते हैं, उन्हें ध्यान को समझना बहुत कठिन होता है। फिर भी कुछ संकेत ध्यान के संबंध में समझे जा सकते हैं। ध्यान को तो करके ही समझा जा सकता है, इशारे कुछ बाहर से ध्यान के संबंध में समझे जा सकते हैं। ध्यान प्रेम जैसा है—जो करता है, वही जानता है; या तैरने जैसा है—जो तैरता है, वही जानता है। __ तैरने के संबंध में कुछ बातें कही जा सकती हैं, और प्रेम के संबंध में बहुत बातें कही जा सकती हैं। फिर भी प्रेम के संबंध में कितना भी समझ लिया जाए तो भी प्रेम समझ में नहीं आता। क्योंकि प्रेम एक स्वाद है, एक अनुभव है, एक अस्तित्वगत प्रतीति है। तैरना भी एक एक्जिस्टेंशियल, एक सत्तागत प्रतीति है। आप दूसरे व्यक्ति को तैरते हुए देखकर भी नहीं जान सकते कि वह कैसा अनुभव करता है। आप दूसरे व्यक्ति को प्रेम में डूबा हुआ देखकर भी नहीं जान सकते कि उसे प्रेम किन-किन यात्राओं पर ले जाता है। ध्यान में खड़े महावीर को देखकर भी नहीं जान सकते कि ध्यान क्या है। ध्यान के संबंध में महावीर स्वयं भी कुछ कहें तो भी नहीं समझा पाते ठीक से कि ध्यान क्या है? कठिनाई और भी बढ़ जाती है, प्रेम से भी ज्यादा, कि चाहे कितना ही कम जानते हों लेकिन प्रेम का कोई न कोई स्वाद हम सबको है। गलत ही सही, गलत प्रेम का ही सही, तो भी प्रेम का स्वाद है। गलत ध्यान का भी हमें कोई स्वाद नहीं है, ठीक ध्यान की बात तो बहुत दूर है। गलत ध्यान का भी हमें कोई स्वाद नहीं है जिसके आधार पर समझाया जा सके कि ठीक क्या है। गलत ध्यान में भी हम अपने को रोक लेते हैं। महावीर ने दो तरह के गलत ध्यान भी कहे हैं। महावीर ने कहा है कि जो व्यक्ति तीव्र क्रोध में आ जाता है वह एक तरह के गलत ध्यान में आ जाता है। अगर आप कभी तीव्र क्रोध में आए हैं तो एक प्रकार के गलत ध्यान में आपने प्रवेश किया है। लेकिन हम तीव्र क्रोध में भी कभी नहीं आते। हम कुनकुने जीते हैं, ल्यूकवार्म; कभी हम उबलती हालत में नहीं आते। अगर आप गहरे क्रोध में आ जाएं, इतने गहरे क्रोध में आ जाएं कि क्रोध ही शेष रह जाए, क्रोध ही एकाग्र हो जाए, जीवन की सारी ऊर्जा क्रोध के बिंदु पर ही दौड़ने लगे। सारी किरणें जीवन की शक्ति की क्रोध पर ही ठहर जाएं, तो आपको गलत ध्यान का अनुभव होगा। __महावीर ने कहा है कि अगर कोई गलत ध्यान में भी उतरे तो उसे ठीक ध्यान में लाना आसान है। इसलिए अकसर ऐसा हुआ है कि परम क्रोधी क्षण भर में परम क्षमा की मूर्ति बन गए। लेकिन धीमे-धीमे जलते हए जो क्रोधी हैं उन्हें गलत ध्यान का भी कोई पता नहीं है। अगर राग पूरी तरह हो, वासना पूरी तरह हो, पैशन पूरी तरह हो जैसा कि कोई मजनूं या फरियाद जब अपने पूरे राग से पागल 313 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हो जाता है तब वह भी एक तरह के गलत ध्यान में प्रवेश करता है। तब लैला के सिवाय मजनूं को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता-राह चलते दूसरे लोगों में भी वही दिखाई पड़ती है; खड़े हुए वृक्षों में भी वही दिखाई पड़ती है; चांद-तारों में भी वही दिखाई पड़ती है। इसीलिए तो हम उसे पागल कहते हैं। __ और लैला उसे जैसी दिखाई पड़ती है वैसी हमको, किसी को भी दिखाई नहीं पड़ती। उसके गांव के लोग उसे बहुत समझाते रहे कि बहत साधारण-सी औरत है। त पागल हो गया है। गांव के राजा ने मजनं को बलाया और अपने परिचित मित्रों की बारहल को सामने खड़ा किया जो कि सुंदरतम थीं उस राज्य की। और राजा ने कहा-तू पागल न बन, तुझ पर दया आती है। तुझको सड़कों पर रोते देखकर पूरा गांव पीड़ित है। तू इन बारह सुंदर लड़कियों में से जिसे चुन ले, मैं उसका विवाह तुझसे करवा दूं। लेकिन मजनूं ने कहा कि मुझे सिवाय लैला के कोई यहां दिखाई नहीं पड़ता। और उस राजा ने कहा-तू पागल हो गया है? लैला बहुत साधारण लड़की है। तो मजनूं ने कहा कि लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। आपको लैला दिखाई नहीं पड़ सकती। और जिसे आप देख रहे हैं वह लैला नहीं है। उसे मैं देखता हूं। ___ अब यह जो मजनूं कहता है कि मजनूं की आंख चाहिए, यह गलत ध्यान का एक रूप है। इतना ज्यादा कामासक्त है, इतना राग से भर गया है कि नैरोडाउन, सारी चेतना एक बिन्दु पर सिकुड़कर खड़ी हो गयी है। वह चेतना का बिंदु लैला बन गयी है। महावीर ने इन्हें गलत ध्यान कहा है। यह बहुत मजे की बात है कि महावीर इस जमीन पर अकेले आदमी हैं जिन्होंने गलत ध्यान की भी चर्चा की है। ठीक ध्यान की चर्चा बहुत लोगों ने की है। यह बड़ी विशिष्ट बात है कि महावीर कहते हैं कि है तो यह भी ध्यान-उल्टा है, शीर्षासन करता हुआ है। जितना ध्यान मजनूं का लैला पर लगा है इतना मजनूं का मजनूं पर लग जाए तो ठीक ध्यान हो जाए। शीर्षासन करती हुई चेतना है-'पर' पर लगी है, दूसरे पर लगी है। दूसरे पर जब इतनी सिकुड़ जाती है चेतना तब भी ध्यान ही फलित होता है, लेकिन उल्टा फलित होता है, सिर के बल फलित होता है। अपनी ओर लग जाए उतनी ही चेतना तो ध्यान पैर पर खड़ा हो जाता है। सिर के बल खड़े हुए ध्यान से कोई गति नहीं हो सकती। ___ इसलिए सिर के बल खड़े हुए सभी ध्यान सड़ जाते हैं। क्योंकि गत्यात्मक नहीं हो सकते। सिर के बल चलिएगा कैसे? पैर के बल चला जा सकता है- यात्रा करनी हो तो पैर के बल। चेतना जब पैर के बल खड़ी होती है तो अपनी तरफ उन्मुख होती है, तब गति करती है। और ध्यान जो है, वह डायनेमिक फोर्स है। उसे सिर के बल खड़े कर देने का मतलब है, उसकी हत्या कर देना। इसलिए जो लोग भी गलत ध्यान करते हैं वे आत्मघात में लगते हैं, रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं। मजनूं ठहरा हुआ है लैला पर और इस बुरी तरह ठहरा हुआ है कि जैसे तालाब बन गया है। अब वह एक सरिता न रहा जो सागर तक पहुंच जाए। और लैला कभी मिल नहीं सकती। ___ यह दूसरी कठिनाई है गलत ध्यान की कि जिस पर आप लगाते हैं उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती। क्योंकि दूसरे को पाया ही नहीं जा सकता, वह असंभव है, दूसरे को पाने का कोई उपाय ही नहीं है। इस अस्तित्व में सिर्फ एक ही चीज पायी जा सकती है, और वह मैं हूं, वह मैं स्वयं हूं, उसको ही मैं पा सकता हूं। शेष सारी चीजों पर मैं पाने की कितनी ही कोशिश करूं, वे सारी कोशिशें असफल होंगी। क्योंकि जो मेरा स्वभाव है वही केवल मेरा हो सकता है जो मेरा स्वभाव नहीं है वह कभी भी मेरा नहीं हो सक की भ्रांतियां हो सकती हैं, लेकिन भ्रांतियां टूटेगी और पीड़ा और दुख लाएंगी। इसलिए गलत ध्यान नरक में ले जाता है। सिर के बल खड़ी हुई चेतना अपने ही हाथ से अपना नरक खड़ा कर लेती है। और हम 314 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना बड़े मजेदार लोग हैं। हम जब नरक में होते हैं, तब हम ध्यान वगैरह के बाबत सोचने लगते हैं। जब आदमी दुख में होता है तो वह पूछता है शांति कैसे मिले। अशांति में होता है तो पूछता है शांति कैसे मिले। मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते हैं, और कहते हैं; सुनते हैं ध्यान से बड़ी शांति मिलती है तो हमें ध्यान का रास्ता बता दीजिए। और मजा यह है कि जो अशांति उन्होंने पैदा की है उसमें से कुछ भी वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अशांति उन्होंने पैदा की है, पूरी मेहनत उठायी है, श्रम किया है। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गांव के फकीर के दरवाजे को रात दो बजे खटखटा रहा है। वह फकीर उठा, उसने कहा-भई इतनी रात! और नीचे देखा तो नसरुद्दीन खड़ा है। तो उसने कहा-नसरुद्दीन कभी तुझे मस्जिद में नहीं देखा, कभी तू मुझे सुनने-समझने नहीं आता। आज दो बजे रात! फिर भी फकीर नीचे आया। कोई हर्ज नहीं, रात दो बजे आया। पास आया तो देखा कि शराब में डोल रहा है, नशे में खड़ा है। नसरुद्दीन ने पूछा कि जरा ईश्वर के संबंध में पूछने आया हूं। उस फकीर ने कहा कि सुबह आना। व्हेन यू आर सोबर, कम देन। जब होश में रहो तब आना। नसरुद्दीन ने कहा-बट द डिफिकल्टी इज व्हेन आइ एम सोबर, आइ डैम केअर अबाउट योर गाड। जब मैं होश में होता हूं तब तुम्हारे ईश्वर की मुझे चिंता ही नहीं होती है। यह तो मैं नशे में हूं इसीलिए आया हूं। ईश्वर है या नहीं? हम सब ऐसी ही हालत में पहुंचते हैं। जब हम सुख में होते हैं तब हमें ध्यान की जरा भी चिंता नहीं पैदा होती और जब हम दुख में होते हैं तब हमें ध्यान की चिंता पैदा होती है। और कठिनाई यह है कि दुखी चित्त को ध्यान में ले जाना बहुत कठिन है, क्योंकि दुखी चित्त गलत ध्यान में लगा हुआ होता है। दुख का मतलब ही गलत ध्यान है। जब आप पैर के बल खड़े होते हैं तब आपकी चलने की कोई इच्छा नहीं होती। जब आप सिर के बल खड़े होते हैं तब आप मुझसे पूछते हैं आकर कि चलने का कोई रास्ता है? और अगर मैं आपसे कहूं कि जब आप पैर के बल खड़े हों तब ही चलने का रास्ता काम कर सकता है, तो आप कहते हैं कि जब हम पैर के बल खड़े होते हैं तब तो हमें चलने की इच्छा ही नहीं होती। ___ इसलिए महावीर ने पहले तो गलत ध्यान की बात की है ताकि आपको साफ हो जाए कि आप गलत ध्यान में तो नहीं हैं। क्योंकि गलत ध्यान में जो है उसे ध्यान में ले जाना अति कठिन हो जाता है। अति कठिन इसलिए नहीं कि नहीं जाएगा। अति कठिन इसलिए है कि वह गलत ध्यान का प्रयास जारी रखता है। जब आप कहते हैं, मैं शांत होना चाहता हूं तब आप अशांत होने की सारी चेष्टा जारी रखते हैं, और शांत होना चाहते हैं। और अगर आपसे कहा जाए, अशांत होने की चेष्टा छोड़ दीजिए, तो आप कहते हैं वह तो हम समझते हैं, लेकिन शांत होने का उपाय बताएं। और आपको पता ही नहीं है कि शांत होने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। सिर्फ अशांत होने की चेष्टा जो छोड़ देता है वह शांत हो जाता है। शांति कोई उपलब्धि नहीं है, अशांति उपलब्धि है। शांति को पाना नहीं है, अशांति को पा लिया है। अशांति का अभाव शांति बन जाता है। गलत ध्यान का अभाव कि ध्यान की शुरुआत हो जाती है। तो गलत ध्यान का अर्थ है-अपने से बाहर किसी भी चीज पर एकाग्र हो जाना। दि अदर ओरिएंटेड कांशसनैस, दूसरे की तरफ बहती हई चेतना गलत ध्यान है। और इसलिए महावीर ने परमात्मा को कोई जगह नहीं दी है। क्योंकि परमात्मा की तरफ बहती हई चेतना को भी महावीर कहते हैं गलत ध्यान। क्योंकि परमात्मा आप दूसरे की तरह ही सोच सकते हैं और अगर स्वयं की तरह सोचेंगे तो बड़ी हिम्मत चाहिए। अगर आप यह सोचेंगे कि मैं परमात्मा हूं तो बड़ा साहस चाहिए। एक तो आप न सोच पाएंगे और आपके आसपास के लोग भी न सोचने देंगे कि आप परमात्मा हैं। और जब कोई सोचेगा कि मैं परमात्मा हूं तो फिर परमात्मा की तरह जीना भी पड़ेगा। क्योंकि सोचना खड़ा नहीं हो सकता जब तक आप जिएं न। सोचने में खून न आएगा जब तक आप जिएंगे नहीं। 315 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हड्डी-मांस-मज्जा नहीं बनेगी जब तक आप जिएंगे नहीं। तो परमात्मा की तरह जीना हो अगर तब तो ध्यान की कोई जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए महावीर कहते हैं-परमात्मा को तो आप सदा दसरे की तरह ही सोचेंगे। और इसलिए जितने धर्म परमात्मा को मानकर शरू होते हैं, उनमें ध्यान विकसित नहीं होता है. प्रार्थना विकसित होती है। और प्रार्थना और ध्यान के मार्ग बिलकुल अलग-अलग हैं। प्रार्थना का अर्थ है दूसरे के प्रति निवेदन; ध्यान में कोई निवेदन नहीं है। प्रार्थना का अर्थ है दूसरे की सहायता की मांग; ध्यान में कोई सहायता की मांग नहीं है। क्योंकि महावीर कहते हैं-दूसरे से जो मिलेगा वह मेरा कभी भी नहीं हो सकता, मिल भी जाए तो भी। पहले तो वह मिलेगा नहीं, मैं मान ही लूंगा कि मिला। और दूसरे से मिला हुआ, माना हुआ कि मिला हुआ है, तो आज नहीं कल छूटेगा और दुख लाएगा, पीड़ा लाएगा। इसलिए महावीर कहते हैं-अगर पीड़ा के बिलकुल पार हो जाना है तो दूसरे से ही छूट जाना पड़ेगा। दूसरे के साथ जो भी संबंध है वह टूट सकता है, परमात्मा के साथ संबंध भी टूट सकता है। संबंध का अर्थ ही होता है कि जो टूट भी सकता है। रिलेशनशिप का मतलब ही यह होता है कि जो बन सकती है और टूट सकती है। महावीर कहते हैं-जो बन सकता है, वह बिगड़ सकता है। इसलिए बनाने की कोशिश ही मत करो। तुम तो उसे जान लो जो अनबना है, अनक्रिएटेड है। जो तुम्हारे भीतर है, कभी बना नहीं है, इसलिए उसके मिटने का कोई डर नहीं है। वही तुम्हारा हो सकता है, वही शाश्वत संपदा है। इसलिए महावीर को जो लोग नहीं समझ सके, उन्होंने कहा नास्तिक है यह आदमी। और उन्हें ऐसा भी लगा कि अब तक जो नास्तिक हुए हैं उनसे भी गहन नास्तिक हैं वे। क्योंकि वे नास्तिक कम से कम इतना तो कहते हैं कि ईश्वर के लिए प्रमाण दो तो हम मान लें। महावीर कहते हैं-ईश्वर हो या न हो, इससे धर्म का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि दूसरे को जब भी मैं ध्यान में लेता हूं तो गलत ध्यान हो जाता है। इसलिए महावीर इसकी भी चिंता नहीं करते कि ईश्वर है या नहीं, इसके लिए कोई प्रमाण जुटाएं। निश्चित ही ईश्वरवादियों को महावीर गहन नास्तिक मालूम पड़े, नास्तिकों से भी ज्यादा। इसलिए तथाकथित आस्तिकों ने चार्वाक से भी ज्यादा निंदा महावीर की की है। और भी खतरा था. क्योंकि चार्वाक की निंदा करनी आसान थी क्योंकि वह कह रहा था-खाओ, पियो, मौज करो। महावीर की निंदा और मुश्किल पड़ गई। क्योंकि वे जो नास्तिक थे वे खा, पी और मौज कर रहे थे। यह महावीर तो बिलकुल ही नास्तिक जैसे नहीं थे। यह तो भोग में जरा भी रसातुर नहीं थे। इसलिए उससे भी ज्यादा बेहतर है। क्योंकि बड़े से बड़ा आस्तिक भी दूसरे पर निर्भर रहता है। ऐसी स्वतंत्रता जैसी महावीर की है, आस्तिक की नहीं हो पाती। या उस दिन हो पाती है जिस दिन या तो भक्त बिलकुल मिट जाता है और भगवान रह जाता है या भगवान बिलकुल मिट जाता है और भक्त रहता है। जिस दिन एक ही बचता है, उस दिन हो पाती है। महावीर प्रार्थना के पक्षपाती नहीं हैं। महावीर दूसरे के ध्यान करने के पक्षपाती नहीं हैं। फिर महावीर का ध्यान से क्या अर्थ है? वह अर्थ हम समझ लें, और महावीर उस ध्यान तक कैसे आपको पहुंचा सकते हैं, उसे हम समझ लें। ___ महावीर का ध्यान से अर्थ है, स्वभाव में ठहर जाना—टु बी इन वनसेल्फ। ध्यान से अर्थ है-स्वभाव। जो मैं हूं, जैसा मैं हूं, वहीं ठहर जाना। उसी में जीना, उससे बाहर न जाना। अर्थ तो है ध्यान का स्वभाव में ठहर जाना। इसलिए महावीर ने ध्यान शब्द का कम प्रयोग किया, क्योंकि ध्यान शब्द-शब्द ही दूसरे का इशारा करता है। जब भी हम कहते हैं, टु बी अटेंटिव, तभी यह मतलब होता है किसी और पर। जब भी हम कहते हैं ध्यान, तो उसका मतलब होता है-कहां, किस पर? लोग आते हैं पूछने, वे कहते हैं हम 316 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना ध्यान करना चाहते हैं, किस पर करें? ध्यान शब्द में ही आब्जेक्ट का खयाल, विषय का खयाल छिपा हुआ है। इसलिए महावीर ने ध्यान शब्द का उतना प्रयोग नहीं किया। ध्यान की जगह ज्यादा उन्होंने प्रयोग किया-सामायिक / वह महावीर का अपना शब्द है, सामायिक। महावीर आत्मा को समय कहते हैं और सामायिक उसे कहते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा में ही होता है, तब उसे सामायिक कहते हैं। इधर एक बहुत अदभुत काम चल रहा है वैज्ञानिकों के द्वारा। अगर वह काम ठीक-ठीक हो सका तो शायद महावीर का शब्द सामायिक पुनरुज्जीवित हो जाए। वह काम यह चल रहा है कि आइन्स्टीन ने, प्लांक ने, और अन्य पिछले पचास वर्षों के वैज्ञानिकों ने यह अनुभव किया है कि इस जगत में जो स्पेस है वह श्री-डायमेंशनल है। जो स्थान है, अवकाश है, आकाश है, वह तीन आयामों में बंटा है। हम किसी भी चीज को तीन आयामों में देखते हैं, वह थ्री-डायमेंशनल है। लम्बाई है, चौड़ाई है, मोटाई है। वह तीन है, तीन आयाम में स्थान है। और यह तीनों के साथ समय, टाइम है। ___ अब तक बड़ी कठिनाई थी कि यह समय को कैसे इन तीन आयामों से जोड़ा जाए। क्योंकि जोड़ तो कहीं न कहीं होना ही चाहिए। समय और क्षेत्र, टाइम और स्पेस कहीं जुड़े होने चाहिए, अन्यथा इस जगत का अस्तित्व नहीं बन सकता। इसलिए आइन्स्टीन ने टाइम और स्पेस की अलग-अलग बात करनी बंद कर दी, और 'स्पेसिओटाइम' एक शब्द बनाया, कि समय और क्षेत्र एक ही हैं। का क्षेत्र एक हैं। और आइंस्टीन ने कहा कि समय जो है, वह स्पेस का ही फोर्थ डायमेंशन है, वह क्षेत्र का ही चौथा आयाम है। वह अलग चीज नहीं है। और आइंस्टीन के मरने के बाद इस पर और काम हुआ और पाया गया कि टाइम भी एक तरह की ऊर्जा, एनर्जी है, शक्ति है। और अब वैज्ञानिक ऐसा सोचते हैं कि मनुष्य का शरीर तो तीन आयामों से बना है और मनुष्य की आत्मा चौथे आयाम से बनी है। अगर यह बात सही हो गयी तो चौथे आयाम का नाम टाइम होगा। और महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले आत्मा को समय कहा है, टाइम कहा है। ___ कई बार विज्ञान जिन अनुभूतियों को बहुत बाद में उपलब्ध कर पाता है, रहस्य में डूबे हुए संत उसे हजारों साल पहले देख लेते हैं। दस-पंद्रह वर्ष का वक्त है, इस बीच काम जोर से चल रहा है। बड़ा काम रूस के वैज्ञानिक कर रहे हैं। और वे निरंतर इस बात के निकट पहुंचते जा रहे हैं कि समय ही मनुष्य की चेतना है। इसे ऐसा समझें तो थोड़ा खयाल में आ जाए तो हमें फिर ध्यान की धारणा में, महावीर की धारणा में उतरना आसान हो जाए। इसे ऐसा समझें कि पदार्थ बिना समय के भी कल्पना की जा सकती है, कंसीवेबल है। लेकिन चेतना बिना समय के कल्पना भी नहीं की जा सकती। सोच लें कि समय नहीं है जगत में, तो पदार्थ तो हो सकता है, पत्थर हो सकता है, लेकिन चेतना नहीं हो सकेगी। क्योंकि चेतना की जो गति है, वह स्थान में नहीं है, समय में है। चेतना की जो गति है, वह समय में है, वह स्थान में नहीं है, वह स्पेस में नहीं है-वह टाइम में है, समय में है। जब आप यहां उठकर आते हैं अपने घर से, तो आपका शरीर यात्रा करता है, एक वह यात्रा होती है स्थान में। आप घर से निकले, और कार में बैठे, बस में बैठे, ट्रेन में बैठे, चले; यह यात्रा स्थान में है। आपकी जगह एक पत्थर भी रख देते तो वह भी कार में बैठकर यहां तक आ जाता। लेकिन कार में बैठे हुए आपका मन एक और गति भी करता है जिसका कार से कोई संबंध नहीं है। वह गति समय में है। हो सकता है आप जब घर में हों, और जब कार में बैठे हों, तभी आप समय में इस हाल में आ गए हों, मन में इस हाल में आ गए हों। लेकिन कार अभी घर के सामने खड़ी है। सच तो यह है कि आप कार में बैठते ही इसलिए हैं कि आपका मन कार के पहले इस हाल की तरफ गति करता है। इसलिए आप कार में बैठते हैं, नहीं तो आप कार में नहीं बैठेंगे। 317 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 पत्थर खुद कार में नहीं बैठेगा, उसे किसी को बिठाना पड़ेगा। बैठकर भी वह वैसा ही रहेगा जैसा अनबैठा था। बैठकर उसे आप यहां उतार लेंगे, लेकिन उस पत्थर के भीतर कुछ भी न होगा। जब आप कार में बैठे हुए हैं तो दो गतियां हो रही हैं-एक तो आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है और एक आपका मन, आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है, और आपका मन समय में यात्रा कर रहा है। चेतना की गति समय में है। महावीर ने चेतना को समय ही कहा है, और ध्यान को सामायिक कहा है। अगर चेतना की गति समय में है तो चेतना की गति के ठहर जाने का नाम सामायिक है। शरीर की सारी गति ठहर जाए ,उसका नाम आसन है, और चित्त की सारी गति ठहर जाए, उसका नाम ध्यान है। अगर आप कार में ऐसे बैठकर आ जाएं जैसे पत्थर आता है तो आप ध्यान में थे। आपके भीतर कोई गति न हो सिर्फ शरीर गति करे और आप कार में बैठकर ऐसे आ जाएं, जैसे पत्थर आया है, तो आप ध्यान में थे। ध्यान का अर्थ है-चेतना हो, गति शून्य हो जाये, मूवमेंट शून्य हो जाये। यह ध्यान का अर्थ है महावीर का। अब इस ध्यान की तरफ जाने के लिए महावीर आपको क्या सलाह देते हैं, इसे हम दो-तीन हिस्सों में समझने की कोशिश करें। ___ कभी आपने छप्पर छाए हए मकान के नीचे देखा होगा कि कोई रंध्र से प्रकाश की किरणें भीतर घस आती हैं। प्रकाश की एक वल्लरी, एक धारा कमरे में गिरने लगती है। सारा कमरा अंधेरा है। छप्पर से एक धारा प्रकाश की नीचे तक उतर रही है। तब आपने एक बात और भी देखी होगी कि उस प्रकाश की धारा के भीतर धूल के हजारों कण उड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। अंधेरे में वे दिखाई नहीं पड़ते, कमरे में वे सभी जगह उड़ रहे हैं। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ते, सभी जगह उड़ रहे हैं। उस प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश होना जरूरी है। शायद आपको खयाल आता होगा कि प्रकाश की वल्लरी में ही वे उड़ रहे हैं तो आप गलती में हैं। वे तो पूरे कमरे में उड़ रहे हैं। लेकिन प्रकाश की वल्लरी में दिखाई पड़ रहे हैं। ___ आपकी चेतना ऐसी ही स्थिति में है। जितने हिस्से में ध्यान पड़ता है, उतने हिस्से में विचार के कण दिखाई पड़ते हैं। बाकी में भी विचार उड़ते रहते हैं, वे आपको दिखाई नहीं पड़ते। ___ इसलिए मनोवैज्ञानिक मन को दो हिस्सों में तोड़ देता है—एक को वह कांशस कहता है, एक को अनकांशस कहता है। एक को चेतन, एक को अचेतन। चेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान पड़ रहा है और अचेतन उस हिस्से को कहता है जिस पर ध्यान नहीं पड़ रहा है। चेतना उस हिस्से को कहेंगे जिसमें कि प्रकाश की किरण पड़ रही है और धूल के कण दिखाई पड़ रहे हैं; और अचेतन उसको कहें ... बाकी कमरे को जहां अंधेरा है, जहां प्रकाश नहीं पड़ रहा है, धूल कण तो वहां भी उड़ रहे हैं पर उनका कोई पता नहीं चलता है। आपके चेतन मन में आपको विचारों का उड़ना दिखाई पड़ता है, चौबीस घंटे विचार चलते रहते हैं। सरकते रहते हैं। कभी आपने खयाल नहीं किया, कि जब प्रकाश की किरण उतरती है अंधेरे कमरे में तो जो धूल का कण उनमें उड़ता हुआ आता है, आपने खयाल किया, वह आसपास के अंधेरे से उड़ता हुआ आता है। फिर प्रकाश की किरण में प्रवेश करता है, थोड़ी देर में फिर अंधेरे में चला जाता है। शायद आपको यह भ्रांति हो कि वह जब प्रकाश में होता है तभी उसका अस्तित्व है, तो आप गलती में हैं। आने के पहले भी वह था, जाने के बाद भी वह है। ___ आपने कभी अपने विचारों का अध्ययन किया है कि वे कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं। शायद आप सोचते होंगे कि इधर से प्रवेश करते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। पैदा और नष्ट नहीं होते। आपके अंधेरे चित्त से आते हैं, आपके प्रकाश चित्त में दिखाई पड़ते हैं, फिर अंधेरे चित्त में चले जाते हैं। अगर आप अपने विचारों को उठता देखने की कोशिश करें 318 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना कि कहां से उठते हैं तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि वे आपके ही भीतर अंधेरे से आते हैं। और अगर आप उनके जन्म स्त्रोत पर ध्यान रखें तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि वे आपको अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगे हैं, और जब वे चले जाते हैं तब भी आपके सामने से भरे अंधेरे में भी पीछा कर सकते हैं। चेतना विचार से भरी है; जैसे आकाश वायु से भरा है वैसी चेतना विचार से भरी है। जब वायु का धक्का लगता है, आपको वायु का पता चलता है, और जब धक्का नहीं लगता है तो पता नहीं चलता है। जब कोई विचार आपको धक्का देता है तब आपको पता चलता है, अन्यथा आपको पता भी नहीं चलता। विचार बहते रहते हैं। आप अपने सौ विचारों में से एक का भी मुश्किल से पता रखते हैं, हते रहते हैं। और भी मजे की बात है कि हवा तो धक्का देती है तब पता भी चलता है, लेकिन आकाश का आपको कोई पता नहीं चलता क्योंकि वह धक्का भी नहीं देता। __तो आपकी चेतना में जो विचार उड़ते रहते हैं उनका आपको पता चलता है और चेतना का कभी पता नहीं चलता, क्योंकि उसका कोई धक्का नहीं है। दो उपाय हैं—या तो आप इन विचारों से बचना चाहें तो इस खपड़े से जो छेद हो गया है उसे बंद कर दें, तो आपको विचार दिखाई नहीं पड़ेंगे। नींद में यही होता है। वह जो चेतना की थोड़ी-सी धारा आपको दिखाई पड़ती थी जागने में आप उसको भी बंद करके सो जाते हैं। फिर आपको कुछ दिखाई नहीं पड़ता सब बंद हो जाता है।। __ गहरी बेहोशी में भी यही होता है। हिप्नोसिस, सम्मोहन में भी यही होता है। इसलिए विचार से जो लोग पीड़ित हैं, वे लोग अनेक बार आत्म-सम्मोहन की क्रियाएं करने लगते हैं और आत्म-सम्मोहन को ध्यान समझ लेते हैं। वह ध्यान नहीं है। वह सिर्फ अपनी चेतना को बुझा लेना है। अंधेरे में डूब जाना है। उसका भी सुख है। शराब में उसी तरह का सुख मिलता है, गांजे में, अफीम में, उसी तरह का सुख मिलता है। चेतना की जो छोटी-सी धारा बह रही थी वह भी बंद हो गयी, घप्प अंधेरे में खो गए। बडी शांति मालम पडती है। वह अशांति मालूम पड़ती थी प्रकाश की किरण। महावीर का ध्यान ऐसा नहीं है जिसमें प्रकाश की किरण को बुझा देना है। महावीर का ध्यान ऐसा है जिसमें सारे खपड़ों को अलग कर देना है, पूरे छप्पर को खुला छोड़ देना है ताकि पूरे कमरे में प्रकाश भर जाए। ___ यह भी बड़े मजे की बात है, जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण दिखाई पड़ना बंद हो जाते हैं। जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण नहीं दिखाई पड़ते; जब पूरे कमरे में अंधेरा हो जाता है तब भी धूलकण दिखाई नहीं पड़ते। जब पूरे कमरे में अंधेरा होता है और जरा से स्थान में रोशनी होती है तब धूलकण दिखाई पड़ते हैं। असल में धूलकणों को दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश की धारा भी चाहिए और अंधेरे की पृष्ठभूमि भी चाहिए। ___ तो दो उपाय हैं इन कणों को भूल जाने का। एक उपाय तो है कि पूरा अंधेरा हो जाए तो इसलिए दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि प्रकाश ही नहीं है, दिखाई कैसे पड़ेंगे। या पूरा प्रकाश हो जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि इतना ज्यादा प्रकाश है कि उतने छोटे-से धूलकण दिखाई नहीं पड़ सकते, प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है। पृष्ठभूमि न होने से धूलकण खो जाते हैं। तो पहला तो यह फर्क समझ लें कि बहुत से प्रयोग हैं ध्यान के जो वस्तुतः मूर्छा के प्रयोग हैं, ध्यान के प्रयोग नहीं हैं। जिनमें आदमी अपने कांशस को अनकांशस में डुबा देता है। जिनमें वह गहरी नींद में चला जाता है। उठने के बाद उसे शांति भी मालूम पड़ेगी, स्वस्थ भी मालूम पड़ेगा, ताजा भी मालूम पड़ेगा। लेकिन वे उपाय सिर्फ चेतना को डुबाने के थे। उससे कोई क्रांति घटित नहीं होती। श्री महेश योगी जो ध्यान की बात सारी दुनिया में करते हैं, वह सिर्फ मूर्छा का प्रयोग है। जिसे वे ट्रांसेंडेण्टल मेडिटेशन कहते हैं; जिसे भावातीत ध्यान कहते हैं वह ध्यान भी नहीं है, भावातीत तो बिलकुल नहीं है; न तो ट्रांसेंडेण्टल है, न मेडिटेशन है। ध्यान इसलिए 319 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 नहीं है कि वह केवल एक मंत्र के जाप से स्वयं को सुला लेने का प्रयोग है। और किसी भी शब्द की पुनरुक्ति अगर आप करते जाएं तो तंद्रा आ जाती है किसी भी शब्द की। शब्द की पुनरुक्ति से तंद्रा पैदा होती है, हिप्रोसिस पैदा होती है। असल में किसी भी शब्द की पुनरुक्ति से बोर्डम पैदा होती है, ऊब पैदा होती है। ऊब नींद ले आती है। तो किसी भी मंत्र के प्रयोग का अगर आप इस तरह प्रयोग करें कि वह आपको ऊब में ले जाए, उबा दे, घबरा दे, नाविन्य न रह जाए उसमें, तो मन ऊबकर पुराने से परेशान होकर तंद्रा में और निद्रा में खो जाता है। जिन लोगों को नींद की तकलीफ है उनके लिए यह प्रयोग फायदे का है, लेकिन न तो यह ध्यान है, न भावातीत है। और नींद की बहुत लोगों को तकलीफ है, उनके लिये यह फायदा है, लेकिन इस फायदे से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। वह फायदा गहरी नींद का ही फायदा है। __गहरी नींद अच्छी चीज है, बुरी चीज नहीं है। इसलिए मैं नहीं कह रहा हूं कि महेश योगी जो कहते हैं वह बुरी चीज है। बड़ी अच्छी चीज है, लेकिन उसका उपयोग उतना ही है जितना किसी भी ट्रॅक्वेलाइजर का है। ट्रॅक्वेलाइजर से भी अच्छी है क्योंकि किसी दवा पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है, भीतरी तरकीब है। भीतरी ट्रिक है। और इसलिए पूरब में महेश योगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, पश्चिम में बहुत पड़ा। क्योंकि पश्चिम अनिद्रा से पीड़ित है, पूरब अभी पीड़ित नहीं है। इसका बुनियादी कारण वही है। पश्चिम इंसोमेनिया से परेशान है, नींद बड़ी मुश्किल हो गयी है। नींद पश्चिम में एक सुख अनुभव हो रहा है, क्योंकि उसे पाना मुश्किल हो गया है। पूरब में नींद का कोई सवाल नहीं है अभी भी। हां, पूरब जितना पश्चिम होता जाएगा उतना नींद का सवाल उठता जाएगा। ___तो पश्चिम में जो लोग महेश योगी के पास आए वे असल में नींद की तकलीफ से परेशान लोग हैं, सो भी नहीं सकते। वे वह तरकीब भूल गए जो कि प्राकृतिक तरकीब थी, वह भूल गए हैं, वह जो नेचुरल प्रोसेस थी सोने की वह भूल गए हैं। उनको आर्टीफिशियल टेकनीक की जरूरत है जिससे वे सो सकें। लेकिन दो-तीन महीने से ज्यादा कोई उनके पास नहीं रहेगा, भाग जाएगा। क्योंकि जब उसे नींद आने लगी तो बात खत्म हो गयी। तब वह कहेगा कि ध्यान चाहिए। नींद तो हो गयी ठीक है, लेकिन अब, आगे? वह आगे खींचना मश्किल है, क्योंकि वह प्रयोग कल जमा नींद का है। महावीर मूर्छा विरोधी हैं, इसलिए महावीर ने ऐसी भी किसी पद्धति की सलाह नहीं दी जिससे मूर्छा के आने की जरा-सी भी सम्भावना हो। यही महावीर के और भारत के दूसरी पद्धतियों का भेद है। भारत में दो पद्धतियां रही हैं। कहना चाहिए सारे जगत में दो ही पद्धतियां हैं ध्यान की। मूलतः दो तरह की पद्धतियां हैं-एक पद्धति को हम ब्राह्मण पद्धति कहें और एक पद्धति को हम श्रमण पद्धति कहें। महावीर की जो पद्धति है उसका नाम श्रमण पद्धति है। दूसरी जो पद्धति है वह ब्राह्मण की पद्धति है। ब्राह्मण की पद्धति विश्राम की पद्धति है। वह इस बात की पद्धति है जिसे हम कहें-रिलैक्जेशन। परमात्मा में अपने को विश्राम करने दें, छोड दो ब्रह्म में अपने को, विश्राम करने दें। ___महावीर ने किसी ब्राह्मण पद्धति की सलाह नहीं दी। उन्होंने कहा है कि विश्राम में बहुत डर तो यह है, सौ में निन्यानबे मौके पर डर यह है कि आप नींद में चले जाएं। सौ में निन्यानबे मौके पर डर यह है कि आप नींद में चले जाएं। क्योंकि विश्राम और नींद का गहरा अंतर-संबंध है और आपके जन्मों-जन्मों का एक ही अनुभव है कि जब भी आप विश्राम में गए हैं तभी आप नींद में गए हैं। तो आपके चित्त की एक संस्कारित व्यवस्था है कि जब भी आप विश्राम करेंगे, नींद आ जाएगी। इसलिए जिनको नींद नहीं आती है उनको डाक्टर सलाह देता है रिलैक्जेशन की, शिथिलीकरण की, शवासन की कि तुम विश्राम करो। शिथिल हो जाओ तो नींद आ जाएगी। इससे उल्टा भी सही है। अगर कोई विश्राम में जाए तो बहुत डर यह है कि वह नींद में न चला जाए। इसलिए जिसे विश्राम में जाना है उसे बहत दूसरी और प्रक्रियाओं का सहारा लेना पड़ेगा, जिनसे नींद रुकती हो, अन्यथा विश्राम नींद बन जाती है। 320 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना महावीर ने उन पद्धतियों का उपयोग नहीं किया, महावीर ने जिन पद्धतियों का उपयोग किया वे विश्राम से उल्टी हैं। इसलिए उनकी पद्धति का नाम है श्रम, श्रमण। वे कहते हैं- श्रमपूर्वक विश्राम में जाना है, विश्रामपूर्वक नहीं। और श्रमपूर्वक ध्यान में जाना बिलकुल उल्टा है विश्रामपर्वक ध्यान में जाने के। अगर किसी आदमी को हम कहते हैं कि विश्राम करो तो हम कहते हैं-हाथ पैर ढीले छोड दो, सुस्त हो जाओ, शिथिल हो जाओ, ऐसे हो जाओ जैसे मुर्दा हो गए। श्रम की जो पद्धति है वह कहेगी इतना तनाव पैदा करो, इतना टैंशन पैदा करो जितना कि तुम कर सकते हो। जितना तनाव पैदा कर सको उतना अच्छा है। अपने को इतना खींचो, इतना खींचो जैसे कोई वीणा के तार को खींचता चला जाए और टंकार पर छोड़ दे। खींचते चले जाओ, खींचते चले जाओ। तीव्रतम स्वर तक अपने तनाव को खींच लो। निश्चित ही एक सीमा आती है कि अगर आप सितार के तार को खींचते चले जाएं तो तार टूट जाएगा। लेकिन चेतना के टूटने का कोई उपाय नहीं है। वह टूटती ही नहीं। इसलिए आप खींचते चले जाओ। महावीर कहते हैं-खींचते चले जाओ, एक सीमा आएगी जहां तार टूट जाता है, लेकिन चेतना नहीं टूटती। लेकिन चेतना भी अपनी अति पर आ जाती है, क्लाईमेक्स पर आ जाती है। और जब चरम पर आ जाती है, तो अनजाने, तुम्हारे बिना पता हुए विश्राम को उपलब्ध हो जाती है। जैसा मैं इस मुट्ठी को बंद करता जाऊं, बंद करता जाऊं, जितनी मेरी ताकत है, सारी ताकत लगाकर उसे बंद करता जाऊं तो एक घड़ी आएगी कि मेरी ताकत चरम पर पहुंच जाएगी। अचानक मैं पाऊंगा कि मुट्ठी ने खुलना शुरू कर दिया क्योंकि अब मेरे पास बंद करने की और ताकत नहीं है। मुट्ठी को बंद करके खोलने का भी उपाय है। और ध्यान रहे जब मुट्ठी को पूरी तरह बंद करके खोला जाता है तब जो विश्राम उपलब्ध होता वह बहत अनूठा है, वह नींद में कभी नहीं ले जाता है। वह सीधा विश्राम में ले जाता है। सौ में से निन्यानबे मौके विश्राम में जाने के हैं, नींद में जाने का मौका नहीं है। क्योंकि आदमी ने इतना श्रम किया है, इतना श्रम किया है, इतना खींचा है, इतना ताना है कि इस तनाव के लिए उसे इतने जागरण में जाना पड़ेगा कि वह उस जागरण से एकदम नींद में नहीं जा सकता है, विश्राम में चला जाएगा। ___ महावीर की पद्धति श्रम की पद्धति है, चित्त को इतने तनाव पर ले जाना है। तनाव दो तरह का हो सकता है। एक तनाव किसी दूसरी चीज के लिए भी हो सकता है, उसके लिए महावीर कहते हैं गलत ध्यान है। एक तनाव स्वयं के प्रति हो सकता है, उसे महावीर कहते हैं, वह ठीक ध्यान है। इस ठीक ध्यान के लिए कुछ प्रारंभिक बातें हैं, उनके बिना इस ध्यान में नहीं उतरा जा सकता है। उसके बिना उतारिएगा तो विक्षिप्त हो सकते हैं। एक तो ये दस सूत्र जो मैंने कल तक कहे हैं, ये अनिवार्य हैं। उनके बिना इस प्रयोग को नहीं किया जा सकता। क्योंकि उन दस सूत्रों के प्रयोग से आपके व्यक्तित्व में वह स्थिति, वह ऊर्जा और वह स्थिति आ जाती है जिनसे आप चरम तक अपने को तनाव में ले जाते हैं। इतनी सामर्थ्य और क्षमता आ जाती है कि आप विक्षिप्त नहीं हो सकते। अन्यथा अगर कोई महावीर के ध्यान को सीधा शुरू करे, तो वही विक्षिप्त हो सकता है, वह पागल हो सकता है। इसलिए भूलकर भी इस प्रयोग को सीधा नहीं करना है, वे दस हिस्से अनिवार्य हैं। और इसकी प्राथमिक भूमिकाएं हैं ध्यान की, वह मैं आपसे कह दूं। अभी पश्चिम में एक बहुत विचारशील वैज्ञानिक ध्यान पर काम करता है। उसका नाम है, रान हुब्बार्ड। उसने एक नए विज्ञान को जन्म दिया है, उसका नाम है सायंटोलाजी। ध्यान की उसने जो-जो बातें खोज-बीन की हैं वे महावीर से बड़ी मेल खाती हैं। इस समय पृथ्वी पर महावीर के ध्यान के निकटतम कोई आदमी समझ सकता है तो वह रान हुब्बार्ड है। जैनों को तो उसके नाम का पता भी नहीं होगा। जैन साधुओं में तो मैं पूरे मुल्क में घूमकर देख लिया हूं, एक आदमी भी नहीं है जो महावीर के ध्यान को समझ सकता हो, करने की बात तो बहुत दूर है। प्रवचन वे करते हैं रोज, लेकिन मैं चकित हुआ कि पांच-पांच सौ, सात-सात सौ साधुओं के गण का जो गणी हो, प्रमुख हो, आचार्य हो, वह भी एकान्त में मुझसे पूछता है कि ध्यान कैसे करें? यह सात सौ साधुओं को क्या करवाया जा रहा होगा। उनका गुरु पूछता है, 321 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 ध्यान कैसे करूं? निश्चित ही यह गुरु एकान्त में पूछता है। इतना भी साहस नहीं है कि चार लोगों के सामने पूछ सके। रान हुब्बार्ड ने तीन शब्दों का प्रयोग किया है, ध्यान की प्राथमिक प्रक्रिया में प्रवेश के लिए। वे तीनों शब्द महावीर के हैं। रान हब्बार्ड को महावीर के शब्दों का कोई पता नहीं है, उसने तो अंग्रेजी में प्रयोग किया है। उसका एक शब्द है रिमेम्बरिंग, दूसरा शब्द है रिटर्निंग और तीसरा शब्द है रि-लिविंग। ये तीनों शब्द महावीर के हैं। रिटर्निंग से आप अच्छी तरह से परिचित हैं--प्रतिक्रमण / री-लिविंग से आप उतने परिचित नहीं है। महावीर का शब्द है-जाति-स्मरण। पुनः जीना उसको जो जिया जा चुका है। और रिमेम्बरिंग-महावीर ने, बद्ध ने, दोनों ने 'स्मति'... वही शब्द बिगड-बिगडकर कबीर और नानक के पास आते-आते 'सर वही शब्द-स्मृति! रिमेम्बरिंग से हम सब परिचित हैं, स्मृति से। सुबह आपने भोजन किया था, आपको याद है। लेकिन स्मृति सदा आंशिक होती है। क्योंकि जब आप भोजन की याद करते हैं शाम को कि सुबह आपने भोजन किया था, तो आप पूरी घटना को याद नहीं कर पाते, क्योंकि भोजन करते वक्त बहुत कुछ घट रहा था। चौके में बर्तन की आवाज आ रही थी; भोजन की सुगंध आ रही थी; पत्नी आसपास घूम रही थी; उसकी दुश्मनी आपके आस-पास झलक रही थी। बच्चे उपद्रव कर रहे थे, उनका उपद्रव आपको मालूम पड़ रहा था। गर्मी थी कि सर्दी थी वह आपको छू रही थी, हवाओं के झोंके आ रहे थे कि नहीं आ रहे थे-वह सारी स्थिति थी। भीतर भी आपको भूख कितनी लगी थी, मन में कौन से विचार चल रहे थे, कहां भागने के लिए आप तैयारी कर रहे थे, यहां खाना खा रहे थे, मन कहां जा चुका था। यह टोटल सिचुएशन है। जब आप शाम को याद करते हैं तो सिर्फ इतना ही करते हैं कि सुबह बारह बजे भोजन किया था। यह आंशिक है। जब आप भोजन कर रहे होते हैं तो भोजन की सुगंध भी होती है और स्वाद भी होता है। आपको पता नहीं होगा कि अगर आपकी नाक और आंख बिलकुल बंद कर दी जाए तो आप प्याज में और सेव में कोई फर्क न बता सकेंगे स्वाद में। आंख पर पट्टी बांध दी जाए और नाक पर पट्टी बांध दी जाए और बंद कर दी जाए, कहा जाए आपके होंठ पर क्या रखा है अब आप इसको चखकर बताइए, तो आप प्याज में और सेव में भी फर्क न बता सकेंगे। क्योंकि प्याज और सेव का असली फर्क आपको स्वाद से नहीं चलता है, गंध से चलता है और आंख से चलता है। स्वाद से पता नहीं चलता आपको। ___तो बहुत घटनाएं भोजन की सिचुएशन में है, वे आपको याद नहीं आतीं। आंशिक याद है कि बारह बजे भोजन किया था। रिटर्निंग, दूसरा जो प्रतिक्रमण है उसका अर्थ है पूरी की पूरी स्थिति को याद करना-पूरी की पूरी स्थिति को याद करना। लेकिन पूरी स्थिति को भी याद करने में आप बाहर बने रहते हैं। री-लिविंग का अर्थ है-पूरी स्थिति को पुनः जीना।। अगर महावीर के ध्यान में जाना है तो रात सोते समय एक प्राथमिक प्रयोग अनिवार्य है। सोते समय करीब-करीब वैसी ही घटनाएं घटती हैं जैसा बहुत बड़े पैमाने पर मृत्यु के समय घटती हैं। आपने सुना होगा कि कभी पानी में डूब जानेवाले लोग एक क्षण में अपने पूरे जीवन को रि-लिव कर लेते हैं। कभी-कभी पानी में डूबा हुआ कोई आदमी बच जाता है तो वह कहता है कि जब मैं डूब रहा था, और बिलकुल मरने के करीब निश्चित हो गया तो उस क्षण को जैसी पूरी जिंदगी की फिल्म मेरे सामने से गुजर गयी—पूरी जिंदगी की फिल्म एक क्षण में मैंने देख डाली। और ऐसी नहीं देखी कि स्मरण की हो, इस तरह से देखी कि जैसे मैं फिर से जी लिया। मृत्यु के क्षण में, आकस्मिक मृत्यु के क्षण में जब कि मृत्यु आसन्न मालूम पड़ती है, आ गयी मालूम पड़ती है, बचने का कोई उपाय नहीं रह जाता है और मत्य साफ होती है, तब ऐसी घटना घटती है। महावीर के ध्यान में अगर उतरना हो तो ऐसी घटना नींद के पहले रोज घटानी चाहिए। जब रात होने लगे और नींद करीब आने लगे तो-रि-लिव, पहले तो स्मृति से शुरू करना पड़ेगा। सुबह से लेकर सांझ 322 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना सोने तक स्मरण करें। ___ एक तीन महीने गहरा प्रयोग किया जाए तो आपको पता चलेगा कि स्मृति धीरे-धीरे प्रतिक्रमण बन गयी। अब पूरी स्थिति याद आने लगी। और भी तीन महीने प्रयोग किया जाए, प्रतिक्रमण पर तब आप पाएंगे कि वह प्रतिक्रमण पुनर्जीवन बन गया है। अब आप रि-लिव करने लगे। कोई नौ महीने के प्रयोग में आप पाएंगे कि आप सुबह से लेकर सांझ तक फिर से जी सकते हैं—फिर से। जरा भी फर्क नहीं होगा, आप फिर से जिएंगे। और बड़े मजे की बात यह है कि इस बार जब आप जिएंगे तो वह ज्यादा जीवन हो गया बजाय इसके जो कि आप दिन में जिए थे क्योंकि उस वक्त और भी पच्चीस उलझाव थे। अब कोई उलझाव नहीं है। हुब्बार्ड कहता है कि यह ट्रैक पर वापस लौटकर फिर से यात्रा करनी है, उसी ट्रैक पर, जैसे कि टेप रिकार्ड को आपने सुन लिया दस मिनट, उल्टा और फिर दस मिनट वही सुना। या फिल्म आपने देखी, फिर से फिल्म देखी और मन के ट्रैक पर कुछ भी खोता नहीं। मन के पथ पर सब सुरक्षित है, खोता नहीं है। ___ रात सोने से पहले, अगर महावीर के ध्यान में, सामायिक में प्रवेश करना हो तो कोई नौ महीने का-तीन-तीन महीने एक-एक प्रयोग पर बिताने जरूरी हैं। पहले स्मरण करना शुरू करें, पूरी तरह स्मरण करें सुबह से शाम तक, क्या हुआ। फिर प्रतिक्रमण करें। पूरी स्थिति को याद करने की कोशिश करें कि किस-किस घटना में कौन-कौन-सी पूरी स्थिति थी। आप बहुत हैरान होंगे, और आपकी संवेदनशीलता बहुत बढ़ जाएगी और बहुत सेंसिटिव हो जाएंगे और दूसरे दिन आपके जीने का रस भी बहुत बढ़ जाएगा क्योंकि दूसरे दिन धीरे-धीरे आप बहुत सी चीजों के प्रति जागरूक हो जाएंगे, जिनके प्रति आप कभी जागरूक न थे। जब आप भोजन कर रहे हैं, तब बाहर वर्षा भी हो रही है, तब उसके बूंदों की टाप भी आपके कान सुन रहे हैं, लेकिन आप इतने संवेदनहीन हैं कि आपके भोजन में वह बूंदों का स्वर जुड़ नहीं पाता है। तब बाहर की जमीन पर पड़ी हुई नयी बूंदों की गंध भी आ रही है, लेकिन आप इतने संवेदनहीन हैं कि वह गंध आपके भोजन में जुड़ नहीं पाती। तब खिड़की में फूल भी खिले हुए हैं, लेकिन फूलों का सौंदर्य आपके भोजन में संयुक्त नहीं हो पाता है। __ आप संवेदनहीन हैं, इंसेंसिटिव हो गए हैं। अगर आप प्रतिक्रमण की पूरी यात्रा करते हैं तो आपके जीवन में सौंदर्य का और रस का और अनुभव का एक नया आयाम खुलना शुरू हो जायेगा। पूरी घटना आपको जीने को मिलेगी। और जब भी पूरी घटना जियी जाती है, जब भी पूरी घटना होती है, तो आप उस घटना को दोबारा जीने की आकांक्षा से मुक्त होने लगते हैं, वासना क्षीण होती है। ___ अगर कोई व्यक्ति एक बार भी, किसी भी घटना से परिपूर्णतया बीत जाए, गुजर आए तो उसकी इच्छा उसे रिपीट करने की, दोहराने की फिर नहीं होती है। तो अतीत से छुटकारा होता है और भविष्य से भी छुटकारा होता है। प्रतिक्रमण अतीत और भविष्य से छुटकारे की विधि है। फिर इस प्रतिक्रमण को इतना गहरा करते जाएं कि एक घड़ी ऐसी आ जाए कि अब आप याद न करें, रि-लिव करें, पुनर्जीवित हो जाएं, उस घटना को फिर से जिएं। और आप हैरान होंगे वह घटना फिर से जियी जा सकती है। __ और जिस दिन आप उस घटना को फिर से जीने में समर्थ हो जाएंगे, उस दिन रात सपने बंद हो जाएंगे। क्योंकि सपने में वही घटनाएं आप फिर से जीने की कोशिश करते हैं, और तो कुछ नहीं करते हैं। अगर आप होशपूर्वक रात सोने के पहले पूरे दिन को पूरा जी लिए हैं तो आपने निपटारा कर दिया, क्लोज्ड हो गये आप। अब कुछ याद करने की जरूरत न रही, पुनः जीने की जरूरत न रही। जो-जो छट गया था वह भी फिर से जी लिया गया है। जो-जो रस अधूरा रह गया था, जो-जो अनकम्प्लीट, अपूर्ण रह गया था, वह पूरा कर लिया गया। जिस दिन आदमी रि-लिव कर लेता है, उस दिन रात सपने बिदा हो जाते हैं। और निद्रा जितनी गहरी हो जाती है, सुबह जागरण 323 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 उतना ही प्रगाढ़ हो जाता है। स्वप्न जब बिदा हो जाते हैं नींद में तो दिन में विचार कम हो जाते हैं। ये सब संयुक्त घटनाएं हैं। जब रात स्वप्नरहित हो जाती है तो दिन विचार शून्य होने लगता है, विचार रिक्त होने लगता है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप फिर विचार नहीं कर सकते, इसका यह मतलब है कि फिर आप विचार कर सकते हैं, लेकिन करने का आब्सेशन नहीं रह जाता, जरूरी नहीं रह जाता कि करें ही। अभी तो आपको मजबूरी में करना पड़ता है। आप चाहें तो भी, न करें तो भी करना पड़ता है। और जिस विचार को आप चाहते हैं न करें, उसे और भी करना पड़ता है। अभी आप बिलकुल गुलाम हैं। अभी मन आपकी मानता नहीं। महावीर से अगर पूछे तो विक्षिप्त का यही लक्षण है—जिसका मन उसकी नहीं मानता है। विक्षिप्त का यही लक्षण है, पागल का यही लक्षण है। तो हममें पागलपन की मात्राएं हैं। किसी का जरा कम मानता है, किसी का जरा ज्यादा मानता है, किसी का थोड़ा और ज्यादा मानता है। कोई अपने भीतर ही भीतर करता रहता है, कोई जरा बाहर करने लगता है वही काम। बस इतनी मात्राओं के फर्क हैं-डिग्रीज आफ मैडनेस। क्योंकि जब तक ध्यान न उपलब्ध हो तब तक आप विक्षिप्त होंगे ही। ___ ध्यान का अभाव विक्षिप्तता है। ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति के स्वप्न शून्य हो जाते हैं। ऐसी हो जाती है उसकी रात, जैसे प्रकाश की वल्लरी में धूल के कण न रह गए। जब वह सुबह उठता है तो सच पूछिए वही आदमी सुबह उठता है जिसने रात स्वप्न नहीं देखे। नहीं तो सिर्फ नींद की एक पर्त टूटती है और सपने भीतर दिनभर चलते रहते हैं। कभी भी आंख बंद करिए-दिवा-स्वप्न शुरू हो जाते हैं। सपना भीतर चलता ही रहता है। सिर्फ ऊपर की एक पर्त जाग जाती है। काम चलाऊ है वह पर्त। उससे आप सड़क पर बचकर निकल जाते हैं, उसमें आप अपने दफ्तर पहुंच जाते हैं। उसमें अपने आप काम कर लेते हैं-आदत, रोबोट, आपके भीतर जो यंत्र बन गया है वह काम कर लेता है। इतना होश है बस। इसे महावीर होश नहीं कहते हैं। रात जब स्वप्न परी तरह समाप्त हो जाते हैं। तब सबह आप ऐसे उठते हैं कि उस उठने का आपको कोई भी पता नहीं है। वह उठने में इतना ही फर्क है जैसे किसी ने एक मिट्टी के तेल में जलती हुई बाती देखी हो-पीला, धुंधला, धुंए से भरा हुआ प्रकाश। और उस आदमी ने पहली दफे सूरज का जागना देखा हो, सूरज का उगना देखा हो, इतना ही फर्क है। अभी जिसे आप जागना कहते हैं वह ऐसा ही मद्दी-सी, पीली-सी, धीमी-सी लौ है। जब रात स्वप्न समाप्त हो जाते हैं, तब आप सुबह उठते हैं जैसे सूरज जगा-उस जागी हुई चेतना में विचार आपके गलाम हो जाते हैं। मालिक नहीं होते। और महावीर कहते हैं-जब तक विचार मालिक हैं, तब तक ध्यान कैसे हो पाएगा? विचार की मालकियत आपकी होनी चाहिए, तब ध्यान हो सकता है। तब आप जब चाहें विचार करें, जब चाहें तब न करें। __तो दूसरा प्रयोग-एक तो नींद के साथ-दूसरा प्रयोग सुबह जागने के साथ। जैसे ही जागे वैसे ही प्रतीक्षा करें उठकर कि कब पहला विचार आता है। पहले विचार को पकड़ें, कब आता है। धीरे-धीरे आप हैरान होंगे, बहुत हैरान होंगे कि जितना आप जागकर पहले विचार को पकड़ने की कोशिश करते हैं, उतनी ही देर से आता है। कभी घंटों लग जाएंगे और पहला विचार नहीं आयेगा। और यह घंटा जो है विचाररहित, यह आपकी चेतना को शीर्षासन से सीधा खड़ा करने में सहयोगी बनेगा। आप पैर के बल खड़े हो सकेंगे। क्योंकि यह घंटाभर तो बहुत दूर है अगर एक मिनट के लिए भी कोई विचार न आए तो आपको विचार नरक है, यह अनुभव होना शुरू हो जाएगा। और निर्विचार होना आनंद है, स्वर्ग है यह अनुभव होना शुरू हो जाएगा। एक मिनट को भी विचार न आए तो आपको अपने भीतर विचारों के अतिरिक्त जो है, उसका दर्शन शुरू हो जाएगा। तब धूल नहीं दिखाई पड़ेगी, प्रकाश की वल्लरी दिखाई पड़ेगी। तब आपका गेस्टाल्ट बदल जाएगा। 324 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना अगर आपने कभी कोई गेस्टाल्ट चित्र देखे हैं तो आप समझ पाएंगे। मनोविज्ञान की किताबों में गेस्टाल्ट के चित्र दिए होते हैं। कभी एक चित्र आप में से बहुत लोगों ने देखा होगा, नहीं देखा होगा तो देखना चाहिए। एक बूढ़ी का चित्र बना होता है, एक बूढ़ी स्त्री का चित्र बना होता है। बहुत से गेस्टाल्ट चित्र बने हैं। बूढ़ी का चित्र बना होता है, आप उसको गौर से देखें तो बूढ़ी दिखाई पड़ती है। फिर आप देखते ही रहें, देखते ही रहें, देखते ही रहें, अचानक आप पाते हैं कि चित्र बदल गया। और एक जवान स्त्री दिखाई पड़नी शरू हो गयी। वह भी उन्हीं रेखाओं में छिपी हुई है। वह भी उन्हीं रेखाओं में छिपी हई है. लेकिन एक बड़े मजे की बात होगी कि जब तक आपको बूढ़ी का चित्र दिखाई पड़ेगा, तब तक जवान स्त्री का चित्र नहीं दिखाई पड़ेगा। और जब आपको जवान स्त्री का चित्र दिखाई पड़ेगा तो बूढ़ी खो जाएगी। दोनों आप एक साथ नहीं देख सकते, यह गेस्टाल्ट का मतलब है। गेस्टाल्ट का मतलब है कि पैटर्न हैं देखने के, और विपरीत पैटर्न एक साथ नहीं देखे जा सकते। जब जवान स्त्री दिखाई पड़ेगीचित्र वही है, रेखाएं वही हैं, आप वही हैं, कुछ बदला नहीं है। लेकिन आपका ध्यान बदल गया। आप बूढ़ी को देखते-देखते ऊब गए, परेशान हो गए। ध्यान ने एक परिवर्तन ले लिया, उसने कुछ नया देखना शुरू किया। क्योंकि ध्यान सदा नया देखना चाहता है। अब वह जवान स्त्री जो अभी तक आपको नहीं दिखाई पड़ी थी, वह दिखाई पड़ गयी। बड़ा मजा यह होगा, आप दोनों को एक साथ नहीं देख सकते हैं, साइमल्टेनियसली, युगपत नहीं देख सकते हैं। अब आपको पता है-पहले तो आपको पता भी नहीं था कि इसमें एक जवान चेहरा भी छिपा हआ है। अब आपको पता है कि दोनों चेहरे छिपे हैं. अब भी आप नहीं देख सकते-अब भी जब तक जवान चेहरा देखते रहेंगे, बूढ़ी का कोई पता नहीं चलेगा। जब आप बूढ़ी को देखना शुरू करेंगे, जवान खो जाएगा। गेस्टाल्ट है यह। चेतना विपरीत को एक साथ नहीं देख सकती। जब तक आप धूल के कण देख रहे हैं, तब तक आप प्रकाश की वल्लरी नहीं देख सकते। और जब आप प्रकाश की वल्लरी देखने लगेंगे तब धूल के कण नहीं देख सकते। जब तक आप विचार को देख रहे हैं, तब तक आप चेतना को नहीं देख सकते। जब आप विचार को नहीं देखेंगे, तब आप चेतना को देखेंगे। और चेतना को एक दफे जो देख ले, उसके जीवन की सारी की सारी रूपरेखा बदल जाती है। अभी हमारी सारी रूपरेखा विचार से निर्धारित होती है, धूलकणों से। फिर हमारी सारी चेतना प्रकाश से प्रवाहित होती है। फिर भी आप दोनों चीजों को एक साथ नहीं देख सकेंगे। जब आप विचार देखेंगे तब चेतना भूल जाएगी। जब आप चेतना देखेंगे तब विचार भूल जाएंगे। लेकिन फिर आपको याद तो रहेगा चाहे कि जवान चेहरा दिखाई याद तो रहेगा कि बढा चेहरा छिपा हआ है। फिर आप बढा चेहरा देख रहे हो तब भी आपको याद रहेगा कि जवान चेहरा भी कहीं मौजूद है, सोया हुआ है, छिपा हुआ है, अप्रगट है। जिस दिन कोई व्यक्ति निर्विचार हो जाता है उस दिन चेतना पर उसका ध्यान जाता है। तब तक ध्यान नहीं जाता। और एक बार चेतना पर ध्यान चला जाए तो फिर चेतना का विस्मरण नहीं होता है। चाहे आप विचार में लगे रहें, दुकान पर लगे रहें, बाजार में काम करते रहें, कुछ भी करते रहें, भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट प्रतीति बनी रहती है। बीमार हो जाएं, रुग्ण हो जाएं, दुखी हो जाएं, हाथ पैर कट जाएं फिर भी भीतर चेतना है, इसकी स्पष्ट स्मृति बनी रहती है। और जब चाहें तब गेस्टाल्ट बदल सकते हैं। एक्सिडेंट हो रहा है और शरीर टूटकर गिर पड़ा, पैर अलग हो गए हैं। जरूरी नहीं है कि आप पैर को ही देखकर दुखी हों। आप गेस्टाल्ट बदल सकते हैं। आप चेतना को देखने लगे, शरीर गया। शरीर का कोई दुख नहीं होगा / आप शरीर नहीं रहे। जब महावीर के कान में खीलियां ठोंकी जा रही हैं तो आप यह मत समझना कि महावीर आप ही जैसे शरीर हैं। आप ही जैसे शरीर होंगे तो खीलियों का दर्द होगा। महावीर का गेस्टाल्ट बदल जाता है। अब महावीर शरीर को नहीं देख रहे हैं, वे चेतना को देख रहे हैं। तो शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही हैं तो वे ऐसी ही मालूम पड़ती हैं, जैसे किसी और के शरीर में खीलियां ठोंकी जा रही हैं। जैसे 325 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कहीं और दूर डिस्टेंस पर खीलियां ठोंकी जा रही हैं। महावीर दूर हो गए। महावीर मर रहे हैं तो आप ही जैसे नहीं मर रहे हैं। गेस्टाल्ट और है। महावीर चेतना को देख रहे हैं, जो नहीं मरती।। ___ जब जीसस को सूली पर लटकाया जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। जीसस उस शरीर को नहीं देख रहे हैं, जो सूली पर लटकाया जा रहा है। जब मंसूर को काटा जा रहा है तो गेस्टाल्ट और है। मंसूर उस शरीर को नहीं देख रहा है, जो काटा जा रहा है, इसलिए मंसूर हंस रहा है। और कोई पूछता है—मंसूर, तुम काटे जा रहे हो और हंस रहे हो? तो मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंसता हूं कि जिसे तुम काट रहे हो वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं तुम उसे छू भी नहीं पा रहे हो तो मुझे बड़ी हंसी आ रही है। तुम्हारी तलवारें मेरे आसपास से गुजर जा रही हैं लेकिन मुझे स्पर्श नहीं कर पाती हैं। यह गेस्टाल्ट का परिवतेन है, ध्यान का परिवर्तन है, ध्यान का फोकस बदल गया है, वह कुछ और देख रहा है। तो रात्रि विचार के लिए तीन प्रक्रियाएं-सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा की एक प्रक्रिया और शेष सारे दिन साक्षी का भाव, विटनेस है। जो भी हो रहा है उसका मैं साक्षी हूं, कर्ता नहीं। भोजन कर रहे हैं तो दो चीजें रह जाती हैं। दो भी नहीं रह जाती, साधारण आदमी को एक ही चीज रह जाती है-भोजन रह जाता है। अगर थोड़ा बुद्धिमान आदमी है तो दो चीजें होती हैं-भोजन होता है, भोजन करनेवाला होता है। __बुद्धिमान से मेरा मतलब है? जो थोड़ा सोच-समझकर जीता है। जो बिलकुल ही गैर-सोच-समझकर जीता है, भोजन ही रह जाता है, इसलिए वह ज्यादा भोजन कर जाता है, क्योंकि भोजन करनेवाला तो मौजूद नहीं था। कल उसने तय किया था कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। पच्चीस दफे तय कर चुका है कि इतना ज्यादा भोजन नहीं करना है। इससे यह बीमारी पकड़ती है, यह रोग आ जाता है। रोग से दुखी होता है-यह भोजन इतना नहीं करना। तय कर लिया। कल जब फिर भोजन करने बैठता है तो ज्यादा भोजन करता है और वही चीजें खा लेता है जो नहीं खानी थीं। क्यों? भोजन करनेवाला मौजूद ही नहीं रहता। सिर्फ भोजन रह जाता है। भोजन ने तो तय नहीं किया था, इसलिए भोजन को जितना करवाना है, करवा देता है। जिसको हम थोड़ा बुद्धिमान आदमी कहें, वह दोनों का होश रखता है-भोजन का भी, भोजन करनेवाले का भी। लेकिन महावीर जिसे साक्षी कहते हैं, वह तीसरा होश है। वह होश इस बात का है कि न तो मैं भोजन है और न मैं भोजन करनेवाला है। भोजन भोजन है. भोजन करनेवाला शरीर है, मैं दोनों से अलग है। एक ट्राएंगल का निर्माण है, एक त्रिकोण का, एक त्रिभुज का। तीसरे कोण पर मैं हूं। इस तीसरे कोण पर, इस तीसरे बिंदु पर चौबीस घण्टे रहने की कोशिश साक्षीभाव है। कुछ भी हो रहा है, तीन हिस्से सदा मौजूद हैं और मैं तीसरा हूं, मैं दो नहीं हूं। ज्यादा भोजन कर लेनेवाला एक ही कोण देखता है। अगर कहीं प्राकृतिक चिकित्सा के संबंध में थोड़ी जानकारी बढ़ गयी तो दूसरा कोण भी देखने लगता है कि मैं करनेवाला, ज्यादा न कर लूं। पहले भोजन से एकात्म हो जाता था अब करने वाले शरीर से एकात्म हो जाता है। लेकिन साक्षी नहीं होता। साक्षी तो तब होता है, जब दोनों के पार तीसरा हो जाता है। और जब वह देखता है कि यह रहा भोजन, यह रहा शरीर, यह रहा मैं और मैं सदा अलग हूं।। इसलिए महावीर ने कहा है-पृथकत्व। साक्षी भाव का उन्होंने प्रयोग नहीं किया। उन्होंने पृथकत्व शब्द का प्रयोग किया है-अलगपन। इसको महावीर ने कहा है भेद विज्ञान, द साइंस आफ डिवीजन / महावीर का अपना शब्द है, भेद विज्ञान / द साइंस टु डिवाइड। चीजों को अपने-अपने हिस्सों में तोड़ देना है। भोजन वहां है, शरीर यहां है, मैं दोनों के पार हूं-इतना भेद स्पष्ट हो जाए तो साक्षी जन्मता है। तो तीन बातें स्मरण रखें-रात नींद के समय स्मरण, प्रतिक्रमण, पुनर्जीवन। सुबह पहले विचार की प्रतीक्षा, ताकि अंतराल दिखाई 326 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना पड़े और अंतराल में गेस्टाल्ट बदल जाए। धूलकण न दिखाई पड़ें, प्रकाश की धारा स्मरण में आ जाए। और पूरे समय, चौबीस घण्टे, उठते-बैठते-सोते तीसरे बिन्दु पर ध्यान-तीसरे पर खड़े रहना। ये तीन बातें अगर पूरी हो जाएं तो महावीर जिसे सामायिक कहते हैं, वह फलित होती है। तो हम आत्मा में स्थिर होते हैं। ___ यह जो आत्मस्थिरता है, यह कोई जड़, स्टैगनेंट बात नहीं। शब्द हमारे पास नहीं हैं। शब्द हमारे पास दो हैं-चलना, ठहर जाना; गति, अगति; डायनेमिक, स्टैगनेंट। तीसरा शब्द हमारे पास नहीं है। लेकिन महावीर जैसे लोग सदा ही जो बोलते हैं वह तीसरे की बात है. द थर्ड। और हमारी भाषा दो तरह के शब्द जानती है, तीसरे तरह के शब्द नहीं जानती। तो इसलिए महावीर जैसे लोगों के अनुभव को प्रगट करने के लिए दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। तब पैराडाक्सिकल हो जाता है। अगर हम ऐसा कह सकें, और कोई अर्थ साफ होता हो-ऐसी अगति जो पूर्ण गति है; ऐसा ठहराव जहां कोई ठहराव नहीं है; मूवमेंट, विदाउट मूवमेंट; तो शायद हम खबर दे पाएं। क्योंकि हमारे पास दो शब्द हैं, और महावीर जैसे व्यक्ति तीसरे बिंदु से जीते हैं। तीसरे बिंदु की अब तक कोई भाषा पैदा नहीं हो सकी। शायद कभी हो भी नहीं सकेगी। नहीं हो सकेगी, इसलिए कि भाषा के लिये द्वंद्व जरूरी हैं। आपको कभी खयाल नहीं आता कि भाषा कैसा खेल है। अगर आप डिक्शनरी में देखने जाएं तो वहां लिखा हआ है-पदार्थ क्या है? जो मन नहीं है। और जब आप मन को देखने जाएं तो वहां लिखा है-मन क्या है? जो पदार्थ नहीं है। कैसा पागलपन है! न पदार्थ का कोई पता है, न मन का कोई पता है। लेकिन व्याख्या बन जाती है, दूसरे के इनकार करने से व्याख्या बना लेते हैं! अब यह कोई बात हुई कि पुरुष कौन है? जो स्त्री नहीं! स्त्री कौन है? जो पुरुष नहीं! यह कोई बात हुई? यह कोई डेफिनीशन हुई? यह कोई परिभाषा हुई? अंधेरा वह है जो प्रकाश नहीं, प्रकाश वह है जो अंधेरा नहीं! समझ में आता है कि बिलकल ठीक है. लेकिन बिलकल बेमानी है। इसका कोई मतलब ही न हआ। अगर मैं पछं, दायां क्या है? आप कहते हैं, बायां नहीं है। मैं पूछू बायां क्या है? तो उसी दाएं से व्याख्या करते हैं जिसकी व्याख्या बाएं से की थी! यह व्हिसियस है, सर्कुलर __ लेकिन आदमी का काम चल जाता है। सारी भाषा ऐसी है। डिक्शनरी से ज्यादा व्यर्थ की चीज जमीन पर खोजनी बहुत मुश्किल है-शब्दकोश से ज्यादा व्यर्थ की चीज। क्योंकि शब्दकोश वाला कर क्या रहा है? वह पांचवें पेज पर कहता है कि दसवां पेज देखो, और दसवें पेज पर कहता है कि पांचवां देखो। अगर मैं आपके गांव में आऊं और आपसे पूछू कि रहमान कहां रहते हैं? आप कहें कि राम के पड़ोस में? मैं पूछु, राम कहां रहते हैं? आप कहें, रहमान के पड़ोस में। इससे क्या अर्थ होता है? हमें अज्ञात की परिभाषा उससे करनी चाहिए जो ज्ञात हो। तब तो कोई मतलब होता है। हम एक अज्ञात की परिभाषा दूसरे अज्ञात से करते हैं। वन अननोन इज डिफाइन्ड बाई एन अदर अननोन। हमें कुछ भी पता नहीं है, एक अज्ञात को हम दूसरे अज्ञात से व्याख्या कर देते हैं। और इस तरह ज्ञात का भ्रम पैदा कर लेते हैं। __ नालेज, ज्ञान का जो हमारा भ्रम है वह इसी तरह खड़ा हुआ है। मगर इससे काम चल जाता है। इससे काम चल जाता है। काम चलाऊ है यह ज्ञान। पर इससे कोई सत्य का अनुभव नहीं होता। महावीर जैसे व्यक्ति की तकलीफ यह है कि वह तीसरे बिंदु पर खड़ा होता है जहां चीजें तोड़ी नहीं जा सकतीं। जहां द्वंद्व नहीं रह जाता, जहां दो नहीं रह जाते। जहां अनुभूति एक बनती है और उस अनुभूति को वह किससे व्याख्या करे, क्योंकि हमारी सारी भाषा यह कहती है कि यह नहीं। तो किससे व्याख्या करे? वह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता है निषेधात्मक, लेकिन वह निषेधात्मक भी ठीक नहीं है। वह कह सकता है, वहां दुख नहीं, अशांति नहीं। लेकिन जब हम मतलब समझते हैं, तो हमारा क्या मतलब होता है? 327 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 अशांति और शांति हमारे लिए द्वंद्व है, महावीर के लिए द्वंद्व से मुक्ति है। हमारे लिए शांति का वही मतलब है जहां अशांति नहीं है। महावीर के लिए शांति का वही मतलब है जहां शांति भी नहीं, अशांति भी नहीं। क्योंकि जब तक शांति है तब तक थोड़ी बहुत अशांति मौजूद रहती है। नहीं तो शांति का पता नहीं चलता। अगर आप परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएं तो आपको स्वास्थ्य का पता नहीं चलेगा। थोड़ी बहुत बीमारी चाहिए स्वास्थ्य के पता होने को। या आप पूरे बीमार हो जाएं, तो भी बीमारी का पता नहीं चलेगा। क्योंकि बीमारी के लिए भी स्वास्थ्य का होना जरूरी है, नहीं तो पता नहीं चलता। ___ तो बीमार से बीमार आदमी में भी स्वास्थ्य होता है, इसलिए पता चलता है। और स्वस्थ से स्वस्थ आदमी में भी बीमारी होती है इसलिए स्वास्थ्य का पता चलता है। लेकिन हमारे पास कोई उपाय नहीं है। हम बाहर से ही खोजते रहते हैं। और बाहर सब द्वंद्र है। लक्षण बाहर से हम पकड़ लेते हैं और भीतर कोई लक्षण नहीं पकड़े जा सकते क्योंकि कोई द्वंद्व नहीं है। तो महावीर ने वह जो तीसरे बिन्द पर खड़ा हो जाएगा व्यक्ति ध्यान में, उसे क्या होगा, इसे समझाने की कोशिश बारहवें तप में की है। वह कोशिश बिलकुल बाहर से है, बाहर से ही हो सकती है। फिर भी बहुत आंतरिक घटना है, इसलिए उसे अंतर-तप कहा और अंतिम तप रखा है। ___ध्यान के बाद महावीर का तप कायोत्सर्ग है। उसका अर्थ है-जहां काया का उत्सर्ग हो जाता है, जहां शरीर नहीं बचता, गेस्टाल्ट बदल जाता है पूरा। कायोत्सर्ग का मतलब काया को सताना नहीं है। कायोत्सर्ग का मतलब है, ऐसा नहीं है कि हाथ-पैर काट-काट कर चढ़ाते जाना है-कायोत्सर्ग का मतलब है, ध्यान को परिपूर्ण शिखर पर पहुंचना है तो गेस्टाल्ट बदल जाता है। काया का उत्सर्ग हो जाता है। काया रह नहीं जाती, उसका कहीं कोई पता नहीं रह जाता। निर्वाण या मोक्ष, संसार का खो जाना है, जस्ट डिसएपियरेन्स। आत्म-अनुभव, काया का खो जाना है। आप कहेंगे महावीर तो चालीस वर्ष जिए. वह ध्यान के अनुभव के बाद भी काया थी। वह आपको दिखाई पड़ रही है। वह आपको दिखाई पड़ रही है, महावीर की अब कोई काया नहीं है, अब कोई शरीर नहीं है। महावीर का काया-उत्सर्ग हो गया। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ रही है। इसलिए बुद्ध के जीवन में बड़ी अदभुत घटना है। जब बुद्ध मरने लगे तो शिष्यों को बहुत दुख, पीड़ा...! सारे रोते इकट्ठे हो गए, लाखों लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा-अब हमारा क्या होगा? लेकिन बुद्ध ने कहा-पागलो, मैं तो चालीस साल पहले मर चुका। वे कहने लगे कि माना कि यह शरीर है, लेकिन इस शरीर से भी हमें प्रेम हो गया। लेकिन बुद्ध ने कहा कि यह शरीर तो चालीस साल पहले विसर्जित हो चुका है। ___ जापान में एक फकीर हुआ है लिंची। एक दिन अपने उपदेश में उसने कहा कि यह बुद्ध से झूठा आदमी जमीन पर कभी नहीं हुआ। क्योंकि जब तक यह बुद्ध नहीं था, तब तक था, और जिस दिन से बुद्ध हुआ, उस दिन से है ही नहीं। तो लिंची ने कहा-बुद्ध है, बुद्ध हुए हैं ये सब भाषा की भूलें हैं। बुद्ध कभी नहीं हुए थे। निश्चित ही लोग घबरा गए, क्योंकि यह फकीर तो बुद्ध का ही था। पीछे बुद्ध की प्रतिमा रखी थी। अभी-अभी इसने उस पर दीप चढ़ाया था। एक आदमी ने खड़े होकर पूछा कि ऐसे शब्द तुम बोल रहे हो? तुम कह रहे हो, बुद्ध कभी हुए नहीं? ऐसी अधार्मिक बात! तो लिंची ने कहा कि जिस दिन से मेरे भीतर काया खो गयी, उस दिन मुझे पता चला। तुम्हारे लिए मैं अभी भी हैं, लेकिन जिस दिन से सच में न हुआ, उस दिन से मैं बिलकुल नहीं हो गया है। यह नहीं हो जाने का अन्तिम चरण है। वह एक्सप्लोजन है। उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है, या सब कुछ है। या शून्य है, या पूर्ण है। कल हम आखिरी बारहवें तप की बात करेंगे। बैठे पांच मिनट...! 328