Book Title: Jinsutra Lecture 57 Prem ki Koi Gunsthan Nahi
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां प्रवचन प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIND पnिee प्रश्न-सार बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में क्या भिन्नता है, इसे समझाने की कृपा करें। क्या तेरहवें गुणस्थान को उपलब्ध होकर भी उससे च्युत हुआ जा सकता है? क्या प्रेम के मार्ग पर भी कोई सीढ़ियां होती हैं? STRAMANANCH रजनीश एशो आमी तोमार बोइरागी आमी पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम लाओ री लाओ संगे डुगडुगी AR देह की वृद्धावस्था, मन में आशंका, मरने की पूरी तैयारी, वापसी का भी भय नहीं लेकिन दुबारा भगवान तो मिलेंगे नहीं! रजनीश महाराज को नमस्कार कैसे करें जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए? naire 2010_03 www.jainelibrarorg Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H . हला प्रश्नः बारहवें और तेरहवें गुणस्थानः | जैसा है। तेरहवां गुणस्थान पूर्ण जैसा है। बौद्धों ने निर्वाण की जो क्षीणमोह और सयोगिकेवलीजिन में क्या भिन्नता परिभाषा की है, वह बारहवें गुणस्थान की ही परिभाषा है।। है इसे स्पष्ट करने की कृपा करें। इसलिए जैन दृष्टि में अभी और थोड़े आगे जाना है। शून्य तो हो गए, अभी पूर्ण नहीं हुए। मोह तो गया, राग गया लेकिन यह प्रश्न स्वाभाविक है। जैन शास्त्रों में इस संबंध में बड़ा | अभी वीतरागता नहीं उतरी। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी ऊहापोह है। क्योंकि दोनों अवस्थाएं करीब-करीब एक जैसी | नहीं आया। तुमने घर सजा लिया, द्वार-दरवाजों पर बंदनवार मालूम पड़ती हैं। | बांध दिए, स्वागतम लटका दिया, दीये जला लिए, धूप-दीप बारहवीं अवस्था में समस्त मोह, माया शून्य हो जाती है। कुछ बाल ली। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी नहीं आया। शेष बचता नहीं। और कुछ होने की संभावना भी न रही। सब | बारहवें में तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई। अब तुमसे कुछ और बाधाएं गिर गईं, सब अवरोध समाप्त हुए। फिर तेरहवीं | नहीं मांगा जा सकता, तुम जो कर सकते थे, जो मनुष्य के लिए अस्वस्था में, तेरहवें गणस्थान में सत्र केवल इतना ही कहते हैं, संभव था, वह हो गया। अब उतरेगा कोई। प्रकाश का सयोगिकेवलीजिन। केवलज्ञान उपलब्ध होता है. जिनत्व | अवतरण होगा। पात्र तैयार हो गया, अमत की अब वर्षा होगी। उपलब्ध होता है। इसे तुम ऐसा मत सोचना कि इन दोनों के बीच समय का कोई लेकिन जब सभी मोह क्षीण हो गए, जब सभी बाधाएं हट गईं, फासला है। इन दोनों के बीच 'एम्फेसिस', जोर का फासला जब अंधकार जाता रहा तो फिर दोनों में फर्क क्या है? दोनों में है। तुम यह मत सोचना कि बारहवां घट गया तो तेरहवें के घटने देह है, इसलिए सयोगी से कोई फर्क नहीं पड़ता। बात थोड़ी में अब कुछ समय लगेगा। युगपत हो सकता है। यह विश्लेषण बारीक है और नाजुक है। ऐसा समझना, कभी तुम बीमार पड़े, तो इसलिए है ताकि तुम्हें सीढ़ी-सीढ़ी बात समझ में आ जाए। चिकित्सा हुई। सारी बीमारियां चली गईं तो भी जरूरी नहीं कि ऐसा भी हो सकता है, बीमारी गई और तुम स्वस्थ हो गए, तुम स्वस्थ हो गए। अभी दौड़ न सकोगे, अभी श्रम न कर | लेकिन बीमारी का जाना ही स्वस्थ हो जाना नहीं है। बीमारी का सकोगे। चिकित्सक कहेगा कुछ देर आराम करो। बीमारी तो जाना स्वस्थ होने के लिए अनिवार्य चरण है। लेकिन बीमारी का गई, लेकिन स्वास्थ्य का आविर्भाव होने दो। न होना ही स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं है। स्वास्थ्य कुछ विधायक बारहवां गुणस्थान नकारात्मक है। तेरहवां गुणस्थान विधायक है। ऐसा नहीं है कि जब तुम स्वस्थ होते हो तो तुम इतना ही कह है। बारहवें गुणस्थान में जो कूड़ा-कर्कट था, वह गया। व्यर्थ सकते हो कि मेरे सिर में कोई दर्द नहीं है, पेट में कोई दर्द नहीं है, हटा। लेकिन सार्थक को उतरने दो। बारहवां गुणस्थान शून्य कहीं कांटा नहीं चुभता; इतना ही कह सकोगे? कि कैंसर नहीं 527 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 है, टी. बी. नहीं है। स्वास्थ्य की बस इतनी ही व्याख्या कर चित्त की दशा है। क्या छोड़ा यह मूल्यवान नहीं है, छोड़कर जो सकोगे? या कहोगे कि कुछ अपूर्व मुझे भरे है, कुछ लहरा रहा | मिलता है वही मूल्यवान है। जो मिलता है, उसे छोड़ने से नहीं है। कुछ मेरे रोएं-रोएं में कंप रहा है, जो सिरदर्द का अभाव ही | नापा जा सकता। नहीं है, जो किसी अनूठी ऊर्जा की मौजूदगी है। किसी परम या ऐसा समझो कि एक आदमी ने एक पैसा चुरा लिया और शक्ति का मेरे भीतर निवास है। | दूसरे आदमी ने करोड़ रुपये चुरा लिए। क्या करोड़ रुपये स्वास्थ्य विधायक है। इसलिए पूरब में जो स्वास्थ्य का विज्ञान | चुरानेवाला बड़ा चोर है? एक पैसा चुरानेवाला छोटा चोर है। है उसे हमने आयुर्वेद कहा है। पश्चिम का शब्द मेडिसिन, | तो फिर तुम समझे नहीं। मेडिकल साइंस बहुत दरिद्र है। मेडिसिन का मतलब होता है | चोरी तो बराबर है। एक पैसे की हो कि करोड़ रुपये की हो। सिर्फ औषधि। पश्चिम ने चुना मेडिकल साइंस-औषधि का चोरी में कोई मात्रा से फर्क नहीं पड़ता। एक आदमी ने एक पैसे विज्ञान: क्योंकि उनकी दष्टि में स्वास्थ्य का अर्थ है. बीमारी का | की चोरी छोड़ी। एक पैसा रास्ते पर पड़ा था, वह पड़ा रहा और न हो जाना। | निकल गया। और एक आदमी के रास्ते पर करोड़ रुपये पड़े थे, पूरब ने चुना आयुर्वेद : आयु का विज्ञान, जीवन का विज्ञान। | उसने करोड़ रुपये की चोरी छोड़ी। चोरी की संभावना थी, न सिर्फ औषधि नहीं है आयुर्वेद, औषधि से कुछ ज्यादा है। की। इन दोनों में कौन-सा बड़ा अचोर है? दोनों अचोर हैं। औषधि से तो इतना ही मालूम होता है, दर्द न रहा। लेकिन दर्द न अचौर्य चित्त की एक विधायक दशा है। रहने का अर्थ, आनंद हो गया? दर्द रहता तो आनंद में बाधा बारहवां गुणस्थान कहता है संसार नहीं हुआ, समाप्त हुआ। पड़ती जरूर, दर्द न रहा तो आनंद के लाने में सुविधा हो गई जैसे तुम किसी देश की सीमा पार करते हो, तो जो इस देश की जरूर; लेकिन दर्द का न होना ही आनंद की परिभाषा है? सीमा है, समाप्त होता है देश, वही दूसरे देश की शुरुआत है। बौद्ध बारहवें गुणस्थान को निर्वाण की परिभाषा मानते हैं, तो सीमा पर जो तख्ती लगी होती है, एक तरफ लिखा होता इसलिए वे आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं, परम है-भारत समाप्त। दूसरी तरफ लिखा होगा है-चीन शुरू। अवस्था-दुख-निरोध। निर्वाण यानी दुख-निरोध; दुख न बारहवां गुणस्थान इस तरफ की खबर देता है-'संसार रहेगा। इससे आगे बात नहीं करते। उनसे पूछो, दुख न रहेगा समाप्त'; तेरहवां गुणस्थान उस तरफ की खबर देता यह भी कोई बात हुई ? रहेगा क्या फिर? होगा क्या फिर? है—'मोक्ष शुरू।' दोनों एक ही तख्ती पर होंगे। तख्ती की संसार न रहेगा, समझ में आ गया, लेकिन क्या मोक्ष की बस एक तरफ लिखा है-'संसार समाप्त'; दूसरी तरफ लिखा है इतनी ही परिभाषा है? फिर मोक्ष अपने आप में क्या है? अगर 'मोक्ष प्रारंभ।' दोनों में रत्तीमात्र फासला नहीं दिखाई पड़ता, पर संसार से ही परिभाषा हो सकती हो मोक्ष की, तो मोक्ष बड़ा लचर फासला बड़ा है। दोनों की सीमारेखा एक ही है। इसलिए जैन हुआ, बड़ा कमजोर हुआ, दीन हुआ, दरिद्र हुआ। जिसकी | शास्त्रों में भी खूब चिंतन चला है कि फर्क क्या है? परिभाषा भी संसार से ही करनी होती हो...। __ मेरे देखे बारहवां गुणस्थान इतना ही कहता है कि जो छोड़ने ऐसा समझो कि एक आदमी अमीर है, वह धन का त्याग कर योग्य था, छूट गया; जो मिटने योग्य था, मिट गया; जो व्यर्थ दे; और एक आदमी गरीब है, उसके पास बहुत कुछ नहीं है, था, असार था, उससे मुक्ति हुई। तेरहवां गुणस्थान कहता है: झोपड़ा है। वह अपने झोपड़े का त्याग कर दे। क्या तुम कहोगे वहीं रुकना नहीं हुआ, जो मिलने योग्य था, मिला; जो पाने कि अमीर का त्याग गरीब के त्याग से बड़ा है? योग्य था, बरसा। मेहमान घर आ गया। अगर त्याग धन का ही छोड़ना है तब तो निश्चित ही अमीर का | जैन सूत्रों में भी बात साफ है। बारहवें सूत्र की परिभाषा हैत्याग गरीब के त्याग से बड़ा है। क्योंकि गरीब ने झोपड़ा छोड़ा, णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणदय-समचित्तो। अमीर ने महल छोड़ा। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।। लेकिन त्याग धन का छोड़ना ही नहीं है। त्याग एक विधायक | 'संपूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त 528 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भांति निर्मल हो जो अंधेरे में भटकते हैं। जो रोशनी मुझे मिली है, जब तक उन गया है, ऐसे पुरुषों को वीतरागदेव ने क्षीणमोह या क्षीणकषाय तक न पहुंचा दूं तब तक मैं प्रवेश न करूंगा। कहा है।' | यह तेरहवें गुणस्थान में रुक जाने की बात है। इसका अर्थ 'निर्मल हो गया'- नकारात्मक है। शुद्ध हो गया, अशुद्धि हुआ, जो व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया है, वह कहता है गई। तेरहवें गुणस्थान की परिभाषा है : | थोड़ी देर और अभी इस देह में रहूंगा। क्योंकि इस देह से ही केवलणाणदिवायर-किरणकलावप्पणासिअण्णाणो। उनके साथ संबंध बना सकता हूं, जो अभी देह को ही अपना णवकेवललद्धग्गम-पावियरपरमप्पववएसो।। होना समझते हैं। इस देह से ही कोई संवाद हो सकता है उनके 'केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका | साथ, जिन्होंने देह में ही अपने प्राणों को आरोपित कर लिया है; अज्ञान-अधंकार सर्वथा नष्ट हो गया, तथा जो सम्यकत्व, अनंत जो देह के साथ तादात्म्य-रूप हो गए हैं। ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य को उपलब्ध हुए वे देह में रुक जाने की आकांक्षा को जैनों ने तीर्थंकर कर्मबंध कहा सयोगिकेवलीजिन कहलाते हैं।' है। जो तेरहवीं अवस्था में रुक जाता है करुणावश. कि पीछे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यकत्व, समाधि, अनंत सुख, चलते लोगों को थोड़ी सहायता पहुंचा सकू; जो मुझे मिला है वह अनंत वीर्य, ये उपलब्धि की सूचनाएं हैं-क्या मिला! बांट भी सकं: जो मैंने पाया है उसे और भी पा सकें। संसार गया, मोक्ष मिला। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवें ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। अगर तेरहवीं गणअवस्था में किसी गुणस्थान में आए हुए व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता, व्यक्ति ने चेष्टा न की तो वह अपने आप चौदहवीं में सरक परमात्मा कहा जा सकता है। जाएगा। तेरहवीं अवस्था से चौदहवीं में जाना ऐसा है, जैसे कि बड़ी कोई ढलान पर उतर रहा हो, या नदी की गहन धार में बहा दुसरा प्रश्न: क्या तेरहवें गणस्थान को उपलब्ध होकर भी | जाता हो जहां पैर जमाकर खड़ा होना मुश्किल हो जाए। कोई उससे च्युत हो सकता है, क्या कोई अब तक हुआ है? ___ इसलिए जगत में तेरहवीं अवस्था को जैसे ही लोग उपलब्ध होते हैं, तत्क्षण चौदहवीं अवस्था में प्रवेश हो जाते हैं—या थोड़ी नहीं, तेरहवें गुणस्थान तक पहुंचकर कोई कभी च्युत नहीं देर-अबेर। ज्यादा देर रुक नहीं पाते। कुछ बलशाली लोग ज्ञान हुआ, न हो सकता है। तो फिर सवाल उठता है कि चौदहवें | के बाद भी अज्ञान के संसार में पैरों को टेककर खड़े रहे हैं। गुणस्थान की क्या जरूरत है? जब तेरहवें से वापसी हो ही नहीं उन बलशाली पुरुषों के कारण ही संसार एकदम अंधेरा नहीं सकती, जब तेरहवें से गिरना हो ही नहीं सकता, तो फिर तेरहवें है, उसमें कहीं-कहीं दीये टिमटिमाते हैं—कोई बुद्ध, कोई और चौदहवें का फासला क्या? | कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई महावीर, कोई जरथुस्त्र, कोई तेरहवें गुणस्थान से कोई च्युत नहीं होता, लेकिन कोई चाहे तो मोहम्मद। कहीं थोड़े-थोड़े दीये टिमटिमाते हैं। यह इन तेरहवें गुणस्थान पर रुक सकता है। महाकरुणावान पुरुष रुक | बलशाली पुरुषों का...। गए हैं। तेरहवें गुणस्थान पर जो रुक गए हैं, उनके लिए संसार से छूटना बड़ा कठिन है; लेकिन उससे भी बड़ी कठिन ठीक-ठीक शब्द बौद्धों के पास है: वह शब्द है 'बोधिसत्व'। बात है. संसार से छटकर थोड़ी देर संसार में रुक जाना। अति जिन्होंने कहा, हम चौदहवें में प्रवेश न करेंगे। क्योंकि हम अगर कठिन बात है। संसार से छूटना ही पहले अति कठिन बात है, चौदहवें में प्रवेश कर गए तो शरीर छुट जाएगा। शरीर छुट फिर जब छूटने की घड़ी आ जाए तो उस समय याद किसको जाएगा तो हम किसी के काम न आ सकेंगे। संबंध टट जाएंगे। रहती है? बौद्धों में कथा है कि बुद्ध जब स्वर्ग या मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, / तुम दुख में ही जीए और अचानक महल आ गया, सब सुखों द्वार खुला तो वे खड़े रह गए। द्वारपाल ने कहा, आप प्रवेश का द्वार खुल गया, तुम रुक पाओगे, तुम दौड़कर महल में प्रवेश करें। बुद्ध ने कहा कि नहीं, अभी नहीं। अभी बहुत हैं मेरे पीछे, कर जाओगे। तुम कहोगे, जन्मों-जन्मों से जिसको खोजा है वह 520 2010_03 , Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 सामने खड़ा है। मंजिल सामने तो खड़ी है, अब कैसा रुकना!। प्रत्येक जीवन-ऊर्जा किसी न किसी दिन तेरहवें गुणस्थान में तुम एक क्षण भी रुक न पाओगे। आएगी-देर-अबेर। भटकोगे...कितना भटकोगे? किसी न तो तेरहवीं अवस्था से कोई गिरता तो नहीं यह सच है, लेकिन | किसी दिन पीड़ा से थके-हारे, टूटे घर आओगे। उस तेरहवें तेरहवीं अवस्था में कोई रुक सकता है। कठिन है, अति दुर्गम है, | गुणस्थान में भगवत्ता उपलब्ध होगी। लेकिन हुआ है। तेरहवीं अवस्था में जो रुक गए हैं, वे ही | यह जो भगवान की तेरहवीं अवस्था है, इससे कोई च्युत तो अवतारी पुरुष हैं। | नहीं हो सकता। च्यत होना होता ही नहीं। लेकिन कोई चाहे तो जैन परिभाषा में अवतार परमात्मा के घर से नहीं आता। | रुक सकता है। चौदहवीं अवस्था को आने से रोक सकता है। इसलिए अवतार शब्द का उपयोग जैन नहीं करते। अवतार शब्द | बड़ी प्रगाढ़ करुणा करनी पड़े। करुणा को ऐसी प्रगाढ़ता से का ही मतलब है : उतरे; अवतरित हो ऊपर से आए। जैन | करना पड़े कि वह करीब-करीब वासना बन जाए। सांसारिक परिभाषा में तो सभी नीचे से ऊपर की तरफ जाते हैं। ऊर्ध्वगमन | आदमी जैसे वासना से बंधा है और संसार से नहीं छूटता, ऐसे है जगत में, अधोगमन नहीं है। अवतार का मतलब तो हुआ, | तेरहवें गुणस्थान में पहुंचा हुआ व्यक्ति करुणा की जंजीरें ढालता अधोगमन। अवतार का तो मतलब हुआ, असीम सीमा में | है: करुणा से बंधता है। रुकता है कि किसी तरह थोड़ा साथ, उतरा, विराट क्षुद्र हुआ, महत छोटा बना, आकाश आंगन बना, | थोड़ा संग, थोड़ी पुकार दे सके। उसकी नाव आ लगी, उस पार असीम ने सीमा में अपने को बांधा। जाने का निमंत्रण आ पहुंचा, फिर भी वह हजार उपाय करता है अवतरण तो अधोगमन हआ। यह तो पतन हआ। जिसको कि इस किनारे पर थोड़ी देर रुक जाए। हिंदू अवतार कहते हैं, उसको जैन मानता है कि यह तो पतन है। अलग-अलग सदगुरुओं ने अलग-अलग उपाय किए हैं, तो उसकी बात में भी बल है। पतन तो है ही। जैसे परमात्मा | कैसे इस किनारे पर थोड़ी देर और रुक जाएं कि तुमसे थोड़ी बात तो हो नहीं सकता। परमात्मा च्यत हो ही नहीं | हो सके, कि तुम्हें थोड़ा संदेश दिया जा सके कि तुम्हारी नींद को सकता। इसलिए जैन कहते हैं सिर्फ ऊर्ध्वगमन होता है, सिर्फ थोड़ा हिलाया जा सके कि तुम्हारे स्वप्न थोड़े तोड़े जा सकें। उत्क्रांति होती है, सिर्फ विकास होता है। पीछे कोई जाता ही नहीं, | अपने आप रुकना नहीं होता। अपने आप तो तेरहवें गुणस्थान आगे ही जाना है। जाना मात्र आगे की तरफ है। हम ऊपर ही | से चौदहवां गुणस्थान सहज घट जाता है। जैसे बड़ी चिकनी उठते हैं। भूमि हो और तुम खिसक जाओ, रपट जाओ। बड़ी रपटीली इसलिए तेरहवीं अवस्था में पहंचा हुआ व्यक्ति अवतारी पुरुष | भूमि हो और ढलान हो। तेरहवें से चौदहवां इतने करीब है, और है। आया है लंबी यात्रा पार करके। जन्मों-जन्मों में बारह | इतना आकर्षक है, इतना मोहक है कि कौन रुकना चाहेगा? / अवस्थाएं पूरी की हैं, तेरहवीं पर आया, भगवान हुआ। फिर रुकना कठिन भी है। इसलिए जैन कहते हैं, हजारों लोग यह भगवान का अर्थ भी समझ लेना। हिंदू सोचते हैं, भगवान केवलज्ञान को उपलब्ध होते हैं, कभी कोई एकाध तीर्थंकर हो का अर्थ, जिसने संसार बनाया। पाता है। तीर्थंकर का अर्थ है, जो तेरहवें में रुकता-बलपूर्वक, जैनों में भगवान का वैसा अर्थ नहीं है। संसार को तो किसी ने | चेष्टापूर्वक। बनाया नहीं। कोई स्रष्टा तो नहीं है। लेकिन जिसने अपने को | चौदहवें का अर्थ है. शरीर से संबंध का टट जाना। जो तेरहवें बना लिया, वह भगवान। इन बारह सीढ़ियों से गुजरकर जो | में हुआ है, उससे कुछ ज्यादा नहीं होता चौदहवें में। जो तेरहवें में तेरहवीं पर आ गया, वही भगवान। | है, उससे चौदहवें में कुछ कम हो जाता है बस, ज्यादा नहीं इसलिए भगवान एकवाची भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक होता। तेरहवें तक शरीर का साथ है, चौदहवें में शुद्ध आत्मा रह भगवान है। जितनी आत्माएं हैं उतने भगवान के होने की जाती है, शरीर से संबंध छूट जाता है। संभावना है। अनंत भगवान के होने की संभावना है। हिंदू कहते हैं भगवान अनंत हैं, जैन कहते हैं अनंत हैं भगवान। तीसरा प्रश्न : महावीर ने वैराग्य और ध्यान के मार्ग को 15301 Jair Education International 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गणस्थान नहीं चौदह सीढ़ियों में बांटा है। क्या प्रेम के मार्ग की भी ऐसी कोई / मैंने स्वीकार कर लीं। अब मेरी तरफ से इनको बांधकर गंगा में व्याख्या है? कृपया इस पर कुछ कहें। डाल आओ। उस आदमी ने पोटली बांधी बड़े बेमन से। हजार बार सोचने प्रेम को बांटने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि प्रेम छलांग है। लगा कि यह क्या हआ। मगर अब कुछ कह भी न सका। भेंट ज्ञान क्रमिक है, प्रेम छलांग है। ज्ञान इंच-इंच चलता, कर दीं। और यह आदमी पागल है। यह कह रहा है, गंगा में कदम-कदम चलता। प्रेम इंच-इंच नहीं चलता, कदम-कदम | फेंक आ। गया बेमन से। बड़ी देर लगा दी, आया नहीं तो नहीं चलता। रामकृष्ण ने कहा, जरा पता तो लगओ। वह गंगा पहुंचा कि घर ज्ञान बडा होशियार है. प्रेम बडा पागल है। इसलिए ये जो भाग गया? वह है कहां अब तक लौटा नहीं। गणस्थान हैं, ज्ञान के साधक के लिए हैं। भक्ति के मार्ग पर कोई | भेजा देखने को, तो देखा कि वह गंगा के किनारे पर गुणस्थान नहीं हैं। बैठकर...बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। वह पहले पटकभक्त जानता नहीं विभाजन को। भक्त जानता ही नहीं कोटियों पटककर खनखना-खनखनाकर गिनती कर रहा है। एक-एक को। भक्त जानता ही नहीं विश्लेषण को। भक्त की पहचान तो गिनकर फेंक रहा है। किसी ने खबर दी रामकृष्ण को। वे गए संश्लेषण से है-सिन्थेसिस। भक्त की तो पहचान चीजों को और उन्होंने कहा, पागल! जोड़ना हो तो गिनती करनी पड़ती है, जहां-जहां भेद हो वहां अभेद देखने की है।। फेंकने के लिए क्या गिनती कर रहा है? अरे! नौ सौ निन्यानबे ज्ञानी की सारी चेष्टा जहां अभेद भी हो, वहां भेद पहचानने की हुईं तो भी चलेगा। एक हजार एक हुईं तो भी चलेगा। बांध है। महावीर ने तो अपने पूरे शास्त्र को भेद-विज्ञान कहा है। पोटली, इकट्ठी फेंक ! यह क्या गिनती कर रहा है? कहा कि यह भेद को पहचानने की कला है। पहचानना है कि वह पुरानी आदत रही होगी–जोड़नेवाले की आदत, गिनती शरीर क्या है, आत्मा क्या है। पहचानना है कि संसार क्या है, करने की। वह पुराने हिसाब से जैसे अपनी दुकान पर बैठकर मोक्ष क्या है। एक-एक चीज पहचानते जाना है। एक-एक | खनखनाकर देखता होगा। असली है कि नकली है, वह अभी चीज का ठीक-ठीक ब्यौरा और ठीक-ठीक विश्लेषण करना है। भी कर रहा है। अब पूरी प्रक्रिया उलटी हो गई। ठीक विश्लेषण करने से ही कोई मुक्त अवस्था को उपलब्ध होता | प्रेम तो डूबना जानता है। है। ज्ञान का खोजी विश्लेषण करता है। विश्लेषण उसकी विधि | यह कौन आया रहजन की तरह है। वह कैटेगरीज बनाता है, कोटियां बनाता है। उसका ढंग जो दिल की बस्ती लूट गया वैज्ञानिक है। आराम का दामन चाक हुआ भक्त, प्रेमी कोटियां तोड़ता है। सब कोटियां को गड्डमड्ड कर | तसकीन का रिश्ता टूट गया देता है। दीवाना है, पागल है। पागलों ने कहीं हिसाब लगाए? - यह कौन आया रहजन की तरह तो यह तो पूछो ही मत, कि क्या भक्ति के मार्ग पर भी, प्रेम के जो दिल की बस्ती लूट गया मार्ग पर भी इसी तरह की कोटियां हो सकती हैं, विभाजन हो / डाकू की तरह आता है परमात्मा। इसलिए तो हिंदू परमात्मा सकता है ? संभव नहीं है। | को हरि कहते हैं। हरि यानी लुटेराः हर ले जाए जो; झपट ले। एक आदमी धन इकट्ठा करता है तो धीरे-धीरे करता है। लुटेरा रहजन की तरह आ जाए–डाकू। जो लूट ले। आता है, लूटकर ले जाता है इकट्ठा। यह कौन आया रहजन की तरह रामकृष्ण के पास एक आदमी हजार सोने की मोहरें लेकर जो दिल की बस्ती लूट गया आया। कहा, स्वीकार कर लें। रामकृष्ण ने कहा, अब तुम तो प्रेम कुछ तुम्हारे बस में थोड़े ही है। ध्यान तुम्हारे बस में है। ले आए तो चलो स्वीकार कर लिया। लेकिन मैं क्या करूंगा। ज्ञान तुम्हारे बस में है। त्याग, तपश्चर्या तुम्हारे बस में है, प्रेम तुमने तो अपना बोझा छुड़ाया, मुझ पर डाल दिया। ऐसा करो, तुम्हारे बस में थोड़े ही है। किसी अज्ञात क्षण में, किसी अनजानी 531/ ___ 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 घड़ी में, किसी सौभाग्य की घड़ी में आ जाता है कोई और लट ले जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना जाता है। किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे आराम का दामन चाक हुआ और दिल तो हर जगह तेरी प्रार्थना करता रहा, तेरी पूजा में प्रेम के पहले आदमी आराम से जीता है। प्रेम के बाद फिर | लीन रहा। दिल तो पूजा में डूबा ही है। वहां तो जल ही रहा आराम नहीं। प्रेम के पहले तो आदमी जानता ही नहीं कि पीड़ा दीया। वहां तो धूप उठ ही रही। वहां तो वेदी सजी है। क्या है। प्रेम के बाद ही जानता है कि पीडा क्या है। क्योंकि प्रेम जो बद्धि में बहत बरी तरह खो गा में जलता है, पिघलता है, गलता है, मिटता है। विचारों के जंगल में, जंजाल में, उनके लिए ज्ञान का रास्ता है। आराम का दामन चाक हुआ इसलिए जैन शास्त्र अत्यंत बौद्धिक हैं, रूखे हैं। गणित की तसकीन का रिश्ता टूट गया | तरह हैं। आइंस्टीन की किताब पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से प्रेम के पहले जिंदगी बड़ी धीमी-धीमी चलती है, धीरज से हैं। न्यूटन को पढ़ो कि अरिस्टोटल को पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, चलती है। कहीं कोई दौड़, छलांग नहीं। आदमी सावधानी से एक से हैं। | चलता है। प्रेम के बाद मस्ती पकड़ लेती है। फिर कहां धीरज? | बहुत बार कई जैनों ने मेरे पास आकर कहा है कि कभी आप फिर कहां धैर्य! फिर कैसा आराम। कुंदकुंद पर बोलें। कई दफे उनकी बात सुनकर मैं भी कुंदकंद की बुद्धि तो बड़ा सोच-विचारकर कहीं झुकती है। हृदय झुका ही किताब उलटाकर देखता हूं, फिर बंद कर देता हूं। बिलकुल हुआ है। अगर इसे तुम ठीक से समझ सको तो ऐसा समझना, रूखा-सूखा है। मैं भी चेष्टा करके कविता उसमें डाल न हृदय तो तुम्हारा अभी भी भक्ति में डूबा हुआ है। तुम्हारा अपने | सकूँगा। बड़ी अड़चन होगी। काव्य है ही नहीं। रसधार बहती हृदय से संबंध छूट गया है। तुम अपनी बुद्धि में समा गए। ही नहीं। सीधा-सीधा गणित का हिसाब है-दो और दो चार। अपनी खोपड़ी में निवास कर लिया है। वहीं रह गए। अटक जैन शास्त्र पैदा ही तब हुए, जब भारत एक बड़ी बौद्धिक क्रांति गए वहीं। उलझ गए वहीं। से गुजर रहा था। सारा देश बड़े चिंतन में लीन था। सदियों के हृदय तो अब भी प्रार्थना कर रहा है। हृदय तो अभी भी नमाज चिंतन के बाद निष्कर्ष लिए जा रहे थे। ऐसा भारत में ही था ऐसा पढ़ रहा है। हृदय तो अभी भी डूबा है। हृदय का होना ही नहीं, सारी दुनिया में एक महत ऊर्जा उठी थी। भारत में बुद्ध थे, परमात्मा में है। महावीर थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, वे जो बुद्धि में भटक गए हैं और जिनको हृदय का रास्ता नहीं | निगंठनाथपुत्त महावीर थे। यूनान में थेलीस, सुकरात, प्लेटो, मिलता, उनके लिए चौदह गुणस्थान हैं। जिनको हृदय करीब है अरिस्टोटल। ईरान में जरथुस्त्र। चीन में कन्फ्यूसियस, और जिन्हें कोई अड़चन नहीं, जो सरलता से हृदय में उतर सकते | लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु।। हैं, उनके लिए कोई गुणस्थान नहीं, कोई भेद-विभाजन नहीं। सारी दुनिया में एक बड़ी तीव्र उत्क्रांति हो रही थी। सब तरफ उनके लिए न कोई शास्त्र है, न कोई साधना है। हवा गर्म थी। विचार कसे जा रहे थे। विचार, तर्क, चिंतन, जवानी मोहब्बत, वफा नाउम्मीदी | मनन अपनी आखिरी कसौटी छ रहा था, आखिरी ऊंचाई छ रहा यह है मुख्तसर-सा हमारा फसाना | था। उस उत्तुंग क्षण में जिन-सूत्र रचे गए। वे उस दिन की पूरी किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे खबर लाते हैं, उस दिन का पूरा वातावरण, उस दिन की परी हवा जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना और मौसम उनमें छिपा हुआ है। बुद्धि ढूंढ़ती ही रही कि कहां है वह जगह, जहां सिर झुकाऊं। | भक्त बड़े और ढंग से जीता है। भक्त का मार्ग स्त्रैण है। जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना इसीलिए जैन तो मानते ही नहीं कि स्त्री का मोक्ष हो सकता है। देहली ढूंढ़ती ही रही कि कहां सिर को रखू, कहां माथा टेकू? | उस मानने में बड़ा विचार है। कहां मंदिर? कहां मस्जिद? एक बात निश्चित है, जैन शास्त्र में स्त्री का मोक्ष नहीं हो 532 | Jan Education International 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं सकता। स्त्री का हो सकता है कि नहीं इस पर पूरा, किसी को अगर जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीनाथ कहा, तो ठीक ऐसे ही कोई दावा नहीं कहने का; लेकिन इतनी बात पक्की है कि जेन | चैतन्य महाप्रभु को चैतन्यबाई कहा जा सकता है। वह स्त्रैण शास्त्र से तो नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र से स्त्री का मेल चित्त है। वह गौरांग का नाचता हुआ रूप!-जैसे राधा हो ही नहीं बैठ सकता। वह उनमें हृदय है ही नहीं। उसमें तो सभी गए। किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की। क्योंकि स्त्री को पुरुष पुरुषों का भी बैठ जाए मेल, यह भी कठिन मालूम होता है। बनाना तो आसान मालूम होता है। कहते हैं, 'खूब लड़ी मर्दानी तो जैन शास्त्रं ठीक ही कहते हैं कि स्त्री का मोक्ष नहीं हो वह तो झांसीवाली रानी थी। लेकिन किसी पुरुष को नामर्द सकता। क्योंकि जैन शास्त्र पुरुष मन की खोज है-तर्क, कहो तो झगड़ा खड़ा हो जाता है। चिंतन, मनन। प्रेम की खोज नहीं है। इसलिए एक बड़ी अनूठी पुरुषों की दुनिया है यह। यहां स्त्री को अगर पुरुष कहो तो घटना घटी। जैनों का एक तीर्थंकर-तेईसवां—एक तीर्थंकर मालूम होता है, प्रशंसा कर रहे हो। और अगर पुरुष को स्त्री स्त्री थी। नाम है मल्लीबाई। लेकिन जैनों ने मल्लीबाई को कहो तो लगता है निंदा हो गई। चूंकि पुरुष ने ही सारे मापदंड मल्लीबाई लिखना भी पसंद न किया। वे उसको मल्लीनाथ तय किए हैं। लिखते हैं। वह थी तो स्त्री, लेकिन बना दिया पुरुष। वे मानते | लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, यह बात गलत है। अगर मल्लीबाई नहीं कि मल्लीबाई स्त्री थी। वे कहते हैं, मल्लीनाथ। और मुझे मल्लीनाथ कही जा सकती है तो क्यों नहीं चैतन्य को चैतन्यबाई भी लगता है, वे ठीक कहते हैं। वह चाहे देखने में स्त्री रही हो, कहो? ज्यादा उचित होगा। ठीक-ठीक खबर मिलेगी। भीतर से पुरुष ही रही होगी। इसलिए नाम बदला तो ठीक ही | तो तुम ऊपर शरीर को आईने में देखकर तय मत कर लेना, किया। मल्लीबाई मल्लीनाथ ही रही होगी। हृदय तो नहीं रहा भीतर खोजबीन करना। अगर तुम हृदय की तरफ झुके हो तो तुम होगा। इसलिए बात तो ठीक ही लगती है। स्त्रैण हो। अगर तुम बुद्धि की तरफ झुके हो तो तुम पुरुष हो। जो पुरुष का चित्त तो तर्क की धार है, गणित का हिसाब है, विज्ञान मनोवैज्ञानिक मापदंड है वह हृदय और बुद्धि के बीच तय होगा। का फैलाव है। विश्लेषण उसका द्वार है। स्त्री का चित्त अलग हृदय का रास्ता सुगम है। और हृदय का रास्ता अत्यंत ढंग से धड़कता। हृदय, प्रेम, रस-'रसो वै सः'। स्त्री के उल्लासपूर्ण है। वहां कोई खंड, कोटियां, विभाजन नहीं हैं। लिए परमात्मा रस-रूप है, कृष्ण-रूप है। सत्य यानी प्रीतम। इसलिए महावीर तो कहते हैं, मेरी दृष्टि भेद-विज्ञान की है। सत्य यानी सिर्फ गणित का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं। सत्य यानी और भक्त कहते हैं, हमारी दृष्टि अभेद-विज्ञान की है। हम एक जहां हृदय झुक जाए। को ही देखते हैं। अनेक में भी एक को ही देखते हैं। हमें एक ही किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे दिखाई पड़ता है। सभी रूप उसके मालूम होते हैं। सभी नाम जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना उसके मालूम होते हैं। रूप के कारण भक्त धोखे में नहीं पड़ता। हृदय झकता ही रहा। जहां गया वहीं अपने प्रीतम को खोज आकति के कारण धोखे में नहीं पड़ता। वह सभी आकतियों में लिया। और बुद्धि खोजती ही रही कि वह जगह कहां है, जहां मैं छिपे निराकार को देख लेता है। झुकू? बुद्धि खोज-खोजकर जगह नहीं पाती कि कहां झुकू और भक्ति को मैं कहता हूं, वह एक छलांग है। इसलिए और हृदय को बिना खोजे जगह मिल जाती है। हृदय की एक | भक्ति तो एक क्षण में भी घट सकती है। ज्ञान के लिए सदियां छलांग है। लग जाती हैं। तुम्हारी मर्जी! ज्ञान से भी लोग पहुंचते हैं। और जब मैं कह रहा हूं स्त्री-चित्त, तो तुम यह मत सोचना कि कुछ हैं, जो सीधी तरह से कान पकड़ना जानते ही नहीं। करोगे म तुम्हारे लिए नहीं। और तुम ऐसा भी मत भी क्या? वे चक्कर लगाकर, हाथ से सिर के पीछे से घूमकर सोचना कि तुम स्त्री हो तो जिन-सूत्र तुम्हारे लिए नहीं है। शरीर कान पकड़ते हैं। कुछ को अपने घर भी आना हो तो वे पहले से स्त्री और पुरुष होना एक बात है, चित्त से स्त्री और पुरुष होना सारी दुनिया का चक्कर लगाकर फिर घर आते हैं। अगर तुम बिलकुल दूसरी बात है। चलते ही रहो, चलते ही रहो तो जमीन गोल है, एक दिन अपने य? बद्धि खोज-खोजकर / हृदय की एक भाक्त साम र्जी। ज्ञान से भी लोग पहुचार 5331 ___ 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 साली घर आ जाओगे चलते-चलते-चलते। रोकने का कोई कारण नहीं। मैंने सुना है एक आदमी भागा जा रहा था। राह किनारे बैठे | लेकिन अपने भीतर ठीक से जांच कर लेना। भक्त के लिए तो एक बूढ़े से पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है ? सभी लोग दिल्ली | भगवान चुपचाप आ जाता है। अचानक आ जाता है। जा रहे हैं तो वह भी जा रहा होगा। एक बुखार है, दिल्ली चलो। एक दिन चुपचाप अपने आप उस बूढ़े ने कहा, जिस तरफ तुम भागे जा रहे हो, अगर उसी | __ यानी बिन बुलाए तुम चले आए तरफ भागे गए तो बहुत दूर है क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर अगर तुम इसी दिशा में भागे चले जाओ तो पहुंचोगे जरूर एक इसकी प्रतीक्षा में कि दोनों हाथ फैलाकर दिन दिल्ली, लेकिन सारी दुनिया का चक्कर लगाकर पहुंचोगे। तुम्हें उल्लास से खींचा हजारों मील की यात्रा है। अगर लौट पड़ो तो दिल्ली बिलकुल सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा पीछे है। आठ मील पीछे छोड़ आए हो। एक दिन चुपचाप अपने आप अगर बुद्धि की तरफ से गए तो बड़ी लंबी यात्रा है। पृथ्वी भी यानी बिन बुलाए तुम चले आए इतनी बड़ी नहीं है। क्योंकि बुद्धि के फैलाव का कोई अंत ही नहीं भक्त तो सिर्फ प्रतीक्षा करता है। कहां जाए खोजने? कहां है है। बुद्धि का आकाश बहुत बड़ा है। परमात्मा या कहां परमात्मा नहीं है? कहां खोजने जाए? या तो मैंने सुना है कि शिव अपने बेटों के साथ खेल रहे | सब जगह है या कहीं नहीं है। कहां खोजने जाए? परमात्मा की हैं-कार्तिकेय और गणेश। और ऐसे ही खेल में उन्होंने कहा कोई दिशा तो नहीं। भक्त सिर्फ प्रतीक्षा करना जानता है। रोता कि तुम मानते हो कि मैं ही यह सारी सृष्टि हूं? तो मेरे भक्त को | है, प्रार्थना करता है, आंसू गिराता है। मेरी परिक्रमा कैसी करनी चाहिए, तुम बताओ। तो कार्तिकेय तो एक दिन चुपचाप अपने आप बड़े बुद्धिमान रहे होंगे, ज्ञानी रहे होंगे। चले सारी सृष्टि का यानी बिन बुलाए तुम चले आए चक्कर लगाने। शिव की परिक्रमा करनी है। और शिव यानी भक्त तो कहता है हम बलाएं भी किस जबान से? किस जबा सारी सृष्टि। सब में व्याप्त परमात्मा। पता नहीं अभी तक लौटे से? किन ओंठों से लें तेरा नाम? ओंठ हमारे झूठे हैं। और भी कि नहीं कार्तिकेय। कहानी कुछ कहती नहीं। गणेश ने उनसे हम और बहुत नाम ले चुके हैं। कैसे पुकारें तुझे? हमारी ज्यादा होशियारी की। वजनी शरीर, हाथी की सूंड! अब इतनी सब पुकार बड़ी छोटी है, क्षीण है। कहां खो जाएगी इस विराट बड़ी पृथ्वी का चक्कर क्या? उन्होंने शिव का चक्कर लगाकर | में, पता भी न चलेगा। जल्दी से वहीं बैठ गए। हो गई! सृष्टि की परिक्रमा हो गई। एक दिन चुपचाप अपने आप अगर शिव ही समाए हैं सारी सृष्टि में तो अब सारी सृष्टि की यानी बिन बुलाए तुम चले आए परिक्रमा क्या करनी! शिव की कर ली तो सारी सृष्टि की हो मझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर गई। कार्तिकेय ने सोचा ठीक उलटा। वह भी ठीक है, वह भी इसकी प्रतीक्षा में... तर्क ठीक है। कि जब सारी सृष्टि में समाए हैं तो सारी सृष्टि की __ और भक्त कहता है, वे जो बीत गईं जीवन की घड़ियां, बस जब परिक्रमा होगी तभी तो परिक्रमा हो पाएगी। एक रात थी, जो प्रतीक्षा में बीत गई। बुद्धि यानी कार्तिकेय। हृदय यानी गणेश। हृदय से तो अभी कि दोनों हाथ फैलाकर घट सकता है। ऐसा एक चक्कर मारा शिव का और बैठ गए कि | तुम्हें उल्लास से खींचा हो गई बात पूरी। सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा लेकिन बुद्धि से बहुत लंबी यात्रा है-अनंत काल। जो क्षण भक्त को भगवान मिलता है। भक्त को भगवान स्वयं खोजता में हो जाता है, वह शायद अनंत काल में ही हो पाए। तुम पर है। ज्ञानी सत्य की खोज करता है। भक्त को भगवान खोजता | निर्भर है। किन्हीं-किन्हीं को यात्रा का ही सुख आता है तो उन्हें है। भक्त कहीं जाता-आता नहीं। किन्हीं सीढ़ियों पर यात्रा नहीं 534 Jai Education International 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं करता...। नहीं हैं अभी। ऊर्जा से भरे खड़े हैं। एक क्षण, एक-एक क्षण पीड़ ऐसी कि घटा छायी है सूचना की प्रतीक्षा है, और दौड़ पड़ेंगे। दौड़े नहीं हैं अभी, ठंडी यह सांस की पुरवाई है लेकिन ऊर्जा से भरे खड़े हैं। तुझको मालूम क्या है आज यहां ऐसी ही दशा भक्त की है। खोजने नहीं जाता लेकिन आलस्य बरखा बादल के बिना आयी है में नहीं है। बड़ी त्वरा से भरा है। वर्षा हो जाती है बादल के बिना आए। उसका अमृत-घट भर एक गीत कल मैं पढ़ रहा था। है तो इस संसार के प्रेम का गीत जाता है। बादल भी नहीं उमड़ते-घमडते और वर्षा हो जाती है। लेकिन प्रेम इस संसार का हो कि उस संसार का, बहत भेद नहीं अतर्व्य है भक्त का मिलन परमात्मा से। ज्ञानी का तो तर्क है। देखती हीन दर्पण रहो प्राण तम ज्ञानी का तो बिलकुल साफ-साफ है। रत्ती-रत्ती का उत्तर है। प्यार का महूरत निकल जाएगा ज्ञानी अर्जित करता है। भक्त के लिए भगवान प्रसाद-रूप है। कौन शृंगार पूरा यहां कर सका भक्त कहता है, मेरे किए मिलेगा यह संभव ही नहीं है। मेरे किए सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी ही तो चूक रहा है। मेरे कारण ही तो बाधा पड़ रही है। भक्त | हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अपनी बाधा हटा लेता है। बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी ज्ञानी जिस दिन पाता है, उस दिन किसी को धन्यवाद देने की हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन भी जरूरत नहीं है। क्योंकि उसने अर्जित किया है। इसलिए पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां महावीर की संस्कृति का नाम पड़ गया है श्रमण संस्कृति। श्रम कांच से ही ना नजरें मिलाती रहो से पाया है, चेष्टा से पाया है, पुरुषार्थ से पाया है। बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा भक्त तो कहता है, भगवान प्रसाद-रूप मिला है। मैंने पाया, | देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम ऐसी बात ही गलत है। प्यार का यह महूरत निकल जाएगा ज्ञानी तो कहता है, जब तक मैं पूर्ण न हो जाऊं तब तक कैसे भक्त कहता है, हम तो अपूर्ण हैं। कब तक सजते-संवरते सत्य मिलेगा? इसलिए ज्ञानी अपने को पूर्ण करने में लगता है। | रहें? तुम हमें ऐसे ही स्वीकार कर लो। हम कभी पूर्ण हो पाएंगे ज्ञानी की साधना है, भक्त की तो सिर्फ प्रार्थना है। भक्त कहता इसकी संभावना भी नहीं। लेकिन हमारा प्रेम पूर्ण है। हम अपूर्ण है, पूर्ण और मैं? होनेवाला नहीं। मिलोगे तो अपूर्ण में ही मिलन होंगे, हमारी चाह पूर्ण है। हमारी चाहत देखो। होगा। मर्जी हो तो जैसा हूं, ऐसा ही स्वीकार कर लो। मुझसे यह कौन शृंगार पूरा यहां कर सका सधेगा न, कि मैं पूर्ण हो सकूँ। सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी तो ज्ञान में एक खतरा है कि अहंकार बच जाए। भक्ति में हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अहंकार का खतरा नहीं है। भक्ति का खतरा दसरा है कि बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी आलस्य का नाम भक्ति बन जाए। ज्ञान में आलस्य का खतरा हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन नहीं है। दोनों के खतरे हैं, दोनों के लाभ हैं। ज्ञानी का खतरा है पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां कि अहंकारी हो जाए कि मैंने अर्जित किया। भक्त का खतरा है कांच से ही नजरें ना मिलाती रहो कि आलस्य प्रतीक्षा बन जाए। आलस्य प्रतीक्षा नहीं है। प्रतीक्षा बिंब को मक प्रतिबिंब छल जाएगा बड़ी सक्रिय चित्त की दशा है, सक्रिय और निष्क्रिय एक साथ। भक्त कहता है, जो अभी मिल सकता है उसे कल पर मत बड़ी तीव्र प्यास की दशा है। टालो। जो इसी क्षण घट सकता है, उसे कल पर मत टालो। मत तुमने कभी देखा? ओलंपिक के चित्र देखे होंगे। दौड़ के लिए कहो कि हम तैयार होंगे। हम सीमित हैं। हमारी सीमाएं हैं। हम प्रतियोगी खड़े होते हैं रेखा पर। सीटी बजने की प्रतीक्षा है। दौड़े अपूर्ण हैं। हमारी चाहत पूर्ण हो सकती है, हमारी अभीप्सा पूर्ण 535 ___ 2010_03 | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 हो सकती है, लेकिन हम पर्ण नहीं हो सकते। हैं, उन्हें वहीं वृंदावन के दर्शन हो जाएंगे। यहां फर्क तुम समझने की कोशिश करना। ज्ञानी कहता है, हंसी तो आएगी। क्योंकि तब पता चलेगा कि हम अकारण ही चाहत छोड़ो और पूर्ण बनो। भक्त कहता है, चाहत को पूर्ण परेशान थे। हंसी अपने पर आएगी। हंसी औरों पर भी आएगी, करो; तुम्हारी पूर्णता-अपूर्णता की चिंता न करो। दोनों विपरीत, जो अभी भी परेशान हैं। हंसी आएगी इस सारे खेल पर।। लेकिन पहुंच जाते हैं एक ही शिखर पर। इसीलिए तो भक्तों ने कहा है कि यह जगत लीला है। यह खेल है। इसे बहुत गंभीरता से मत लो। गंभीरता ज्ञानी का मार्ग चौथा प्रश्न : रजनीश एशो आमी तोमार बोइरागी है; सरलता, उत्फुल्लता भक्त का। आमी पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम हंसी तो आएगी क्योंकि फिर जो कहने योग्य मालूम पड़ेगा उसे लाओ री लाओ संगे डुगडुगी कह भी न सकोगे। हंसकर ही कहा जा सकता है या रोकर कहा बहुत हंसी आती है। अब तो डुगडुगी के सिवा कुछ बचा जा सकता है। वाणी बड़ी छोटी पड़ जाती है। डुगडुगी बजाकर नहीं है। ही कहा जा सकता है। शब-ए-वस्ल की क्या कहूं दास्तां डुगडुगी ही बच जाए तो सब बच गया। डुगडुगी खो जाए तो | जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई सब खो गया। तुम डुगडुगी हो जाओ तो सब हो गया। उस मिलन की रात की कहानी क्या कहूं? कैसे कहूं? आह्लाद! नृत्य! तुम्हारे भीतर के स्वर नाचने लगें, गुनगुनाने जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई। लगें, तो निश्चित ही फिर हंसी के योग्य ही है सब-सब कहते-कहते जबान तो थक गई लेकिन जो कहना चाहते थे, खोजबीन, सब दौड़धूप। वह नहीं कहा जा सका। बजाओ डुगडुगी! उससे ही कहो। भक्त तो उत्सव में मानता है। भक्त तो उत्सव को ही पूजा और नाचो! ले लो एकतारा हाथ में। और जो तुम्हें नाचकर मिलेगा, प्रार्थना बनाता है। यह जगत एक महोत्सव है। इसमें तुम नाहक वह किसी शास्त्र से किसी को कभी नहीं मिला। उदास-उदास बैठे हो। सम्मिलित हो जाओ। सब थिरक रहा है, | नृत्य का अर्थ है, गीत का अर्थ है, उत्सव का अर्थ है कि तुमने तुम भी थिरको। सब नाच रहा है। देखो चांद-तारे, देखो वृक्ष, पैर से पैर मिलाए अस्तित्व के साथ। तुम ऐसे किनारे पर न खड़े पशु-पक्षी, देखो हवाएं, अकाश में घिरे बादल, ये बूंदों की रहे राह के। जा रही थी यात्रा, रथोत्सव हो रहा था, तुम भी टिपटिप! सब नाच रहा है। यहां थिर कोई भी नहीं है। सब | सम्मिलित हुए। नाचता जा रहा है अस्तित्व प्रतिपल। तुम क्यों फुदक रहे हैं। सिर्फ आदमी उदास है। | बैठे किनारे? कैसे उदास? कैसे हताश? डुगडुगी बनो। बजो। बांसुरी बनो। फूटने दो स्वर कोः / उठो! लौटाओ अपनी थिरक! इस नाचते हुए रासमंडल में झरनों की तरह, चांद-तारों की तरह। नाचो, इस महत नृत्य में सम्मिलित हो जाओ। खो जाओगे उस नृत्य में। तुम न बचोगे। सम्मिलित हो जाओ। डुगडुगी बजेगी तो तुम न बचोगे। तब जरूर हंसी आएगी। हंसी आएगी, नाहक इतने दिन उदास __ भक्त खोने की तैयारी रखता। ज्ञानी अपने को बचाता, रहे। नाहक इतने दिन रोए। नाहक इतने दिन वंचित रहे। जो निखारता। भक्त अपने को डुबाता और खोता। मिला ही था, उसके साथ नाच क्यों न सके? रास हो ही रहा है। मिलते ही किसी के खो गए हम यह ब्रह्मांड रास की एक प्रक्रिया है। जागे जो नसीब सो गए हम तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता? बांसुरी कभी बंद नहीं हई, बज ही | जब वस्तुतः भाग्य जागता है, जब वस्तुतः वर्षा होती है, जब | रही है। तुम बहरे हुए हो। अंधे हुए हो। नाच हो ही रहा है। | वस्तुतः अमृत के द्वार मिलते हैं तो तुम नहीं बचते। कोई आज ऐसा नहीं था कि कुछ कभी वृंदावन में हुआ था, अब नहीं हो रहा तक परमात्मा से मिला थोड़े ही! मिलने के पहले ही खो जाता है। परमात्मा नाच ही रहा है। जिनके पास आंखें हैं, वे जहां भी है। मिलने की पहली शर्त खो जाना है। 536 Jan Education International 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं : मिलते ही किसी के खो गए हम हम सीखते हैं। संदेह बाहर से उधार मिलता है। अगर तुम्हारे जागे जो नसीब सो गए हम . मन में प्रश्न हैं तो फिर तुम्हें ज्ञान के रास्ते पर थोड़ी यात्रा करनी भक्त के लिए प्रतिपल प्रतीक्षा का है। वह राह देख ही रहा है। / होगी। अगर कोई प्रश्न नहीं हैं जीवन में, और तुम्हारे मन में कब आ जाएंगे उसके प्रीतम, कहा नहीं जा सकता। संदेह सहज नहीं उठता, आदत गहरी नहीं हुई संदेह की तो फिर आज आएंगे वो गीतों को जरा चुप कर दो कोई भी अड़चन नहीं है। तुम इसी क्षण परमात्मा के मंदिर में चांद को नभ से उतारो और द्वारे धर दो प्रविष्ट हो सकते हो। द्वार-दरवाजे बंद भी नहीं हैं। चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो पांचवां प्रश्नः ऐसा लगता है कि अब थोड़ी-सी आयु ही चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को बची है। न जाने कौन कब इस शरीर को समाप्त कर दे। इससे आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से भक्त, भगवान है या नहीं ऐसी जिज्ञासा ही नहीं करता। करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या भगवान आ ही रहा है। भक्त को प्रश्न ही नहीं उठा है भगवान के अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर क्षण जाने को तैयार हूं। होने न होने का। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक जिसको प्रश्न उठ गया, वह श्रद्धा न कर पाएगा। अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो हम भक्त की तरह पैदा होते हैं, फिर विनष्ट हो जाते हैं। इसे नहीं उपलब्ध होंगे। क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या थोड़ा समझने की कोशिश करना। प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं। पैदा होता है। होना ही चाहिए क्योंकि स्त्री के गर्भ से पैदा होता है। हृदय के पास धड़कता हुआ पैदा होता है। होना ही चाहिए | ओमप्रकाश सरस्वती ने पूछा है। मैं जानता हूं, वे पूरी तरह प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह पैदा-श्रद्धा से भरा, तैयार होकर आए हैं। वे कुछ भी खोने को तैयार हैं, कुछ भी देने स्वीकार-भाव से। 'हां' हर बच्चे का स्वर है। धीरे-धीरे 'ना' को तैयार हैं। और उसी कारण बाधा है। सीखता है, नहीं सीखता है, नकार सीखता है, नास्तिकता हृदय उनका भक्त का है, ज्ञानी का नहीं है। अगर ज्ञानी का सीखता है। उनका स्वभाव होता तो सब कुछ देने की यह तैयारी उन्हें नास्तिकता सीखी जाती है, आस्तिकता हमारा स्वभाव है। गुणस्थानों की सीढ़ियों पर चढ़ा देती। लेकिन बुद्धि उनका नास्तिकता हम बाहर से सीख लेते हैं। जीवन के कड़वे-मीठे स्वभाव नहीं है, हृदय उनका स्वभाव है। इसलिए सब देने की अनुभव, जीवन की धोखाधड़ी हमें नास्तिकता के लिए तत्पर कर यह तैयारी ही बाधा है। इसे भी छोड़ो। उसका ही है, देना क्या देती है। संदेह हम सीखते हैं। श्रद्धा हम लेकर आते हैं। है? समर्पण भी क्या करना है? उसकी ही वस्तुएं उसे देते हुए नास्तिक कोई पैदा नहीं होता, नास्तिक निर्मित होते हैं। आस्तिक शर्म खाओ। पैदा होते हैं। आस्तिक हमारा स्वभाव है।। यह बात ही भूलो कि कुछ देना है। यह बात ही भूलो कि कुछ छोटा बच्चा 'नहीं' कहना जानता ही नहीं। कुछ भी कहो, | करना है। यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं? उतावलापन है ? 'हां' कहता है। अभी उसने 'नहीं' सीखी नहीं है। अभी जीवन उतावलेपन को उतावलापन मत कहो। वह शब्द गलत है। उसे ने उसे इतना दुख नहीं दिया कि वह नहीं कहे। अभी इनकार उसे | प्रतीक्षा कहो, त्वरित प्रतीक्षा कहो, त्वरा से भरी प्रतीक्षा कहो, आया नहीं। अभी किसी ने धोखाधड़ी नहीं की। अभी किसी ने अभीप्सा कहो। उतावलापन गलत व्याख्या है। वंचना नहीं की। किसी ने जेब नहीं काटी। किसी ने उसे सताया | निश्चित ही भक्त को भी एक अधैर्य होता है कि पता नहीं कब नहीं। अभी वह ना कहे कैसे? | मिलन होगा। लेकिन उसके अधैर्य में एक सौंदर्य है। वह अधैर्य आस्तिकता स्वाभाविक है। भक्ति हम लेकर आते हैं। संदेह में भी शांति से जीता है। वह जानता है कि मिलना तो होगा: 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 चाहता है जल्दी हो जाए। की तरह। गाओ! इसलिए नहीं कि गाने से उसे रिझाना है। उतावलेपन में धीरज नहीं है, सिर्फ अधैर्य है। अभीप्सा में | गाओ इसलिए, कि उसने तुम्हें रिझा लिया है। अब गाओगे न तो अधैर्य भी है और धीरज भी है। अभीप्सा बड़ी पैराडाक्सिकल, करोगे क्या? बड़ी विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ वह जानता है, मिलना इस फर्क को खयाल में ले लेना। भक्त साधन की तरह नहीं तो होना ही है। वह तो निश्चित है। वह बात तो हो ही गई। | कुछ करता, साध्य की तरह करता है। परम आह्लाद से भरकर उसमें कुछ सोचना नहीं है। करता है क्योंकि जो घटना है, वह घट ही चुका है। जो होना है दूसरी तरफ वह कहता है, अब जल्दी हो जाए। अब और देर वह हो ही चुका है। उसे रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अनंत काल न लगाओ। अब कब से पलक-पांवड़े बिछाकर बैठा हूं। अब में भी अगर परमात्मा से मिलना होगा तो इसी क्षण मिलना हो आ भी जाओ। और भीतर वह जानता है कि ऐसी जल्दी भी क्या गया है। इस श्रद्धा में ही मिलना हो गया है कि अनंत काल में है? आओगे तो तुम निश्चित ही। मिलना हो जाएगा। भक्त की मनोदशा बड़ी विरोधाभासी है। जो मिला ही हुआ है। नारद स्वर्ग जा रहे हैं। और एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बूढ़े उसे, उसके लिए तड़फता है। जिसका मिलना बिलकुल संन्यासी को बैठे देखा, तप में लीन माला जप रहा है। सुनिश्चित है, उसके लिए तड़फता है। जटा-जूटधारी! अग्नि को जला रखा है। धूप घनी, दुपहर तेज, उतावलापन मत कहो। कभी-कभी गलत शब्द खतरनाक हो वह और आग में तप रहा है। पसीने से लथपथ। नारद को सकता है। उतावलेपन में एक तरह का तनाव है। अभीप्सा में देखकर उसने कहा कि सुनो, जाते हो प्रभु की तरफ, पूछ लेना, तनाव नहीं है। प्यास कहो, पुकार कहो। उतावलापन मत | जरा पक्का करके आना, मेरी मुक्ति कब तक होगी? तीन जन्मों कहो। उतावलापन बुद्धि का शब्द है। और ओमप्रकाश से कोशिश कर रहा हूं। आखिर हर चीज की हद्द होती है। बुद्धिमान आदमी नहीं, हृदयवान आदमी हैं। चेष्टा करनेवाले का मन ऐसा ही होता है, व्यवसायी का होता हृदयवान शब्द का लोग उपयोग ही नहीं करते। किसी को है। नारद ने कहा जरूर पछ आऊंगा। उसके ही दो कदम आगे कहो बुद्धिमान नहीं, तो वह नाराज हो जाए। क्योंकि एक ही चलकर दूसरे वृक्ष के नीचे, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे एक मतलब होता है, बुद्धिमान नहीं है यानी बुद्ध। दूसरी बात ही हम युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा कोई प्राचीन बाउल : भूल गए हैं कि कोई हृदयवान भी हो सकता है। एकतारा लिए, डुगडुगी बांधे। थाप दे रहा डुगडुगी पर, एकतारा ओमप्रकाश हृदय के केंद्र के करीब हैं। घटेगी घटना। घटनी | बजा रहा, नाच रहा। युवा है। अभी बिलकुल ताजा और नया ही है। लेकिन तुम्हारी तरफ से कोई तैयारी की जरूरत नहीं है। है। अभी तो दिन भी संन्यास के न थे। और न तुम्हारे पास कोई उपाय है कि तुम कुछ कर सको। तड़पो, नारद ने कहा-मजाक में ही कहा कि तम्हें भी तो नहीं रोओ, नाचो। लेकिन यह भी उसे पाने के साधन की तरह नहीं। पूछना है कि कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला ही नहीं। वह क्योंकि साधन की तरह सोचना ही बाजार की भाषा है, प्रेम की अपने नाच में लीन था। उसने नारद को देखा ही नहीं। उस घड़ी भाषा नहीं। तो नारायण भी खड़े होते तो वह न देखता। फर्सत किसे? नारद नाचो, क्योंकि श्रद्धा है। नाचो, क्योंकि वह आता ही होगा। चले गए। दूसरे दिन जब वापस लौटे तो उन्होंने उस बूढ़े को नाचो, क्योंकि वह आ ही रहा है, रास्ते पर ही है। नाचो, कि दूर कहा कि मैंने पूछा, उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे। उसके रथ के पहियों की आवाज सुनाई ही पड़ने लगी है। कितने बूढ़ा बड़ा नाराज हो गया। उसने माला आग में फेंक दी। उसने ही दूर-दिगंत में, आकाश में बादलों के पास होती है गड़गड़ाहट कहा, भाड़ में जाए यह सब! तीन जन्म से तड़फ रहा हूं, अब लेकिन वह चल पड़ा। वह अनंत काल से तुम्हारी तरफ चल ही | तीन जन्म और लगेंगे? यह क्या अंधेर है? अन्याय हो रहा है। रहा है। नारद तो चौंके। थोड़े डरे भी। उस युवक के पास जाकर कहा नाचो! उसने तुम्हें चुन लिया है—साधन की तरह नहीं, साध्य कि भई! नाराज मत हो जाना—वह नाच रहा है—मैंने पूछा -538 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं। क्योंकि उन्होंने कहा है कि और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य वह युवक, वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष में जितने पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ। पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे। दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया ऐसा सुना था उस युवक ने, कि वह एकदम पागल हो गया | रात आयी तो सितारों ने परेशान किया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद ने कहा, समझे गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई कि नहीं समझे? मतलब समझे कि नहीं? जितने इस वृक्ष में गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा, जीत लिया, पा लिया, हो ही गई | यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं। सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम! यह उतावलापन सांसारिक है। पहुंच गए। गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हई कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत से भरी अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां आंख...उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान होने की बनाए बैठे सोचता कि वह तीन जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले दिया था। वह बूढ़ा | तरफ वसंत मौजूद है। कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा। अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का है। यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर चेहरा थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो बाहर दिखाई पड़े। आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक। तपश्चर्या, | अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस बूढ़े की | बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ। थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी। नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। आखिरी प्रश्न: कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो लो एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना | तो कृष्ण महाराज को नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से क्या है और? परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन कृपया भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि गुनगुनाने में भ्रांति गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए! जाती है, अंगारा निकल आता है। रही बात कि-'उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन उपलब्ध होंगे।' | करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार कर लेना। नमन और अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर हूं। वे यहां भी बैठे होंगे। जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं। हो कि तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव दबा रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने से भरो। जोड़ बन गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है। ' प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही ज्ञान 539 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 समझते हुए जीयो और मर जाओ; और तुम्हें अपनी कोई जीवंत | उस दिन तुम जल्दी न करोगे हाथ छुड़ाने की। अनुभूति न हो। जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूँ मैं मेरी बात तुम सुन रहे हो। अगर मेरी बात को संगृहीत करने यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं? लगे तो खतरा है। सुनो मेरी, गुनो अपनी। समझो, संग्रह मत प्रेम में कैसा पागलपन हो गया! करो। याददाश्त भरने से कुछ भी न होगा। स्मृति के पात्र में जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं तुमने, जो-जो मैंने तुमसे कहा, इकट्ठा भी कर लिया तो दो कौड़ी प्रेम में ऐसी दीवानगी भी आती है कि प्रेमी से ही हाथ छुड़ाकर का है। उससे कुछ लाभ नहीं। तुम्हारा बोध जगे। जो मैं कह | भागने के लिए आदमी तत्पर हो जाता है। रहा हूं उसे समझो, उससे जागो। कोई परीक्षा थोड़ी ही देनी है। जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूँ मैं कहीं कि तुमने जो मुझसे सुना, वह याद रहा कि नहीं रहा। यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं एक मित्र एक दिन आए, वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। रोज तुम छुड़ाओ मत। जल्दी मत करो। मैं खुद ही चुपचाप हाथ आपको सुनता हूं लेकिन घर जाते-जाते भूल जाता हूं। तो अगर अलग कर लूंगा। तुम जरा तैयार हो जाओ, तुम पकड़ना भी मैं नोट लेने लगू तो कोई हर्ज तो नहीं? तो नोट लेकर भी क्या | चाहोगे तो मैं पकड़ने न दूंगा। क्योंकि अगर मैंने तुम्हें पकड़ने करोगे? अगर नोट लिया तो नोट-बुक का मोक्ष हो जाएगा, | दिया तो मैं तुम्हारा दुश्मन हुआ, मित्र न हुआ। कल्याणमित्र तो याद तो नोट-बुक को रहेगा। तुमको तो वही है, जो तम्हें तम्हारा बोध टे तुम्हें तुम्हारा बोध दे जाए और हट जाए बीच से। जो रहेगा नहीं। तुम्हें परमात्मा के द्वार तक पहुंचा जाए, फिर तुम लौटकर उसे और याद रखने की जरूरत क्या है? मैंने उनसे पूछा, याद | खोजो तो मिले भी न। रखकर करोगे क्या? समझ लो, बात हो गई। सार-सार रह मगर ऐसा सदगरु कभी खोता नहीं, क्योंकि तम उसे अपने जाएगा। फूल तो विदा हो जाएंगे, सुगंध रह जाएगी। पहचानना अंतर्तम में विराजमान पाओगे। तब तुम अचानक पहचानोगे भी मुश्किल होगा, किस फूल से मिली थी। लेकिन उस सुगंध एक दिन, जो बाहर से बोला था, वह भीतर की ही आवाज थी। के साथ-साथ तम्हारे भीतर की सगंध भी उठ आएगी। उस जिसने बाहर से पकारा था वह भीतर से ही उठी पकार थी। वह सुगंध का हाथ पकड़कर तुम्हारी सगंध भी लहराने लगेगी। जो बाहर दिखाई पड़ा था वह अपने ही अंतर्तम की छवि थी। तो एक दिन तो गुरु को नमस्कार करना ही है। नमन से शुरू | बाहर जिसके दर्शन हुए थे, वह अपना ही भविष्य रूप धरकर करना, नमस्कार से विदा देनी। इसे याद रखना। इसे भूलना | आया था। मत। कृष्ण से उतना खतरा नहीं है, जितना तुम्हारे लिए मुझसे | घबड़ाओ मत। अभी तो तुम भुलाने की कोशिश करोगे तो खतरा है। क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा कोई लगाव ही नहीं। जिनका भुला न सकोगे। जब तक जाग नहीं गए तब तक भलाना संभव लगाव है, वे तो मेरे पास आते भी नहीं। तो कृष्ण को तो तुम बड़े भी नहीं, उचित भी नहीं। संभव हो तो भी उचित नहीं। मजे से नमस्कार कर सकते हो। असली कठिनाई तो मझे किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश नमस्कार करने में आएगी। किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया करने के पहले नमन का अभ्यास करना जब तक तम जाग ही नहीं गए हो. जब तक तम अपने प्रीतम होगा। नमन ही लंबा होकर नमस्कार बनता है। झुको! तुम स्वयं ही नहीं बन गए हो, तब तक तुम भुला भी न सकोगे कृष्ण अगर झुके तो तुम्हारे भीतर कोई जगेगा। तुम अगर अकड़े रहे तो को, या महावीर को, या मोहम्मद का। तम्हारे भीतर कोई झका रहेगा। तम झको तो तुम्हारे भीतर कोई किस-किस उन्वां से भलाना उसे चाहा था रा खड़ा हो जाएगा। किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया बाहर का गुरु तो केवल थोड़ी देर का साथ है ताकि भीतर का भुलाने की जल्दी भी मत करो। जागने की फिक्र करो। भुलाने गुरु जग जाए। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाता है, | पर जोर मत दो, जागने पर जोर दो। इधर तुम जागे, कि एक अर्थ 5401 Jan Education International 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गणस्थान नहीं में तुम भूल जाओगे गुरु को और एक गहरे अर्थ में पहली दफे तुम उसे पाओगे। अपने ही भीतर विराजमान पाओगे। तुम्हारे ही सिंहासन पर विराजमान पाओगे। तुम्हारी ही आत्मा जैसा विराजमान पाओगे। अचानक तुम पाओगे, गुरु और शिष्य दो नहीं थे। मैं तुम्हारी ही संभावना हूं। जो तुम हो सकते हो, उसकी ही खबर हूं। लेकिन छुड़ाने की कोई जल्दी नहीं है। जल्दी छुड़ाने में तो तुम अटके रह जाओगे। लाभ भी न होगा। छूटना तो हो ही जाएगा। सीख लो। जाग लो। तुम हो जाओ। मां अपने छोटे बच्चे को चलना सिखाती है। हाथ पकड़कर सिखाती है। हालांकि बच्चा हाथ छोड़ना चाहता है। क्योंकि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है कि कोई और मेरा हाथ पकड़कर चलाए। लेकिन मां पकड़ती है। माना कि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है, लेकिन अभी उसे उस पर छोड़ा भी नहीं जा सकता है। अभी तो तुम छुड़ाओगे भी तो मैं न छोडूंगा। अभी भी तुम भागोगे तो मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। तुम कहीं भी निकल जाओ, मैं छाया की तरह तुम्हें सताऊंगा। अभी तो उपाय नहीं है। तो मां पकड़ती है बच्चे का हाथ। फिर एक दिन बच्चा चलने लगता है, तो चुपचाप हाथ को छुड़ाती है—फिर चाहे बच्चा पकड़ना भी चाहे। क्योंकि अब बच्चे को भी समझदारी आ गई है इतनी कि मां के हाथ में हाथ हो तो ज्यादा सुरक्षित। अनुभव ने सिखा दिया। कई दफे गिरा है, घुटने टूट गए हैं, अब अनुभव ने सिखा दिया है कि यह हाथ पकड़े ही रहूं। लेकिन अब मां छुड़ाती है। यही तो जीवन का विरोधाभास है। एक दिन पकड़ना पड़ता है, एक दिन छुड़ाना पड़ता है। जिस सीढ़ी से चढ़ते हो उसे छोड़ना पड़ता है। जिस नाव से दूसरे किनारे जाते हो, उससे उतरना पड़ता है। इसलिए अभी नमन करो, फिर नमस्कार भी हो जाएगा। तुम न करोगे तो मैं कर लूंगा। आज इतना ही। 5411 __ 2010_03