________________ जिन सूत्र भाग: 2 TE उपद्रव करूंगा तो और कीचड़ मच जाएगी। कहा कि तुम किसी काम के नहीं हो। अगर तुम इतना प्रेमी की दृष्टि और है। वह कहता है, कि मैंने तुम्हारे हाथों में | सोच-विचार करोगे तो युद्ध के मैदान पर क्या होगा? इतना छोड़ा अपने को। तुम मुझे बना सके तो तुम मुझे सुधार न | सोच-विचार सैनिक के लिए नहीं है। मगर अब तुम भर्ती हो ही सकोगे? तुम मुझे जीवन दे सके तो तुम मुझे ज्योति न दे | गए हो तो कोई तो काम देना। सकोगे? तुमने बिन मांगे जीवन दिया, तुमने बिन मांगे तो उसे मेस में भेज दिया भोजनालय में—कि वहां तुम कुछ अहोभाग्य बरसाया, तो मांगता हूं तुमसे, ज्योति न दे सकोगे? काम करो। पहले ही दिन उसको मटर के दाने दिए, कि बड़े-बड़े बिन मांगे जीवन देते हो, मांगे ज्योति न दोगे? एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। प्रेमी परमात्मा पर छोड़ रहा है। और इसी छोड़ने में क्रांति घंटेभर बाद जब उसका शिक्षक आया तो दाने वैसे के वैसे रखे | घटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही तुमने उस पर छोड़ा, थे और वह माथे से हाथ लगाए—जैसे रोडेन की प्रतिमा है न। तुम्हारा अहंकार मिटना शुरू हुआ। और अहंकार मूल है सारे विचारक-वैसे बैठा था। उपद्रव का, सारी भूलों का, सारे पाप का, सारी नासमझियों का। 'तुम क्या कर रहे हो? कुछ किया नहीं?' अहंकार द्वार है नर्क का। उसने कहा, 'मैं यही तो सोच-विचार में पड़ा हूं। बड़े एक तो जिसने पूछा है—कृष्ण गौतम का प्रश्न है—उससे मैं | तरफ कर दूं, छोटे एक तरफ कर दूं, कुछ मझोल हैं; इनको कहां कहता हूं: करना? और जब तक सब बात साफ न हो जाए तब तक कोई आगाज़ जो अच्छा है, अंजाम बुरा क्यों हो? भी कृत्य करना खतरे से खाली नहीं है। मैं सोच-विचारवाला नादां है जो कहता है, अंजाम खुदा जाने! आदमी हूं।' जब प्रारंभ अच्छा है, अंत भी अच्छा होगा। तुम फिक्र छोड़ो। गौतम! दार्शनिक होने की कोई जरूरत नहीं। अब ध्यान की नासमझ है, जो कहता है कि शुरुआत तो बड़ी अच्छी हो रही है, चिंता छोड़ो। तुम्हें जिससे संगति बैठ सकती है, वह स्वर बजा परिणाम परमात्मा जाने! जब शुरुआत अच्छी है तो परिणाम भी है। अब चल पड़ो। अब श्रद्धा से भरपूर, भरोसे से। अच्छा होगा। जब बीज मिठास के और रस के हैं तो फल भी रस सोच-विचार एक तरफ रखकर, अब दौड़ो। के और मिठास के होंगे। तुम चल पड़ो। अब तुम बैठे-बैठे विचार मत करो। चिंतन अक्सर आलस्य बन जाता है। बहुत सोच-विचार करनेवाले | पांचवां प्रश्नः वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि कुछ हो लोग चलने की बात भूल ही जाते हैं। इसलिए दार्शनिक कुछ भी | सकता है। अब कोई भय नहीं मालूम देता। प्रभु, प्रणाम! नहीं कर पाते। सोचते-सोचते जीवन गंवा देते हैं। करने के लिए प्रणाम!! प्रणाम!!! मौका ही नहीं बचता, समय नहीं बचता, शक्ति नहीं बचती।। मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक दार्शनिक भर्ती हुआ। युद्ध शुभ है ऐसी घड़ी, जब ऐसा भाव सघन होने लगे कि अब कुछ में जरूरत थी, सभी भर्ती किए जा रहे थे, वह भी भर्ती कर लिया हो सकता है। मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्व की घड़ी यही | गया। लेकिन बड़ी कठिनाई हुई। क्योंकि जो इसे शिक्षण दे रहा घड़ी है, जब भरोसा आता है कि अब कुछ हो सकता है। था वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। वह कहे, 'बायें घूम।' सारी अन्यथा साधारणतः तो भरोसा आता ही नहीं कि कुछ, और | दुनिया घूम जाए, वह वहीं खड़ा है। तुम खड़े क्यों हो? वह मुझे हो सकेगा? और उस गैर-भरोसे का भी कारण है। कहता, जब तक मैं सोच न लूं कि बायें घूमूं क्यों? आखिर बायें जन्मों-जन्मों से कुछ न हुआ, आज अचानक कैसे हो सकेगा? घूमने से फायदा क्या है? और फिर दायें घूमना पड़ेगा, तो यहीं अनंत काल में न हुआ, आज कैसे हो सकेगा? क्यों न खड़े रहो? इसलिए इस जगत में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटना, जहां से आखिर वह जो शिक्षण देनेवाला था, परेशान हो गया। उसने और महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत होती है, वह इस क्षण का 358 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org SHREE