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________________ अठारहवां प्रवचन मुक्ति द्वंद्वातीत है Forrrivate & Personal Use Only
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________________ प्रश्न-सार राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या मोक्ष के भी ऐसे ही दो पहिये होते हैं? गुरु मृत्यु है या ब्रह्म है, या एक साथ दोनों है? सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलना होय? आपका स्मरण मुझे प्रगाढ़ रसमयता और आनंद से भर देता है, मेरी चाल में आपकी धुन के घर बजते हैं, तो अब मैं ध्यान को कहां रखें? वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि अब कुछ हो सकता है। प्रभु, प्रणाम! मन एकदम शांत होगा तो सांसारिक कार्य कैसे होंगे? .: 2010_03
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________________ हला प्रश्न: आप कहते हैं कि राग और द्वेष के दो | दूसरी बात : जहां तक यात्रा है, वहां तक संसार है। जहां यात्रा 1 पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या इनके ठीक समाप्त हुई, वहीं मोक्ष है। विपरीत कोई दो पहिये और हैं, जिनसे मोक्ष तो दो पहियों की तो जरूरत है ही नहीं, एक पहिये की भी निर्मित होता है? कृपा करके समझाएं। जरूरत नहीं है। और एक पहिया हो भी, तो व्यर्थ होगा। | तीसरी बातः पूछा, 'राग-द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित पहली बात : जहां दो हैं, वहां संसार है। जहां एक बचा, वहां होता है।'-सच है। क्योंकि राग एक तरफ झुकाता, द्वेष मोक्ष प्रारंभ हुआ। दूसरी तरफ झुकाता। राग-द्वेष के झंझावात में हमारा चित्त कंपता द्वैत संसार है, अद्वैत मोक्ष है। है। आसक्ति और विरक्ति, राग और द्वेष, शत्रु और मित्र, इसलिए संसार के तो दो पहिये हैं, मोक्ष के नहीं। अपना और पराया, हितकर और अहितकर, इन दोनों के बीच दूसरी बात H संसार गति है, प्रवाह है, खोज है, तलाश है, मार्ग हम कंपते हैं। जब दोनों के बीच हम थिर हो जाते हैं और कंपन है, इसलिए दो पहियों की जरूरत है। दो पहियों के बिना यह | समाप्त हो जाता है, न राग बुलाता, न द्वेष बुलाता; जहां हम गाड़ी चलेगी नहीं। निर्द्वद्व होकर, निष्कंप होकर बीच में समाधिस्थ हो जाते हैं; जहां मोक्ष, कहीं जाना नहीं है, मोक्ष तो पहुंच गए। मोक्ष तो वहां है, मध्य-बिंदु मिल जाता है, वहां मोक्ष है। जहां सब जाना समाप्त हुआ। गाड़ी चलती रहे तो मोक्ष नहीं है। | राग और द्वेष के विपरीत मोक्ष में कुछ भी नहीं है। राग और जहां रुक गया सब, ठहर गया सब, परम विश्राम आ गया, | द्वेष से मुक्ति, मोक्ष है। मोक्ष संसार का विरोध नहीं है, मोक्ष जिसके पार कोई लक्ष्य न बचा, वहीं मोक्ष है। संसार का अभाव है। संसार नहीं बचता, इतना ही कहो, बस वासना जहां शून्य होती है, कामना जहां विराम लेती है, लक्ष्य काफी है। फिर जो शेष रह जाता है, वही मोक्ष है। जहां संपूर्ण हो गए। सिद्धि जहां श्वास-श्वास में है-फूल | जैसे एक आदमी बीमार है; जब बीमारियां हटा लेते हैं हम, तो खिल गया। अब और खिलने को कछ बचा नहीं। पर्णता | जो शेष रह जाता है. वही स्वास्थ्य है। उतरी। अब कुछ और उतरने को बचा नहीं। स्वास्थ्य बीमारियों के विपरीत नहीं है कुछ, बीमारियों का इसलिए दो पहियों का तो सवाल ही नहीं है, एक पहिये की भी समाप्त हो जाना है। जहां कोई बीमारी नहीं बची, वहां स्वास्थ्य जरूरत नहीं है—पहिये की जरूरत नहीं है। सहज रूप से मुखरित होता है। तो पहली तो बात; जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां संसार बाधा की तरह है, पत्थर है : झरने को रोके हुए। पत्थर एक है, वहां मोक्ष है। हट गया, झरना बहा। झरना तो मौजूद ही है। मोक्ष तो मौजूद ही 347 2010_03
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________________ - जिन सूत्र भाग: 2 UNDER BHAIMIMARA है तुम्हारे भीतर। संसार से तुम्हारी पकड़ छूटी कि जो सदा से | विपरीत की भाषा ही भूल जाओ। विरोध की भाषा ही भूल मिला हआ था, उसका पता चलता है। जो मिला ही हुआ था, | जाओ। शत्रुता का रोग ही छोड़ो। सिर्फ भर आंख देख लेना है, उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उसकी पहचान होती है। ठीक से पहचान लेना है। जहां हो, वहीं जागकर देख लेना है। मोक्ष कुछ ऐसा नहीं है, जिसे तुमने खो दिया हो। मोक्ष स्वभाव | उस जागरण में जो भी व्यर्थ है, वह अपने से छूट जाता है, गिर है। खोने का कोई उपाय ही नहीं। कहीं भूलकर, चूककर रख जाता है। एक अंधेरे कमरे में तुम बैठे हो, हीरे भी पड़े हैं और आये हो, ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम हो मोक्ष। कड़ा-कर्कट भी पड़ा है, फिर कोई दीया लेकर भीतर आ गया। इसलिए इनके विपरीत कोई दो पहिये और हैं? ऐसा पूछना ही जब तक दीया न था तब तक पता न था, कूड़ा-कर्कट क्या है, ठीक नहीं है। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है. इसलिए संन्यासी हीरे क्या हैं? हो सकता है. अंधेरे में तमने कडे-कर्क संसार का विरोधी नहीं है। जो संन्यासी संसार का विरोधी है, वह गठरी बांध ली हो और हीरों का खयाल ही न आया हो। फिर अभी संसार में है। उसने राग को द्वेष से बदल लिया। कुछ लोग कोई दीया लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली, दर्शन धन को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। कुछ लोग देह को राग हुआ। तुम हंसोगे, अगर तुमने अपनी गठरी में कूड़ा-कर्कट करते थे, वह द्वेष करने लगा। सांसारिक जिनको वह कहता है, बांध रखा था। जल्दी गांठ खोलोगे। जल्दी गठरी खाली कर जो-जो करते थे, उससे उलटा करने लगा। लोगे। जल्दी से हीरे भर लोगे। इसमें कुछ त्याग थोड़े ही होगा! संन्यासी अगर संसार का विरोधी है तो मैं तुमसे कहता हूं, इसमें कुछ अभ्यास थोड़े ही होगा! इसमें कोई श्रमसाध्य संसार में है। सिर के बल खड़ा होगा, मगर खड़ा बाजार में है। | प्रक्रिया थोड़े ही होगी! हिमालय पर बैठा हो, लेकिन खड़ा बाजार में है। भाग जाए सब बस दीये का आना, आंख का खुलना, दिखाई पड़ जाना सार छोड़कर, लेकिन जिससे भाग रहा है, उससे छुटकारा नहीं हुआ | का असार से भिन्न-पर्याप्त है। मोक्ष है बोध। है। भीतर मन में उसकी आकांक्षा शेष है। उसी आकांक्षा को | 'कहते हैं आप, राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित दबाने के लिए तो विपरीत कर रहा है। होता है...।' निश्चित ही। संसार दो के बिना निर्मित नहीं संन्यासी उसे कहता हूं मैं, जो संसार का विरोधी नहीं है, जो होता। संसार एक से निर्मित ही नहीं हो सकता। एक पहिये से संसार में जागा; जिसने संसार को भर-नजर देखा। कहीं कोई गाड़ी चली है? महावीर कहते हैं, जो सुपरिचित हुआ; जिसने संसार की | यह गाड़ी शब्द बड़ा अदभुत है। इस पर तुमने शायद कभी व्यर्थता समझी। सोचा न हो। गाड़ी का मतलब होता है, जो गड़ी है। मगर हम संसार के विपरीत किसी चीज को पकड़ने का सवाल ही नहीं चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी तो चल ही नहीं है, संसार की व्यर्थता स्पष्ट हो जाए तो जो शेष रह जाता सकती। जो गड़ी है, वह चलेगी कैसे? वृक्ष चलते हैं? गड़े है-इस कूड़े-कर्कट के बह जाने के बाद, जो जलधार भीतर हैं। चलती चीज को हम गाड़ी क्यों कहते हैं? बड़ा मधुर व्यंग्य शेष रह जाती है, वही मोक्ष है। है उस शब्द में। अगर मोक्ष कहीं संसार से अलग है तो फिर भागना पड़े संसार चलता तो है, पहुंचता कहीं नहीं। लगता है चलता है; गुफाओं में, कंदराओं में खोजना पड़े, तपश्चर्या में आंखें बंद ऐसे गड़ा है। ऐसे सपने में ही चलना होता है, यथार्थ में कोई करके कहीं दूर, जहां कोई न हो, वहां जाना पड़े। लेकिन मोक्ष | चलना नहीं होता। भाग-दौड़, आपाधापी! जब आंख खलती यहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। है, तुम पाते हो वहीं के वहीं खड़े हो, अपनी खाट पर पड़े हो। समझ आ गई तो मुक्ति आ गई। नासमझी रही तो बंधन रहा। सब सपने में दौड़-धूप की। बड़े आकाश छान डाले। जब सुबह नासमझी अर्थात बंधन। समझदारी अर्थात मोक्ष। आंख खुली तो पाया, अपने बिस्तर में पड़े हैं। ज्ञान मुक्ति है। तो संसार गाड़ी है। ऐसे तो गड़ा है। यथार्थ में तो गड़ा है, तो संसार को छोड़ना नहीं, न संसार के विपरीत सोचना। वह स्वप्न में चल रहा है, कल्पना में चल रहा है, कामना में चल रहा 13481 Jair Education International 2010_03
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________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है है, विचार में चल रहा है, मन में चल रहा है-ऐसे गड़ा है। निर्विचार का आकाश मोक्ष है। गाड़ी बस चलती मालूम पड़ती है। संसार के विरोध में नहीं है मोक्ष. संसार का अभाव है मोक्ष। कभी छोटे-छोटे बच्चे, जो साइकिल चलाना नहीं जानते, इसे तुम जितने गहरे में बांधकर रख सको, रख लेना। इस पर साइकिल पर सवार हो जाते हैं—खड़ी साइकिल पर, स्टैंड पर गांठ बांध लेना। क्योंकि अगर यह तुम्हें खयाल न रहा तो बहुत खडी साइकिल पर। जोर से पैडल मारते हैं और बड़े प्रफल्लित डर है कि तम्हारा संन्यास भी संसार का विरोध बन जाए। होते हैं क्योंकि जब चाक चलने लगता है—वह गाड़ी है। गड़ी विरोध में उतर जाना बड़ा आसान है। मन की सारी राजनीति है, मगर बच्चा बड़ा प्रसन्न हो रहा है। जितने जोर से पैडल मारता द्वंद्व की है। इसलिए विरोध तो बिलकुल सुगम है, सरल है, है, जितने जोर से चाक घूमता है—उसकी किलकारी सुनो! ढलान है। जैसे पहाड़ से कोई नीचे की तरफ उतर रहा है, धीमे ऐसी ही किलकारी दे रहे हैं राजनेता, धनिक, पद-प्रतिष्ठा को भी चलना चाहे तो चल नहीं सकता; दौड़ना पड़ता है। ढलान प्राप्त लोग। साइकिल पर चढ़े हैं। साइकिल स्टैंड पर खड़ी है। है। कोई शक्ति नहीं लगती। अगर कार पहाड़ के नीचे उतार रहे स्टैंड यानी गड़ी है। मगर चाक जोर से चल रहा है। पैडल काफी हो तो पेट्रोल की भी जरूरत नहीं पड़ती। बंद कर दो इंजन, गाड़ी मार रहे हैं, पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। एक-दूसरे से अपने आप ढलकती-ढलकती चली आती है। प्रतिस्पर्धा भी कर रहे हैं, कि किसकी गाड़ी तेज चल रही है। मन की वृत्ति द्वंद्व की है, संघर्ष की है। पहले लड़ रहे थे धन के कौन आगे जा रहा है। किसको पीछे छोड़ दिया है! लिए, फिर लड़ने लगे ध्यान के लिए। मगर लड़ाई जारी रही। ये सब किलकारियां एक दिन व्यर्थ सिद्ध होती हैं, जब होश पहले लड़ते थे जीवन के लिए, फिर लड़ने लगे मोक्ष के लिए। आता है कि हम जिसको चला रहे हैं वह गड़ा है। | लड़ाई जारी रही। रोग अपनी जगह रहा। नाम बदला, लेबल संसार चलता हुआ मालूम पड़ता है और चलता नहीं। यहां बदला, लेकिन भीतर की विषय-वस्तु वही की वही रही। कोई विकास नहीं है। गति तो बहुत है, प्रगति बिलकुल नहीं है। तो इसे स्मरण रखना। कम से कम मेरे संन्यासी-ठीक से चलना तो बहुत है, पहुंचना बिलकुल नहीं है। यहां तो आश्चर्य स्मरण रखना कि संसार का विरोध नहीं है संन्यास, संसार की | है कि तुम बहुत चलकर अगर अपनी जगह पर भी खड़े रह जाओ समझ है संन्यास। और समझ के लिए भागना उचित नहीं है। तो भी बहुत चमत्कार है। डर तो यह है कि तुम जहां अपने को क्योंकि जिससे भागोगे उसे समझोगे कैसे? जिसे समझना हो. पाये थे, उससे भी पिछड़ जाओगे। दौड़-दौड़कर अपनी जगह वहीं खड़े रहना। जिसे समझना हो, उसका ठीक से अवलोकन पर भी बने रहे तो काफी है। करना। ठीक से निरीक्षण करना, ठीक से साक्षी बनना। संसार के लिए तो दो चाक चाहिए। झठी ही सही गाड़ी, माया एक-एक पर्दा उठाकर देख लेना। सब घंघट उघाड़-उघाड़कर की ही सही, लेकिन है तो गाड़ी। दो चाक चाहिए। इसलिए देख लेना। कुछ भी छुपा न रह जाए। उसी समझ में मोक्ष का जीवन में हम हर जगह जरा खोजबीन करेंगे तो हम पाएंगे, हर आविर्भाव होगा। चाक के पीछे दसरा चाक छिपा है। सफलता के पीछे विफलता जैसे-जैसे प्रज्ञा बढ़ेगी, समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे तम पाओगे छिपी है। सुख के पीछे दुख छिपा है। दिन के पीछे रात छिपी है। तुम मुक्त होने लगे। पुण्य के पीछे पाप छिपा है। हंसी के पीछे रुदन छिपा है। यहां आखिरी बातः मोक्ष परलोक में नहीं है। वह भी द्वंद्व है-इस तुम एक चीज तो पाओगे ही नहीं। यहां सब चीजें जोड़ी से हैं। लोक का, उस लोक का; पृथ्वी का, आकाश का। मोक्ष संसार जोड़ी से जीता है। मोक्ष का अर्थ है, यह दो का | परलोक में नहीं है। मोक्ष का लोकों से कोई संबंध नहीं है। विभाजन गया। यह दो में खंडित होने की प्रक्रिया समाप्त हुई। मोक्ष है तुम्हारी आत्मा की दशा। मोक्ष का स्थान-समय से यह जो लौ बायें कंपती थी, दायें कंपती थी, अब कंपती नहीं, कोई संबंध नहीं है। मोक्ष का संबंध है, तुम्हारा अपने में लीन हो अब मध्य में खड़ी हो गई। अब इसने कंपन छोड़ा, चिंतन जाना। अपने में डूब जाना। अपने से भरपूर होकर अपने रस में छोड़ा। विचार की तरंगें अब नहीं आतीं। अब निर्विचार। मग्न हो जाना। 34g 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 यह अभी घट सकता है। और अगर अभी नहीं घट सकता तो | महाजीवन की तलाश में आता है। वह शायद सोचकर आता भी कभी नहीं घट सकता। और जब भी घटेगा, अभी घटेगा, नहीं कि गुरु के पास मरना होगा, मिटना होगा। धीरे-धीरे, वर्तमान के क्षण में घटेगा। इसलिए महावीर कहते हैं, जो महर्षि इंच-इंच गलना होगा, बिखरना होगा। वह तो किसी लोभ से हैं, जो मनीषी हैं, वे बीत गए अतीत की चिंता नहीं करते। आया था। वह तो शायद संसार की वासना को ही और थोड़ी अनागत-न आए हुए भविष्य का विचार नहीं करते। वे शुद्ध | गति मिल जाए, और थोड़ी शक्ति मिल जाए, कामना के जगत में वर्तमान में जीते हैं। वे वर्तमान को देखते हैं, वर्तमान का पश्ययन और थोड़ा बलशाली हो जाऊं, जीवन के संघर्ष में और थोड़ा करते हैं, वर्तमान का दर्शन करते हैं। संकल्प मिल जाए इसलिए आया था। एक पहिया है संसार का अतीत में, एक पहिया है भविष्य में। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, संकल्प-शक्ति की कमी यह संसार की गाड़ी बड़ी अदभुत है, बड़ी विचित्र है। एक है--विल-पावर। आप कृपा करें, संकल्प-शक्ति दे दें। पहिया है वहां, जो अब है नहीं। और एक पहिया है वहां, जो मैं पूछता हूं, संकल्प-शक्ति का करोगे क्या? संकल्प-शक्ति अभी हुआ नहीं। ऐसे दो शून्यों में संसार चल रहा है। और जो | का उपयोग संघर्ष में है, संसार में हैमोक्ष में तो कोई भी नहीं। है, वह अभी इन दोनों के बीच है; वह मध्य में है। अशांत होना हो तो संकल्प-शक्ति की जरूरत है। शांत होना हो बुद्ध ने तो अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा। सिर्फ तो विसर्जित करो। जो थोड़ी-बहुत है, वह भी विसर्जित करो। इसीलिए कहा कि जो अतियों से बच गया और मध्य में खड़ा हो उसे भी डाल आओ गंगा में। उससे भी छुटकारा लो। संकल्प गया, वही उपलब्ध हो जाता है। तो बाधा बनेगा, समर्पण मार्ग है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ आशीर्वाद दें। जीवन दूसरा प्रश्न : कभी आप कहते हैं, गुरु साक्षात ब्रह्म है, और में बड़ी निराशा है। आशा का दीया जला दें। मैं उनसे कहता हूं, कभी कहते हैं, गुरु साक्षात मृत्यु है। क्या वह एक साथ, एक तुम गलत जगह आ गए। यहां तो आशा के दीये बुझाए जाते हैं। समय में दोनों है? कृपा करके कहें। सुना कल महावीर का सूत्र!-आशारहितता को जो उपलब्ध हो जाए...। गुरु मृत्यु है, इसीलिए गुरु ब्रह्म है। उसमें मृत्यु घट सकती है, तुम आते हो शायद निराशा मिटाने। तुम आते हो यहां, कि इसीलिए महाजीवन का सूत्रपात हो सकता है। थोड़ा बल मिल जाए और संसार में जाकर फिर तुम जूझ पड़ो। पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं, 'आचार्यो मृत्युः।' आचार्य मृत्यु | शायद अभी हार गए थे। शायद अभी जीत नहीं पाते थे। शायद है। गरु मत्य है। क्या अर्थ है उनका? क्या प्रयोजन है? अभी बलशाली लोगों से संघर्ष हो रहा था। तुम कमजोर पड़ते शिष्य जब गुरु के पास आता है तो जैसा है, वैसा तो उसे मरना थे। और बल लेकर, और शक्ति लेकर, और ऊर्जा लेकर उतर होगा। और जैसा होना चाहिए, वैसा होना होगा। जब शिष्य गुरु जाओ जीवन के युद्ध में। के पास आता है तो बीमारियों का जोड़ है, उपाधियों का जोड़ है। लेकिन तब तुम गलत जगह आ गए। अगर तुम गुरु के पास गुरु की औषधि बीमारियों को तो मिटा देगी। लेकिन जैसा शिष्य गए तो गलत जगह गए। इसके लिए तो तुम्हें कोई झूठा गुरु आता है अहंकार से भरपूर, वह अहंकार तो सिर्फ बीमारियों का | चाहिए। इसलिए झूठे गुरु चलते हैं। झूठे सिक्के इसीलिए बंडल है। जब बीमारियां हटती हैं, वह अहंकार भी मर जाता है। चलते हैं क्योंकि तुम जो चाहते हो, उसे वे पूरा करने का वह उनके बिना जी भी नहीं सकता। आश्वासन देते हैं। वह कभी पूरा होता है या नहीं, यह सवाल फिर जो शेष बचता है, वह तो कुछ ऐसा है, जिसका शिष्य को नहीं है। आश्वासन काफी है; उसमें ही तुम लुटते हो। | पता ही नहीं था। वह तो मरने के बाद ही पता चलता है। इसे ध्यान रखना, यह सदगुरु की पहचान है—जो तुमसे अहंकार की मृत्यु के बाद ही आत्मा का बोध होता है। आशा छीन ले; जो तुमसे संकल्प छीन ले। यह सदगुरु की शायद शिष्य आता है अपने प्रयोजन से। वह शायद पहचान है-जो तुम्हें मिटा दे। तुम भला किसी कारण से उसके 350 | Jair Education International 2010_03
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________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है पास आए हो, वह तुम्हारी चिंता ही न करे। उसके लिए तो | जाते, उनकी स्मृतियां हैं। यह चित्रकार ने बाहर से देखकर आत्यंतिक बात ही महत्वपूर्ण है। वह तो तुम्हारे भीतर मोक्ष को बनाया है। जीसस से तो पूछो! जीसस सूली ढो रहे हैं? नहीं, लाना चाहता है। | जीसस तो अपने सिंहासन की तैयारी कर रहे हैं। यह सूली तो और स्वभावतः तुम कैसे मोक्ष की कामना कर सकते हो? | सिंहासन की सीढ़ी बनेगी। संसार को ही तुमने जाना है। वहां भी सफलता नहीं जानी। इस तरफ सूली है, उस तरफ सिंहासन है। दृश्य में सूली है, किसने जानी! सिकंदर भी असफल होता है। संसार में अदृश्य में सिंहासन है। रूप में सूली है, अरूप में सिंहासन है। असफलता ही हाथ लगती है। | आकार में सूली है, आकार की सूली है, निराकार में सिंहासन है, तो तुम वही सफलता पाने के लिए आ गए हो अगर, तो केवल | निराकार का सिंहासन है। असदगुरु से ही तुम्हारा मेल हो पाएगा, जहां गंडा-ताबीज | तो जिन्होंने जीसस को केवल सूली ढोते देखा वे जीसस को मिलता हो, मदारीगिरी से भभूत बांटी जाती हो, जहां तुम्हें इस देख ही नहीं पाए। जिस दिन तुम्हें जीसस की सूली में सिंहासन बात का भरोसा मिलता हो कि ठीक, यहां कुछ चमत्कार हो | दिखाई पड़ जाए उस दिन तुम अर्थ समझोगे। उस दिन तुम्हें सकता है; जहां तुम्हारा मरता-बुझता अहंकार प्रज्वलित हो उठे; | पहली दफा सूली सूली न लगेगी। सूली परम कृतज्ञता का कारण जहां थोड़ा कोई तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे। बन जाएगी। मगर वह ज्योति संसार की है। वही तो नर्क की ज्योति है। वही , गुरु के चरणों में धन्यवाद सदा के लिए रहता है क्योंकि यही है, तो अंधकार है। उसी ने तो तुम्हें पीड़ा दी है, सताया है। उसी से जिसने मिटने का बोध दिया। न मिटते, न हो सकते। यही है, बिंधे तो तुम पड़े हो। वही तो तुम्हारी छाती में लगा विषाक्त तीर | जिसने मिटाया। मिटाया तो बनने की शुरुआत हुई। झाड़ी धूल, है। सदगुरु उसे खींचेगा। उसके खींचने में ही तुम मरोगे। | तो दर्पण निखरा। सदगुरु तो मृत्यु है तुम्हारी; जैसे तुम हो। यद्यपि उसी मृत्यु के लेकिन तुम जिसे जिंदगी कहते हो, गुरु उसे जिंदगी नहीं बाद तुम्हें पहली दफा उसका दर्शन होता है, जो वस्तुतः तुम हो। कहता। और तुम जिसे मृत्यु कहते हो, गुरु उसे मृत्यु नहीं धोखा मरता है, सत्य तो कभी मरता नहीं। असत्य मरता है, कहता। अलग भाषाएं हैं, अलग आयाम हैं। दो लोक बड़े सत्य की तो कोई मृत्यु नहीं। भिन्न-भिन्न हैं। गुरु कुछ और भाषा बोलता है। वह तुम्हारे लिए आग में हम सोने को डाल देते हैं, कूड़ा-कर्कट जल जाता है, | अटपटी है। सोना कुंदन होकर बाहर आ जाता है। मध्ययुग में भारत में उस भाषा का नाम ही अलग हो गुरु तो आग है, अग्नि है। और इसीलिए गुरु ब्रह्म है। क्योंकि | गया—सधुक्कड़ी; उलट बांसुरी। साधुओं की भाषा। उल्टी वहीं से तुम मिटते हो। और जहां तुमने मिटना सीख लिया, वहीं भाषा। जहां मृत्यु जीवन का पर्याय है। और जहां सूली सिंहासन तुमने ब्रह्म होना सीख लिया। का पर्याय है। तुम्हारे भाषाकोश में कुछ और लिखा है। गुरु के गुरु सूली है। लेकिन उसी सूली पर लटककर तुम्हें पहली दफा पास आकर तुम्हें नई भाषा सीखनी होगी। कष्टपूर्ण है। क्योंकि पता चलता है कि जो सूली पर मर गया वह मैं नहीं था। इधर तुमने अपनी भाषा को खूब कंठस्थ कर लिया है। वह तुम्हारे सूली लगी, उधर सिंहासन मिला। इस तरफ सूली है, उस तरफ रोएं-रोएं में समा गई है। सिंहासन है। तुम्हें सूली भर दिखाई पड़ती है। तुम जब मुझे सुनते हो, तब तुम मुझे थोड़े ही सुनते हो। तुम तुमने जीसस के चित्र देखे होंगे; सूली को अपने कंधे पर ढोते तत्क्षण उसका भाषांतर करते हो। तुम उसका अनुवाद करते हो। हए, गोलगोथा की पहाड़ी पर वे जा रहे हैं। सली ठोंक दी गई। इधर मैं कछ कहता है, तम तत्क्षण अपनी भाषा में उसका जमीन में, उन्हें सूली पर लटका दिया गया है। लेकिन ये अधूरे अनुवाद कर लेते हो, भाषांतर कर लेते हो। जब तुम यह | चित्र हैं। ये चित्र जीसस की नजर से नहीं बनाए गए। ये जिन छोड़ोगे, तभी तुम मेरे पास आओगे। तुम्हारी भाषा मेरे और लोगों ने देखा होगा गोलगोथा की सड़क पर जीसस को सूली ले तुम्हारे बीच बाधा है। 13511 ___ 2010_03
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________________ common जिन सूत्र भागः2 कल मैं एक गीत पढ़ता थाः इसी कारण तुम मुर्दा हो। जिंदगी से उन्स है, हुस्न से लगाव है तुम जिसे जीवन कहते हो, उसे समझो मृत्यु। तब मैं जिसे मृत्यु धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है कहता हूं, तुम तत्क्षण समझ जाओगे उसका अर्थ। तुम जिसे दिल अभी बुझा नहीं जीवन कहते हो, यह बड़ी क्रमिक मृत्यु है। आहिस्ता-आहिस्ता -इसे लोग दिल का न बुझना कहते हैं। आत्मघात है। यह रोज-रोज, धीमे-धीमे मरते जाना है। जिंदगी से उन्स है जिस दिन तुम यह समझोगे कि यह मृत्यु है, उस दिन पहली -राग है जीवन से। बार तुम्हें किसी और जीवन की पुकार सुनाई पड़ेगी-कोई और हुस्न से लगाव है आह्वान! उस दिन तुम धार्मिक हुए। उस दिन तुम्हारी आंखें -सौंदर्य के लिए अभी तड़फ है, आकांक्षा है। अदृश्य की तरफ उठने लगीं। उस दिन तुम्हारे हाथ में थोड़ा-सा धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है। सही, छोटा सही, पतला सही, धागा आया, जिसके सहारे तुम और अभी भी धड़कनों में राग की, आसक्ति की आंच है। सूरज तक पहुंच सकोगे। दिल अभी बुझा नहीं तो मैं कहता हूं, गुरु मृत्यु है, गुरु ब्रह्म है; इन दोनों में कोई अगर तुम मुझसे पूछो तो इन्हीं कारणों से तुम्हारा दिल जल नहीं विरोध नहीं है। पा रहा है। बुझने की तो बात ही दूर है, जला ही नहीं। इन्हीं के गुरु इसीलिए ब्रह्म है क्योंकि वह मृत्यु है। गुरु सूली है क्योंकि कारण तो दिल पर राख पड़ गई है। वह सिंहासन है। एक द्वार से मिटाता है, दूसरे द्वार से बनाता है। रंग भर रहा हूं मैं खाक-ए-हयात में आज भी हं मनहमिक फिक्रे-कायनात में मिटने को राजी हैं, उन्हें बनने का सौभाग्य मिल जाता है। जो गम अभी लटा नहीं मिटने से कतराते हैं, वे बनने से वंचित रह जाते हैं। हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है अहदे-नौ से आज भी अहद अस्तवार है तीसरा प्रश्नः हे भगवान! मैं अभी मरा नहीं सूली ऊपर सेज पिया की तुम जिसे जिंदगी कहते हो...तुम जब कहते हो, 'मैं अभी मरा किस विध मिलना होय? नहीं', तो तुम बड़ी अजीब बातें कह रहे हो। अगर तुम्हारे स्वप्न प्रीतम आन मिलो, में अभी भी प्राण अटके हैं तो तुम कहते हो, 'मैं अभी मरा नहीं। दिल अभी बुझा नहीं।' प्रीतम आन मिलो। अगर कामना अभी भी तुम्हें तड़फाती है और वासना के दूर के सुहावने ढोल तुम्हें अभी भी बुलाते हैं तो तुम कहते हो, दिल | सूली ऊपर सेज पिया की—सदा से ऐसा ही है। लेकिन सूली अभी बुझा नहीं। हमें दिखाई पड़ती है क्योंकि हम नासमझ हैं। क्योंकि हमने अभी जहां कुछ भी नहीं है, वहां तुम चित्त से रंग भरते हो। जहां कुछ पिया की भाषा नहीं समझी; अभी पिया के प्रतीक हमारे सामने भी नहीं है, जहां कोरा पर्दा है, वहां तुम कल्पनाओं, वासनाओं, खुले नहीं। अभी हमने अपनी ही भाषा से पिया को भी समझना तृष्णाओं के बड़े रंगीले इंद्रधनुष बनाते हो। और कहते हो : चाहा है। इसलिए लगता है-सूली ऊपर सेज पिया की। मैं अभी मरा नहीं घबड़ाहट होती है। कौन नहीं घबड़ाएगा मरने से? गुरु के हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है पास आकर डर लगता है, बेचैनी होती है। अहदे-नौ से आज भी अहद अस्तवार है एक युवती परसों सांझ मेरे पास आयी। कैलिफोर्निया से यात्रा मैं अभी मरा नहीं करके आयी है। और आकर बोली कि मैं तत्क्षण वापिस लौट 352 2010_03
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________________ मक्ति द्वंद्वातीत है जाना चाहती हूं। क्योंकि पहली तो बात यही मेरी समझ में नहीं छोड़कर तो देखो। तुम पाओगे, यमदूत विदा हो गए। तुम स्यों? और अब आ गई हूं तो मुझे डर लगता पाओगे, न कोई भैंसे हैं, न काली सूरतोंवाले यमदूत हैं; तुम है कि जिंदा अब मैं लौट न पाऊंगी। वह रोने लगी। उसने कहा अचानक पाओगे, परमात्मा हाथ फैलाए खड़ा है। कि मेरा बच्चा है, मेरा पति है। मुझे जाने दें। | वही परमात्मा तुम्हारी जिंदगी की अतिशय पकड़ के कारण उसे सूली दिखाई पड़ी है। लेकिन उस सूली में सिंहासन की यमदूत मालूम होता है। तुम अगर राजी हो, तुम अगर उसके थोड़ी-सी झलक भी है, इसीलिए खिंची चली आयी है—अपने साथ चल पड़ने को तत्पर हो, तुम तैयार हो, इधर मौत आयी बावजूद। उससे मैंने कहा, अब लौटना मुश्किल है। अब तो और तुम उठ खड़े हुए; और तुमने कहा, मैं तैयार हूं। कहां कठिन है। अब तो एक ही उपाय है, मरकर ही लौट। वह बहुत चलूं? किस तरफ चलूं? कौन-सी दिशा में यात्रा करनी है? मैं घबड़ा गई। क्योंकि अभी नई है और उसे मेरी भाषा से अभी तेरी प्रतीक्षा ही करता था। ठीक-ठीक पहचान नहीं। उसने कहा, मरकर लौट? क्या | तुम अचानक पाओगे, यमदूत विदा हो गए। वे यमदूत तुम्हारी मतलब आपका? मैंने कहा, नई होकर लौट। तब वह थोड़ी व्याख्या के कारण थे। तुमने एक दुश्मनी बांध रखी थी। जीवन आश्वस्त हुई। से लगाव बनाया था और मृत्यु से द्वेष किया था। तुमने द्वेष 'सूली ऊपर सेज पिया की!' गिराया मृत्यु से, जीवन से लगाव छोड़ा, तत्क्षण तुम पाओगे, जो सूली दिखाई पड़ती है; है तो सेज ही। है तो पिया का आमंत्रण अंधेरे की तरह आया था वह ज्योतिर्मय हो उठा है। तब तुम्हें ही। लेकिन जो मरने को राजी हैं, वही उसके मिलने के हकदार यमदत न दिखाई पडेंगे. शायद कष्ण की बासरी सनाई पडे. या हो पाते हैं। इसलिए सूली ऊपर सेज पिया की। | बुद्ध की परम शांत प्रतिमा का आविर्भाव हो, या महावीर का | अब डरो मत। हिम्मत करो। ऐसे भी मिटोगे। मरना तो होगा | मौन तुम्हें घेर ले, या नाचती हुई गौरांग की प्रतिमा उठे। लेकिन ही। एक ही बात सुनिश्चित है इस जगत में, वह मृत्यु। और एक बात तय है, कुछ घटेगा जो अनूठा है, अदभुत है, सब तो अनिश्चित है। हो न हो; संयोग की बात है। एक बात | आश्चर्यजनक है, अवाक कर देनेवाला है। कुछ दुखद नहीं सुनिश्चित है-मृत्यु। बड़ा अदभुत जीवन है। जीवन ऐसा | घटेगा, कुछ घटेगा जो महासुख जैसा है, स्वर्गीय है। पर देखने जिसमें सिर्फ एक बात निश्चित है, वह मरना। बाकी सब के, सोचने के, व्याख्या के ढंग बदलो। अनिश्चित है। जो होगा ही, उसे स्वेच्छा से वरण करो। बस, 'सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलना होय।' इतना ही फर्क है समाधि में और मृत्यु में। जो जबर्दस्ती मारा और जब एक दफा सूली दिखाई पड़ती है तो फिर सवाल उठता जाता है, तब मृत्यु। मृत्यु हमारी समाधि की व्याख्या है क्योंकि है, किस विध मिलना होय? क्योंकि वह सूली अटकाती मालम हम राजी न थे मरने को। उसी व्याख्या के कारण हम चूक गए | पड़ती है। सूली को कैसे पार करें? एक अभूतपूर्व घटना से। तुम बिना मरे परमात्मा में लीन होना चाहते हो। यह नहीं हो बहुत बार तुम मरे हो। लेकिन हर बार झिझकते, लड़ते, | सकता। यह तो ऐसा हुआ कि गंगा कहे, मैं बिना उतरे सागर में झगडते. संघर्ष करते, मजबरी में, विवश, असहाय मरे हो। लीन होना चाहती हैं। बंद कहे. मैं बिना उतरे सागर में. सागर इसीलिए तो हम कहते हैं, यमदूत आते हैं और खींचते हैं। कोई होना चाहती हूं। यह तो नहीं हो सकता। यह तो जीवन के गणित यमदूत नहीं आते। तुम इतने जोर से पकड़ते हो कि मौत लगती के विपरीत है। है, खींच रही है। भैंसों पर बैठकर आते हैं यमदूत। बड़ी डरावनी बूंद को खोना होगा। गंगा को उतरना होगा। सूरत! खींचते हैं, जबर्दस्ती करते हैं। सागर मिलेगा, बेशर्त मिलेगा, पूरा मिलेगा, लेकिन उतरे बिना बड़ी गलत कहानियां हैं। कोई जबर्दस्ती नहीं करता। तम | कभी नहीं मिला है. कभी नहीं मिलेगा। जिंदगी को जबर्दस्ती पकड़ते हो। इसलिए जब जिंदगी हाथ से सूली को देखना बंद करो तो दूसरा सवाल उठना बंद हो छूटने लगती है, तुम्हें लगता है जबर्दस्ती हो रही है। तुम अपने से जाए-किस विधि मिलना होय? 353 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 - मरना ही विधि है। सूली विधि है। और सूली के कारण तुम हाथ फैलाए हैं परमात्मा की तरफ, लेकिन परमात्मा को नहीं घबड़ाते हो। तुम कहते हो, किस विधि मिलना होय? कोई मांगते। परमात्मा से भी दो कौड़ी की चीजें मांगकर आ जाते हैं; रास्ता बताएं कि सूली से बचकर निकल जाएं, कि इधर-उधर से कि दुकान ठीक चले, कि मुकदमा जीत जाएं, कि किसी स्त्री से निकल जाएं। सूली यहां रही, रही आए, हम जरा पीछे के विवाह हो जाए, कि लड़के को नौकरी लग जाए, कि बीमारी दूर दरवाजे से निकल जाएं। हो जाए। तुम मांगते क्या हो? / सूली विधि है। अगर तुम मुझसे पूछो, मरना विधि है। तो तुम्हारे आंसू बड़े झूठे थे। अब जो आदमी मांग रहा है कि 'किस विध मिलना होय?' मुझे बीमारी है, वह दूर हो जाए-वह रो रहा है, लेकिन उसके मरो! मिटो। खो जाने को राजी हो जाओ। | रोने में परमात्मा की प्रार्थना तो नहीं है। उसके आंसुओं में बीमारी 'प्रीतम आन मिलो'-तुम मिटे कि प्रीतम मिले। की, असहाय अवस्था की घोषणा तो है, लेकिन जीवन का ऐसे चीखने-पुकारने से कुछ भी न होगा। सूली से डरते रहे धन्यभाव नहीं है, अहोभाव नहीं है। और कहते रहे, 'प्रीतम आन मिलो', तो कुछ भी न होगा। जरा गौर करना, तुम्हारे आंसू तुम्हारे हैं। तुम गलत हो तो 'नैना नीर झरे, हृदय पीर करे तुम्हारे आंसू भी गलत हैं। और तुम्हारा हृदय तुम्हारा है। तुम प्रीतम आन मिलो।' गलत हो तो तुम्हारे हृदय की पीर भी गलत है। नहीं, इतना काफी नहीं है। तुम तुम ही हो। और तुम तुम ही जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां रहकर आंसू भी गिरा रहे हो। वे आंसू भी तुम्हारे हैं। उन वही शौक-ए-वफा की इब्तदा मालूम होती है आंसुओं में भी तुम्हारी भाषा है। उन आंसुओं में भी तुम्हारे जिसे तुम समझते हो कि यह दिल के दर्द की चरम सीमा है, संस्कार हैं। उन आंसुओं में भी तुम्हारी दृष्टि है। तुम्हारी आंख | यह केवल प्रेम की शुरुआत है, चरम सीमा नहीं। के आंसू हैं, तुम्हारी दृष्टि से भरे हैं। उन आंसुओं में भी तुम गौर जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां / से देखोगे तो सूली ही झलक रही है। जैसी तुम्हारी आंख में ऐ नासमझ! जिसे तू कहता है कि यह दिल के दर्द की आखिरी झलक रही है, तुम्हारे आंसुओं में भी सूली झलक रही है। वे घड़ी आ गई-नैना नीर झरे, हृदय पीर करे—वही तुम्हारी घबड़ाहट के आंसू हैं। वे तुम्हारी बेचैनी के आंसू हैं। शौक-ए-वफा की इब्लदा मालूम होती है। यह केवल शुरुआत सूली को स्वीकार करो। तब एक अभिनव अनुभव होगा। है। यह प्रेम की यात्रा का पहला कदम है। और परमात्मा से आंसू फिर भी शायद बहें, लेकिन अब आनंद के होंगे। और मिलन तो अंतिम कदम पर होगा, पहले कदम पर नहीं। आंसओं में सिंहासन की झलक होगी। और तब तम्हें कहना न और पहले कदम और अंतिम कदम के बीच यात्रा क्या पड़ेगा, प्रीतम आन मिलो। उस घड़ी में मिलन हो ही जाता है। है?-तुम्हारे मिटने की यात्रा है। तुम धीरे-धीरे अपने को अन्यथा कभी हुआ नहीं, अन्यथा हो नहीं सकता। इधर तुम मिटे | छोड़ते जाओ। छलांग में छोड़ सको तो सौभाग्य। कंजूस हो तो कि मिलन हुआ। तुम ही बाधा थे। और तो कुछ रोक नहीं रहा धीरे-धीरे छोड़ो, क्रमशः छोड़ो। कृपण हो तो इंच-इंच छोड़ो, था। तुम ही रोके हो। रत्ती-रत्ती त्याग करो। साहसी हो, एक क्षण में छलांग हो सकती _ 'नैना नीर झरे, हृदय पीर करे'-अभी तुम्हारी पीर में भी, है। कह दो एक क्षण में कि अब मैं नहीं। उसी क्षण में तुम | पीड़ा में भी तुम हो। तुम रोते भी हो तो तुम्हारे आंसू कुंआरे नहीं पाओगे, परमात्मा उतर आया। इधर तुमने जगह खाली की, कि हैं। तुम पीर से भी भरते हो तो तुम्हारी पीड़ा में भी शिकायत है। वह आया। तुम्हारी पीड़ा में भी दंश है। तुम्हारी पीड़ा में तुम्हारा सारा संसार | तुम भीतर के सिंहासन पर अकड़कर बैठे हो। वहीं से तुम छिपा है। पूछताछ कर रहे हो। वहां से जगह खाली नहीं करते, बातें करते मंदिरों में जाकर देखो। लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, मांगते क्या हो। अच्छी-अच्छी बातें सीख ली हैं—'प्रीतम आन मिलो। हैं? आंसू झर रहे हैं, मांगते क्या हैं? मांगते संसार की चीजें हैं। नैना नीर झरे, हृदय पीर करे।' 354 2010_03
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________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है काव्य से कुछ भी न होगा। कविता काफी नहीं है। सुंदरतम | बसाने की कोई जरूरत नहीं। एक साधै सब सधै। कविताएं करो, लेकिन केवल जीवन से प्रमाण दोगे तो ही कुछ | जिसने पूछा है, उसके लिए प्रेम ही अनुकूल पड़ेगा। ध्यान का होगा। मिटने की तैयारी दिखाना शुरू करो। शास्त्र बाधा बनेगा। चौबीस घंटे स्मरण रखो कि कैसे-कैसे ढंग से तुम अपने को तुम प्रार्थना की चर्चा करो, पूजा की, अर्चना की चर्चा करो, भरते हो और अहंकार को सख्त करते हो, मजबूत करते हो। धूप-दीये जलाओ, नाचो, गुनगुनाओ, आह्लादित होओ। जरा-जरा सी बात में अहंकार मजबूत होता है। जरा-जरा सी प्रार्थना में उतरो। तुम्हारा मंदिर प्रार्थना की यात्रा से आएगा। बात में अहंकार चोट खाता है। चोट खाए सांप की तरह | जिसने पूछा है, वह इसे ठीक से याद रखे। ध्यान की चिंता में फुफकारता है। | मत पड़ो। अक्सर ऐसा होता है। मन बड़ा लोभी है। प्रेम सधता इसे जागकर देखो। इस सांप से छुटकारा पाओ। ऐसे जीयो, है तो मन में यह होता है कि अरे! ध्यान नहीं सध रहा है। कहीं जैसे तुम नहीं हो। ऐसे जीयो, जैसे परमात्मा है और तुम नहीं हो। ऐसा तो न होगा कि आखिर में मैं चूक जाऊं! कोई गाली दे तो समझो, उसी को दी गई। तुम परेशान मत उधर वह पीछे मंजु बैठी है। उसको भी फिकर लगी रहती है मो। कोई सम्मान करे तो समझो, उसी का किया गया। तुम | कि ध्यान नहीं सध रहा भगवान! प्रेम सध रहा है। तो घबड़ाहट गौरवान्वित मत होओ। तुम अहंकार से मत भरो। कांटा चुभे तो लगी रहती है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि ध्यान चूक जाए तो जानो, उसी को चुभा। फूल बरसें तो जानो उसी पर बरसे। तुम कुछ चूक जाए! अपने को हटा ही लो। भूख हो तो उसकी, प्यास हो तो उसकी। प्रेम मिल गया तो मिल गया। ध्यान भी अपने आप चला प्रसन्नता हो तो उसकी, तृप्ति हो तो उसकी। तुम अपने को हटा आएगा। फूल खिल गए, सुगंध अपने आप फैलेगी। लेकिन ही लो। इस चिंता के कारण बाधा पड़ सकती है। तब-केवल तब ही उस महत का पदार्पण होता है। तो अपनी वृत्ति को ठीक से पहचान लेना। अगर प्रेम में तन्मयता आती हो, छोड़ दो ध्यान। शब्द ही भल जाओ। यह चौथा प्रश्नः मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से भर देती | शब्द तुम्हारे लिए औषधि नहीं है। यह औषधि किसी और के है। प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक और ऊष्मा से भर लिए होगी। तुम्हारे रोग की औषधि तम्हें मिल गई. रामबाण देता है। मैंने सुना था कि 'ध्यानमूलं गुरुमूर्तिः।' और मुझे औषधि मिल गई। अब तुम फिक्र छोड़ो। आपका स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से तुमने देखा ! केमिस्ट की दुकान पर लाखों औषधियां रखी हैं। भर जाता है। जब मेरी चाल में हर क्षण बूंघर की तरह आपकी | तुम अपना प्रिस्क्रिप्शन लेकर गए, तुम्हें अपनी औषधि मिल धुन बजती है, जब मेरे रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गई। डाली अपनी झोली में, चल पड़े। तुम इसकी फिक्र नहीं गरुमर्ति आप बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखं? | करते कि इन सब औषधियों में से और तो कुछ ले लें। इतनी दुकान पर औषधियां रखी हैं, एक ही लेकर चले? इतने से कहीं प्रेम जग जाए तो ध्यान की चिंता छोड़ो। प्रेम के पीछे-पीछे काम हल होगा! तुम्हारी बीमारी की औषधि मिल गई, बात पूरी छाया की तरह चला आएगा ध्यान। छाया को रखने के लिए हो गई। कोई स्थान तो नहीं बनाना पड़ता। तुम घर में आते हो, तुम्हारे तो अगर प्रेम से रस झर रहा हो तो तुम भाषा प्रेम की सीखो। लिए जगह चाहिए। तुम्हारी छाया के लिए तो कोई अलग से | कंठ को भरो उमंग से। ध्यानी तो खोज रहा है, इसलिए ध्यानी जगह नहीं चाहनी होती। छाया तो कोई जगह घेरती नहीं। थोड़ा रूखा-सूखा होगा ही। भक्त ने तो पा ही लिया। ध्यानी अगर प्रेम आ गया तो ध्यान छाया की तरह आता है; उसके अंत में कहेगा, रसधार बही। भक्त पहले दिन से कहता है कि लिए कोई अलग से जगह बनाने की जरूरत नहीं है। अगर ध्यान | रसधार बही। भक्त के लिए पहला दिन आखिरी दिन जैसा है। आ गया तो प्रेम छाया की तरह आता है। फिर प्रेम को अलग से महावीर भी कहते हैं, अतिशय हो जाता रस का, अतिरेक हो 355 2010_03 www.jainelibrarorg Beat
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________________ More जिन सत्र भागः2 जिन सूत्र भाग 2 जाता रस का, लेकिन आखिरी घड़ी में होगा ध्यानी के लिए। तो तुम ध्यान की चिंता छोड़ दो। अगर तुम श्रद्धा कर सकते हो से ही नाचने लगता है। उसका भरोसा ऐसा | तो धन्यभागी हो। अगर संदेहशून्य मन से, जो मैं तुमसे कह रहा है। उसकी श्रद्धा ऐसी है। जो ज्ञानी को सोच-सोचकर, चिंतन हूं उसकी मिठास तुम्हें अनुभव होती है, अगर मुझे सुनकर तुम्हारे कर-करके, मनन कर-करके, निदिध्यास्न कर-करके मिलता है, अंतस में आलोक प्रगाढ़ होता है, ऊष्मा भरती है तो फिर तुम भक्त श्रद्धा से पा लेता है। ध्यान के लिए अलग से जगह बनाने की सोचो ही मत। तम्हारा अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए ध्यान तुम्हें मिल गया। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा प्रेम तुम्हारा ध्यान है। भक्त तो भगवान से भी मनुहार लेने लगता है। वह तो रूठ भी | अब इसमें व्याघात मत डालो, व्यवधान मत डालो। यह जो जाता है भगवान से, कि अगर तू नहीं गाएगा साथ, तो हम भी न पूछ रहा है, यह मन है। यह मन कह रहा है, ध्यान का क्या? गाएंगे। यह तो प्रेम है, ठीक; यह तो भक्ति है, ठीक; लेकिन ध्यान का अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए क्या? मन एक बिबूचन पैदा कर रहा है। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा तुम ध्यान की चिंता में पड़ गए कि भक्ति खो जाएगी। और आंसू के द्वारे कटी सुबह, दुख के घर बीती दोपहरी ध्यान तो मिलेगा कि नहीं पक्का नहीं है, भक्ति खो जाएगी यह अब जाने डोला कहां रुके, अब जाने शाम कहां पर हो पक्का है। बरसात भिगोकर पलक गई, तन झुलसाकर पतझर लौटा और जिस मन ने अभी बाधा खड़ी की है, कल अगर कभी खंडहर घर को कर जेठ चला, पनघट मरघट बनकर लौटा तुम्हारा ध्यान भी जमने लगे, सधने लगे, तो यही मन कहेगा, पी डाली उम्र सितारों ने, चुन डाले गीत बहारों ने ठीक है, ध्यान तो ठीक है। लेकिन प्रेम का क्या? भक्ति का लौटा तो गेह मुसाफिर यह, खाली ही हाथ अगर लौटा क्या? यह ध्यान तो सूखा-सूखा है, मरुस्थल है। इसमें रसधार दिन एक मिला था सिर्फ मुझे, मिट्टी के बंदीखाने में कहां बहेगी? इसमें नाचोगे कैसे? इससे शांति तो मिल जाएगी आधा जंजीरों में गुजरा, आधा जंजीर तुड़ाने में लेकिन आनंद? नाचता हुआ आनंद, नर्तन करती हुई दिव्यता प्राणों को पकड़े खड़ी देह, पांवों को जकड़े पड़ा गेह कहां मिलेगी? अब जाने इतने पर्यों में बेपर्दा श्याम कहां पर हो? ऐसे मन तुम्हें डांवाडोल करेगा। मन की आदत यही है। तुम अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए जहां हो, वह तुम्हें कहीं और के सपने दिखाता है। वह कहता है, जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा | कहीं और होना चाहिए। वह तुमसे कहता है, इससे बेहतर जगह पर्दे बहुत हैं। भक्त कहता है, अब मैं कहां खोजता फिरूं? | है। और इसलिए तुम जहां हो, वहां से चुका देता है। किन-किन पर्दो को उठाऊं? अब तू ही मुझे खोज ले। और दुख और अगर तुम इस अभ्यास में बहुत ज्यादा कुशल हो मैंने बहत उठाए। सारी जिंदगी दख उठाने में बीती। सारी जिंदगी गए-चकने के अभ्यास में-तो तुम हर जगह चूकते चले सुख की आशा करने में, दुख को काटने में गुजारी। अब बहुत | जाओगे। तुम स्वर्ग में भी होओगे तो भी मन तुमसे कहेगा, पता हो गया। अब मैं दुख को काटने की फिकर नहीं करता, और न नहीं नर्क में क्या हो रहा है! हो सकता है, लोग वहां ज्यादा मजा सुख की तलाश करता हूं; अब मैं सुखी होता हूं। उठा रहे हों। इस बात को खयाल में लेना। भक्त कहता है, अब मैं सुख की | मैंने तो सुना है, एक फकीर मरा और स्वर्ग पहुंचा। तो वह खोज नहीं करता, अब मैं सुखी होता हूं। अब इस क्षण से खोज बड़ा चकित हुआ स्वर्ग में प्रवेश करके। क्योंकि उसने देखा, कई. बंद हुई। अब मैं नाचूंगा। अब में आनंदित हूं। अब मैंने तय कर लोग जंजीरों से बंधे हैं। लिया कि खोजने से नहीं मिलता, खो जाने से मिलता है। उसने जो देवदूत उसे अंदर ले जा रहा था, उससे पूछा कि मेरी भक्त की श्रद्धा बड़ी अनूठी है। अगर श्रद्धा का सूत्र हाथ में हो यह समझ के बाहर है। मैंने तो सुना था, स्वर्ग मुक्ति है। और 356 2010_03
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________________ मक्ति द्वंद्वातीत है यहां भी जंजीरें बंधी हैं? इसे देखकर तो मेरी घबड़ाहट बढ़ती | अब ध्यान को रखकर करोगे क्या? अब ध्यान की जरूरत है। यह मामला क्या है ? ये लोग बंधे क्यों हैं? कहां रही? यह तो ऐसा हुआ कि किसी अंधे को आंखें मिल गई उसने कहा कि ये लोग नर्क जाना चाहते हैं इसलिए जंजीरें और अब वह पूछता है कि यह मेरी लकड़ी, जिससे मैं डालना पड़ीं। ये लोग एकदम उतावले हो रहे हैं। ये कहते हैं, टटोल-टटोलकर चलता था जब मैं अंधा था, तो अब इस स्वर्ग तो देख लिया, अब नर्क देखना है। ये कहते हैं, यहां तो | लकड़ी का क्या करूं? और कहां रखू? मैं इसको छोड़ तो ऊब आने लगी। देख लिया, जो देखना था। पता नहीं नर्क में | सकता नहीं, क्योंकि इसने कितना साथ दिया है! अंधा था तो कहीं ज्यादा मजा हो। इसी से टटोल-टटोलकर चलता था। आंखें तो आज मिलीं, मन ऐसा है। स्वर्ग भी पहुंच जाओगे तो भी चैन से न बैठने | अंधा तो जन्मों से था। लकड़ी ने जन्मों साथ दिया, इसे कैसे देगा। अब जिसने पूछा है, 'मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से छोड़ दं? भर देती है।' जब याद इतने स्वाद से भर रही है तो चल पड़ो। | प्रेम मिल गया तो ध्यान की कोई जरूरत नहीं। ध्यान मिल स्मरण तुम्हारा मार्ग है, सुरति तुम्हारी विधि है। अब इस मिठास गया तो प्रेम की कोई चिंता नहीं। दो में से एक सध जाए। और में डूबो। मिठास हो जाओ। दोनों के बीच अपने मन को डांवांडोल मत करना, अन्यथा तुम 'प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक से, ऊष्मा से भर देता | त्रिशंकु हो जाओगे। है। मैंने सुना था कि ध्यानमूलं गुरुमूर्तिः। और मुझे आपका | और जब मैं कह रहा हूं, एक सध जाए तो मेरा मतलब यही है स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से भर देता कि एक के सधते दसरा अनायास अपने आप सध जाता है। उजाड़ से लगा चुका उम्मीद में बहार की तो फिर अब बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? तो फिर रुके क्यों | निदाघ से उम्मीद की, वसंत की बयार की हो? जहां से रस बहे, जानना वहीं सत्य है। रस सत्य की खबर मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी लाता है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। जहां से अंगार से लगा चुका उम्मीद मैं तुषार की रस बहे, समझना परमात्मा छिपा है। पत्थर से बहे, तो प्रतिमा हो कहां मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गड़ी गई वह परमात्मा की। भोजन से बहे, तो अन्न ब्रह्म हो गया। इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो संगीत से आए तो संगीत अनाहत का नाद हो गया। जिस व्यक्ति इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो की उपस्थिति में लगने लगे वह रस, तो उपस्थिति उसकी पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो भगवतस्वरूप हो गई। वह व्यक्ति भगवान हो गया। ध्यानी कहता है, मैं अपने को सधारूंगा। ध्यानी का अर्थ है: जहां से रस मिल जाए, चल पड़ना उस तरफ अंधे की भांति। सारा दायित्व मेरे ऊपर है। फिर आंखों को रख देना। इन आंखों का काम तो तभी तक था, प्रेमी का अर्थ है। इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार जब तक रस का पता न हो। यह आंखों से टटोल-टटोलकर लो। कि तुम मुझे पुकार लो, कि पुकार कर दुलार लो, कि चलना तभी तक ठीक था, जब तक रस का पता न हो। जब रस दुलार कर सुधार लो। की झलक मिलने लगी, तो अब सब छोड़ो समझदारी। अब हो | प्रेमी का अर्थ है, कि वह कहता है, कि मैंने छोड़ दिया तुम्हारे जाओ नासमझ। अब हो जाओ पागल। अब हो जाओ उन्मत्त। हाथों में। अब तुम सुधार लो। मेरे किए न होगा। मेरे किए होगा दौड़ पड़ो। अब चलने से काम न चलेगा। आंधी-अंधड़ की भी कैसे? मैं गलत है, मैं जो करूंगा वह और गलती को तरह चल पड़ो परमात्मा की तरफ। बढ़ाएगा। मैं नासमझ हूं। मैं जो करूंगा उससे नासमझी और 'जब मेरी चाल में हर क्षण घूघर की तरह आपकी धुन बजती उलझ जाएगी। मैं वैसे ही उलझा हूं। है, जब मर रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति आप तुमने कभी देखा, कोई चीज उलझी हो, सुलझाने जाओ तो बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखं?' और उलझ जाती है। मैं वैसे ही भ्रम में हूं। अब इसमें और 357 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 TE उपद्रव करूंगा तो और कीचड़ मच जाएगी। कहा कि तुम किसी काम के नहीं हो। अगर तुम इतना प्रेमी की दृष्टि और है। वह कहता है, कि मैंने तुम्हारे हाथों में | सोच-विचार करोगे तो युद्ध के मैदान पर क्या होगा? इतना छोड़ा अपने को। तुम मुझे बना सके तो तुम मुझे सुधार न | सोच-विचार सैनिक के लिए नहीं है। मगर अब तुम भर्ती हो ही सकोगे? तुम मुझे जीवन दे सके तो तुम मुझे ज्योति न दे | गए हो तो कोई तो काम देना। सकोगे? तुमने बिन मांगे जीवन दिया, तुमने बिन मांगे तो उसे मेस में भेज दिया भोजनालय में—कि वहां तुम कुछ अहोभाग्य बरसाया, तो मांगता हूं तुमसे, ज्योति न दे सकोगे? काम करो। पहले ही दिन उसको मटर के दाने दिए, कि बड़े-बड़े बिन मांगे जीवन देते हो, मांगे ज्योति न दोगे? एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। प्रेमी परमात्मा पर छोड़ रहा है। और इसी छोड़ने में क्रांति घंटेभर बाद जब उसका शिक्षक आया तो दाने वैसे के वैसे रखे | घटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही तुमने उस पर छोड़ा, थे और वह माथे से हाथ लगाए—जैसे रोडेन की प्रतिमा है न। तुम्हारा अहंकार मिटना शुरू हुआ। और अहंकार मूल है सारे विचारक-वैसे बैठा था। उपद्रव का, सारी भूलों का, सारे पाप का, सारी नासमझियों का। 'तुम क्या कर रहे हो? कुछ किया नहीं?' अहंकार द्वार है नर्क का। उसने कहा, 'मैं यही तो सोच-विचार में पड़ा हूं। बड़े एक तो जिसने पूछा है—कृष्ण गौतम का प्रश्न है—उससे मैं | तरफ कर दूं, छोटे एक तरफ कर दूं, कुछ मझोल हैं; इनको कहां कहता हूं: करना? और जब तक सब बात साफ न हो जाए तब तक कोई आगाज़ जो अच्छा है, अंजाम बुरा क्यों हो? भी कृत्य करना खतरे से खाली नहीं है। मैं सोच-विचारवाला नादां है जो कहता है, अंजाम खुदा जाने! आदमी हूं।' जब प्रारंभ अच्छा है, अंत भी अच्छा होगा। तुम फिक्र छोड़ो। गौतम! दार्शनिक होने की कोई जरूरत नहीं। अब ध्यान की नासमझ है, जो कहता है कि शुरुआत तो बड़ी अच्छी हो रही है, चिंता छोड़ो। तुम्हें जिससे संगति बैठ सकती है, वह स्वर बजा परिणाम परमात्मा जाने! जब शुरुआत अच्छी है तो परिणाम भी है। अब चल पड़ो। अब श्रद्धा से भरपूर, भरोसे से। अच्छा होगा। जब बीज मिठास के और रस के हैं तो फल भी रस सोच-विचार एक तरफ रखकर, अब दौड़ो। के और मिठास के होंगे। तुम चल पड़ो। अब तुम बैठे-बैठे विचार मत करो। चिंतन अक्सर आलस्य बन जाता है। बहुत सोच-विचार करनेवाले | पांचवां प्रश्नः वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि कुछ हो लोग चलने की बात भूल ही जाते हैं। इसलिए दार्शनिक कुछ भी | सकता है। अब कोई भय नहीं मालूम देता। प्रभु, प्रणाम! नहीं कर पाते। सोचते-सोचते जीवन गंवा देते हैं। करने के लिए प्रणाम!! प्रणाम!!! मौका ही नहीं बचता, समय नहीं बचता, शक्ति नहीं बचती।। मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक दार्शनिक भर्ती हुआ। युद्ध शुभ है ऐसी घड़ी, जब ऐसा भाव सघन होने लगे कि अब कुछ में जरूरत थी, सभी भर्ती किए जा रहे थे, वह भी भर्ती कर लिया हो सकता है। मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्व की घड़ी यही | गया। लेकिन बड़ी कठिनाई हुई। क्योंकि जो इसे शिक्षण दे रहा घड़ी है, जब भरोसा आता है कि अब कुछ हो सकता है। था वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। वह कहे, 'बायें घूम।' सारी अन्यथा साधारणतः तो भरोसा आता ही नहीं कि कुछ, और | दुनिया घूम जाए, वह वहीं खड़ा है। तुम खड़े क्यों हो? वह मुझे हो सकेगा? और उस गैर-भरोसे का भी कारण है। कहता, जब तक मैं सोच न लूं कि बायें घूमूं क्यों? आखिर बायें जन्मों-जन्मों से कुछ न हुआ, आज अचानक कैसे हो सकेगा? घूमने से फायदा क्या है? और फिर दायें घूमना पड़ेगा, तो यहीं अनंत काल में न हुआ, आज कैसे हो सकेगा? क्यों न खड़े रहो? इसलिए इस जगत में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटना, जहां से आखिर वह जो शिक्षण देनेवाला था, परेशान हो गया। उसने और महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत होती है, वह इस क्षण का 358 2010_03 SHREE
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________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है आ जाना है, जब तुम्हें यह लगे कि हां, मुझे कुछ हो सकता है। और जाएगी। इसलिए जब चली जाए तो घबड़ा मत जाना, इसीलिए तो लोग बुद्ध पर, महावीर पर, कृष्ण पर, क्राइस्ट पर उदास मत हो जाना। क्योंकि यह बड़ी दूर की झलक है। जैसे भरोसा नहीं करते। क्योंकि उनको लगता है, जब हमें नहीं हो आकाश में क्षणभर को बिजली कौंध गई हो और तुम्हें दूर सकता तो किसी को कैसे हुआ होगा? आखिर हम भी मनुष्य हिमालय का शिखर दिखाई पड़ गया हो। पर बिजली गई, फिर जैसे मनुष्य हैं-हड्डी, मांस, मज्जा के बने। जैसे तुम घना अंधेरा है। और ध्यान रखना, जब बिजली के बाद अंधेरा थे–महावीर हो, कि बुद्ध हो, कि कृष्ण हो, कि क्राइस्ट हो। होता है तो बिजली के पहले के अंधेरे से ज्यादा घना हो जाता है। हम भी जन्मे, तम भी जन्मे। हम भी मरण की तरफ जा रहे हैं, तो जिनके जीवन में यह सौभाग्य का क्षण आता है, उन्हें लगता तुम भी मरे। हमें भी भूख लगती है, तुम्हें भी लगती है। हमारा है, अब कुछ हो सकता है, वे बड़ी खतरे की स्थिति में भी हैं। भी शरीर जीर्ण-शीर्ण होता है, वृद्ध होता है, तुम्हारा भी हुआ। उन्हें सचेत कर देना जरूरी है। क्योंकि यह बिजली की कौंध है; हमारी भी कमर झुक गई, तुम्हारी भी झुक जाएगी, तुम्हारी भी यह खो जाएगी। यह बहुत बार पकड़ में आएगी, बहुत बार छूट झुक गई थी। | जाएगी। और जब छूटेगी तब तुम ऐसे अतल अंधेरे में गिरोगे, तो अंतर कहां है? हमारे जैसे मनुष्य! हमें नहीं हुआ, हमें नहीं जैसे कि तुम कभी भी नहीं थे। घटा वह अघट, हमारे जीवन में नहीं उतरा आकाश। हमारा | लेकिन अगर सावधान रहे और स्मरण रखा कि ऐसा होता है, आंगन तो सिकुड़ता ही गया। आकाश के तो दर्शन ही नहीं हुए। | तो तुम उन अंधेरी रातों को भी पार कर जाओगे। और जो अभी हमारे तो झरोखे बंद ही होते गए। कभी कोई खुला प्रकाश, सूरज | बिजली की कौंध की तरह घटा है, वह एक दिन सुबह के सूरज का दर्शन न हुआ, तो तुम्हें कैसे हुआ होगा? या तो तुम धोखा दे की तरह घटेगा। पहले झलक आती है, फिर झलक साफ होती रहे हो, या तुम भ्रम में पड़े हो, या तो तुम सिर्फ बातचीत कर रहे | है; फिर झलक झलक नहीं रह जाती, तुम्हारा सुनिश्चित अनुभव हो और या फिर तुम कोई सपना देख रहे हो। हो जाता है। फिर अनुभव नहीं रह जाता है, परमात्मा फिर ध्यान रहे, जिस दिन तुम्हें भरोसा आता है कि मुझे हो सकता अनुभव जैसा नहीं मालूम होता, तुम्हारा स्वत्व हो जाता है, है, उसी दिन पहली दफे बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट पौराणिक तुम्हारा स्वभाव हो जाता है। नहीं रह जाते, ऐतिहासिक हो जाते हैं। उसी क्षण सारा इतिहास मधर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल नया हो जाता है, जैसे तुम्हारे लिए फिर से लिखा गया। पहली छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल दफा ऐसे व्यक्तियों पर, जिनके जीवन में परमात्मा की झलक | तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज आयी, प्रतिबिंब उतरा, जिनमें किसी तरह परमात्मा की प्रभा | भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज प्रगट हुई, तुम्हें भरोसा आता है। जिस दिन तुम्हें अपने पर पर खयाल रखनाभरोसा आता है उसी दिन तुम्हें कृष्ण, महावीर, बुद्ध पर भरोसा मधुर निर्यात और आयात साधते हो दोनों के खेल। आता है। छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल लोग ईश्वर पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उनका अपने पर एक क्षण तो लगता है, इतने करीब; और एक क्षण लगता है, भरोसा नहीं है। नास्तिक की असली नास्तिकता | इतने दूर। एक क्षण लगता है, हाथ की पहुंच के भीतर; और आत्म-अविश्वास है। वह कहता है, कोई ईश्वर नहीं है। | एक क्षण लगता है, असंभव! बिलकुल असंभव! ऐसा बहुत क्योंकि भीतर जब ईश्वर का पता नहीं चलता, किरण भी नहीं | बार होगा। पता चलती. झलक भी नहीं पता चलती. सपने में भी कोई तरंग तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज नहीं लहराती तो ईश्वर हो कैसे सकता है? भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज ईश्वर होता है उस क्षण, जब तुम्हारे भीतर तुम होने लगते हो। तो डरना मत। यह झलक सौभाग्य है। शुभ घड़ी है। लेकिन ध्यान रखना, यह घड़ी कई बार आएगी लेकिन जिनके जीवन में सौभाग्य आता है, उसके साथ-साथ 359 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 उतने ही खतरे भी आते हैं। जब तुम्हारे पास कुछ नहीं होता तो सावधान! क्योंकि इस पहली किरण के साथ ही जब अंधेरा खोने को भी कुछ नहीं होता। जब कुछ होता है तो खोने को भी फिर से आएगा तो बहुत गहरा होगा। तुम बहुत तड़फोगे फिर। कुछ होता है। जितना ज्यादा तुम्हारे पास होगा, उतने ही तुम तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज खतरे में भी हो; क्योंकि उतना ही खोने को भी तुम्हारे पास है। भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज एक युवक छह महीने पहले आया। आने के महीनेभर बाद मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल उसने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि क्या मैं वापस जा छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल सकता हूं अपने घर? मैंने कहा, जा सकते हो। लेकिन वह गया परमात्मा ऐसी बहुत धूप-छांव तुम्हें देगा। परमात्मा बहुत बार नहीं। महीनेभर और रुका। फिर उसने पूछा कि क्या मैं जा करीब और बहुत बार दूर निकल जाएगा। यह छिया-छी का सकता हूं? मैंने कहा कि अब जाना ठीक नहीं। खेल है। ऐसे ही तुम्हें वह मजबूत करता है, बलशाली करता है। वह थोड़ा चौंका। उसने कहा कि महीनेभर पहले आपने कहा | ऐसे ही तुम्हें जीवन देता है। ऐसे ही तुम्हारी परिपक्वता आती है। कि जा सकते हो। अब आप कहते हो, जाना ठीक नहीं, मामला | ऐसे ही मिलकर-खोकर, खोकर-मिलकर, बार-बार धूप-छांव क्या है? क्योंकि मैं तो सोचता था, महीनेभर में मैं और तैयार हो | से गुजारकर तुम्हें पकाता है; परिपक्व करता है। तुम्हें प्रौढ़ता जाऊंगा तो जाने के योग्य हो जाऊंगा। | देता है। तुम्हारे जीवन में एकता आती है। मैंने कहा, महीनेभर पहले जब तुमने पूछा था, तुम्हारे पास | और एक ऐसी घड़ी आती है कि वह मिले तो ठीक, न मिले तो खोने को कुछ भी नहीं था। तो मैंने कहा, जाओ। कोई फर्क नहीं ठीक; हर हालत में तुम प्रसन्न होते हो। अंधेरी रात भी उसी की, पड़ता था। अब तुम्हारे पास कुछ खोने को है। थोड़ा-सा अंकुर जगमगाते सूरज का दिन भी उसी का। जब तुम्हें कुछ भी उसका फूटा है। अब मैं कहता हूं, मत जाओ। अभी रुको। अब तुम्हारे पता नहीं चलता, तब भी तुम जानते हो, वह है। और जब उसका पास कुछ है, जो खो सकता है अभी जाने से। अब थोड़ी देर रुक पता चलता है, तब भी तुम जानते हो, वह है। उस घड़ी जाओ। जरा इसे मजबूत होने दो। जरा इसकी जड़ें गहरी होने धूप-छांव का खेल बंद होता है। दो। अन्यथा तुम इतने दुख में पड़ जाओगे, जितने दुख में तुम अभी तो खतरा आएगा। पूर्व-सावधान कर देना उचित है। पहले भी न थे। आरजुओं में हरारत है, न उम्मीदों में जोश तम्हें पता है? एक गरीब आदमी है. गरीबी उसको भी है। सर्द अब हर गर्मिये-बाजार है तेरे बगैर फिर एक अमीर आदमी है, जिसका दिवाला निकल गया; वह जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर भी गरीब है। दोनों के पास कुछ भी नहीं है। लेकिन जिसका सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर दिवाला निकल गया है उसकी गरीबी का कोई अंदाज तुम गरीब अभी तो जब खोओगे तो लगेगाआदमी की गरीबी से नहीं लगा सकते। गरीब आदमी क्या खाक सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर गरीब है! जो अमीर ही कभी नहीं रहा, उसे गरीबी का कोई पता जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर ही नहीं हो सकता। जो अमीर रह चुका है, उसकी गरीबी की। बड़ी कठिनाई होगी, जैसी कभी न हई थी। लेकिन यह केवल पीड़ा बड़ी गहरी है। जिसने वैभव के दिन जाने, वही जानता है, सौभाग्यशालियों को होती है कठिनाई। ऐसा दुर्दिन केवल उन्हें दुर्दिन क्या है। जिसने वैभव के दिन ही नहीं जाने, वह तो दुर्दिन मिलता है, जिन्हें प्रभु की थोड़ी-सी झलक मिलनी शुरू हुई। में भी मस्त चादर ओढ़कर सोता है। कोई दुर्दिन जैसी कोई बात तुम्हारे पैर ठीक जमीन पर पड़ रहे हैं। मगर अभी भटकोगे। ही नहीं। सहज सामान्य जीवन है। इतनी जल्दी कुछ भी नहीं होता। और पाकर जब भटकोगे तो ऐसा ही आंतरिक संपदा के संबंध में भी सच है। बहुत रोओगे। उन आंसुओं में याद रखना। उन आंसुओं में जिन मित्र ने पछा है, उनके जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण घटना भरोसे को कायम रखना। घटने के करीब आ रही है. घट रही है। पहली किरण उतरी है। अभी तो भरोसा आसान है। जब कछ ठीक हो रहा होता है तब 3601 Jalil Education International 2010_03
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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws मक्ति द्वंदातीत है तो भरोसा बिलकुल आसान है। जब सब गलत जाने लगता है, आखिरी प्रश्नः मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब तब भरोसा कठिन होता है। सांसारिक कार्य कैसे होंगे? लेकिन उसी कठिनाई की चुनौती को जो मान लेता है उसके जीवन में विकास होता है। अशांत रहकर भी चल रहे हैं, तो शांत रहकर और भले तरह से तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित हृदय चलेंगे। आखिर शांति किसी काम में बाधा तो नहीं है। अशांत तू अगम सिंधु की रास लिये रहकर भी कर लेते हो तो शांत रहकर तो और कुशलता से कर मैं मरु असीम की प्यास लिये सकोगे। यह तो सीधा-सा गणित है। मैं चिर-विचलित संदेहों से एक आदमी अशांत है और कोई काम कर रहा है, तो अर्थ हुआ तू शांत अटल विश्वास लिये कि अशांति बड़ी शक्ति ले रही है। मन का तनाव बड़ी शक्ति पी तेरी मुझको आवश्यकता, आवश्यकता तुझको मेरी रहा है। फिर भी काम कर रहा है, किसी तरह खींच रहा है। तब मैं जीवन का उच्छवास लिये भी कर लेता है। तो थोड़ा सोचो, जब तुम शांत हो जाओगे और तू जीवन का उल्हास लिये सारी शक्ति काम में ही पड़ेगी क्योंकि मन कोई शक्ति रोकेगा तुझसे मिल पूर्ण चला बनने, बस इतना ही मेरा परिचय नहीं; अशांति नहीं, तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं-जब तुम तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित हृदय पूरे-पूरे काम में उंडलोगे तो काम की गति तो बढ़ेगी, कुशलता हम प्यासे हैं। हम भूखे हैं। हम अतृप्त हैं-तृषित हृदय। बढ़ेगी, गुणवत्ता बढ़ेगी। और परमात्मा में छिपी है वह सुधा, वह अमृत, जो हमें तृप्त यह प्रश्न ही क्यों उठता है? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि करेगी। परमात्मा और हमारे बीच जो संबंध है, वह प्यासे और तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि जो शांत हो जाते हैं, वे जल के बीच का संबंध है। | संसार से भाग जाते हैं। इसीलिए संन्यास से एक भय हो गया अभी तुम्हें सरोवर दिखाई पड़ा है, पर दूर से दिखाई पड़ा है। है। शांति से भय हो गया है। यह भय बिलकुल निर्मूल है। अभी बहुत संभावना है कि फिर तुम वृक्षों की ओट में हो मैं तुमसे कहता हूं, अशांत भला भाग जाते हों संसार से, शांत जाओगे। शायद सरोवर की तरफ चलने में ही बहुत बार वृक्ष क्यों भागने लगे? शांत को भागने के लिए जरूरत ही क्या ओट में आ जाएंगे और सरोवर खो जाएगा। चलोगे भी सरोवर रही? शांत को तो आनंद आएगा चारों तरफ की अशांति के की तरफ, तो भी अनेक बार सरोवर दिखाई पड़ेगा, अनेक बार बीच खड़े होने में। क्योंकि यहां कसौटी होगी। खो जाएगा। / यहां प्रतिपल भरोसा गहरा होगा कि अशांति कितनी ही हो जब खो जाए, तब भूलना मत कि है। क्योंकि जब दिखाई बाहर, अब मेरे भीतर प्रवेश नहीं करती। मैं अभेद्य दुर्ग में पड़ता है तब बिलकुल आसान मानना, कि है। जब खो जाता है विराजमान हो गया हूं। मेरी शांति अटूट है। अब कोई चीज इसे तब बहुत दुर्गम मानना, कि है। तब उदास हो, हताश हो, विशृंखल नहीं करती। मेरी शांति अब कमजोर नहीं है कि टूट थककर बैठ मत जाना। जाए; कि कोई भी चीज मेरे मन को डांवाडोल करे। अब सब जो इस क्षण में हुआ है, इसे तुम सदा के लिए अपनी एक परीक्षाओं से गुजर रहा हूं और मेरी शांति और गहरी और मजबूत चिर-संचित निधि बना लो। यह जो भरोसा जगा है कि अब कुछ होती चली जाती है। हो सकता है, इसे भलना मत। कछ भी हो, कैसी भी परिस्थिति नहीं, मैं तमसे कहता है. शांत आदमी जो भी करेगा उसमें हो, इसे फिर-फिर जगा लेना। इसे याद रखना। यह तुम्हारी उसकी कुशलता बढ़ जाएगी। स्मृति से उतर न जाए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कह रहा हूं, शांत आदमी तो जो अभी झलक की तरह मिला है, वह तुम्हारी स्थायी वे सब काम करेगा ही, जो तुम कर रहे हो। क्योंकि कुछ काम हैं, संपदा बन जाता है। जो केवल अशांत आदमी ही कर सकता है, क्योंकि उनका मूल 361 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 अशांति में है। दवा लेने लगे। और मैं कितने दिन से साथ रही। जन्मों-जन्मों जैसे एक आदमी चोरी कर रहा है, तो मैं तुमसे यह नहीं कह | का, जुग-जुग का संग-साथ-तुम दवा लेने लगे? धोखेबाज सकता कि शांत आदमी चोरी कर सकेगा। कर सके तो कुशलता | कहीं के! दगाबाज कहीं के! दवा लेने लगे? यह तुम क्या कर से करेगा; मगर कर सकता नहीं। क्योंकि चोरी के लिए बड़ा रहे हो? सब खराब हो जाएगा। सोया चित्त चाहिए। बड़ा दीन-दुर्बल चित्त चाहिए। चोरी के लेकिन तुम बीमारी की नहीं सुनते। मन को तुमने अब तक लिए बड़ा अशांत, विक्षिप्त चित्त चाहिए। बीमारी नहीं जाना। तुम सोचते हो, मन तुम हो। यहीं भूल हो शांत आदमी क्रोध न कर सकेगा। कर सके तो बड़ी कुशलता रही है। तुम मन नहीं हो। तुम मन के पार साक्षी हो। उस साक्षी से करेगा, मगर कर न सकेगा। क्योंकि क्रोध का मूल अशांति में का परम आनंद घटेगा शांति में। शांति में मन चला जाएगा, तुम है। लेकिन जीवन के सहज काम तो और कुशल हो जाएंगे। बचोगे। मन के बहुत-से व्यापार, जो रुग्ण हैं, जिन्होंने सिवाय शांत आदमी ज्यादा बेहतर पति होगा, ज्यादा बेहतर पत्नी दुख के और कुछ भी नहीं दिया, वे भी चले जाएंगे। लेकिन होगी, ज्यादा बेहतर बेटा होगा, ज्यादा बेहतर बाप होगा, ज्यादा उनका चला जाना हितकर है। बेहतर मित्र होगा। शांत आदमी के जीवन में, जो भी शांति के मन सदा ध्यान में बाधा डालता है। क्योंकि ध्यान मन की मत्य साथ बच सकता है, वह सभी बेहतर, स्वर्णमयी होकर, है। मन समझाता है: सुगंधमयी होकर होगा। उसके सोने में सुगंध आ जाएगी। बहुत खोया, और खोने दो मुझे तो मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हारी सभी चीजें बचेंगी। और भी गुमराह होने दो मुझे लेकिन मैं यह कहता है, जो बचाने योग्य हैं वे बचेंगी। जो बचाने आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख योग्य ही नहीं हैं जिनको तम भी बचाना नहीं चाहते हो. वे ही सोने दो मझे। केवल खो जाएंगी। महंगा सौदा नहीं है। बहुत खोया, और खोने दो मुझे महंगा सौदा तो तुम अभी कर रहे हो अशांति को चुनकर। आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख 'मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब सांसारिक कार्य कैसे सोने दो मझे होंगे?' मन बहाने खोज रहा है। मन कह रहा है, शांत मत हो लेकिन जिसे तुम पलकों की छबीली छांह समझ रहे हो, वहीं जाना। यह क्या कर रहे हो? ध्यान में लगे हो? अपनी जड़ें से तुम्हारे जीवन का सारा ज्वर, सारा उत्ताप पैदा हुआ है। जिसे खोद रहे हो? सब गड़बड़ हो जाएगा। | तुम सौंदर्य समझ रहे हो उसी ने तुम्हारे जीवन को कुरूप किया मन का तो सब गड़बड़ हो जाएगा, यह सच है। मन ठीक ही है। और जिसे तुम सोचते हो तुम्हारा बल, वही तुम्हारी कह रहा है। क्योंकि मन है तुम्हारा रोग, बीमारी। नपुंसकता है, वही तुम्हारी निर्बलता है। इसे ठीक से देखो। अगर तुम महत्वाकांक्षी हो तो महत्वाकांक्षा चली जाएगी। और अगर तुम्हें यह चिंता हो कि तुम अगर शांत हो गए तो अगर तुम पागल की तरह स्पर्धा में लगे हो, स्पर्धा चली जाएगी। संसार का क्या होगा, तो यह चिंता तुम बिलकुल मत करो। अगर तुम व्यर्थ चीजों को जोड़ने-बटोरने में लगे हो तो वह बहुत अशांत लोग हैं। तुम्हारे जाने से यहां कुछ बाधा न पड़ेगी। पागलपन उतर जाएगा। यहां काफी पागल हैं। तुम इस चिंता में मत पड़ो कि मैं अगर तो मन तो ठीक कह रहा है। मन को संसार की फिक्र नहीं है, ठीक हो गया, तो पागलखाने का क्या होगा? यह चलता ही रहा मन को अपनी फिक्र है। मन यह कह रहा है, कि मेरा क्या है। यह चलता ही रहेगा। होगा? तुम तो शांत होने लगे, कुछ मेरी तो सोचो! कितने दिन ये रंगे-बहारे-आलम है तुम्हारे साथ रहा! क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी! यह तो ऐसे ही हुआ, कि तुमने दवा लेनी शुरू की, बीमारी महफिल तो तेरी सूनी न हुई, | तुमसे कहे, कि जरा यह भी तो सोचो, मेरा क्या होगा? तुम तो कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए 362 2010_03
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________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है / हैं -यह महफिल भरी ही रहती है। महफिल तो तेरी सूनी न हुई, महफिल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए, कुछ आ भी गए कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए तुम सिर्फ अपनी चिंता कर लो। और इतना मैं तुमसे कह तुम उठने में संकोच मत करो। कुछ बाहर खड़े हैं, जोर से सकता हूं आश्वासन के साथ, कि जो भी शुभ है, वह बचेगा। चिल्ला रहे हैं, जगह दो। क्यू में खड़े हैं। तुम हटो, वे बड़े प्रसन्न | जो भी श्रेयस्कर है, वह बचेगा। जो भी अशुभ है, वह छूट होंगे। तुम्हें वे धन्यवाद देंगे। इसीलिए तो लोग संन्यासी का जाएगा। मेरे मन में तो पाप और पुण्य की परिभाषा यही है : शांत स्वागत करते हैं ! चलो एक जगह खाली हुई। इसीलिए तो लोग मन जिसे न कर सके, वही पाप। जिसे करने के लिए अशांत मन त्यागी की महिमा गाते हैं, चरण छूते हैं कि धन्य प्रभु! कम से | अनिवार्य शर्त है, वही पाप। शांत मन ही जिसे कर सके, वही कम आपने तो जगह खाली की! पुण्य। शांत मन जिसके होने के लिए अनिवार्य भूमिका है, वह तुम अक्सर पाओगे त्यागियों के पास भोगियों को स्तुति | पुण्य है। करते। जैन मंदिरों में देखो! जो छोड़कर बैठ गए हैं संसार, जो पुण्य बचेगा। पुण्य की कुशलता बचेगी। पाप खोते चले संसार को जोर से पकड़े हैं, वे उनके चरण छू रहे हैं। वे कह रहे | जाएंगे। नर्क छूटेगा, स्वर्ग शेष रहेगा। बंधन गिरेंगे, मुक्ति हैं, बड़ी कृपा आपकी। | उपलब्ध होगी। मोक्ष बचेगा। उसमें तुम्हारी कुशलता बढ़ेगी। शायद उन्हें भी साफ न हो। मगर मामला क्या है? मामला | तुम पछताओगे न। तुम कभी लौटकर ऐसा न सोचोगे कि बड़ी यह है कि ये भी प्रतियोगी थे। ये हट गए मैदान से। जितने गलती कर ली, जो शांत हो गए। प्रतियोगी कम हुए उतना ही अच्छा है। अब तक किसी ने ऐसा नहीं कहा। जो भी श संसारी सदा संन्यासियों की प्रशंसा करता रहा है। लेकिन सदियों-सदियों में अनंत लोग हए हैं। यह शंखला छोटी नहीं प्रशंसा निश्चित ही झूठ होगी, बेमन से होगी; असली नहीं है। बहुत लोग हुए सदियों-सदियों में, उनमें से किसी एक ने भी होगी। असली होती तो खुद ही संन्यासी हो जाता। यह बड़े नहीं कहा कि शांत होकर पछतावा हुआ। आश्चर्य की बात है। भोगी त्यागी के चरण छूता है। अगर यह | और इन सदियों में उनसे हजारों गुने लोग अशांत रहे, उन | श्रद्धा सच होती तो खुद ही त्यागी हो गया होता। यह श्रद्धा झूठी सबने सदा यह कहा कि चूक गए कुछ। कुछ भूल हो गई। कहीं है। वह कह रहा है, आपने बड़ी कृपा की। आपने बड़ा ही जीवन का तार टूट गया। वीणा बजी नहीं। बांसुरी पर धुन उतरी अच्छा किया जो छोड़ दी झंझट। नहीं। आए तो जरूर, खाली आए, खाली जा रहे हैं। जब एक राजनीतिज्ञ विदा होता है दिल्ली से तो बाकी | निरपवाद रूप से जो लोग अशांत रहे हैं, वे पछताए हैं। राजनीतिज्ञ उसका विदाई समारोह करते हैं। कहते हैं कि गिरि निरपवाद रूप से जो लोग शांत हुए हैं उन्होंने धन्यभाग, साहब, आप चले बंगलोर! बड़ी कृपा! फिर न आना। आप सौभाग्य माना है। बंगलोर में ही बसना। आबोहवा भी अच्छी है। और दिल्ली में रखा क्या है? आज इतना ही। चलो, क्यू में एक आदमी कम हुआ। थोड़े हम आगे सरके। ऐसी आशा से तो आदमी जी रहा है। तुम इसकी फिक्र मत करना कि संसार का क्या होगा? संसार तुम्हारे बिना बड़े मजे से चल रहा था, तम्हारे बिना बड़े मजे से चलता रहेगा। ये रंगे-बहारे-आलम है क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी! 363 2010_03