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________________ More जिन सत्र भागः2 जिन सूत्र भाग 2 जाता रस का, लेकिन आखिरी घड़ी में होगा ध्यानी के लिए। तो तुम ध्यान की चिंता छोड़ दो। अगर तुम श्रद्धा कर सकते हो से ही नाचने लगता है। उसका भरोसा ऐसा | तो धन्यभागी हो। अगर संदेहशून्य मन से, जो मैं तुमसे कह रहा है। उसकी श्रद्धा ऐसी है। जो ज्ञानी को सोच-सोचकर, चिंतन हूं उसकी मिठास तुम्हें अनुभव होती है, अगर मुझे सुनकर तुम्हारे कर-करके, मनन कर-करके, निदिध्यास्न कर-करके मिलता है, अंतस में आलोक प्रगाढ़ होता है, ऊष्मा भरती है तो फिर तुम भक्त श्रद्धा से पा लेता है। ध्यान के लिए अलग से जगह बनाने की सोचो ही मत। तम्हारा अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए ध्यान तुम्हें मिल गया। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा प्रेम तुम्हारा ध्यान है। भक्त तो भगवान से भी मनुहार लेने लगता है। वह तो रूठ भी | अब इसमें व्याघात मत डालो, व्यवधान मत डालो। यह जो जाता है भगवान से, कि अगर तू नहीं गाएगा साथ, तो हम भी न पूछ रहा है, यह मन है। यह मन कह रहा है, ध्यान का क्या? गाएंगे। यह तो प्रेम है, ठीक; यह तो भक्ति है, ठीक; लेकिन ध्यान का अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए क्या? मन एक बिबूचन पैदा कर रहा है। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा तुम ध्यान की चिंता में पड़ गए कि भक्ति खो जाएगी। और आंसू के द्वारे कटी सुबह, दुख के घर बीती दोपहरी ध्यान तो मिलेगा कि नहीं पक्का नहीं है, भक्ति खो जाएगी यह अब जाने डोला कहां रुके, अब जाने शाम कहां पर हो पक्का है। बरसात भिगोकर पलक गई, तन झुलसाकर पतझर लौटा और जिस मन ने अभी बाधा खड़ी की है, कल अगर कभी खंडहर घर को कर जेठ चला, पनघट मरघट बनकर लौटा तुम्हारा ध्यान भी जमने लगे, सधने लगे, तो यही मन कहेगा, पी डाली उम्र सितारों ने, चुन डाले गीत बहारों ने ठीक है, ध्यान तो ठीक है। लेकिन प्रेम का क्या? भक्ति का लौटा तो गेह मुसाफिर यह, खाली ही हाथ अगर लौटा क्या? यह ध्यान तो सूखा-सूखा है, मरुस्थल है। इसमें रसधार दिन एक मिला था सिर्फ मुझे, मिट्टी के बंदीखाने में कहां बहेगी? इसमें नाचोगे कैसे? इससे शांति तो मिल जाएगी आधा जंजीरों में गुजरा, आधा जंजीर तुड़ाने में लेकिन आनंद? नाचता हुआ आनंद, नर्तन करती हुई दिव्यता प्राणों को पकड़े खड़ी देह, पांवों को जकड़े पड़ा गेह कहां मिलेगी? अब जाने इतने पर्यों में बेपर्दा श्याम कहां पर हो? ऐसे मन तुम्हें डांवाडोल करेगा। मन की आदत यही है। तुम अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए जहां हो, वह तुम्हें कहीं और के सपने दिखाता है। वह कहता है, जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा | कहीं और होना चाहिए। वह तुमसे कहता है, इससे बेहतर जगह पर्दे बहुत हैं। भक्त कहता है, अब मैं कहां खोजता फिरूं? | है। और इसलिए तुम जहां हो, वहां से चुका देता है। किन-किन पर्दो को उठाऊं? अब तू ही मुझे खोज ले। और दुख और अगर तुम इस अभ्यास में बहुत ज्यादा कुशल हो मैंने बहत उठाए। सारी जिंदगी दख उठाने में बीती। सारी जिंदगी गए-चकने के अभ्यास में-तो तुम हर जगह चूकते चले सुख की आशा करने में, दुख को काटने में गुजारी। अब बहुत | जाओगे। तुम स्वर्ग में भी होओगे तो भी मन तुमसे कहेगा, पता हो गया। अब मैं दुख को काटने की फिकर नहीं करता, और न नहीं नर्क में क्या हो रहा है! हो सकता है, लोग वहां ज्यादा मजा सुख की तलाश करता हूं; अब मैं सुखी होता हूं। उठा रहे हों। इस बात को खयाल में लेना। भक्त कहता है, अब मैं सुख की | मैंने तो सुना है, एक फकीर मरा और स्वर्ग पहुंचा। तो वह खोज नहीं करता, अब मैं सुखी होता हूं। अब इस क्षण से खोज बड़ा चकित हुआ स्वर्ग में प्रवेश करके। क्योंकि उसने देखा, कई. बंद हुई। अब मैं नाचूंगा। अब में आनंदित हूं। अब मैंने तय कर लोग जंजीरों से बंधे हैं। लिया कि खोजने से नहीं मिलता, खो जाने से मिलता है। उसने जो देवदूत उसे अंदर ले जा रहा था, उससे पूछा कि मेरी भक्त की श्रद्धा बड़ी अनूठी है। अगर श्रद्धा का सूत्र हाथ में हो यह समझ के बाहर है। मैंने तो सुना था, स्वर्ग मुक्ति है। और 356 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340149
Book TitleJinsutra Lecture 49 Mukti Dwandwatit Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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