________________ - जिन सूत्र भाग: 2 UNDER BHAIMIMARA है तुम्हारे भीतर। संसार से तुम्हारी पकड़ छूटी कि जो सदा से | विपरीत की भाषा ही भूल जाओ। विरोध की भाषा ही भूल मिला हआ था, उसका पता चलता है। जो मिला ही हुआ था, | जाओ। शत्रुता का रोग ही छोड़ो। सिर्फ भर आंख देख लेना है, उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उसकी पहचान होती है। ठीक से पहचान लेना है। जहां हो, वहीं जागकर देख लेना है। मोक्ष कुछ ऐसा नहीं है, जिसे तुमने खो दिया हो। मोक्ष स्वभाव | उस जागरण में जो भी व्यर्थ है, वह अपने से छूट जाता है, गिर है। खोने का कोई उपाय ही नहीं। कहीं भूलकर, चूककर रख जाता है। एक अंधेरे कमरे में तुम बैठे हो, हीरे भी पड़े हैं और आये हो, ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम हो मोक्ष। कड़ा-कर्कट भी पड़ा है, फिर कोई दीया लेकर भीतर आ गया। इसलिए इनके विपरीत कोई दो पहिये और हैं? ऐसा पूछना ही जब तक दीया न था तब तक पता न था, कूड़ा-कर्कट क्या है, ठीक नहीं है। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है. इसलिए संन्यासी हीरे क्या हैं? हो सकता है. अंधेरे में तमने कडे-कर्क संसार का विरोधी नहीं है। जो संन्यासी संसार का विरोधी है, वह गठरी बांध ली हो और हीरों का खयाल ही न आया हो। फिर अभी संसार में है। उसने राग को द्वेष से बदल लिया। कुछ लोग कोई दीया लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली, दर्शन धन को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। कुछ लोग देह को राग हुआ। तुम हंसोगे, अगर तुमने अपनी गठरी में कूड़ा-कर्कट करते थे, वह द्वेष करने लगा। सांसारिक जिनको वह कहता है, बांध रखा था। जल्दी गांठ खोलोगे। जल्दी गठरी खाली कर जो-जो करते थे, उससे उलटा करने लगा। लोगे। जल्दी से हीरे भर लोगे। इसमें कुछ त्याग थोड़े ही होगा! संन्यासी अगर संसार का विरोधी है तो मैं तुमसे कहता हूं, इसमें कुछ अभ्यास थोड़े ही होगा! इसमें कोई श्रमसाध्य संसार में है। सिर के बल खड़ा होगा, मगर खड़ा बाजार में है। | प्रक्रिया थोड़े ही होगी! हिमालय पर बैठा हो, लेकिन खड़ा बाजार में है। भाग जाए सब बस दीये का आना, आंख का खुलना, दिखाई पड़ जाना सार छोड़कर, लेकिन जिससे भाग रहा है, उससे छुटकारा नहीं हुआ | का असार से भिन्न-पर्याप्त है। मोक्ष है बोध। है। भीतर मन में उसकी आकांक्षा शेष है। उसी आकांक्षा को | 'कहते हैं आप, राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित दबाने के लिए तो विपरीत कर रहा है। होता है...।' निश्चित ही। संसार दो के बिना निर्मित नहीं संन्यासी उसे कहता हूं मैं, जो संसार का विरोधी नहीं है, जो होता। संसार एक से निर्मित ही नहीं हो सकता। एक पहिये से संसार में जागा; जिसने संसार को भर-नजर देखा। कहीं कोई गाड़ी चली है? महावीर कहते हैं, जो सुपरिचित हुआ; जिसने संसार की | यह गाड़ी शब्द बड़ा अदभुत है। इस पर तुमने शायद कभी व्यर्थता समझी। सोचा न हो। गाड़ी का मतलब होता है, जो गड़ी है। मगर हम संसार के विपरीत किसी चीज को पकड़ने का सवाल ही नहीं चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी तो चल ही नहीं है, संसार की व्यर्थता स्पष्ट हो जाए तो जो शेष रह जाता सकती। जो गड़ी है, वह चलेगी कैसे? वृक्ष चलते हैं? गड़े है-इस कूड़े-कर्कट के बह जाने के बाद, जो जलधार भीतर हैं। चलती चीज को हम गाड़ी क्यों कहते हैं? बड़ा मधुर व्यंग्य शेष रह जाती है, वही मोक्ष है। है उस शब्द में। अगर मोक्ष कहीं संसार से अलग है तो फिर भागना पड़े संसार चलता तो है, पहुंचता कहीं नहीं। लगता है चलता है; गुफाओं में, कंदराओं में खोजना पड़े, तपश्चर्या में आंखें बंद ऐसे गड़ा है। ऐसे सपने में ही चलना होता है, यथार्थ में कोई करके कहीं दूर, जहां कोई न हो, वहां जाना पड़े। लेकिन मोक्ष | चलना नहीं होता। भाग-दौड़, आपाधापी! जब आंख खलती यहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। है, तुम पाते हो वहीं के वहीं खड़े हो, अपनी खाट पर पड़े हो। समझ आ गई तो मुक्ति आ गई। नासमझी रही तो बंधन रहा। सब सपने में दौड़-धूप की। बड़े आकाश छान डाले। जब सुबह नासमझी अर्थात बंधन। समझदारी अर्थात मोक्ष। आंख खुली तो पाया, अपने बिस्तर में पड़े हैं। ज्ञान मुक्ति है। तो संसार गाड़ी है। ऐसे तो गड़ा है। यथार्थ में तो गड़ा है, तो संसार को छोड़ना नहीं, न संसार के विपरीत सोचना। वह स्वप्न में चल रहा है, कल्पना में चल रहा है, कामना में चल रहा 13481 Jair Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org