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अनुसन्धान-५७
केटलीक फूटकळ कृतिओ
- रसीला कडीआ
सात आठ वर्ष पहेलां इन्डोलोजी (अमदावाद)मां जती त्यारे श्री लक्ष्मणभाई भोजके मने फुटकळ प्रतोना ढगलाने व्यवस्थित करतां करतां, केटलीक प्रतो उकेलवा आपेली. परन्तु, ते ओवी तो गेरवल्ले मूकाई गयेली के छेक हवे हाथ लागी. अधूरु रहेलु काम पूरुं कर्यु. अहीं ओक लांबी प्रत छोडीने बाकीनी प्रस्तुत छे. प्रतोने नम्बरो में आप्या छे. वळी, 'ष'नो ज्यां ख थतो होय त्यां 'ख' करी दीधो छे..
आ रचनानी बे प्रतो मळी छे तेथी अमां बीजी प्रतना पाठभेद नीचे मूकेला छे अने कृतिमां ते पाठ अधोरेखा साथे मूकेल छे. श्री हस्तिश्री (हसतीश्री)ना शिष्य जडावश्रीजीओ आ रचना करी छे. आमां कोठारीपोळमांना श्री आदिजिन- स्तवन करवामां आव्युं छे. स्थळनिर्देश थयो नथी परन्तु, उपरना माळे सुविधिनाथ बिराजे छे अने श्री आदिनाथ भोंयरामां छे ते विगतोल्लेख प्रायः अमदावादना वाघणपोळ (कोठारीपोळ ओक समये मोटो विस्तार हतो अने वाघणपोळ तेनो ओक भाग हतो.)मां आवेल आदीश्वरना देरासरने सूचवे छे. वळी, त्यां नगारां राखवामां आवता हता अने प्रहर दरम्यान तथा आरती वखते वागता में सांभळ्या छे. स्तवनमां सरखी सहियरो मळीने, भवसागरने तरवा, शिवसुखने वरवा माटे स्नात्र पूजा करी रहेली वर्णवी छे.
प्रस्तुत रचना शेठ बलुभाईनी छे. अमां श्री मुनिसुव्रतनाथनी स्तवना करवामां आवी छे. पद्मावती माता अने सुमित्रराय पिताना पुत्र छे. साठ जोजन कापीने, (अने ते पण ओक ज रातमां) भरुच गामनी भागोळे आवीने समवसरणमां अश्वने प्रतिबोध पमाडेलो. अश्व अनशन करी देवलोक गयेलो. वळी, गौतमगोत्री घणाने पोतानी पेठे केवलज्ञान पमाडी, मोक्षे मोकल्यां छे. तो पछी मने आप शा माटे विसरी जाव छो ? मारी - तमारी प्रीत पुराणी
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छे, अने ओटले ज आश लगावीने बेठो छं. कवि अंते कहे छे के मने तमारो बनावी, तमारा चरण - कमळमां स्थान आपो. भवोभव बोधि बीजनो लाभ पामतां हुं अवश्य मोक्षसुखने पात्र बनुं पछी मने मोक्षसुख आपजो.
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प्रस्तुत स्तवनमां कविश्रीनी मोक्षसुखनी झंखनानुं सुंदर निरूपण थयेलुं छे. श्री मुनिसुव्रतनाथ तेमना आराध्य जिनेश्वर छे. भगवान साथे रीस करी, (मारा- तमारा तमे शेणे करो छो ?) अनेकोने मोक्षनो लाभ आप्यो छे तो पोताने य एमनो ज गणी, मोक्ष आपे एवी अपेक्षा जाहेर करे छे.
(३)
प्रस्तुत कृति हरियाळी स्वरूपनी छे. आ स्वरूपमां गूढार्थ होय छे. देखीतो विरोध लागे पण अनो अर्थ समजातां बधुं स्पष्ट थाय. उखाणुं के प्रहेलिका जेवुं आ स्वरूप छे.
अहीं अरिहंत, सिद्ध के केवलज्ञानीनी वात होय तेम लागे छे. अना बधा अर्थो हुं समजावी शकती नथी. विद्वानो तेना अर्थ अंगे प्रकाश पाडे तेवी विनंति.
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पं. भावसागरना शिष्य ललितसागरनी आ रचना छे. कषायने विषय बनावी घणी सज्झाय बनी छे तेवी अहीं लोभनी सज्झाय छे.
लोभ अ दुर्गतिनो दाता छे. संसारमां लोभ घणो बूरो छे आथी, लोभने त्यजवो जोइओ. आ माटे अनेक उदाहरणोथी वातने स्पष्ट करवामां आवे छे. लक्ष्मीपति विष्णु अतिलोभने कारणे सागरे निवास पाम्यो. सुवर्णमृगना लोभथी दशरथपुत्र रामे सीताने गुमावी अने ते कारणे ठामोठाम भटकवुं पड्युं.
दसमा गुणस्थानक पर्यन्त लोभनो कषाय जीवने नडे छे. लोभथी परिग्रह थाय अने परिग्रह जीवने घणुं दुःख आपे छे. जो लोभनो त्याग करवामां आवे तो सुख सांपडे. जीव देव, दानव के राजा बने छे के त्यागथी मुक्ति मेळवे छे. ईश्वरप्राप्तिनो - मोक्षनो केवल आ ओक ज रस्तो छे - लोभ त्यजो.
आम अहीं लोभकषाय मोक्षमार्गमां केवो अन्तरायरूप छे, छेक दसमा गुणस्थानक पर्यन्त साथे ने साथे ज रहे छे अने अथी अने महाचोर गण्यो
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छे. लोभ त्यजतां, मोक्षसुख हाथवेंतमां छे.
(4)
प्रस्तुत रचना श्री उत्तमचंदनी छे. सं. १८५३ चैत्र वद १०ना रोज आ 'भास' रचायो छे. कविना गुरुनुं नाम शिवचंद छे. गाम अने नगरोमां विहार करतां करतां कविना नगरमां आव्या छे. साथे सद्गुरु श्री विजय जिनेन्द्रसूरि छे, जेओ तपागच्छना नायक छे. तेओ अहीं वीरप्रभुने वंदवा तथा चतुर्विध संघने वंदाववा आव्या छे. (कदाच तीर्थयात्राओ नीकळ्या छे अने रस्तामां आवता नगरोनां देरासरनां दर्शन करता जाय छे.) गुरुना पिताश्रीनुं नाम शाह हरचंद अने मातानुं नाम गुमान छे. सूरिपदने पामेला गुरु खरे ज, गुणने पात्र
छे.
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आम अहीं गुरुदर्शननो थनार आनन्द व्यक्त थयो छे. अहीं गुरु नाम गच्छनाम मातापिताना नाम, संवतना उल्लेखथी कृति ऐतिहासिक रीते महत्त्वनी बने छे.
साध्वी जडाव श्रीरचित
(१) श्री आदिजिन ( कोठारीपोळमांना ) स्तवन
रीखवजी आवा गुजर देस रे : अबोडा :
हुं तो प्रणमु बाले वेस रे : अ :
ते तो कोठारी पोळमां छाजे रे : अ :
प्रभु भोइरा माही बीराजे रे : अ : री : ॥ १॥ उपर सुवधीनाथजी राजे रे : अ : तीहा ढोल नगारा बाजे रे : अ : साथै सरणाई भुगल वाजे रे : अ : आकासे दुंदभी गाजे रे : अ : अमे मली सहीअरनी टोली रे सखी चसठ बाली भोली रे जल चंदन म्रगमद घोली रे : अ :
रीख : ॥२॥
अ :
अं :
केसर बरास रंगरोली रे : अं : रीखव ॥३॥
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फुल धूपनी भरी तीहा झोली रे : अ : दीप अक्षत लीओ तीहा टोली रे : अ : फल नीवेद लीओ कर जोडी रे : अ : भवपूजा करे दिल खोली रे : अं : रीखः ॥४॥ अंते भवसमुद्रने तरवा रे अ: सीव सुदर वरने वरवा रे अं: गुरु हसतीसरी चीत करवा रे अं:
जय जडाबसरी दील धरवा रे : अबोडा : [॥५॥ [नोंध : प्रस्तुत कृतिनी बीजा नकल पण प्राप्त थई छे. अना अक्षरो परथी आ बन्ने नकलो एक ज हाथे थयेली जणाय छे आम छतां अमां थोडाक पाठभेद छे जे नीचे प्रमाणे छे.
कडी : ३ पंक्ति २ : कडी : ४ पंक्ति १ : झोहली कडी : ४
पंक्ति ३ : नोवेद]
शेठ बलुभाई-रचित
(२) श्री मुनिसुव्रतनाथ- स्तवन सि(श्री) सुव्रत नी(जी)न साहबा रे, तुमें सीव वसीआं महाराज जो. तुम्हें माहरा ताहरा सेंना करो रे, मुजमां अंतर राखो जीनराज जो. ॥१॥ माता तुमारी पदमावती रे, वली जनंक सुमितराय जो. तेहनें तमे प्रभु मोकलां रे, माहेन्द्र देवलोक माहराज जो. ॥२॥
सी सुव्रत..... ओक रातमां हे प्रभुजी तंमे रे, आव्या आ(सा)ठ जोजन जीनराज जो, भरु(व)च गांमनी भागोले रे रचु संमोवसरण माहराज जो. ॥३॥
सी सुव्रत..... स्वामी मीत्र जांणी आवा तुंजो रे, अस्व प्रतीबोधणने काज जो, अणसण उचरावु तेहा तमें रे आपु देवलोकनुं तुमें राज जो. ॥४॥
सी सुव्रत.....
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वली गोतेंम गोत्री बहुने तंम्ये रे कीधां आप समां जीनराज जो, ईत्यादीक सरवे तुम तंणो रे कंम मोक्षे मोकल्य माहराज जो. ॥५॥
सी सुव्रत..... स्व(स्वा)मी हु स्या माटे वीसरो रे पीत पुराणी मंने घणी आस जो, प्रभु ताहर(रा) करी आपो मंने रे तमारा चरणकमळ नीवास जो. ॥६॥
सी सुव्रत..... ओम भवोभव मजने आपीओ रे कांईक बोधबीजनो लाभ जो । तीहा सेठ बलुभाई अमे कहे रे पछे आपो मोक्ष सुखना राज जो ॥७||
सी सुव्रत..... रंगविजयकृत
(३) हरियाळी (महावीर जिनेसर उपदिसे - ओ देशी) अकपुरुष नवलो तुमे सांभलज्यो नरनारी रे सुणतां कौतुक उपजें, कहिज्यों अरथ विचारी रे ॥१॥
सांभलजो वात विनोदनी. रात दिवस ऊभो रहें, न गणें धुप में वरषा रे उपसम रसमां झीलतो, सत्रु मित्रु सम सरखा रे. ॥२॥ सांभलजो० अष्टोत्तर सत्त नाम छे, निरनामी सहु जाणे रे, खलक मुलक खट दर्शने, ओ नरने नित्य वखाणे रे ॥३॥ सांभलजो० त्रिण काया दोय जीव छों, त्रिण मस्तक जस दीपें रे, रुपे मनमथ सूंदरु, तेजें तरणी जीपे रे ॥४॥ सांभलजो० वदन कमल ते पुरुषनां, अक सहस दोय मानें रे दोय सहस दोय जीभ छे, लीनो आतंम ध्यांने रे ॥५॥ सांभलजो० नेत्रानंदन नेत्र छे, दोय हजारने च्यार रे खट कर में पग च्यार छ, पूंछ ओक मन धार रे ॥६॥ सांभलजो० पूत्र अनंता छे तेहनें, नारी नहि वली कोई रे ब्रह्मचारी सिर सेहरो, वली परण्या नारी सोई रे ॥७॥ सांभलजो० हरीहर ब्रह्म पुरंदर, नमवा पद[पं]कज आवे रे
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अहनिस सेवामें रहें, पण कोइनें न बोलावे रे ॥८॥ सांभलजो० अचरिज ओक तिणे कीयो, तेह सकरमी कहावें रे। तेहनां ध्यान थकी घणां सीवपद पदवी पावे रे ॥९॥ सांभलजो० नग्न नहीं नभ छे वस्त्र, नहीं वस्त्र धरतो रे निज शत्रुने जीपवा, जोगमुद्रा अनुसरतो रे ॥१०॥ सांभलजो० अहवा नरने वांदतां, मिथ्या मोहथी विघटें रे अमृत पद लहें रंगथी, निज आतम गुण प्रगटे रे ॥११॥ सांभलजो० इतिश्री हरियाली गर्भित स्तवन संपूर्ण
शुभं भवतू ।
ललितसागरकृत
(४) लोभनी सज्झाय लोभ न करीइं प्राणीया, लोभ बुरो रे संसार. लोभ सरीखो को नही, दुरगतीनो दातार रे ॥१॥ भविकजन लोभ तणो परिहार, तुमें करज्यो निरधार. अतिलोभ लक्ष्मीपती, सागर नामें सेव. पूर पयोनिधिमां पड्यो, जई बेठो तस हेठ. भ० ॥२॥ सोवनमृगना लोभथी, दसरथसुत श्री राम. सिता नारि गमाविने,भमिआ ठांमोठांम. भ० ॥३॥ दसमा गुंणठांणा लगे, लोभ तणो छे चोर, सीवपूर जाते जीवनें, ओहि ज मोटो चोर. भ० ॥४॥ नव विधि परिग्रह लोभथी, बहु दुख पांमें जीव, परवस पडिया बापडा, पाडे अहो निसरीव. भ० ॥५॥ परिग्रहना परिहारथी, लहीइं सुख सरिकार, देव दानव नरपति थई, जइव्यै मुगति मोझार. भ० ॥६।। भावसागर पंडित तणो, ललितसागर बुध सीस, लोभ तणें त्यागे करी, पूगे सयल जगीस. ॥भ० ॥७॥
इति लोभ सज्झाय.
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________________ अनुसन्धान-५७ शिवचंदकृत (5) विजय जिनेन्द्रसूरि भास गाम नगर पूर वीचरता रे, आव्या धीरपूर नगर मोझार // 1 // सखी वधावाने सहगुरुरे, श्री विजय जैनेन्द्र सर तपगच्छनायक अभिनवा रे, दिन दिन चढते नूर. स० // 2 // वीर जनंदने वंदवा रे, वली करवा निरमल देह चतुरविध संघने वंदाववा रे, आव्या अधिक सनेह सः // 3 // सा हरचंद कुल सेहरो रे, मात गुमाननो जाता पाट दीपाव्यो सूरी धर्मनो रे, गुरु दीनदयाल गुणपात्र. स. // 4 // संवत अढार समे त्रेपने रे, चैत्र वद दसमीउ जाण घणुं जीवज्यो कहे उत्तमचंदनो रे, शिवचंद गुरु गुण खांण स० // 5 // इति भास संपूर्ण