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पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री, मनीषी
मुनि श्री जिन विजयजी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व
लेखक
रविशंकर भट्ट एम. ए. ( शिक्षा प्रसार विभाग राजस्थान सरकार )
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प्रकाशक : केशरपुरी गोस्वामी अध्यक्ष सर्वोदय साधनाश्रम चन्देरिया (चित्तौड़गढ़)
प्रथमावृत्ति, १००० प्रति
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अहमदाबाद निवासी श्रीमती मोतीबहन जोवराज शाह
द्वारा वितरित
२ अक्टोबर, १९७१
मुद्रक : प्रतापसिंह लूणिया जॉब प्रिंटिंग प्रेस ब्रह्मपुरी, अजमेर ।
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शुद्ध प्रबुद्ध मनीषी पद्म श्री मुनि जिन विजय जी और उनका विशिष्ठ व्यक्तित्व
शुद्ध अर्द्ध भगबा खादी के परिवेश में प्रावृत्त, गेहूंग्रा वर्णं, आसमान को स्पर्श करता लम्बा कद, और इतनी ऊंचाई का उनमें छिपा प्राचीन राजपूती शौर्य, आत्म विश्वास और आंखों पर चढ़े काले चश्मे से झाँकती पुरातत्वाचार्य की गंभीर, पैनी दृष्टि, सौम्य मुखमुद्रा, संकोचशील, सरल, सीधा, मिष्ट भाषी, अपनी ही धुन के धनी, राजर्षि मुनि जिनविजयजी हैं । जिनका जीवन ही एक जीवन अपना है, जो हजारों जीवन का आदर्श, गांधीयुग का जलता हुआ चिराग है ।
बाल्यावस्था में प्राप्त गुरुमंत्र को ब्रह्मवाक्य मान, ज्ञानपीपासा से उद्व ेलित हो जीवन के कंटकाकीर्ण पथ पर चल पड़े और आज भी ८४ वर्ष की वय में उसी कर्तव्य के कठोर मार्ग को अपने अनुगामियों के लिये सरल करते हुये श्रागे बढ़े जा रहे हैं। जहां सामने मंजिल स्वयं नतमस्तक हो स्वागत हेतु झांक रही है, आतुर है ।
इसी साध्य की प्राप्ती के लिये देश विदेश की खाक छानी प्राचीन संस्थानों, भण्डार, शिलालेख प्रशस्तियों को जोड़-जोड़ पढ़े और इतिहास को नई दृष्टि प्रदान की ।
जिस मनीषी ने अक्षर ज्ञान किसी पाठशाला की छत के
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नीचे बैठ प्राप्त नहीं किया, वरन् अनेक खण्डहरों, झारखण्डों, शिलालेखों को पढ़ते हुये सरस्वती की अनवरत साधना करते हुये पाली, डिंगल, प्राकृत, संस्कृत, मागधी अपभ्रंश आदि भाषाओं का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया, जर्मनी जाकर जर्मन अंग्रेजी आदि योरोपीय भाषायें सीखी। यहीं से भाषाविद अनेक भाषाओं के ज्ञाता हो गये।
जिन विजयजी का व्यक्तित्व संकोचशील मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत है । बाहर से अन्य मनस्क से दिखाई देने वाले व्यक्ति के अंदर कितना कोमल, उदार मानस है यह पास बैठकर ही कोई जान सकता है, महसूस कर सकता है ।
आचार्य जी राजस्थान की वीर प्रसूता धरती के भीलवाड़ा जिले के बड़ी रूपाहेली नामक गांव में सन् १८८८ की २७ जनवरी को पैदा हुये । इस गांव से केवल जन्म का संबंध है, क्यों कि रूपाहेली के बहुत कम लोग इनको जानते हैं और इनके महान कार्य को तो शायद ही कोई जानता हो ! क्योंकि मुनिजी १२-१३ वर्ष की आयु में गुरु देवी हँस जी के साथ निकल गये और फिर देश विदेश के चक्कर काटते, भ्रमण करते रहे। __आज ८४ वर्ष की अवस्था में अपनी जन्म भूमि से ८२ किलोमीटर दूर चन्देरिया गांव में अपनी सर्वोदय झोपड़ी डालकर उस ओर अपनी मन्द दृष्टि से निहार रहे हैं जहां से जीवन की अभूतपूर्व जीवन यात्रा प्रारंभ की थी।
मुनि जी वीर वसुन्धरा चित्तौड़गढ़ के निकट ग्रामीण
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आश्रम में बैठे ज्ञानपीपासुत्रों को दिशा निर्देश कर रहे हैं। अनेक मुमुक्षु अपने ज्ञान को इस कुरसान से चमका रहे हैं । - ___ यह रूपाहेली गांव का बालक रणमल पंवार रानी राजकुमारी का सुकुमार पुत्र, मुनिदेवी हंस जी का शिष्य, खाखी बाबा शिवानन्द का शिष्य किशन भैरव और मुनि सुन्दर विजय जी का मुनिजिन विजय और ऐसी कितनी ही व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को पार करता हुआ, नामों को बदलता हुआ, वेश परिवर्तन करता हुआ, ज्ञानप्राप्त करता, जीवन पथ पर
आगे बढ़ता रहा। - मुनि जी आज अपने ही द्वारा लिखित, संम्पादित, प्रकाशित ग्रन्थों, पत्र, पत्रिकाओं, निबंध, लेखों, पी. एच. डी. के प्रबंधों को एक अपरिचित, तटस्थ की भांति अवलोकन कर विस्मित हैं । वार्धक्य से सुप्त स्मृतियां जहाँ झकझोर रही है वहां दूसरी ओर अपने बीते पायामों पर विचार कर अभिभूत हो रहे हैं, करुणा से प्राप्लावित हो रहे है ।
दोहरी परतंत्रता में जन्मा, मुसीबतों के धात प्रतिधातों में पनपा, बेसहारा, निर्जन, भूचालों में पला, इस अनाथ निराश्रित बालक को कौन जानता था कि यही बालक कितने अनाथों को सनाथ, कितने अनाभ्यासियों को अध्ययन शोल और कितने ही मुमुक्षुओं को अपने कृपा पूर्ण सानिध्य में लेकर, अपने पुरातत्व साहित्य ज्ञान के पारस स्पर्श से पंडित शोधार्थी, मेधावी बना देगा ।
मैंने पहली बार जब इनके दर्शन किये तब मुझे ऐसा
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ज्ञात हुआ कि खण्डहरों में दबे झारखण्डों के शिलालेखों, प्राचीन फटी पुस्तकों, ग्रंथो, पोथियों, ताड़पत्रों को पढ़ते-पढ़ते इनसे प्राप्त कठिनाइयों को झेलते-झेलते हृदय रूखा नहीं हुया वरन् और सरस हो गया है और हृदय से ज्ञान गंगा की अजसुधारा प्रवाहित हो रही है, जिसमें कितने ही शोधार्थी अवगाहन कर तृप्त हो रहे हैं ।
इनका व्यक्तित्व कभी अनुदार नहीं रहा। अपने ज्ञान को जो बड़ी कठिनाइयों से प्राप्त हुआ, उसे बड़ी उदारता से बांट रहे हैं, दे रहे है और देकर भूल जाते हैं और अनायास आकर कोई कृतज्ञता ज्ञापन करे तो केवल हाँ भर चुप्पी साध लेते हैं।
आखों की रोशनी आज जहां पर है वहाँ से कुछ दिखाई नहीं देता लेकिन अंतर की ऊर्जा तो ज्ञानकर्म से और आलोकित हो रही है।
इस कर्मठ राष्ट्रीय सन्यासी से कौन अपरिचित हैं !
पूना में भांडारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट की सन् १९१८ में स्थापना हुई। संस्था के संस्थापक विद्वानों के आमन्त्रण पर ये जैनमुनि सम्प्रदाय बंधी छोड़ वहाँ की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विविध प्रवृतियों में एक जुट होकर लग गये। ___इस मोड़पर जैनमुनि से मानव सेवी, पुरातत्व वेत्ता, राष्ट्रीय सन्यासी हो गये।।
उपरोक्त संस्था की कार्य कुशलता का भान जब पूज्य
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महात्मा गांधी को हुआ तब अहमदाबाद के सावरमती आश्रम में मुनिजी को बुला लिया और यहीं राष्ट्रीय विद्या पीठ की योजना पर गंभीर चर्चा हुई । इस योजना को कार्य रूप देने के लिये बापू के आग्रह पर मुनिजी पूना छोड़ अहमदाबाद आ गये।
सन् १९२० में राष्ट्रीय विद्या पीठ (गुजरात विद्यापीठ) को स्थापना हुई । भाण्डारकर इंस्टीट्यूट के पुरातत्व वेत्ता "गुजरात विद्यापीठ'' के पुरातत्वाचार्य हो गये । सन् १९२० से १६२८ तक यहीं अनवरत अध्ययन, अध्यापन, संशोधन का मार्ग दर्शन करते रहे।
विश्व में जर्मनी ही एक ऐसा देश है जहाँ महाप्राण व्यक्ति निवास करते हैं। इस समय कुछ जर्मनी के विद्वान् भारत आये और विद्यापीठ के प्राचार्य मुनि जी से उनका साक्षात्कार हुआ। यही साक्षात्कार मुनि जी को जर्मनी ले गया। वहाँ मुनि जी जर्मनी के विद्वानों की प्रमुख पंक्ति में
आसान हुये। वे विद्वान भी महाप्राण कर्मठ स्कालर को पाकर श्रद्धान्वित हो गये।
बलिन विश्वविद्यालय में मुनि जी ने कई संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश ग्रन्थों और भारतीय साहित्य और दर्शन पर कई विद्वानों के साथ चर्चा की।
यहीं (बलिन में) भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार की आशा को फलवती करने के लिये १६२६ में “हिन्दुस्तान हाउस' की स्थापना की। बाद में उसी हिन्दुस्तान हाऊस में बैठकर हमारे महान् युवक राष्ट्र नेता सुभाष चन्द्र बोस ने
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जर्मन रेडियो द्वारा भारत राष्ट्र को आह्वान किया था। वह हाऊस जर्मनी में भारतीय संस्कृति, विद्या आदि का एक केन्द्र बन गया ।
इस संस्था के विस्तार अभिवृद्धि, समृद्धि की योजना लेकर गांधी जी से मिलने मुनि जी भारत याये। ऐसे समय यहाँ नमक सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया। आन्दोलन की दूसरी टोली के अगुवा बन मुनि जी डांडी यात्रा को चल पड़े । अंग्रेज शासक ऐसा कब देख सकते थे। मुनिजी को नासिक सेन्ट्रल जेल में बन्द कर दिया गया। जेल में वीर नरीमान, क. मा. मुंशी, सेठ जमनालालजी बजाज, मुकुन्द मालवीय आदि नेता इनके सानिध्य से ज्ञानार्जन करते रहे । जेल-जीवन में अनेक भारतीय नेताओं से विचार विनिमय करने का अवसर मिला। __ जेल से बाहर आते ही गुजरात विद्यापीठ से गुरुदेव रवीन्द्र नाथ के आमंत्रण पर शान्ति निकेतन की यात्रा पर निकल पड़े । वहाँ पर जैन चेयर की स्थापना की और शांतिनिकेतन के विश्व भारती विश्वविद्यालय में जैन साहित्य विभाग के प्राचार्य हो गये। यही से सिंधी जैन ग्रन्थ माला का सम्पादन प्रकाशन प्रारंभ किया। यह कार्य अनवरत चल रहा है। इसमें ७६ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इस ग्रन्थ माला का समस्त आर्थिक व्यय दानवीर सेठ बहादुर सिंह जी सिंघी ने किया। मुनि जी के इस कार्य को देश-विदेश के मूर्धन्य विद्वानों ने सराहा। इन्होंने गुप्त लुप्त अनेक ग्रन्थों, ग्रन्थकारों को प्रकाश में लाकर अमर कर दिया ।
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४ - ५ वर्ष शांतिनिकेतन में रहने के पश्चात् मुनि जो अहमदावाद आ गये क्योंकि बंगाल का जलवायु मुनि जी के स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं रहा लेकिन यही से सिंघी जैन ग्रंथ माला का कार्य चलता रहा ।
अहमदाबाद में आकर स्वास्थ्य को आरोग्य लाभ मिलने ही नहीं पाया कि बंबई से अपने जेल निवास के साथी श्री कन्हैयालाल माणिक्य लाल मुंशी का बुलावा आया और आप बंबई आ गये ।
यहाँ आकर मुनि जी भारतीय विद्या भवन के प्रधान आचार्य, सम्मान्य निदेशक हो गये । भारतीय विद्या भवन आज भी समस्त भारत का प्रमुख विद्या केन्द्र है । इस भवन को मुनि जी ने अपना निजी पुस्तकालय भेंट कर दिया । जिस साहित्य निधि का मूल्य रुपयों से प्रांका नहीं जा सकता है ।
भारतीय विद्या भवन में १५ वर्ष तक सम्मान्य निदेशक रहने के पश्चात् अपनी जन्म भूमि मेवाड़ में "प्रताप विश्वविद्यालय" की स्थापना की योजना लेकर आये । इस योजना की तत्कालीन महाराणा भूपालसिंह जी ने सराहना ही नहीं की बल्कि समस्त प्रार्थिक भार स्वयं वहन करने को तैयार हो गये लेकिन यह कार्य देशी राज्यों के विलीनी करण के कारण खटाई में पड़ गया ।
स्वभावतः संस्कारों से मुनि जी मानवीय शरोर श्रम की प्रतिष्ठा के पक्के हामी रहे हैं । इस ध्येय की पूर्ति हेतु चन्देरिया में सर्वोदय स्थापना की ।
मर्यादा और बुढ़ापे में भी आश्रम की
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राष्ट्र संत विनोबा की पद यात्रा के समय आश्रम की ५५ बीघा जमीन विनोबा जी को समर्पण कर दी । जिस श्राश्रम में करीब डेढ़ दो दर्जन मकान बने हैं यह साधना आश्रम विनोबा को शांति सेना का केन्द्र बनाने हेतु दे दिया जिसकी लागत कई लाख रुपये आँकी जा सकती है लेकिन भाव वही रहा जो भारतीय विद्या भवन को कई लाख की लागत का अमूल्य पुस्तकालय भेंट करते समय था ।
जन सेवा की दृष्टि से जब ग्राश्रम की स्थापना हुई उस समय नूतन निर्मित राजस्थान सरकार ने राजस्थान की साहित्यिक, सांस्कृतिक समृद्धि की सुरक्षा, सुव्यवस्था और प्रकाश में लाने हेतु मुनि जी को सादर आमन्त्रित किया । जिसके परिणाम स्वरूप राजस्थान सरकार ने इन्हीं के मार्ग दर्शन एवँ निदेशन में "राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान" नाम की एक महत्ती संस्था की स्थापना की ।
मुनि जी ने अपने सतत परिश्रम एवँ संशोधन कार्य की विशिष्ठ क्षमता के प्रभाव से इस प्रतिष्ठान में राजस्थान की ही नहीं अपितु समस्त भारतीय साहित्य की प्राचीन ग्रंथ समृद्धि को संगठित करने का अद्भुत प्रयास किया । जिसके परिणाम स्वरूप प्राय: एक लाख के लगभग प्राचीन अलभ्य हस्त लिखित ग्रंथ सुरक्षित हुये । ऐसा अमूल्य ग्रंथ संग्रह भारत के अन्य किसी भी राज्य में विद्यमान नहीं है । इस प्रतिष्ठान द्वारा प्राचीन ग्रंथों के प्रकाशन का महान कार्य भी प्रारंभ किया गया। मुनि जी के अधिकार काल तक इस संस्थान द्वारा ५० ग्रंथ प्रकाश में आये ।
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मुनि जी कड़ी धूप में पैदल चले, कठोर शिलाओं पर शयन किया । ठिठुरती अंधेरी रातों में कई घंटों ध्यान मग्न खड़े रहे, रात-रात भर शिर के बाल नोचते रहे, तपस्या की, भूखे रहें लेकिन कभी अपनी मानसिक परिस्थितियों से समझौता करने की बात नहीं सोची वरन् परिस्थितियों का खुल कर मुकाबला किया । कठिनाइयाँ घबरा गई, खुल कर बिखर गई और टूट गई लेकिन मुनि जी भुके नहीं । केवल अपने कठोर श्रम के बल पर बढ़ े, चढ़ और आगे बढ़े लेकिन रुके नहीं । कठिनाइयों का सामना करते हुए बढ़ े जा रहे हैं । इसी महान् आत्म बल ने इनको इतिहास, पुरातत्व, भारतीय संस्कृति अपठनीय शिलालेखों को सुपाठ्य बनाने की शक्ति दी है ।
इस मां सरस्वती के वरद पुत्र को "राजस्थान साहित्य अकादमी" ने श्रद्धानत हो अपने सर्वोच्च मनीषी पद पर प्रतिष्ठित कर अपने को धन्य माना है । इसी भारतीय स्कॉलर को "जर्मन आरियण्टल सोसायटी" ने अपना विशिष्ट सम्मानित सदस्य घोषित किया है । यह सम्मान एक को छोड़कर आज तक अन्य भारतीय को नहीं मिला है । इतना ऊँचा पद नोबल पुरस्कार से कम नहीं है ।
ऐसा विचक्षरण व्यक्ति किस कीचड़ से कमल खिल, बाहर से मजबूत इस्पात से ढ़ल आगे बढ़ा यह आगामी सभी पीढ़ियों के लिये अनुकरणीय रहेगा। जीवन यष्टी वार्द्धक्य के कारण झुकी है लेकिन टूटी नहीं है ।
ये लोकमान्य तिलक की परम्परा के उग्र राष्ट्रभक्त, कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ की परम्परा के विशुद्ध शिक्षा सेवी,
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महात्मा गाँधी जैसों की परम्परा के सत्यान्वेषी, विनोबा की परम्परा के राष्ट्र संत, महाराणा प्रताप की परम्परा के वीर ब्रत धारी राजपुत्र, मीरां की परम्परा के श्रद्धालु भक्त मुनि जी हैं । जिनका यौवन कहाँ बीता, बचपन कहाँ व बुढ़ापा कहाँ बीत रहा है।
इस धरती पर पुत्र, पत्नी, मान, मर्यादा, धन, सम्पदा आते जाते, नाशवान, अनित्य हैं। अवश्य नष्ट होंगे, लेकिन श्रेष्ठ व्यक्तियों के श्रेष्ठ कार्य नित्य निरंतर रहेंगे। जो आगामी पीढ़ियों के प्रेरणा स्रोत होंगे। जीवन के राजमार्ग पर आगे बढ़ने वालों के लिये चौराहे के प्रकाश स्तम्भ का काम देंगे। उनके पथ को आलोकित करते रहेंगे। मुनिजी वैसे आज प्रकाश स्तम्भ है।
मुनि जी के सम्प्रदाय बन्धी जैन साधु वेश को या केवल व्यारव्यान दाता गुरु पद का परित्याग करते समय लिखे शब्द भी हम जैसे भाषाण व कोरे उपदेश देने वाले योजना बहादुरों के लिये कल्याण कारी हो सकते हैं बशर्ते हम उनको जाने माने जीवन में उतारें। जिसकी आज आवश्यकता है।
"जिस वेश की चर्या का प्राचारण हमने मुग्ध भाव से बाल्य-काल में स्वीकृत किया था, उसके साथ हमारे मन का तादात्म्य नहीं होने से हमारे मन में अपने जीवन की प्रवृत्ति के विषय में एक प्रकार का प्रान्तरिक असंतोष बढ़ता जाता था। अंतर में वास्तविक विरागता न होने पर भी केवल बाह्य वेश की विरागता के कारण लोगों के द्वारा वन्दन पूजनादि का सम्मान प्राप्त करने में हमें एक प्रकार की आत्म वंचना
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प्रतीत होती थी। इस गुरु पद भार से मुक्त होकर किसी सेवक पद का अनुशरण करने का हम मनोरथ कर रहे थे और अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल सेवा का उपयुक्त अवसर खोज रहे थे। मित्रों की प्रेरणा और महात्मा जी की आज्ञा से प्रेरित होकर हम पूना से अहमदाबाद पहुंचे और यहाँ अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप कार्य क्षेत्र पाकर एक सेवक के रूप में गुजरात विद्यापीठ की सेवा में सम्मिलित हुये।”
ये राष्ट्रीय सन्यासी, लोकमान्य तिलक, माहात्मा गाँधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, विनोबाभावे आदि कई युग मनीषियों के निकट सम्पर्क में आये । उनके उच्च आदर्शों से अभिभूत हुये और उनको जीवन में उत्तारा । मुनि जी क्रान्त दर्शी, अराजकता वादि केवल आदर्श विचारक ही नहीं अपितु कठिन शरीर श्रम के हामी, समाज के नव संस्कारों के अधिष्ठाता हैं । सत्य के खोजी कितने ही शोधार्थियों के मार्ग दर्शक, शिक्षा शास्त्री एवं गुरु हैं ।
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________________ लेखक का परिचय श्री रविशंकर भट्ट का जन्म 1628 के अक्टूबर की १६वीं तारीख को ग्राम मांडल (भीलवाड़ा) राजस्थान में हुआ। राजस्थान विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया तथा उदयपुर विश्व विद्यालय से बी. एड. व साहित्य सम्मेलन से साहित्य रत्न, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से राष्ट्र भाषा रत्न भी किया। श्री रविशंकर भटम यदा-कदा पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से शैक्षणिक, साहित्यिक लेख, कवितायें प्रकाशित हुई हैं। लेकिन लिखा उतना सब नहीं। भावुक संकोचशील व्यक्तित्व इसका एक मात्र कारण है। गत दो दशक से राजस्थान राज्य शिक्षा विभागान्तर्गत यत्र तत्र अध्ययन अध्यापन रत है। इनकी साहित्यिक शोध व मौलिक रचना में अभिरूचि है जिससे आगे भी कई संभावनायें है।