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शुद्ध प्रबुद्ध मनीषी पद्म श्री मुनि जिन विजय जी और उनका विशिष्ठ व्यक्तित्व
शुद्ध अर्द्ध भगबा खादी के परिवेश में प्रावृत्त, गेहूंग्रा वर्णं, आसमान को स्पर्श करता लम्बा कद, और इतनी ऊंचाई का उनमें छिपा प्राचीन राजपूती शौर्य, आत्म विश्वास और आंखों पर चढ़े काले चश्मे से झाँकती पुरातत्वाचार्य की गंभीर, पैनी दृष्टि, सौम्य मुखमुद्रा, संकोचशील, सरल, सीधा, मिष्ट भाषी, अपनी ही धुन के धनी, राजर्षि मुनि जिनविजयजी हैं । जिनका जीवन ही एक जीवन अपना है, जो हजारों जीवन का आदर्श, गांधीयुग का जलता हुआ चिराग है ।
बाल्यावस्था में प्राप्त गुरुमंत्र को ब्रह्मवाक्य मान, ज्ञानपीपासा से उद्व ेलित हो जीवन के कंटकाकीर्ण पथ पर चल पड़े और आज भी ८४ वर्ष की वय में उसी कर्तव्य के कठोर मार्ग को अपने अनुगामियों के लिये सरल करते हुये श्रागे बढ़े जा रहे हैं। जहां सामने मंजिल स्वयं नतमस्तक हो स्वागत हेतु झांक रही है, आतुर है ।
इसी साध्य की प्राप्ती के लिये देश विदेश की खाक छानी प्राचीन संस्थानों, भण्डार, शिलालेख प्रशस्तियों को जोड़-जोड़ पढ़े और इतिहास को नई दृष्टि प्रदान की ।
जिस मनीषी ने अक्षर ज्ञान किसी पाठशाला की छत के
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