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________________ सत्ताईसवां प्रवचन पंडितमरण सुमरण है 2010_03
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________________ Ana C . C . जा C . H TAS / AUR सूत्र सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।।१४६।। धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं। तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं।।१४७।। / इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।।१४८।। TASKAR ___ इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं / / 149 / / चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पास इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्चा परिण्णाय मलावधंसी।।१५०।। तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो। सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो।।१५१।। 2010_03 www.jainelibran.org
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________________ मा वन की सबसे बड़ी पहेली स्वयं जीवन में नहीं है, एक किताब की शुरुआत इस वचन से की है कि 'मेरे देखे या जीवन की सबसे बड़ी पहेली मृत्यु में है। और दर्शनशास्त्र की सबसे बड़ी समस्या आत्मघात है।' जिसने मृत्यु को न जाना वह जीवन से अपरिचित | महावीर से पूछो, बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, मृत्यु। कामू रह जाता है। जीवन को जानने की कंजी मत्य में है। कहता है आत्मघात। करीब पहुंचा, लेकिन चूक गया। छोटे बच्चों की कहानियां तुमने पढ़ी होंगी। कोई राजा है या मृत्यु और आत्मघात में बड़ा फर्क है। आत्मघात का अर्थ रानी है, उसके जीवन की कुंजी किसी तोते में बंद है या किसी हुआ, जीवन ने अतृप्त किया। जीवन से जो सुख मांगा था, न मैना में बंद है। तोते को मरोड़ दो, राजा मर जाता है। राजा को मिला। जो मूल्य खोजे थे, वे न पाए जा सके। जो आशा की थी, मारने में लगे रहो, राजा नहीं मरता। वह टूटी। जो इंद्रधनुष बांधे थे कल्पनाओं के, वे सब बिखर जीवन को सुलझाने में लगे रहो, जीवन नहीं सुलझता। जीवन | | गए। उस हताशा में आदमी अपने को मिटा लेता है। का सुलझाव मृत्यु में है। ऐसी मिटाने की जो वृत्ति है, यह जीवन का अंतिम शिखर नहीं इसलिए जगत में जो बड़े मनीषी हुए, उन्होंने मृत्यु को समझने | है। यह संगीत की आखिरी ऊंचाई नहीं है, यह तो वीणा का टूट की चेष्टा की है। साधारणजन मृत्यु से बचते हैं, भागते हैं। | जाना है। परिणाम में जीवन से वंचित रह जाते हैं। इस विरोधाभास को आत्मघात दूसरा छोर है; जीवन से भी नीचा। मृत्यु आत्मघात जितना ठीक से पहचान लो, उतना उपयोगी है। के बिलकुल विपरीत है—जीवन की आखिरी ऊंचाई, जीवन का मृत्यु से भागना मत। जो मृत्यु से भागा, वह जीवन से ही भाग | गौरीशंकर। मृत्यु अर्जित करनी पड़ती है। मृत्यु के लिए साधना रहा है। क्योंकि मृत्यु जीवन की पूर्णाहुति है। मृत्यु है जीवन का | करनी पड़ती है। मृत्यु को सम्हालना पड़ता है। जो अति कुशल आत्यंतिक स्वर। जीवन मृत्यु पर समाप्त होता, पूरा होता। मृत्यु है, वही केवल ठीक-ठीक मृत्यु को उपलब्ध हो पाता है। और है फल। जीवन है यात्रा, मृत्यु है मंजिल। ठीक मृत्यु ही न मिली तो जीवन हाथ से बह गया। फिर तुम थोड़ा सोचो, मंजिल से बचने लगो तो यात्रा कैसे होगी? और | पाठशाला में तो रहे, लेकिन पाठ न आया। तुम विद्यालय से गए अंतिम से बचने लगो तो प्रथम से ही बचना शुरू हो जाएगा। | तो लेकिन उत्तीर्ण न हुए। मौत से जो डरा, मौत से जो भागा, उसके ऊपर जीवन की वर्षा इसलिए पूरब कहता है, जो उत्तीर्ण न होंगे उन्हें बार-बार भेज नहीं होती। वह जीवन से अछता रह जाता है। इसलिए कायर से दिया जाएगा। उचित है। जीवन से अगर मत्य का पाठ सीख ज्यादा दयनीय इस जगत में कोई और नहीं है। लिया तो फिर आना नहीं है। जो होशपूर्वक, आनंदपूर्वक, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेर कामू ने अपनी उल्लासपूर्वक मरता है उसकी फिर वापसी नहीं है। यही तो 2010_03 www.jainelibrary org
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________________ जिन सूत्र भागः2 ANS पुनर्जन्म का पूरा सिद्धांत है। बने। अभी तो शरीर साध्य है। तुम भोजन जीने के लिए थोड़े ही तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। लेकिन तुम चाहते हो, | करते हो। तुम जीते ही भोजन करने के लिए हो। तुम कपड़े थोड़े वापसी न हो ताकि फिर-फिर न मरना पड़े। वापसी उसकी नहीं ही शरीर को बचाने के लिए पहनते हो। तुम शरीर को कपड़े होती, जो मरना सीख लेता है। जो इस भांति मर जाता है कि पहनने के लिए बचाए रहते हो। अभी तो शरीर ऐसा लगता है, मरने को फिर कुछ और बचता ही नहीं, तो दुबारा मौत नहीं जैसे गंतव्य है। इसके पार कुछ भी नहीं। होती। तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। क्योंकि वापसी होगी महावीर कहते हैं, शरीर है नाव। अर्थ हुआ, शरीर से पार तो फिर मौत होगी। तुम मौत से डरे हो। जो वस्तुतः वापसी नहीं जाना है। शरीर है नाव। बैठना है, उतरना भी है, शरीर संक्रमण चाहता वह मौत से डरता नहीं, मौत का आलिंगन करता है। है। नाव में बैठने के पहले भी यात्री था। नाव में बैठा है तब भी आज के सूत्र मौत के संबंध में हैं। ये चरम सूत्र हैं। इन पर है। नाव से उतर जाएगा तब भी होगा। नाव ही यात्री नहीं है। एक-एक सूत्र को बहुत ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। तुम शरीर में आए उसके पहले भी थे, अभी भी हो; शरीर से | क्योंकि ये तुम्हारे विपरीत भी हैं। उतरोगे जिस दिन मौत में, तब भी होओगे। मौत तो दूसरा तुम अगर यहां आए तो जीवन की तलाश में आए हो। लोग किनारा है। जन्म है यह किनारा, मृत्यु है वह किनारा; शरीर है महावीर के पास गए तो जीवन की तलाश में गए थे। जीवन में नाव। और संसार है सागर। हार रहे थे तो तरकीबें खोजने गए थे, कैसे जीत जाएं। लेकिन | लेकिन अधिक लोग संसार को सागर की तरह नहीं देख पाते। सदगुरु तो मृत्यु का सूत्र देता है। जब तक तुम्हारा शरीर ही नाव नहीं, तो तुम संसार को सागर की उस परम मृत्यु को हमने अलग-अलग नाम दिए हैं। पतंजलि तरह न देख पाओगे। तुम इसी किनारे पर अटके रहते हो। तुम कहते हैं, समाधि। इसीलिए तो जब कोई संन्यासी मरता है तो सागर में उतरते ही नहीं। सागर में तो वही उतरता है जो मृत्यु की उसकी कब्र को हम समाधि कहते हैं। अर्थ हुआ कि उसका | तरफ स्वयं, स्वेच्छा से अग्रसर होने लगा। मृत्यु यानी वह दूसरा ध्यान और उसकी मृत्यु एक ही जगह पहुंच गए। साधारण | किनारा। तुम तो डर के कारण इस किनारे को पकड़कर रुके रहते आदमी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि नहीं कहते, कब्र हो। तुम तो सब आयोजन करते हो कि किसी तरह यह किनारा न ही कहते हैं; मकबरा कहते हैं। समाधि नहीं कहते क्योंकि यह छूट जाए। तुम तो नाव में होकर भी यात्रा नहीं करते। आदमी अभी फिर-फिर पैदा होगा। अभी समाधि नहीं मिली, इसलिए संसार कभी-कभी तो तुम कहते भी हो, संसारसागर, अभी आखिरी मृत्यु नहीं मिली। भवसागर। मगर तुम महावीर और बद्ध के वचन उधार ले रहे समाधि का अर्थ है आत्यंतिक मृत्य-आखिरी, चरम। अब हो। बैठे किनारे पर हो, बातें सागर की कर रहे हो। सागर का न कोई जन्म होगा, न मौत होगी। पाठ सीख लिया। यह व्यक्ति तुम्हें कोई पता नहीं। सागर में तो वही उतरता है, जीवन उसी के विद्यालय से वापिस घर की तरफ लौटने लगा। यह घर में लिए सागर बनता है, जिसने पहले शरीर को नाव समझा और जो स्वीकृत हो जाएगा। उत्तीर्ण हुआ। प्रमाणपत्र लेकर जा रहा है। मौत के किनारे की तरफ अग्रसर हुआ। ये सूत्र तुम्हारे विपरीत होंगे। इसलिए और भी गौर से समझोगे हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते तो ही समझ पाओगे। पहला सूत्र : इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वच्चइ नाविओ। कवि ने कहा है, एक नाव भी, छोटी-सी नाव ही हमने तेरे संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।। सागर में छोड़ी थी कि तेरा सागर एकदम नाराज हो गया। 'शरीर है नाव। जीव है नाविक। यह संसार है समुद्र, जिसे | एकदम तूफान उठने लगे, लहरें उठने लगीं, आंधियां, बवंडर महर्षिजन तर जाते हैं।' | आ गए। शरीर तो हमारे पास भी है लेकिन शरीर नाव नहीं है। 'शरीर | हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते नाव है' का अर्थ होता है, शरीर शरीर से श्रेष्ठतर के लिए साधन कुछ बड़ा किया भी न था। जरा-सी एक नाव छोड़ी थी। 548 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण है इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा 'शरीर को नाव, जीव को नाविक कहा। यह संसार समुद्र है, और तेरा दरिया बड़ा नाराज हो गया। जिससे महर्षिजन तर जाते हैं।' जो व्यक्ति नाव उतारेगा उसी को दरिये की नाराजगी पता और जो उस किनारे को छू लेता है, वही महर्षि है। जो चलेगी। किनारे पर बैठे-बैठे दरिया का पता ही नहीं चलता। जीते-जी मर जाता है वही महर्षि है। जो शरीर की नाव को खेकर सागर का अनुभव तो माझी को होता है। जिसने अपनी | उस पार पहुंच जाता है...। छोटी-सी डोंगी को इस विराट सागर में उतार दिया....और पहंचते तो तम भी हो. बड़े बेमन से। पहंचते तो तम भी हो. कितनी ही बड़ी नाव हो, छोटी ही है। क्योंकि सागर बड़ा विराट घसीटे जाते हो तब। इसलिए तो मृत्यु की एक बड़ी दुखांत है। जिसने तूफान और आंधियों से भरे इस सागर में अपनी नाव धारणा लोगों के मन में है—यमदूत, काले-कलूटे, भयावने, को उतार दिया, किसी ऐसे किनारे की तलाश में जो यहां से भैंसों पर सवार; घसीटते हैं। दिखाई भी नहीं पड़ता। __यह बात बेहूदी है। यह तुम्हारे भय की खबर देती है। यह मृत्यु इसलिए नदी नहीं कहते संसार को, सागर कहते हैं। दूसरा का चित्रण तुमने अपने भय के पर्दे से किया है। तुम भयभीत हो नदी। दसरा किनारा दिखाई ही नहीं | इसलिए भैंसे. काले-कलटे. यमदत...। लेकिन महर्षिजनों से पड़ता। है तो निश्चित। इसीलिए तो हमें मौत दिखाई नहीं | पूछो। जिनकी आंख निर्मल है, उनसे पूछो। और उनकी बात ही पड़ती। है तो निश्चित। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और | सच होगी क्योंकि उनकी आंख निर्मल है। वे कहते हैं, मृत्यु में कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकी सब अनिश्चित है। एक ही बात | उन्होंने परमात्मा को पाया। यह छोटा, क्षुद्र जीवन गया, विराट निश्चित है, वह मृत्यु। जीवन मिला। सीमा टूटी, असीम से मिलन हुआ। असीम का किनारा तो निश्चित है। क्योंकि जिसका एक किनारा है, | आलिंगन है मृत्यु। उसका दूसरा किनारा भी होगा ही। कितने ही दूर...कितने ही महर्षिजन से पूछो तो वे कहेंगे, परमात्मा बाहें फैलाए खड़ा है। दूर। एक किनारे के होने में ही दूसरा किनारा हो गया है। अब संसार छूटता है निश्चित। पर संसार में पकड़ने जैसा भी कुछ तुम दृढ़तापूर्वक मान ले सकते हो कि दूसरा किनारा होगा ही। नहीं है। मिलता है अपरिसीम, जाता है क्षुद्र। मिलता है विराट, अनुमान की जरूरत नहीं है। यह तो सीधा गणित है। यह खोता है क्षुद्र। खोता है क्षणभंगुर, मिलता है शाश्वत। किनारा है तो वह किनारा भी होगा। एक छोर है तो दूसरा छोर भी नहीं, मृत्यु का देवता यमदूत काला-कलूटा, भैंसों पर सवार होगा। जन्म हो गया तो मृत्यु भी होगी। नहीं है। मृत्यु से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है क्योंकि मृत्यु है हम अक्सर जीवन को जन्म से ही जोडे रखते हैं। इसलिए हम विश्राम। इस जीवन में निद्रा से संदर तमने कछ जाना? गहरी जन्मदिन मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं मनाते। हालांकि जिसको हम निद्रा, जब कि स्वप्न भी थपेड़े नहीं देते। सब वाय-कंप रुक जन्मदिन कहते हैं, वह एक तरफ से जन्मदिन है, दूसरी तरफ से जाते हैं। गहरी निद्रा, जब बाहर का संसार प्रतिछवि भी नहीं मृत्युदिन है। क्योंकि हर एक वर्ष कम होता जाता है। मौत करीब | बनाता, प्रतिबिंब भी नहीं बनाता। जब बाहर के संसार से तुम आती जाती है। अगर ठीक से पूछो तो जन्मदिन से ज्यादा | बिलकुल ही अलग-थलग हो जाते हो। गहरी निद्रा, जब तुम मृत्युदिन है क्योंकि जन्म तो दूर होता जाता, मौत करीब होती | अपने में होते हो डूबे, गहरे, तल्लीन-उससे सुंदर इस जगत में जाती है। जन्म का किनारा तो बहुत दूर पड़ता जाता, मौत का कुछ जाना है? किनारा करीब आता जाता। लेकिन फिर भी हम पीछे मुड़कर मृत्यु उसका ही अनंतगुना रूप है। मृत्यु से सुंदर कुछ भी देखते रहते हैं। हम जन्म के किनारे को ही देखते रहते हैं। नहीं। मृत्यु से ज्यादा शांत कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शुभ दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता इसलिए कहते हैं: और सत्य कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भय के कारण मृत्यु का भवसागर। होना निश्चित है, लेकिन दृष्टि में नहीं आता। बहुत | रूप हम विकृत कर लेते हैं। हमारे भय के कारण विकृति पैदा दूर है। होती है। 5491 ___ 2010_03
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________________ जिन सत्र भाग: 2 RANA - महावीर कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव बनाकर, जन्म के थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है. रत्ती-रत्ती आती है। उपलब्ध हो जाते हैं। वे खींचे-घसीटे नहीं जाते। उनके साथ | मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा जबर्दस्ती नहीं की जाती, वे स्वेच्छा से संक्रमण करते हैं। बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। इसका अर्थ हुआ, ऐसे जीयो कि तुम्हारा जीना मृत्यु के विपरीत ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक न हो। ऐसे जीयो कि तुम्हारे जीवन में भी मृत्यु का स्वाद हो। दिन अचानक मर गया! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे ऐसे जीयो कि जीवन का लगाव ही तुम्हारे मन को पूरा न घेर ले, अपने को पाया; ऐसा नहीं होता। जीवन का विराग भी जगा रहे। जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर विजय आनंद एक फिल्म बनाता था। कहानी में नायक के | श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से मरने की घड़ी आती। नायक गिर-गिर पड़ता है, मरता है, निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे लेकिन विजय आनंद का मन नहीं भरता। तो आखिर में वह दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा झल्लाकर, चिल्लाकर नायक से कहता है, अपने मरने में जरा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना। और जान डालिए। जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं। मैंने सुना तो मुझे लगा, यह सूत्र तो महत्वपूर्ण है। जरा उलटा तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने कर लो। विजय आनंद ने कहा, अपने मरने में जरा और जान जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा डालिए। मैं तुमसे कहता है, अपने जीवन में थोड़ी और मृत्यु | इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई डालिए। मृत्यु से घबड़ाइए मत। मृत्यु को काट-काट अलग बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना मत करिए। रोज-रोज मरिए, क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण। पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी जैसे हम श्वास लेते हैं और प्रतिक्षण श्वास छोड़ते हैं। भीतर | दश्मन है। कोई कहे कि मत्य आ रही है तो तम इस बात को जाती श्वास जीवन का प्रतीक है। बाहर जाती श्वास मृत्यु का स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो प्रतीक है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पहली श्वास भीतर लेता मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने है, क्योंकि जीवन का प्रवेश होता है। जब आदमी मरता, तो की बात है? मौत की कोई बात करता है? / आखिरी श्वास बाहर छोड़ता, क्योंकि जीवन बाहर जाता। इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि भीतर आती श्वास नाव में बैठना है, बाहर जाती श्वास नाव से | वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना उतरना है। प्रतिपल घट रहा है। जब तुम भीतर श्वास लेते हो तो चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। जीवन। जब तुम बाहर श्वास लेते हो तो मृत्यु। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ऐसा ही काश! तुम्हारे मन के क्षितिज पर भी उभरता रहे। | ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर प्रतिक्षण तुम मरो और जीयो। और प्रतिक्षण जन्म और मृत्यु | छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है घटते रहें, और तुम किसी को भी पकड़ो न। और तुम दोनों में मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के संतरण करो और सरलता से बहो, तो एक दिन जब विराट मृत्यु कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते। आएगी, तुम अपने को तैयार पाओगे। तो तुम नाव में रहे। तो एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त एकदम उठकर बैठ तुमने शरीर का नाव की तरह उपयोग कर लिया। गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे जूते कहां हैं? ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा उन्होंने कहा, क्या मतलब है? जूते का क्या करियेगा? लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक चिकित्सक तो कहते हैं, आप आखिरी क्षण में हैं और आप ने भी मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक | कहा, यह आखिरी दिन है। उसने कहा, इसीलिए तो जूते मांगता 1550 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण है हूं। मैं चलकर जाऊंगा मरघट। बहुत हो गया यह दूसरों के कंधों ही है, उससे भय भी व्यर्थ है। धैर्यवान को भी मरना है, वीर पर जाना। जबर्दस्ती मैं न जाऊंगा। कहते हैं, मनुष्य जाति का पुरुष को भी मरना है, साहसी को भी मरना है, कापुरुष को भी पहला आदमी! उस आदमी का नाम था बोकोजू। यह झेन मरना है, कायर को भी मरना है। मरण अवश्यंभावी है। फकीर चलकर गया। कब्र खोदने में भी उसने हाथ बंटाया, फिर तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उचित है। तो फिर शान से मरना लेट गया और मर गया। | ही उचित है। जब जो होना ही है तो उसे प्रसादपूर्वक करना उचित यह तो कुछ बात हुई। यह इस आदमी ने जीवन का उपयोग है। जो होना ही है उसे शृंगारपूर्वक करना उचित है। जो होना ही नाव की तरह कर लिया। खेकर गया उस पार। लेकिन इसके है, उसे समारोहपूर्वक करना उचित है। जब मरना ही है तो फिर लिए तो बड़ी प्राथमिक, प्रथम से ही तैयारी करनी होगी। इसके रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते अशोभन ढंग से क्यों मरना! लिए तो पूरे जीवन ही आयोजना करनी होगी। मृत्यु से मिलन के आदमी के हाथ में इतना ही है-मरने से बचना तो नहीं | लिए पूरे जीवन धीरे-धीरे मरना सीखना होगा। है—आदमी के हाथ में इतना ही है, वह कापुरुष की तरह मरे या जीवन-धर्म की दृष्टि में मरने की कला को सीखने का | एक साहसी व्यक्ति की तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे। चुनाव अवसर है। मृत्यु और न-मृत्यु में तो है ही नहीं। चुनाव तो इतना ही हमारे 'निश्चय ही धैर्यवान को भी मरना है और कापरुष को भी हाथ में है कि शान से मरें कि रोते मरें। आंसओं से भरे मरें या मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है तब फिर धीरतापूर्वक मरना गीतों से भरे मरें। उठकर मौत को आलिंगन कर लें या ही उत्तम है।' चीखें-चिल्लाएं, भागें; और मृत्यु के द्वारा घसीटे जाएं। धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं। महावीर कहते हैं, विकल्प तो यहां है-मौत को स्वीकार तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउं।। करके मरें या अस्वीकार करते हुए मरें। और जब मरना ही है, और जब मरना सुनिश्चित ही है, कहावत है, वीर पुरुष एक बार मरता है। कायर अनेक बार। अवश्यंभावी है, टलने की कोई सुविधा नहीं है, कभी टला नहीं ठीक है कहावत। क्योंकि जितनी बार भयभीत होता है, उतनी है; हालांकि आदमी अपने अज्ञान में ऐसा मानता है कि किसी बार ही मौत घटती है। वीर पुरुष एक बार मरता। अगर मुझसे और का न टला होगा, मैं टाल लूंगा। आदमी की मूढ़ता की कोई पूछो तो कहावत बिलकुल ठीक, पूरी-पूरी ठीक नहीं है। वीर सीमा है। | पुरुष मरता ही नहीं। कापुरुष बार-बार मरता, क्योंकि जिसने जो कभी नहीं हुआ, आदमी उसको भी मानता है कि कोई मरण को स्वीकार कर लिया उसकी मृत्यु कहां? मृत्यु तो हमारे तरकीब निकल आएगी, मेरे लिए हो जाएगा। आदमी का अस्वीकार के कारण घटती है। वह तो हमारे इनकार के कारण अहंकार ऐसा मदांध है कि यह बात मान लेता है कि मैं अपवाद घटती है। वह तो हम घसीटे जाते हैं इसलिए घटती है। हूं। और कोई मरता है, सदा कोई और मरता है। मैं तो मरता यह बोकोजू जो चल पड़ा जूते पहनकर मरघट की तरफ, यह नहीं। इसलिए मानने में सुविधा भी हो जाती है। जब भी अर्थी मरा? इसको कैसे मारोगे? इससे मौत हार गई। . तुमने देखी, किसी और की निकलते देखी है। और जब भी धैर्यवान को भी मरना, कापुरुष को भी। जब मरण ताबूत सजा, किसी और का सजा। चिता जली, किसी और की अवश्यंभावी है...।' महावीर का तर्क सीधा है: '...तो फिर जली है। तुम तो सदा देखनेवाले रहे। इसलिए लगता भी है कि धीरतापूर्वक मरना उचित है।' शायद कोई रास्ता निकल आएगा। मौत मेरी नहीं। मझे नहीं धीरतापर्वक मरने का क्या अर्थ होता है? धीरतापर्वक मरने घटती, औरों को घटती है। ये और सब मरणधर्मा हैं। मैं कुछ का अर्थ होता है, मृत्यु के भय लिए जरा भी अवसर न देना। अलग, अछूता, नियम के बाहर हूं। मृत्यु कंपाए न। धीरपुरुष ऐसा है, जैसे निष्कंप जल। झील महावीर कहते हैं मृत्यु अवश्यंभावी है; निरपवाद घटेगी। फिर | शांत। निष्कंप दीये की ज्योति। हवा के कोई झोंके नहीं आते। जो होना ही है, उससे बचने की आकांक्षा व्यर्थ है। फिर जो होना धीरपुरुष की वही परिभाषा है, जो गीता के स्थितप्रज्ञ की। ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 कृष्ण से अर्जुन ने पूछा है, किसको कहते हैं आप धीरपुरुष? असाधारण देश है। क्रांति के पहले रूस ने इतने बड़े साहित्यकार कौन है स्थितधी? स्थितधी का ठीक अर्थ धीरपुरुष है। कौन है| दिए, जितने दुनिया के किसी देश ने नहीं दिए। तालस्ताय, जिसको आप स्थितप्रज्ञ कहते हैं? कौन है जिसकी प्रज्ञा ठहर चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की, तुर्जनेव—ऐसे नाम कि जिनका गई? धी यानी प्रज्ञा। धी यानी आत्यंतिक बोध, अंतर्तम में कोई मुकाबला नहीं दुनिया में। एकबारगी जिन्होंने दुनिया को जलती हुई ज्योति। कौन है स्थितधी? उपन्यास चुने जाएं तो पांच रूसी होंगे और पांच गैर-रूसी। महावीर कहते हैं वही, जिसे मृत्यु विचलित नहीं करती। जिसे | सारी दुनिया आधी-आधी बांट दी। अपनी मृत्यु विचलित नहीं करती, उसे फिर किसी की मृत्यु फिर अचानक क्रांति हुई और सब मर गया। हुआ क्या? विचलित नहीं करती। | बंदूक लग गई पीछे, कविता मर गई। जो सहज और स्वतंत्र न वही तो कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं कि ये जो तेरे सामने खड़े रहा, वह जीवंत नहीं रह जाता। तो कविता लिखी जाती है, हैं, तू यह मत सोच कि तेरे मारने से मारे जाएंगे। 'न हन्यते खेत-खलिहान की प्रशंसा में, फैक्ट्री इत्यादि की प्रशंसा में, हन्यमाने शरीरे।' कोई मरता नहीं। लोग भय के कारण मरते लेकिन उसमें कुछ प्राण नहीं है। जबर्दस्ती लिखी जाती है, हैं। कोई मारता नहीं। सरकारी आज्ञा से लिखी जाती है। उपन्यास भी लिखे जाते हैं। तो मत्य असली मत्य नहीं है। क्योंकि मत्य को जिसने स्वीकार | सब चलता है। किताब भी छपती हैं. किताब बिकती भी हैं किया वह तो अमृत के दर्शन को उपलब्ध होता है। मृत्यु तभी | लेकिन कुछ मूल स्वर खो गया। जबर्दस्ती हो गई। मृत्यु मालूम होती है जब हमारा अस्वीकार होता है। भूखे कवियों ने, सर्दी में ठिठुरते कवियों ने बेहतर कविता तुमने कभी खयाल किया? वही काम तुम अपनी मौज से करो लिखी थी। रूस में आज कवि जितना संपन्न है उतना दुनिया के और वही काम किसी की आज्ञा के कारण जबर्दस्ती करो। तुम किसी कोने में नहीं। अच्छे से अच्छा मकान उसके पास है, कवि हो. और एक सिपाही तम्हारी पीठ पर बंदक लगाए खड़ा | अच्छे से अच्छी कार उसके पास है, भोजन की व्यवस्था, अच्छी | हो, कहता हो करो कविता। तुम अचानक पाओगे, कविता सूख से अच्छी कपड़ों की व्यवस्था, उसके बच्चों का जीवन सुरक्षित। गई। तुम अचानक पाओगे, रसधार बहती नहीं। तुम अचानक दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, पाओगे, शब्द जुड़ते नहीं। तुम अचानक पाओगे, गीत उठता उपन्यासकार, साहित्यकार कभी इतने सम्मानित और प्रतिष्ठित नहीं। न केवल यही, तुम्हारे भीतर क्रोध उठेगा, बगावत उठेगी। न थे। और न कभी इतने सुविधा-संपन्न थे, जितने रूस में हैं। अगर हिम्मतवर हुए तो लड़ने लग जाओगे। अगर लेकिन कविता मर गई। गरीबी में न मरी, भूख में न मरी, गैर-हिम्मतवर हुए तो झुककर तुकबंदी करने लगोगे। कविता | दीनता-दुर्बलता में न मरी, रोग, मृत्यु में न मरी, लेकिन सुविधा पैदा नहीं होगी। किसी तरह शब्द जमा दोगे उधार, मुर्दा, जिनमें में मर गई। पीछे बंदूक लगी है। जबर्दस्ती में मर गई। न कोई लय होगी, न कोई प्राण होगा, न कोई आत्मा होगी। जीवन का कुछ सूत्र है कि जो तुम स्वभाव, सौभाग्य, सहजता तुमने कविता पहले भी की है लेकिन तब तुमने अपनी मौज से से करते हो, उसका आनंद अलग। जो तुम जबर्दस्ती करते हो, की थी। दिनभर के थके-मांदे घर आए थे। शरीर की जरूरत थी जबर्दस्ती के कारण ही सब गलत हो जाता है। कि सो जाते, लेकिन आधी रात जगते रहे। टिमटिमाते दीये की। जो लोग स्वीकारपूर्वक मरे हैं, उनसे पूछो; महर्षिजनों से थी। उमंग और थी, उल्लास और था। है, डाकिया है। रूस में कविता मर गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद रूस में कोई नहीं, मृत्यु भैंसों पर सवार होकर नहीं आती। मृत्यु परियों की ढंग की कविता नहीं हुई; न एक ढंग का उपन्यास लिखा गया, न तरह सुंदर है। पक्षियों की तरह उड़कर आती। तुम्हें आलिंगन में ढंग की एक पेंटिंग बनी। सारा साहित्य मर गया। और रूस | ले लेती। तुम्हें गहनतम विश्राम और विराम देती। तुम्हें समाधि 552] 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण है का सुख देती। लेकिन उसकी तैयारी करनी पड़े। उसे अर्जित दूसरा किनारा है। करनी पड़े। सफलता हो तो बहुत हंसो मत। सफलता में तो रो लो तो फिर मरना अवश्यंभावी है तो धीरतापूर्वक मरना उचित। धीर चलेगा। विफलता में हंसना है। जब जीत आ रही हो, हंसने की बनो। इसे रोज-रोज साधो। धीरता को रोज-रोज साधो। जरूरत नहीं। क्योंकि जीत के साथ हंसने से किसी को कोई लाभ छोटी-छोटी चीजें अधीर कर जाती हैं। एक प्याली गिरकर टूट | | कभी नहीं हुआ। तब रो लो तो चलेगा। जब फूलमालाएं गले में जाती है और तुम अधीर हो जाते हो। तो थोड़ा सोचो तो, जब तुम डाली जा रही हों तो सिर नीचे झुका लो तो चलेगा। तब उदास हो टूटोगे तो कैसे न अधीर होओगे! एक छोटी-मोटी दुकान चलाते | जाओ तो चलेगा। थे, डूब जाती है, तो अधीर हो जाते हो। तो जब तुम्हारे जीवन का मुझे आज साहिल पर रोने भी दो पूरा व्यवसाय छीन लिया जाएगा, जीवन का पूरा व्यापार बंद | कि तूफान में मुस्कुराना भी है! होगा, पटाक्षेप होगा, पर्दा गिरेगा तो तुम कैसे बेचैन न हो किनारे पर रो लो तो चलेगा क्योंकि तूफान में हंसने की तैयारी जाओगे! दिवाला निकल गया, एक मित्र नाराज हो गया, और करनी है। जो तूफान में हंसा वही हंसा। साहिल पर तो कोई भी तुम अधीर हो जाते हो। किसी ने गाली दे दी, अपमान कर दिया हंस लेता है। किनारे पर हंसने में क्या लगता है? हलदी लगे न और तुम अधीर हो जाते हो। फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ लगता ही नहीं किनारे पर कर तुम मृत्यु का सामना कर सकोगे? इसे तो। किनारे पर तो मुढ़ भी हंस लेते हैं, कायर भी हंस लेते हैं। साधो। ये सब अवसर हैं धीरज को साधने के, धैर्य को निर्मित तूफान में हंसने की तैयारी करनी है। करने के। जीवन एक गहन प्रयोगशाला है। और प्रतिपल मुझे आज साहिल पर रोने भी दो परमात्मा अनंत अवसर देता। कि तूफान में मुस्कुराना भी है! कभी किसी के द्वारा गाली दिलवा देता। कभी किसी के द्वारा सफलता में ऐसे खड़े रह जाओ, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। तभी अपमान करवा देता। वह कहता है, साधो। धैर्य साधो। तुम विफलता में ऐसे खड़े रह सकोगे कि जैसे कुछ भी नहीं स्थितधी बनो। धीरज जगाओ। धीरता पैदा करो। यह आदमी हुआ। जो गाली दे रहा है, यह तुम्हारा हिताकांक्षी है। इसे पता हो न हो, ___ इसको कृष्ण ने कहा है, 'समत्वं योग उच्चते।' दुख में, सुख यह तुम्हारा कल्याणमित्र है। | में सम हो जाओ, यही योग है। यही धीरता है। कबीर ने तो कहा है, 'निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी बहुत कुछ और भी है इस जहां में छवाय।' घर के पास ही बसा लो उनको। आंगन कुटी छवा यह दुनिया महज गम ही गम नहीं है दो। अतिथि की तरह उनकी सेवा करो, पैर दबाओ। पर निंदक लेकिन वह जो बहुत कुछ है, उसे जानने की कला चाहिए। को दूर मत जाने दो, पास ही रखो। क्योंकि वह बार-बार तुम्हें साधारणतः तो आदमी को लगता है, दुख ही दुख है। क्योंकि हम धैर्य को जगाने का अवसर देगा। केवल दुख को चुनने में कुशल हैं। हम कांटे बीनने में बड़े सोचो थोड़ा इस पर। जो भी घटता है उसका सृजनात्मक निष्णात हो गए हैं। फूल हमें दिखाई ही नहीं पड़ते। फूल उसी उपयोग कर लो। दिवाला निकल जाए तो सृजनात्मक उपयोग को दिखाई पड़ते हैं, जो कांटों में भी फूल देखने के लिए तैयार हो कर लो। यह मौका है। इस वक्त अपने को कस लो। सफलता | जाता है। में तो सभी धैर्यवान मालम पडते हैं। वह तो धोखा है। फलों को कांटों में खोज लेना है। दख में सख की तरंग को असफलता जब घेर ले, तभी परीक्षा है। | पकड़ना है। अशांति में शांति की तरंग को पकड़ना है। और ऐसी छोटी-छोटी असफलताओं में साधते-साधते, विफलता में सफलता का स्वर खोजना है। छोटी-छोटी लहरों से लड़ते-लड़ते तुम बड़े सागर में उतरने के ऐसी खोज जारी रहे पूरे जीवन, तो तुम मृत्यु में महाजीवन खोज योग्य हो जाओगे। किनारे से दूर बड़े तूफान हैं। तूफानों के पार पाओगे। इन छोटी-छोटी तरंगों से जूझते-जूझते तुम मृत्यु की 553 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 महातरंग से जूझने के योग्य हो जाओगे। फिर तुम्हें वह तरंग तैयार रहोगे, अन्यथा विचलित हो जाओगे। मिटा न पाएगी। जिसने धीर की अवस्था पा ली, उसे फिर कुछ अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि मृत्यु के क्षण में सम्हाल भी नहीं मिटा पाता है। लेंगे-अभी क्या जल्दी है ? अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि ले इसे महावीर एक बड़ा अनूठा शब्द देते हैं। वह उन्हीं ने दिया लेंगे राम का नाम मरते क्षण में। मगर तुम ले न पाओगे। अगर है। इसे वे कहते हैं : पंडितमरण। यह बड़ा प्यारा शब्द है। तुम्हारे पूरे जीवन पर राम का नाम नहीं लिखा है, तो मृत्यु के क्षण ‘एक पंडितमरण-ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक मरण-सैकड़ों में भी तम ले न पाओगे। अगर पूरे जीवन काम-काम-काम जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे चलता रहा तो मरते वक्त राम नहीं चल सकेगा। क्योंकि मरते मरण सुमरण हो जाए।' | वक्त तो सारे जीवन का जो सार-निचोड़ है वही गूंजेगा। अगर हम तो जीवन तक को व्यर्थ कर लेते हैं। महावीर कहते हैं. जिंदगीभर धन ही धन गिनते रहे तो मरते वक्त तम रुपये गिनते मृत्यु को भी सार्थक किया जा सकता है। इस तरह मरो कि मृत्यु ही मरोगे। मन में गिनते मरोगे। सोचते मरोगे कि क्या होगा, भी, मरण भी सुमरण हो जाए। पंडितमरण इसे उन्होंने नाम दिया इतनी संपत्ति इकट्ठी कर ली है। अब क्या होगा, क्या नहीं होगा। महावीर ने जितना चिंतन मृत्यु पर किया है उतना शायद किसी एक आदमी मर रहा था। उसने अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा मनीषी ने नहीं किया। इसलिए महावीर ने कुछ बातें कहीं हैं, जो बड़ा बेटा कहां है? उसने कहा कि आप घबड़ाएं मत, वह किसी ने भी नहीं कहीं। उन्हें हम धीरे-धीरे समझें, समझ आपके पैर के पास बैठा है। उसने कहा, और मंझला? कहा, पाएंगे। पहली बात, उन्होंने मृत्यु में एक भेद कियाः वह भी पास बैठा है, आप विश्राम करें। और उसने कहा, सबसे पंडितमरण। मरते तो सभी हैं। प्रज्ञापूर्वक मरना। पंडित शब्द छोटा? उसने कहा कि वह तो आपके दायें हाथ पर बैठा हुआ बनता है प्रज्ञा से-जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हुई। जो देखता है; है। वह आदमी हाथ के घुटने टेककर उठने लगा। पत्नी ने कहा, होशपूर्वक है। ऐसे ही सोए-सोए नहीं मर जाता, जागा-जागा आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं उठकर? उसने कहा, मरता है। जो मृत्यु का स्वागत नींद में नहीं करता, होश के दीये कहीं जा नहीं रहा हूं। मैं यह पूछता हूं कि फिर दुकान कौन चला जलाकर करता है। रहा है? तीनों यहीं इक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। अब यह आदमी मर रहा है। गिर पड़ा और मर गया लेकिन तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।। दुकान चलाता रहा। जा रहा है लेकिन चिंता दकान की बनी है। ‘ऐसे मरो कि मृत्यु सुमरण बन जाए। ऐसे मरो कि तुम्हारी जल्दी लौट आएगा। फिर दुकान पर बैठ जाएगा। फिर बेटे होंगे मृत्यु पंडितमरण बन जाए।' | बड़े, मंझले, छोटे। फिर दुकान चलेगी, फिर मरेगा। फिर समझें हम। सीखना होगा जीवन की यात्रा में ही। क्योंकि घुटने, कोहनियां टेककर पूछेगा, दुकान कौन चला रहा है। मृत्यु तो एक बार आती है, इसलिए रिहर्सल का मौका नहीं है। ऐसे घूमता रहता चाक जीवन का। हम पुनरुक्त करते रहते तुम ऐसा नहीं कर सकते कि चलो, मरने का थोड़ा अभ्यास कर वही-वही। लेकिन एक बात याद रखना, यह धोखा कभी कोई लें। क्योंकि मृत्यु तो दुबारा नहीं आती, एक ही बार आती है। नहीं दे पाया। यद्यपि ऐसी कथाएं लिखी हैं। अजामिल की कथा तो जीवन में अभ्यास करना होगा मृत्यु का; और कोई उपाय है, कि मरते वक्त-सदा का पापी-बुलाया, 'नारायण, नहीं है। मृत्यु तो जब आएगी तो बस आ जाएगी। पहले से नारायण!' नारायण उसके बेटे का नाम था। पापी अक्सर ऐसे खबर करके भी नहीं आती। कोई पूर्वसूचना नहीं देती। मृत्यु | नाम रख लेते हैं। छिपाने के लिए नाम बड़े काम देते हैं। और ने की तिथि नहीं बताती, इसलिए अतिथि। खबर कहते हैं, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और जब | नहीं देती कि अब आती हूं, तब आती हूं। बस आ जाती है। अजामिल मरा तो उन्होंने समझा कि मेरा नाम बुलाया था। तो अचानक एक दिन द्वार पर खड़ी हो जाती है। फिर क्षणभर वह स्वर्ग में बैठा है। सोचने का भी अवसर नहीं देती। तो अगर तुम तैयार ही हो तो ही यह जिन्होंने भी कहानी गढ़ी है, धोखेबाज लोग रहे होंगे, 554 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण हे बेईमान रहे होंगे। अगर परमात्मा ऐसा धोखा खा जाता है तो फिर | जीवन के फूलों से—जो भी फूल रहे हों; सुगंध के कि दुर्गंध के, हद्द हो गई। तम भी न खाते धोखा जब वह 'नारायण, नारायण' उनका इत्र मरते क्षण में तम्हारे सामने होगा। बुला रहा था, तो किसी ने धोखा नहीं खाया। उसकी पत्नी ने तुमने यह बात सुनी होगी। लोग कहते हैं, मरते वक्त आदमी धोखा नहीं खाया, उसके लड़के ने धोखा नहीं खाया। और जब के सामने पूरे जीवन की तस्वीर आ जाती है। उसका मतलब वह नारायण को बला रहा था तो वे सभी जान रहे होंगे कि केवल इतना ही है कि परे जीवन का सार-निचोड, सारे अनभवों किसलिए बुला रहा है। कुछ न कुछ उपद्रव... / पुराना पापी का इत्र आदमी के हाथ होता है। वही इत्र लेकर आदमी चलता है, दूसरी यात्रा पर निकलता है। मैंने सुना है, एक पापी मर रहा था। उसने अपने सब बेटों को ! पंडितमरण का अर्थ है, व्यक्ति पूरे जीवन मरने के लिए तैयारी इकट्ठा कर लिया, और कहा कि मेरी आखिरी बात मानोगे? वे करता रहा। जो अवश्यंभावी है उसके लिए तैयार होता रहा। सब डरे। बड़े तो बहुत डरे क्योंकि वे जानते थे बाप को, कि वह | बुद्ध के पास जब कोई संन्यासी पहली दफा दीक्षित होते थे तो आखिरी बात में कहीं उलझा न जाए। जिंदगीभर उलझाया अब वे उन्हें कहते थे, तीन महीने मरघट पर रहो। वे थोड़े चौंकते कि आखिरी बात...और जाते-जाते कोई ऐसा दंदफंद न खड़ा कर किसलिए? मरघट पर क्या सार है? बुद्ध कहते, पहले मृत्यु जाए। मगर छोटा बेटा जरा नया-नया था और बाप को जानता को ठीक से देखो। बैठे रहो मरघट पर। आती रहेंगी लाशें, नहीं था तो वह पास आ गया और उसने कहा, आप कहें। उसने जलती रहेंगी चिताएं, हड्डियां टूटती रहेंगी, सिर फोड़े जाते रहेंगे, कान में कहा कि ये सब तो लुच्चे-लफंगे हैं। इन्होंने कभी मेरी राख हो जाएगी। लोग राख को बीनने आ जाएंगे। तुम यह सुनी नहीं और आज भी नहीं सुन रहे हैं। में मर रहा हूँ; बाप मर देखते रहो तीन महीने। बस बैठे रहो मरघट पर। / कसम खाते हो कि करोगे? उसने कहा, कसम | तीन महीने अगर तुम भी मरघट पर बैठोगे, और कछ देखने न खाता हूं। आप बोलिए तो। मिलेगा तो मृत्यु अवश्यंभावी है यह सत्य तुम्हारा अनुभूत सत्य उसने कहा, तो ऐसा करना; जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश को हो जाएगा। टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट और किसी न किसी दिन तीन महीनों में, जिस दिन ध्यान ठीक लिखा देना। उसने कहा, लेकिन किसलिए? उसने कहा कि से पकड़ लेगा और चित्त एकाग्र होगा, चिता जल रही होगी... मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, जब सब बंधे जाएंगे। मेरी आत्मा और रोज-रोज चिता जलते देखोगे तो किसी दिन तुम नहीं सोचते की प्रसन्नता के लिए इतना तो कर देना। फिर मैं तो मर ही गया, ऐसा नहीं होगा कि तुम देख लोगे, यह मैं ही जल रहा हूं! यह देह तो काटने में हर्जा क्या है? जिंदगीभर से यह एक आकांक्षा रही मेरी जैसी देह है। यह देह ठीक मेरी जैसी देह है और राख हुई जा है कि इन सबको बंधा हुआ देख लूं। अब मरते बाप की यह रही है। मैं राख हो रहा हूं, यह तुम नहीं देख पाओगे? आकांक्षा—इनकार मत करना। देख, तूने कसम भी खा ली। यह अगर प्रतीति सघन हो जाए कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो तो वह जो अजामिल बुला रहा था बेटे को कि 'नारायण, तम फिर तत्क्षण उसकी तैयारी में लग जाओगे। अभी तो हम नारायण', पता नहीं कौन-सा उपद्रव करवाने के लिए बुला रहा। जीवन की तैयार में लगे हैं—जीवन, जो कि जाएगा। उसकी हो। कोई धोखे में नहीं था, लेकिन कथाकार कहते हैं कि ऊपर तैयारी कर रहे हैं, जो कि छीना जाएगा। मृत्यु जो कि आएगी ही, का नारायण धोखे में आ गया। ये आदमी की बेईमानियां हैं। इस उसकी कोई तैयारी नहीं है। इधर हम तैयारी कर रहे हैं; मकान धोखे में मत पड़ना। तुम इस धोखे में मत जीना। बनाते, धन जोड़ते, पद-प्रतिष्ठा-सारा आयोजन करते हैं कि मृत्यु के क्षण में तुम वही कर पाओगे, जो तुमने जीवनभर किया जीना है। मरने का आयोजन कब करोगे? और यह जीना सदा है। उसी का सार-निचोड़। उसी की निष्पत्ति। जैसे हजार-हजार रहनेवाला नहीं है। इंतजाम लोग ऐसा करते हैं, जैसे सदा रहना गुलाब के फूलों से इत्र निकाल लिया जाता है। इत्र तो बूंदभर है। और एक दिन अचानक इंतजाम के बीच में मौत आ धमकती होता है; हजार-हजार फूलों से निचुड़ता है। ऐसे ही तुम्हारे पूरे है। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। और किसी भी घड़ी संदेश आ 1555 2010_03 www.jainelibrar.orgI
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 जाता है और बंजारे को अपना तंबू उखाड़ लेना पड़ता है। चल | कहते हैं, जो क्षणभंगुर है उसे भोग लो। कहीं क्षण बीत न जाए। पड़ना पड़ता है। | हम कहते हैं, इसके पहले मौत आए, जीवन को जी लो, निचोड़ 'पंडितमरण, ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता लो रस। कहीं ऐसा न हो, कि मौत आ जाए और तुम रस ही न है, अतः इस तरह मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाए।' | निचोड़ पाओ। अदभुत सदगुरु रहे होंगे महावीर। सिखाते हैं मरने की कला। चांदनी की डगर पर तुम साथ हो कहते हैं, ऐसे मरो कि मरण सुमरण हो जाए। प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो कैसे होगा मरण सुमरण? रोज-रोज मरो। प्रतिपल मरो।। कल हलाहल ही पिला देना मझे सुबह मरो, सांझ मरो। रात जब सोओ तो मर जाओ। जो दिन आज मधु की रात मधु की बात हो बीत गया उसके लिए मर जाओ। जो-जो बीतता जाता है उसके | हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है लिए मरते जाओ, उसको इकट्ठा मत करो। उसका बोझ मत नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है ढोओ। बोझ की तरह अतीत को मत खींचो। जो गया, गया। रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी उसे जाने दो। प्रतिपल नए हो जाओ! इधर मरे, उधर जन्म। | बस बगूले-सी भटकती धूल है इधर पुराने को छोड़ा, नए का आविर्भाव। रात है, मधु है, समर्पित गात है तो मौत तुम्हें ऐसी जगह नहीं पाएगी, जहां तुम्हारे पास कुछ | आज तो यह पाप भी अवदात है छीनने को हो। तुम्हारे पास कुछ होगा ही नहीं। किसी क्षण मौत | सघन श्यामल केश लहराते रहें आएगी तो तुम तो हर वक्त अतीत के लिए मरते जाते हो। अतीत | मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है। के संबंध, आसक्तियां, राग, धन, पद, प्रतिष्ठा...तुम तो मरते चांदनी की डगर पर तुम साथ हो जाते हो। सम्मान-अपमान, सफलता-विफलता...तुम तो मरते | प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो जाते हो। सुख-दुख, विषाद...तुम तो मरते जाते हो। -जो होना नहीं है उसकी हम आकांक्षा करते हैं। मृत्यु एक दिन आएगी, तुम कोरे कागज की तरह पाए / प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो! जाओगे। तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ न होगा। तम्हारे पास | -कोई रात, कोई नींद, कोई सपना युग-युग तक होने को बुलाने को कुछ न होगा, चीखने-चिल्लाने को कुछ न होगा। नहीं है। तुम जानोगे, कोई मेरा नहीं। तुम जानोगे, कुछ मेरा नहीं। तुम चांदनी की डगर पर तुम साथ हो खड़े हो जाओगे। तुम जूते पहनकर खड़े हो जाओगे। तुम मौत कौन किसके साथ है? चांदनी बड़ा झूठा सम्मोहन है। कौन के हाथ में हाथ डाल लोगे। तुम कहोगे, मैं तैयार हूं। मैं तो सदा किसके साथ है? लगते हैं कि लोग किसी के साथ हैं। राह पर | से तैयार था, इतनी देर क्यों लगाई ? इतनी देर कहां रही तू? | अनजान मिल गए यात्री हैं। पलभर को साथ हो गया। कबसे हम प्रतीक्षा करते। कबसे हम तैयार बैठे थे। नदी-नाव संयोग हैं। अभी नहीं थे साथ, अभी साथ हैं, अभी बस, ऐसे आदमी से मौत हार जाती है। इसको महावीर | फिर बिछड़ जाएंगे। सुमरण कहते हैं। कल हलाहल ही पिला देना मुझे जीवन को, जो कि क्षणभंगुर है, उसे शाश्वत मत समझो। जो -कल मौत आए, ठीक। कल जहर पिलाओ. ठीक। | जाएगा वह जा ही चुका है। जो मिटेगा वह मिट ही रहा है। जो | आज मधु की रात मधु की बात हो। छूटेगा, वह तुम्हारे हाथ से छूट ही रहा है। व्यर्थ अटके मत तो साधारणतः हम मृत्यु को टालते हैं कि कल होगी मृत्यु। रहो। व्यर्थ मुट्ठी मत बांधो, खोलो मट्ठी। आज तो जीवन है। आज क्यों मृत्यु की बात उठाएं? लेकिन हमारी तर्कदृष्टि और है। हम कहते हैं, जो छूटनेवाला ऐसे विचारक भी हैं जगत में जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही है उसे जोर से पकड़ लो कि कहीं और जल्दी न छूट जाए। हम उठानी रुग्णता है। उनकी दृष्टि में महावीर तो मार्बिड, रुग्ण 556 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण है MARATHI विचारक हैं। फ्रायड जैसे विचारक हैं। जो कहते हैं, मृत्यु की कल हलाहल ही पिला देना मुझे बात ही नहीं उठानी चाहिए। हालांकि फ्रायड खुद मृत्यु से बड़ा आज मधु की रात मधु की बात हो। भयभीत होता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि कभी फिर भी हम जानते हैं क्योंकि जो है, उसे हम कैसे झुठला अगर कोई मौत की ज्यादा बात करे तो दो दफे तो वह बेहोश हो सकते हैं? गया था। किसी ने मौत की चर्चा छेड़ दी और वह घबड़ाने हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है लगा। वह फेंट ही कर गया, गिर ही गया कुर्सी से। नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है उसका शिष्य जुंग अपने संस्मरणों में लिखता है कि फ्रायड के रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी साथ वह अमरीका जा रहा था जहाज पर। जुंग की बड़ी बहुत | बस बगले-सी भटकती धूल है। दिनों की रुचि थी, इजिप्त की ममी–ताबूतों में, मुर्दा लाशों में। जानते तो हैंउसको क्या पता कि यह फ्रायड इतना घबड़ा जाता है। सोच भी बस बगले-सी भटकती धल है नहीं सकता था। दोनों जहाज के डेक पर खड़े थे। कुछ बात चल रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी पड़ी, संस्मरण निकल आया, उसने इजिप्त की ममियों की बात | इस रिक्तता को, इस सूनेपन को भरने के लिए हम हजार उपाय की। उसने उनका वर्णन किया। वह तो वर्णन करता रहा, करते हैं जिंदगी में। एकदम फ्रायड कंपने लगा और वह तो चारों खाने चित्त हो गया। महावीर कहते हैं, इस सूनेपन को तुम भर न पाओगे। तुम ऐसे व्यक्तियों से यह सदी प्रभावित हुई है। ऐसे व्यक्तियों ने कितना ही ढांक लो, यह उघड़ेगा। यह उघड़कर रहेगा। इस सदी के मानस को रचा है। फ्रायड का मनोविज्ञान इस सदी मृत्यु अवश्यंभावी है। तुम्हें अपनी इस शुन्यता का साक्षात्कार की आधारभूत शिला बन गया है। और फ्रायड कहता है, जो करना ही होगा। तुम्हें अपने को मिटते हुए देखना ही होगा। मृत्यु की बात करते हैं, वे मार्बिड, वे रुग्णचित्त। इससे तुम बच न सकोगे। इससे कोई कभी बच नहीं पाया। तो मगर थोड़ा सोचो। अगर फ्रायड और महावीर में चुनना हो तो बजाय बचने के, भागने के, मृत्यु को हम शुभ घड़ी में क्यों न कौन रुग्णचित्त मालूम होगा? महावीर मृत्यु का इतना चिंतन बदल लें? और चर्चा और इतना ध्यान करने के बाद जैसे महाजीवित मालूम | रात है, मधु है, समर्पित गात है पड़ते हैं। इधर फ्रायड, कहता है मृत्यु का चिंतन रुग्ण है। लेकिन भीतर से हम जानते भी हैं, सब जा रहा, सब क्षणभंगुर। पानी लगता है यह रैशनलाइजेशन है। लगता है, वह इतना डरता है | का बबूला—अब फूटा, तब फूटा। मगर दोहराए जाते हैं ऊपर खुद, कि अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह इतना भयभीत है मृत्यु से सेकि जो मृत्यु की बात करते हैं, उनको वह रोकने की चेष्टा कर रहा रात है, मधु है, समर्पित गात है है कि यह बात ही रुग्ण है। यह बात ही मत उठाओ। आज तो यह पाप भी अवदात है महावीर में जीवन का फूल खिला है मृत्यु के मध्य में। नहीं, | सघन श्यामल केश लहराते रहें महावीर रुग्ण नहीं हैं। महावीर से स्वस्थ आदमी और खोजना मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है। मुश्किल होगा। हम कितनी-कितनी भांति भ्रम को पोसते हैं। कितनी-कितनी लेकिन हम साधारणतः महावीर की बजाय फ्रायड से राजी हैं। भांति भ्रम को उखड़ने नहीं देते। एक तरफ से उखड़ता है तो ठोंक हम कहें कुछ, चाहे हम जैन ही क्यों न हों, और जाकर मंदिर में | लेते हैं। दूसरी तरफ से उखड़ता है, वहां ठोंक लेते हैं। इधर महावीर की पूजा ही क्यों न कर आते हों, लेकिन अगर हम मन | पलस्तर गिरा, चूना उखड़ गया, पोत लेते हैं। टीमटाम करते में टटोलेंगे तो हम फ्रायड के साथ राजी हैं, महावीर के साथ रहते हैं। और यह टीमटाम करते-करते एक दिन बीत जाते; नहीं। अगर कोई मृत्यु की चर्चा छेड़ दे तो हम भी कहते हैं, कहां व्यतीत हो जाते हैं। की दुखभरी बातें उठा रहे हो! छोड़ो भी। इसके पहले कि ऐसी घड़ी आए, अपने को व्यर्थ 557 ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग:-2 समझा-समझाकर, पानी के बबूलों से मन को मत उलझाए उल्लेख भी नहीं है। लेकिन शाश्वत में इनने विजय की घोषणा रखना। क्षणभंगुर को क्षणभंगुर जानना शाश्वत को जानने की की है। विजय की दुंदुभी बजाई है अमृत में। पहली शर्त है। असार को असार की तरह पहचान लेना सार का अगर कहीं कोई शाश्वत का इतिहास है तो वहां तुम नादिर का, द्वार खोलना है। तैमूरलंग का और चंगीज का और हिटलर का और नेपोलियन जी उठे शायद शलभ इस आस में और सिकंदर का नाम न पाओगे। वहां तुम्हें महावीर का, बुद्ध रात भर रो-रो दीया जलता रहा का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का नाम थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मिलेगा। एक दूसरे ढंग की विजय है। वास्तविक विजय है। सो गई जब साधना होकर विफल 'असंभ्रांत, निर्भय सत्पुरुष एक पंडितमरण को प्राप्त होता है जब धरा ने भी न धीरज दिया और शीघ्र ही अनंत-मरण का-बार-बार के मरण का अंत व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया कर देता है।' आग तब पानी बनाने के लिए एक ही बार मर जाता है। पूरा-पूरा मर जाता है। कुछ रोकता रात भर रो-रो दीया जलता रहा नहीं, कुछ झिझकता नहीं। समग्ररूप से समर्पित हो जाता है मृत्यु लेकिन तुम चाहे रोओ, चाहे चीखो-चिल्लाओ; जो नहीं | को। तो पंडितमरण एक, फिर होनेवाले भविष्य के अनंत जन्म होता, नहीं होता। आग पानी नहीं बनती। और मृत्युओं से छुटकारा हो जाता है। आग तब पानी बनाने के लिए जागो! तुम्हारा तो जीवन भी अभी पंडित-जीवन नहीं है। रात भर रो-रो दीया जलता रहा यात्रा बड़ी है। मरण को भी पंडितमरण बनाना है। ऐसी झूठी रोते रहो, आग पानी नहीं बनती। और सब तुम पर हंसेंगे। बातों में बहुत मत उलझे रहो। अपने मन को समझाते मत रहो। जब धरा ने भी न धीरज दिया ये सांत्वनाएं, जो तुम दे रहे हो, बहुत काम न आएंगी। व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया खुद को बहलाना था आखिर, खुद को बहलाता रहा थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा. गाता रहा सो गई जब साधना होकर विफल भीतर तो आग है। हृदय तो जल रहा है। हृदय में तो कोई तुम जो भी कर रहे हो, वह विफल होना उसका निश्चित है। तृप्ति नहीं, मगर खुद को बहलाना था तो खुद को बहलाता रहा। लाख उपाय करो तो भी तुम हारोगे। यह जीवन ही हारने को है। मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा गाता रहा! इस जीवन का अर्थ ही विफलता है। यहां कोई जीत नहीं पाता। आग को भीतर छिपाए हो। मौत को भीतर छिपाए हो। ऊपर यहां विजय होती ही नहीं। जहां मृत्यु होनी है, वहां विजय से हंसते रहते, गाते रहते। कागज के फूल चिपकाए हो। कैसी? मत्य में ही अगर जीते तो जीत हो सकती है। यह धोखे की पट्टी टेगी। यह पर्दा उठेगा। इसके पहले कि इसलिए महावीर ने कहा है, जो मृत्यु को जीत लेता है वही जयी मौत उठाए, तुम ही उठा लो, तो शोभा है; तो सम्मान है, तो है, वही जिन है। जिन शब्द का अर्थ होता है, जीत लिया। तो दो गरिमा है।। तरह के विजेता हैं जगत में। एकः नेपोलियन, सिकंदर, | जो मौत करे वह तुम ही कर दो, इसी का नाम संन्यास है। जो तैमूरलंग, नादिरशाह—ये सब धोखे के विजेता हैं। मौत तो मौत करे वह तुम ही कर दो। जहां-जहां से मौत तुम्हें छीन लेगी, इनको बिलकुल भिखारी कर जाती है। वहां-वहां तुम ही कह दो कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है। मौत फिर और एक दूसरी तरह के विजेता हैं : महावीर, बुद्ध, कृष्ण, | पत्नी से छीन लेगी? तो जान लो मन में कि पत्नी कौन किसकी क्राइस्ट। जीवन में तो इनकी कोई विजय की कहानी नहीं है। है? मौत पति से छीन लेगी? तो जान लो मन में, जाग जाओ, इतिहास में तो इनके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं। समय के भीतर तो कौन किसका पति है? साथ हो लिए दो क्षण को। अजनबी हैं। इन्होंने कुछ जीता नहीं है, इसलिए इतिहास में इनका ठीक-ठीक एक-दूसरे की सेवा कर ली, बहुत। एक-दूसरे को दुख न दिया -558 2010_03
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________________ पंडितमरण सुमरण है तो काफी। सुख तो कौन किसको दे पाया? एक-दूसरे के लिए परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।' फूल, बिछाए... बिछे तो नहीं, चेष्टा की बहुत। एक-दूसरे के | यह महावीर की अनूठी बात है। सिर्फ महावीर ने कही है सारे रास्ते से थोड़े कांटे बीन लिए, पर्याप्त। इतना ही बहुत है। यह मनुष्य-जाति के इतिहास में। महावीर ने भर अपने संन्यासी को भी असंभव है। यह भी हो गया, चमत्कार है। स्वेच्छा-मरण की आज्ञा दी है। लेकिन कौन किसका है? अजनबी को अजनबी जानो। जो महावीर कहते हैं, जीवन तो साधन है; अपने आप में साध्य बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ, वह भी अजनबी है। एक अज्ञात नहीं है। तुमसे कोई पूछे, किसलिए जीते? तो तुम कहोगे, जीने आत्मा न मालूम कहां से, न मालूम किन लोकों से, न मालूम के लिए जीते हैं। तुमसे कोई पूछे कि सौ साल जीना चाहते हो? किन ग्रह-नक्षत्रों से, न मालूम किन पृथ्वियों से, न मालूम किन तुम कहोगे, जरूर जीना चाहते हैं। जीवन-पथों से होकर तुम्हारे द्वार आ गई है। अपना मानने की क्या करोगे? सौ साल नहीं, हजार साल भी जीकर करोगे भूल मत करो। क्या? होगा क्या? तुम कहोगे, होने का सवाल कहां है? बस धन है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। आसक्ति को थोड़ा शिथिल जीना ही बहुत है। हम लोगों को आशीर्वाद देते हैं, सौ साल करो। मुट्ठी खोलो। और ऐसा मत कहो कि जब मौत आएगी जीयो। कोई फिक्र ही नहीं करता कि सौ साल जीकर यह बेचारा तब निपट लेंगे। करेगा क्या? इसकी भी तो कुछ सोचो! तुमने तो आशीर्वाद दे तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता दिया। तुम तो मुफ्त में देकर मुक्त हो गए, अब यह फंस गया। तोड़ देने की नौबत तो आए यह लटका रहेगा किसी अस्पताल में। हाथ-पैर उल्टे-सीधे बंधे हम कयामत के खुद मुंतजिर हैं. होंगे। नाक में आक्सीजन जा रही होगी। शरीर में ग्लूकोज का पर किसी दिन कयामत तो आए इंजेक्शन लगा होगा। इसकी भी तो सोचो। तुमने तो दे दिया –आएगी मौत, तब निपट लेंगे। आशीर्वाद कि सौ साल जीयो। तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता सिर्फ जीना अपने आप में मूल्य थोड़े ही है! इसलिए महावीर तोड़ देने की नौबत तो आए ने इस बात को बड़ी हिम्मत से लिया। महावीर की बात आज लेकिन जब नौबत आएगी तो एक पल में घट जाती है। पल के नहीं कल दनिया में स्वीकार करनी पड़ेगी। छोटे-से खंड में घट जाती है। तुम्हें अवसर न मिलेगा। तुम | पश्चिम में बड़े जोर से इस पर आंदोलन चला है। हालांकि जाग भी न पाओगे और मौत तम्हें उठा ले जाएगी। उनको किसी को महावीर का पता नहीं क्योंकि महावीर पश्चिम नहीं, इस तरह टालो मत, स्थगित मत करो। मौत आ रही है, के लिए बिलकुल अपरिचित हैं। पश्चिम में इसका बड़ा चिंतन आ ही गई है। नौबत आ ही गई है। नौबत आती ही रही है। चल रहा है क्योंकि पश्चिम अब, सौ साल के करीब जीने की कयामत कल नहीं है, कयामत आज है, अभी है, यहीं है। तुम्हें | सुविधा उसको उपलब्ध हो गई है। यहां तो हम आशीर्वाद ही देते जो करना हो, अभी कर लो।। रहे। आशीर्वाद से ही कोई जीता है? लेकिन पश्चिम के विज्ञान चीजों को सीधा-सीधा देखो। आंखों में भ्रम मत पालो। तो | ने आशीर्वाद को पूरा कर दिया। जीवन भी पंडित का जीवन हो जाता है और मृत्यु भी पंडित की | अब लोग जी रहे हैं। सौ साल के पार पहुंच गए हैं कुछ लोग। मृत्यु हो जाती है। | अब वे बड़ी मुश्किल में हैं। वे कहते हैं, हमें मरने का हक 'साधक पग-पग पर दोषों की आशंका, संभावनाओं को चाहिए। पश्चिम में बूढ़ों की जमातें हैं, जो आंदोलन चला रही ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाप समझे हैं। जो कह रही हैं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हमें मरना उससे सावधान रहे। नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित चाहिए। हमें तुम बचा नहीं सकते। हमको मरने का मौका दो। रखे।' मगर अब तक इसकी कोई दुनिया के किसी कानून में व्यवस्था 'जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो नहीं है। आत्महत्या बड़ा अपराध है। बड़े मजे की बात है। 559 ___JainEducation International 2010_03 www.jainelibrary org
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________________ MAHESE जिन सत्र भागः2 अगर आत्महत्या करते हुए पकड़ लिए जाओ, तो सरकार तुमको का हो गया और मरना चाहता है...क्योंकि करोगे क्या? रोज मार डाले। यह भी कोई बात हुई ? तुम खुद ही मर रहे थे। अब उठना वही, रोज सोना वही, रोज खा-पी लेना वही। फिर सब तुमको और मारने की क्या जरूरत है ? तुम तो खुद ही अपराध | अपने संबंधी जा चुके, मित्र-प्रियजन जा चुके और एक आदमी भी कर रहे थे, दंड भी दे रहे थे। निपटारा हुआ जा रहा था। जिंदा है। उसकी सारी दुनिया जा चुकी। वह सौ साल पहले पैदा लेकिन अगर पकड़ लिए गए-मर गए तो ठीक, अगर अपराध हुआ था, वह दुनिया जा चुकी। सब बदल गया। वह बिलकुल कर गजरे तो फिर कोई दंड नहीं है लेकिन अगर करते हए। अजनबी है। जैसे किसी और लोक में जबर्दस्ती उसको लाकर पकड़ लिए गए और अपराध पूरा न हो पाया तो दंड है। खड़ा कर दिया। बच्चों से कोई तालमेल नहीं रहा। बच्चे यह अब तक तो ठीक था। हमारे नियम और कानून भी कारण | बिलकुल दूसरी दुनिया में जी रहे हैं। वह करे भी क्या जीकर? से होते हैं। जीवन बड़ा मुश्किल रहा है, बड़ा असंभव रहा है। सार भी क्या है? कष्ट होता है, शरीर दुखता है, अर्थराइटिस है, | सत्तर साल, अस्सी साल जीना बड़ा मुश्किल रहा है। जितनी हजार बीमारियां हैं। करे क्या जीकर? / खोजें हुई हैं दुनिया में जमीन के नीचे पड़ी हुई मनुष्य की हड्डियों और जी रहा है क्योंकि मेडिकल साइंस ने जीने की सुविधा की, तो ऐसा लगता है पांच हजार साल पहले चालीस वर्ष जुटा दी है। जी सकता है। अब हम आदमी को खींच सकते हैं, आखिरी उम्र थी। क्योंकि पांच हजार वर्ष पहले की कोई भी हड्डी | दो सौ साल तक भी। उसको मरने ही न दें। उसको अस्पताल में नहीं मिली है, जो चालीस वर्ष से ज्यादा पुराने आदमी की हो। रखकर हम जिंदा रख सकते हैं। अब अस्पताल में डाक्टरों की और पीछे जाने पर, कोई सत्तर और पचहत्तर हजार साल पुरानी भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर वे आक्सीजन बंद करें तो जो पेकिंग में हड्डियां मिली हैं, वे तो बताती हैं कि आदमी उसका मतलब है, उन्होंने इसको मारा। पुराने नियम से वे हत्यारे मुश्किल से पच्चीस साल जीता था। तो जीवन बड़ा मुश्किल | हैं। उनका पुराना शास्त्र कहता है, किसी को मारना नहीं, बचाने रहा है। और पच्चीस साल भी, एक घर में अगर एक दर्जन बेटे की कोशिश करना। अगर वे इसको ग्लूकोज न दें तो यह मर पैदा हों तो दो बच जाएं, बहुत। क्योंकि दस बच्चों में नौ बच्चे जाएगा। लेकिन तब मारने का जुम्मा उनके ऊपर पड़ेगा। अभी मर जाते थे। कानून इसका मौका नहीं दे रहा है, लेकिन कानून को यह मौका तो जीवन की बड़ी मुश्किल थी। जीवन बड़ा न्यून था। देना पड़ेगा। मुश्किल से मिलता था। जीवन का बड़ा अवसर था। सभी को महावीर की बात समझ में आने जैसी है। महावीर कहते हैं, नहीं मिल जाता था। तो सौ साल जीने का हम आशीर्वाद देते थे, जब कोई आदमी ऐसी जगह आ जाए, जहां शरीर से अब कुछ वह ठीक है। अब जीवन बड़ा सुगम है। कम से कम पश्चिम में भी ध्यान में गति न होती हो, समाधि की तरफ यात्रा न होती हो; तो सुगम हो गया है। लोग सौ साल तक पहुंच रहे हैं। ध्यान से, धर्म से, समाधि से परमात्मा का अब कोई अनुभव में सत्तर-अस्सी साल औसत उम्र हो गई है। अस्सी साल का होना | विकास न होता हो, कोई लाभ न होता हो....यह महावीर का कोई बहुत बूढ़ा होना नहीं है। लाभ ठीक से समझना। यह जैनियों का लाभ नहीं है कि अब इसलिए हम चौंकते हैं, यहां जब अखबार में कभी खबर आती कोई धन कमाने की सुविधा न रही, कि रिटायरमेंट हो गया, अब है कि नब्बे साल के बूढ़े ने विवाह कर लिया तो हम बहुत चौंकते जीकर क्या करें? हैं। यह भी क्या पागलपन है? नब्बे साल का बूढ़ा, और महावीर जब कहते हैं, नए-नए लाभ के लिए जीवन को विवाह? लेकिन पश्चिम में शरीर की उम्र लंबा रही है। नब्बे सुरक्षित रखे, तो वे यह कहते हैं, रोज-रोज परमात्मा का साल का बूढ़ा भी विवाह करने की हालत में है। अधिकतम अंश अनुभव में आने लगे तो तो जीवन का कोई सार तो एक नया सवाल उठना शुरू हुआ है कि आदमी को मरने है। लेकिन कभी अगर ऐसा हो जाए कि जब जीवन तथा देह से का हक होना चाहिए। यह जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए। लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे। सभी विधानों में। क्योंकि एक आदमी अगर एक सौ दस साल यह शर्त सोचने जैसी है : 'परिज्ञानपूर्वक।' महावीर कहते हैं, 5601 ___Jan Education International 2010_03 :
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________________ - पंडितमरण र पंडितमरण सुमरण है आत्महत्या का भी अधिकार है, लेकिन परिज्ञानपूर्वक। उस शब्द खुल रहे हैं, नए फूल नहीं खिल रहे, सब असार हो गया, हम में सब कुछ छिपा है। परिज्ञानपूर्वक का अर्थ होता है, जहर किसी पर बोझ होकर बैठ गए हैं तो विदा हो जाना चाहिए। खाकर मत मरना, पहाड़ से कूदकर मत मरना क्योंकि वह तो जीवन से जब तक सार निचड़ता हो....और सार का अर्थ है क्षण में हो जाता है, भावावेश में हो जाता है। छुरा मारकर मत आत्मा। सार का अर्थ यह नहीं कि तुम तिजोड़ी भरते जा रहे हो, मरना, गोली चलाकर मत मरना। लाभ होता जा रहा है। सार से महावीर का अर्थ है, भीतर की परिज्ञानपूर्वक का अर्थ है उपवास कर लेना। पानी, भोजन बंद संपदा अभी उपलब्ध हो रही है तो जीवन अभी योग्य है। अभी कर देना। नब्बे दिन लगेंगे, अगर आदमी स्वस्थ हो तो मरने में। इस नाव का उपयोग करना है। तीन महीने तक...तीन महीने तक सतत एक ध्यान बना रहे कि लेकिन कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम नाव पर गए यात्रा मैं मरने को तैयार हूं-परिज्ञान हुआ। तीन महीने में हजार करने, और एक ऐसी घड़ी आयी कि नाव में छेद हो गए और नाव दफा...तीन महीने बहुत दूर हैं, तीन मिनट में तुम्हारा मन हजार डूबने लगी, तो महावीर कहते हैं, छलांग लगाकर फिर तैर दफा बदलेगा कि मरना कि नहीं मरना? अरे छोड़ो भी! कहां के जाना। फिर नाव में ही मत बैठे रहना। फिर यह मत सोचना कि पागलपन में पड़े हो? रात सोए, उठकर बैठ गए, जल्दी पहुंच नाव को कैसे छोड़ दें? फिर छोड़ देना नाव को क्योंकि असली गए फ्रिज के पास और भोजन कर लिया कि यह तो नहीं चलेगा। सवाल दूसरा किनारा है। अगर नाव दूसरे किनारे की तरफ अभी क्या सार है मरने में? पता नहीं आगे कुछ है या नहीं है। भी ले जाने में समर्थ हो तो चलते जाना। अगर नाव असमर्थ हो और तीन महीने अगर तुम उपवास किए हुए, जल-अन्न त्यागे गई हो, देह कमजोर हो गई हो, जराजीर्ण हो गई हो तो छलांग हुए और एक ही भाव में बने रहो, तो यह धीर की अवस्था हो लगा देना। तैरकर पार हो जाना। नाव से ही थोड़े ही दरिया पार गई। यह हकदार है मरने का। इसको कोई अड़चन नहीं। इसने | होता है, तैरकर भी होता है, नाव के बिना भी होता है। अर्जित कर लिया। इसको महावीर कहते हैं परिज्ञानपूर्वक तो इतना स्मरण रहे। और नियम के संबंध में यह खतरा है कि मरना। लेकिन वे जानते हैं कि कुछ लोग अजीब हैं। वे हर जगह नियम का लोग अक्सर गलत अर्थ ले लेते हैं। से अपने लिए धोखा निकाल लेते हैं। __ मैंने सुना है, एक डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन को सलाह दी कि इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, 'किंतु जिसके सामने अपने वह प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ा करे तो उसका स्वास्थ्य सुधर संयम, तप आदि साधना का कोई भय या किसी तरह की क्षति | जाएगा। और फिर घरेलू जीवन में भी सुख-शांति संभव होगी। की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना हफ्ते भर बाद मुल्ला ने डाक्टर को फोन किया और बताया कि उचित नहीं है।' वह उनके परामर्श पर ठीक-ठीक चल रहा है। डाक्टर ने पूछा, अगर अभी त्याग, तप और ध्यान बढ़ रहा है और तुम्हारे शरीर और घरेलू जीवन कैसा बीत रहा है? मुल्ला ने कहा पता नहीं। की कमजोरी के कारण, बुढ़ापे के कारण, दोबल्य के कारण क्योंकि में तो अब घर से पैतीस किलोमीटर दूर पहुंच गया हूँ। तुम्हारे तप-ध्यान में कोई बाधा नहीं पड़ रही है, कोई आशंका नियम को समझकर चलना जरूरी है। और नियम से नासमझी नहीं है, तुम्हारा संयम आगे जा रहा है तो उसके लिए भोजन का | पैदा कर लेना बहुत आसान है, क्योंकि नासमझ हम हैं। हममें परित्याग करना उचित नहीं है। नियम जाते से ही तिरछा हो जाता है। और ऐसी भी संभावना है 'यदि वह फिर भी भोजन का त्याग कर मरना चाहता है तो | कि हम नियम का पालन भी कर लें और जो हम कर रहे थे उसमें कहना होगा, वह मुनित्व से विरक्त हो गया।' कोई फर्क न पड़े। वह च्युत हो गया। क्योंकि उसमें एक नई आकांक्षा पैदा हो गई। ऐसा भी हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके डाक्टर ने एक मरने की। मरना आकांक्षा से नहीं होना चाहिए। अब कुछ लाभ बार कहा कि अब यह शराब पीने की आदत सीमा के बाहर जा नहीं रहा और हम किसी के ऊपर बोझ हो गए हैं तो क्या सार | रही है। इसमें कुछ सुधार करना जरूरी है। तो तुम ऐसा करो कि है? अब कोई गति नहीं हो रही है, जीवन में कुछ नए साध्य नहीं योगासन शुरू करो। तो उसने डाक्टर की सलाह मानकर 561 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 FESTI R योगासनों का अभ्यास आरंभ कर दिया और सालभर में वह योग लेकिन यदि अभी जीवन में कुछ भी संभावना शक्ति की थी, में दक्ष हो गया। घंटों शीर्षासन में खड़ा रहता। एक दिन मुल्ला अगर जीवन में अभी एक बूंद भी रस बचा था तो उस रस को भी की पत्नी से डाक्टर ने पूछा, योग के कारण नसरुद्दीन में कोई ध्यान में परिवर्तित करना है। उस रस को भी परमात्मा की खोज परिवर्तन आया? पत्नी ने कहा, हां एक दृष्टि से तो काफी में लगाना है। परिवर्तन आया है। अब वे सिर के बल खड़े होकर भी मजे में तो जल्दबाजी न करे। क्योंकि बहुत लोग भगोड़े हैं। अगर पूरी बोतल पी सकते हैं। उन्हें मरने का मौका मिल जाए तो वे कोई छोटे-से कारण से ही होगा! क्योंकि हम जैसे हैं, जैसे ही कोई नियम हमें मिला, हम | मर जाएंगे। कोई छोटी-मोटी बात, और वे मर जाएंगे। अहंकार उसे अपना रंगरूप दे देते हैं। वह नियम हमारे जैसा हो जाता है। को लगी कोई छोटी-मोटी चोट और वे मर बजाय इसके कि नियम हमें बदले, हम नियम को बदल लेते हैं। कल मैं पढ़ता था कि एक सर्कस के शेरों को सिखानेवाले रिंग इसलिए तो दुनिया में इतने वकील हैं। उनका कुल काम इतना मास्टर ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि एक शेर ने उसकी आज्ञा न है कि कानून जब बने तो वे अपराध के हिसाब से कानून को मानी। अब शेर...! आदमी भी होता तो भी ठीक था! उसने बदलने की चेष्टा करें। वे अपराध के रंग में कानून को रंगें। तो आज्ञा न मानी इससे उनका बड़ा भारी, आत्मसम्मान की हानि हो जितने कानून बढ़ते जाते हैं उतने वकील बढ़ते जाते हैं। क्योंकि गई। उन्होंने आत्महत्या कर ली। भद्द हो गई होगी क्योंकि अपराधी अपराध छोड़ने को राजी नहीं है। वह कहता है, कानून | सर्कस का मामला! वे चिल्लाते रहे होंगे, आवाज देते रहे होंगे। से तरकीब निकालो। वह कानून का ही उपयोग अपराध करने के शेर तो शेर! वह बैठा रहा होगा कि अच्छा चलो, देते रहो लिए कर लेता है। आवाज। / तुम्हारे भीतर भी है जिसको तुम बुद्धि मगर यह अहंकार को लगी चोट कोई आत्महत्या करने लायक कहो, तर्क कहो, मन कहो। तो नियम को समझना और मन की नहीं थी। हंसकार टाल जाना था। आदमी बड़ी छोटी-छोटी चालबाजी से सावधान रहना। बातों पर मरने को तैयार हो जाता है, यह खयाल रखना। तुमने महावीर कहते हैं, 'साधक को पग-पग पर दोषों की आशंका | भी कई दफे सोचा होगा कि मर ही जाओ। परीक्षा में फेल हो गए (संभावना) को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।' कि इंटरव्यू में न आए, मर ही जाओ। चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पास इह मन्नमाणो। __ मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने छोटे-छोटे दोष को भी समझपूर्वक देखना चाहिए। ऐसा न जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या का विचार न किया कहे कि छोटा-सा दोष है, क्या हर्ज है, चल जाएगा। क्योंकि हो। छोटी-छोटी बात-पति से झगड़ा हो गया कि बस पत्नी छोटा बड़ा हो जाता है। छोटा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। छोटा सोचने लगती है, कि क्या करें? केरोसिन डाल लें, कि गैस के कांटा आखिर में नासूर बन जाता है। चूल्हे में आग लगा लें, कि बिल्डिंग से कूद पड़ें, कि ट्रेन के नीचे छोटे दोष को छोटा न समझे। सावधान रहे। सो जाएं? जरा-जरा सी बात! लाभंतरे जीविय वूहइत्ता... मैं एक घर में रहता था। और मेरे पड़ोस में ठीक दीवाल से और जीवन का एक ही अर्थ है कि इससे महाजीवन का लाभ लगे हुए एक बंगाली प्रोफेसर रहते थे। अभी नया-नया मैं आया होता रहे। था और दीवाल बड़ी पतली थी, जैसी आजकल के मकानों की पच्चा परिण्णाय मलावंधसी... होती है। तो उनकी सब बातें मुझे सुनाई पड़ती थीं-न सुनना और अगर वह लाभ बंद हो जाए तो मौत को स्वेच्छा से चाहूं तो भी। पहले दिन...दूसरे दिन मैं थोड़ा हैरान हुआ। स्वीकार करे। लेकिन क्योंकि वह दूसरे दिन उन्होंने एकदम धमकी दी कि मैं जाकर मर तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणवट्ठिदे भये पुरदो। जाऊंगा। तो मेरी कोई ज्यादा पहचान भी नहीं थी। बस थोड़ा सो मरणं पत्थितो, होदि ह सामण्णणिव्विण्णो।। परिचय हुआ था। अब वे तो निकल भी गए घर से अपना छाता 562 2010_03
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________________ पडितमरण सुमरण हे IMPANA उठाकर। बंगाली! बिना छाते के तो मरने भी नहीं जा सकते। मैं किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे थोड़ा चिंतित हुआ। मैं गया। मैंने उनकी पत्नी से कहा कि हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ मामला क्या है? मेरा कोई इतना परिचय नहीं है, लेकिन कोई -अब किससे शिकायत करो भाग्य की? मरने जा रहा हो तो मुझे कुछ करना चाहिए। उसने कहा, आप किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे बिलकुल बेफिकर रहो। वे अपने आप आ जाएंगे। पंद्रह मिनट | हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ से ज्यादा नहीं लगेगा। मैंने कहा, गए कहां हैं। उन्होंने कहा, वे कितनी बार तो हम मर भी चके, फिर भी मरे नहीं। और कहीं जाते-वाते नहीं। यह तो जिंदगी हो गई मुझे। ऐसा कोई कितनी बार हमने चाहा कि मर जाएं, वह भी नहीं हुआ। सप्ताह नहीं जाता जब वे मरने न जाते हों। तुम्हारी चाह से मौत नहीं घटेगी। महावीर कहते हैं, जिसको जरा-जरा सी बात पर आदमी मरने को तत्पर है। | मौत का अनुभव करना हो, उसे अचाह साधनी पड़ती इसलिए महावीर की सावधानी ठीक है। कि तम ऐसा मत है-निष्काम चाह, वासनाशन्यता। क्योंकि सब वासना जीवन सोच लेना कि मरना कोई धर्म है। मरना तभी सार्थक हो सकता से जुड़ी है। जब तक वासना है तब तक तुम जीवन को पकड़े है, जब जीवन का कोई और उपयोग न रहा। जितने दूर तक यह हो। जैसे ही वासना छूटती है, तुम कुछ भी नहीं मांगते, तुम मरने नाव ले जा सकती थी, ले गई। अब तैरना पड़ेगा। अब यह नाव को तैयार हो गए। पंडितमरण की तैयारी हो गई। नहीं काम आती-तो! ___ और जो ज्ञानी की तरह मरता है, मृत्यु एक बड़े अभिनव, सुंदर अन्यथा सावधानीपूर्वक जीना, सावचेत जीना। छोटी-छोटी रूप में प्रगट होती है। मृत्यु परमात्मा की तरह आती है। भूल को छोटी-छोटी मत मानना। कोई भूल छोटी नहीं होती। भूल छोटी होती ही नहीं। क्योंकि एक दफा छोटी भूल समझकर आज इतना ही। जो हृदय में पड़ जाती है, वह कल बड़ी हो जाती है, फैल जाती है, विस्तीर्ण हो जाती है। सभी लोग छोटे-छोटे दोष मानकर दोष करते हैं और एक दिन उनमें ग्रसित हो जाते हैं और निकलना मुश्किल हो जाता है। किसी मित्र ने कहा कि अरे! पी भी लो। जरा-सी शराब थी, तुमने सोचा इतनी शराब से क्या बननेवाला, बिगड़नेवाला? साढ़े छह फीट लंबा शरीर है, तीन सौ पौंड वजन है, क्या बिगड़नेवाला है? तुम पी गए। मगर वह छोटा-सा दोष धीरे-धीरे पकड़ेगा। बुराई बड़े आहिस्ता आती है। बुराई जब आती है तो जूते उतारकर आती है। आवाज ही नहीं होने देती। पैरों की भी आवाज नहीं होती। इसलिए महावीर कहते हैं, बहुत सावधान रहना, बहुत सावचेत रहना। जीवन से एक सत्य साधना है-जीवन साधन है, साध्य नहीं और वह सत्य है. महाजीवन। उस महाजीवन को साधने के लिए मृत्यु को सुमरण बनाना है, पंडित की मौत मरनी है, जाननेवाले की मौत मरनी है। और अज्ञानी की मौत तो हम सब बहुत बार मर चुके। उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। उससे हम मरे ही नहीं, फिर-फिर लौट आए। 563 2010_03