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________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं। क्योंकि उन्होंने कहा है कि और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य वह युवक, वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष में जितने पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ। पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे। दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया ऐसा सुना था उस युवक ने, कि वह एकदम पागल हो गया | रात आयी तो सितारों ने परेशान किया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद ने कहा, समझे गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई कि नहीं समझे? मतलब समझे कि नहीं? जितने इस वृक्ष में गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा, जीत लिया, पा लिया, हो ही गई | यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं। सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम! यह उतावलापन सांसारिक है। पहुंच गए। गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हई कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत से भरी अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां आंख...उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान होने की बनाए बैठे सोचता कि वह तीन जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले दिया था। वह बूढ़ा | तरफ वसंत मौजूद है। कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा। अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का है। यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर चेहरा थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो बाहर दिखाई पड़े। आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक। तपश्चर्या, | अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस बूढ़े की | बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ। थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी। नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। आखिरी प्रश्न: कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो लो एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना | तो कृष्ण महाराज को नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से क्या है और? परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन कृपया भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि गुनगुनाने में भ्रांति गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए! जाती है, अंगारा निकल आता है। रही बात कि-'उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन उपलब्ध होंगे।' | करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार कर लेना। नमन और अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर हूं। वे यहां भी बैठे होंगे। जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं। हो कि तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव दबा रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने से भरो। जोड़ बन गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है। ' प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही ज्ञान 539 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340157
Book TitleJinsutra Lecture 57 Prem ki Koi Gunsthan Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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