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________________ नौवां प्रवचन प्रेम का आखिरी विस्तारः अहिंसा 2010_03
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________________ सूत्र / सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।।१०२।। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।।१०३।। REE मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदीसु।।१०४।। Shakti MER AAR APAN आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति।। संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य। अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा।।१०५।। जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तवुड्डीकरी जयणा, एगंत सुहावहा जयणा।।१०६।। HI जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।।१०७।। RE 2010_03
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________________ PRES आज का पहला सूत्र–'अहिंसा सब आश्रमों का स्रोत एक है। जा हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य और सब व्रतों और अमृत की कहीं और खोज मत करना। जो तुम्हारे जीवन में गुणों का पिंडभूत सार है।' / आज जहर की तरह है, वहीं से अमृत भी निकलेगा, थोड़ा मंथन सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। चाहिए। ऐसा समझो कि अमृत जहर का ही नवनीत है। सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।। एडोल्फ हिटलर के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि वह चित्रकार महावीर की सारी देशना इस सूत्र में संचित है। अहिंसा का होना चाहता था। कुछ बनाना चाहता था सुंदर, लेकिन अर्थ समझ लें तो सारा जिन-शास्त्र समझ में आ गया। मनुष्य | चित्रशाला में उसे प्रवेश न मिला। वह असफल हो गया प्रवेश ऊर्जा है, शुद्ध शक्ति है। इस शक्ति के दो आयाम हो सकते हैं। की परीक्षा में। और उसी दिन से उसके जीवन में जो अमृत हो या तो शक्ति विध्वंसक हो जाए-मिटाने लगे, तोड़ने लगे। या | सकता था वह जहर होने लगा। बनाने की आकांक्षा मिटाने की शक्ति सृजनात्मक हो जाए-बनाये, बसाये, निर्माण करे। आकांक्षा में बदल गयी। एडोल्फ हिटलर ने बड़ा विध्वंस शक्ति तो हमारे पास है। कैसा हम उपयोग करेंगे शक्ति का, | किया। अगर महावीर को अहिंसा का शास्त्र पता है, तो एडोल्फ हमारे बोध पर, हमारे ध्यान पर, हमारी समझ पर निर्भर है। हाथ हिटलर को हिंसा का शास्त्र पता है। इससे ज्यादा वीभत्स और में तलवार दे दी है प्रकृति ने। हम मारेंगे या बचायेंगे हम पर विकराल दृश्य किसी मनुष्य ने कभी उपस्थित न किया था। मगर निर्भर है। हाथ में रोशनी दे दी है प्रकृति ने। हम अंधेरे को तोड़ेंगे| होना चाहता था चित्रकार। या घरों को जलायेंगे हम पर निर्भर है। और भी विचारणीय बात है कि इतने विध्वंस, हिंसा और शक्ति सृजनात्मक हो जाए, तो अमृत हो जाती है। शक्ति विनाश के बीच भी उसकी मूल आकांक्षा समाप्त नहीं हो गयी। विध्वंसात्मक हो जाए तो जहर हो जाती है। भाषाकोश में तो जब उसे फुर्सत मिलती तो वह कागज पर छोटे-मोटे चित्र लिखा है कि जहर और अमृत अलग-अलग चीजें हैं। जीवन के बनाता। जीवन के अंतिम क्षण तक कहीं कोई ऊर्जा सृजनात्मक कोश का ऐसा सत्य नहीं। जीवन के कोश में तो लिखा है कि | होने की खोज करती रही। जो गीत गाना चाहता था, उससे अमृत का ही विकृत रूप जहर है। और जहर का ही सुकृत रूप गालियां निकली। अमृत है। ध्यान रखना, वे ही शब्द, वही ध्वनि गाली बन जाती है; वे ही हिंदुओं की पुरानी कथा है सागर-मंथन की। उसमें एक ही शब्द, वही ध्वनियां गीत बन जाती हैं। मनुष्य सृजनात्मक ऊर्जा मंथन से जहर भी निकला, उसी मंथन से अमृत भी निकला। है। अगर सृजन न हो पाये, तो जीवन में विस्फोट होता है घृणा एक ही स्रोत से जहर भी आया, उसी स्रोत से अमृत भी आया। का, हिंसा का, विद्वेष का। 1163 2010_03
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________________ जिन सत्र भाग: 2 BANDHANBAR महावीर के धर्म का सार है, सृजनात्मक होने की कला। ऐसा भीतर भी मर जाएगा। जो उसके कारण ही जिंदा था, वह तो मर जैन-मुनि तुमसे न कहेंगे। क्योंकि उन्हें खुद भी ठीक-ठीक पता | जाएगा। तुम्हें नया शत्रु खोजना पड़ेगा ऊर्जा थिर नहीं रह नहीं कि अहिंसा का सारसूत्र क्या है। वे तो समझते हैं अहिंसा | सकती। ऊर्जा गतिमान है। सागर की तरह। सरिताओं की का सारसूत्र है पानी छानकर पी लेना, कि रात्रि भोजन न करना, तरह। हवाओं की तरह। कि मांसाहार न करना। ये तो बड़ी गौण बातें हैं—परिधि की | अगर ठीक दिशा न मिली, तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा गलत बातें हैं। इन्हें साधने से अहिंसा नहीं सधती, अहिंसा सध जाए | दिशाओं में भटकेगी भूत-प्रेतों की भांति। अंधेरी खोहों में तो ये जरूर सधती हैं। इन्हें साध लेने से अहिंसा नहीं सधती। | चीखेगी, चिल्लायेगी, पुकारेगी। अगर मुस्कुराहट न बन सकी, हिंसा इतनी आसान नहीं है कि पानी छानकर पी लिया और मिट तो तुम रोओगे, दुख के आंसुओं से भरोगे। अगर फूल न खिल गयी। पानी छानकर पीने में सृजनात्मकता क्या है? मांसाहार न सके, तो तुम कांटे बनोगे। किया तो हिंसा मिट गयी, काश, इतना आसान होता! महावीर ने सूत्र को अहिंसा में पकड़ा है। अहिंसा का अर्थ है, हिंसा तुम्हारे भीतर है। मांसाहार करने से नहीं आती। तुम | जहां-जहां विध्वंस हो, वहां-वहां से अपने को ऊपर उठा लेना। मांसाहार करना रोक सकते हो। हिंसा नये द्वार-दरवाजे खोल | विध्वंस की वृत्ति से मुक्त हो जाना अहिंसा है। तोड़ने के भाव को लेगी। हिंसा तुम्हारे भीतर है। जब तक तुम सृजनात्मक न हो | छोड़ देना अहिंसा है। ऐसी कोई भी दिशा तुम्हारे जीवन में न हो जाओ, जब तक तुम गीत न गुनगुनाने लगो, गाली आयेगी और जहां तोड़ने में रस रह जाए। जोड़ने में रस आ जाए, तोड़ने में रस आयेगी। जब तक तुम शिखर पर न चढ़ने लगो जीवन के, तुम | खो जाए; मिटाने में तुम रत्तीभर भी ऊर्जा नष्ट न करो, बनाने में, अतल खाइयों में गिरोगे और गिरोगे। ऊर्जा को कुछ करने को | सृजन में। अगर तुम मिटाओ भी, तो सृजन के लिए ही। अगर चाहिए। या तो मूर्तियां बनाओ, अन्यथा मूर्तियां तोड़ोगे। बीच में | पुराने भवन को गिराओ भी, तो नया भवन बनाने के लिए ही। नहीं रुक सकते। बीच में कोई रुकने की जगह नहीं है। जो विध्वंसक है, वह अगर सृजन भी करता है तो मिटाने के लिए तो कभी-कभी ऐसा आश्चर्यजनक इतिहास घटता है हिंद ही। वह बम बनाता है. तलवार पर धार रखता है। सजन तो वह मूर्ति बनाते रहे, बौद्ध-जैन मूर्ति बनाते रहे, मुसलमान मूर्ति तोड़ते भी करता है—बम बनाना सृजनात्मक है लेकिन बनाता रहे। अब थोड़ा सोचने-जैसा है। तुम्हें अगर मूर्ति से कोई | इसीलिए है कि मिटा सके। प्रयोजन ही न था, तो तोड़ने की भी झंझट क्यों उठायी? इसको खयाल में लेना, विध्वंसक बनाता भी है तो ध्वंस के लेना-देना ही न था कुछ तुम्हें! मूर्ति व्यर्थ थी, तो तोड़ने तक की लिए। और सृजनात्मक ऊर्जा मिटाती भी है, तो बनाने के लिए। झंझट क्यों उठायी? व्यर्थ के लिए कोई इतनी झंझट उठाता है! यह तुम्हें खयाल में आ जाए, तो महावीर की दृष्टि का सारसूत्र लेकिन नहीं, बनाना रुक जाए तो तोड़ने की आकांक्षा शुरू हो | पकड़ में आ सकता है। महावीर कहते हैं, जब भी तुम क्रोध से जाती है। ये वे ही लोग थे जो मूर्तिपूजक हो सकते थे। इनकी | भरते हो, जब भी तुम दूसरे को नष्ट करने के लिए आतुर हो उठते संभावना थी वही। लेकिन मूर्तिपूजा तो बंद कर दी गयी, तो जो हो, दूसरा नष्ट होगा या नहीं यह तो तुम छोड़ दो, क्योंकि इस पूजा बन सकती थी, वही मूर्ति का विध्वंस बन गयी। तो फिर जगत में विनाश कहां, कौन कब नष्ट हुआ, कौन किसको नष्ट तुम मूर्तियां तोड़ो। कुछ तो करना ही होगा। मूर्ति से संबंध तो कर पाया है; यहां जो है, सदा रहनेवाला है; आत्मा को तो मारा छोड़ ही नहीं सकते। अगर मित्र का नहीं तो शत्रु का सही, संबंध नहीं जा सकता, आत्मा तो अमर है, शाश्वत है, लेकिन तुम तो बनाना ही होगा। मारने की आकांक्षा से भरे कि तुमने अपने जीवन की दिशा खोनी खयाल किया. शत्र से भी हमारे संबंध होते हैं। और शरू कर दी। तम भटके. तम खोये. तमने गलत राह पकडी। कभी-कभी तो मित्र से भी ज्यादा निकट होते हैं। मित्र के बिना जीवन को इस ढंग से देखना कि तुम्हारे भीतर जो भी तम सत्व तो तुम जी भी लो, शत्रु के बिना तुम बड़े अकेले अपने को लेकर पैदा हुए हो, वह धीरे-धीरे गहरे सृजन में निर्मित होता | पाओगे। अगर तुम्हारा शत्रु मर जाए, तो उसी दिन कुछ तुम्हारे जाए। मैं तुमसे कहूंगा, पानी छानकर पी लेना काफी नहीं है। 164 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा ATME गीत गुनगुनाओ, मूर्ति बनाओ, चित्र सजाओ, जगत को सुंदर कुछ पैसे तुम्हारे पास हैं। उस पैसे से कंकड़-पत्थर भी मिलते हैं बनाओ, आसपास जीवन की झलक को फैलाओ, जीवन को और हीरे-जवाहरात भी मिलते हैं। कौन होगा जो कंकड़-पत्थर प्रज्वलित करो। जो तुम्हारे पास आये, थोड़ा और जीवंत होकर खरीदेगा! हीरे-जवाहरात तुम खरीद लाओगे। त। और यह बात बडी सक्षम है। तम एक जो तम्हारे पास ऊर्जा है, वह तम्हारी संपत्ति है। उसी से जैन-मुनि के पास जाओ, तुम थोड़े और मुर्दा होकर लौटोगे। वह कंकड़-पत्थर मिलते हैं, उसी से हीरे-जवाहरात मिलते हैं। वही कोई तलवार से मारता नहीं। उसके हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र संभोग बनती है ऊर्जा, वही समाधि बनती है। वही ऊर्जा हिंसा नहीं है। लेकिन तुम्हारी निंदा से मार देगा। जैन-मुनि तुम्हारी बनती है, वही ऊर्जा अहिंसा बनती है। वही ऊर्जा घृणा बनती तरफ देखता है तो ऐसे जैसे कि तुम पापी हो, गर्हित हो, है। वही प्रेम बनती है। एक बार तुम्हें पता चल जाए कि इस कीड़े-मकोड़े हो, आदमी नहीं। तुम्हारी तरफ देखता है ऐसे कि ऊर्जा से तो प्रेम खरीदा जा सकता है, समाधि खरीदी जा सकती तुम गलत हो। उसकी नजर में हिंसा है। है; इस ऊर्जा से तो सत्य के स्वर्ग बसाये जा सकते हैं, तो तुम अगर तुम महावीर के पास गये होते, तो तुम्हें पता चलता। | नर्कों में जाने की यात्रा बंद कर दोगे। नर्कों में तुम जाते हो मजबूरी उनकी आंख तुम पर पड़ती और तम्हारे भीतर उल्लास उठता।। से, क्योंकि तुम्हें राह नहीं मिलती स्वर्ग की। खोज तो सभी स्वर्ग उनके पास तुम जाते और तुम पाते कि तुम ताजे हो रहे हो, नये हो रहे हैं। राह नहीं मिलती। स्वर्ग को खोजने में ही लोग नर्क जाते रहे हो, पुनरुज्जीवन हो रहा है। उनके पास से तुम जीवन का हैं। कोई नर्क को थोड़े ही खोज रहा है! कौन दुख को खोज रहा संदेश लेकर लौटते। तुम नाचते लौटते। जाते वक्त भला तुम है! कौन जहर को खोज रहा है! कौन मृत्यु को खोज रहा है! लंगड़ाते गये हो, लौटते वक्त तुम नाचते लौटते। 'पंगु चढ़ें लेकिन राह नहीं मिलती। हाड।' उनके पास से तम जीवन की महिमा का वरदान लेकर महावीर ने उस राह को दिया है। इसीलिए तो वह कह सके कि लौटते, आशीष लेकर लौटते। जिस मंदिर में तुम्हारी निंदा हो आनेवाले दिनों में लोग पूछेगे कि अब वे जिन कहां हैं? अब वे रही हो, वहां हिंसा हो रही है। सब निंदा हिंसात्मक है। तुम्हारे महावीर कहां हैं? तब तुम पछताओगे, गौतम! अभी सुगमता पापों में अंगुलियां डालकर तुम्हारे घावों को कुरेदने से कोई | से धार तुम्हारे पास से बही जाती है। डूब लो, नहा लो। फिर | अहिंसा नहीं होती। तम्हारे पाप के भीतर पड़े हए तम्हारे पुण्य को पछताने से कुछ भी न होगा। फिर रोने से जगाने से, तुम्हारे अंधेरे में छिपे तुम्हारे प्रकाश को उघाड़ने से | अभी धार पास से बही जाती है। क्षणभर भी प्रमाद मत करो, अहिंसा होती है। तुम्हें तुम्हारे परमात्मा की याद दिलाने से गौतम! आलस्य मत करो, कल पर मत टालो। मत कहो कल अहिंसा होती है। जहां तुम्हारे भीतर का परमात्मा स्वीकार किया करेंगे, क्योंकि कल का क्या पता! धार रहे, न रहे। जाता हो, जहां तुम्हारे भीतर के परमात्मा को आह्वान मिलता हो, जो आज हो सकता है, आज कर लो। पाप को कल पर टालो, जहां तुम्हारी क्षुद्रता को भूलने की सुविधा हो और तुम्हारे विराट पुण्य को आज कर लो। कहो, क्रोध कल करेंगे, ध्यान आज का दर्शन होता हो, वहां अहिंसा है। जीवन सृजनात्मकता, | करेंगे। कहो, संसार कल कर लेंगे, संन्यास आज करेंगे। कहो अहोभाव, धन्यभाग! कि झूठ बोलना है, कल बोल लेंगे झूठ, जल्दी क्या है? सच और जैसे-जैसे तुम जीवन की महिमा से भरोगे, तुम पाओगे, आज बोलेंगे। और जिसने आज सच बोला, वह कल झूठ कैसे पाप की वृत्ति क्षीण होने लगी। क्योंकि वही ऊर्जा है, वही जहर बोल पायेगा। और जो आज झूठ बोला, वह कल सच कैसे बन रही थी, अब उसे मार्ग मिला, अब उसे स्वतंत्रता मिली, अब बोल पायेगा, क्योंकि आज से ही तो कल पैदा होता है। उसे प्रगट होने की सुविधा मिली। अगर तुम जीवन की ऊर्जा को तुम जो आज हो, वही तो तुम्हारे कल का निर्माण है। आज ही ऊपर न ले जा सको तो नीचे जाएगी, मजबूरी है। महावीर का तो तुम ईंट रख रहे हो कल के भवन की। आज ही बनाओगे घर, जोर ऊपर ले जाने पर है। ऊपर ले जाते ही नीचे की यात्रा कल उसमें रहोगे। अपने-आप बंद हो जाती है। थोड़ा सोचो, तुम बाजार गये हो। महावीर कह सके कि पास से बहती धार है, गौतम! तू क्यों 165 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 सार है।' बैठा है, उठ; क्योंकि उनके पास पूरी दृष्टि थी। और जो उन्होंने हवा के झोंके जैसा-आया, गया। प्रेम बंधता नहीं कहीं। कहा, जानकर कहा है। वे शास्ता हैं। वे शास्त्र हैं। जीवंत | बादलों जैसा है। कोई जड़ें नहीं हैं प्रेम की। स्वतंत्रता है प्रेम। शास्त्र। उन्होंने जो कहा है, वह शुद्ध विज्ञान है। उसमें एक कड़ी मुक्ति है प्रेम। प्रेम बहता है, रुकता नहीं। रुका, डबरा बना, | भी गलत नहीं है। कहते हैं, 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है। राग हुआ। जहां प्रेम रुका, वहीं राग हो जाता है। सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों का और गुणों का पिंडभूत | महावीर ने एक बड़ी अनूठी बात कही है। महावीर ने कहा है, | जो बहता रहे, चलता रहे, वह धर्म। और जो रुक जाए, ठहर अहिंसा को अगर हम धर्म की भाषा से उतारकर आदमी की जाए, वह अधर्म। चकित होओगे यह परिभाषा जानकर। सरल भाषा में रखें, तो अहिंसा का अर्थ, प्रेम। अगर हम महावीर कहते हैं, जो सतत गतिमान है, वही धर्म है। जो ठहर जैन-शास्त्रों से अहिंसा शब्द को छुड़ा लें, मुक्त कर लें, | गया, रुक गया, जड़ हो गया, वही अधर्म। तुमने खयाल किया, | पारिभाषिक-जाल से अलग कर लें, तो अहिंसा का अर्थ होता प्रेम जब रुक जाता है, ठहर जाता है, किसी एक से अटक जाता है, प्रेम। प्रेम सृजनात्मक है। घृणा विध्वंसक है। है, फिर वहां से आगे नहीं बढ़ पाता, वहीं राग। अगर प्रेम क्या करेगा प्यार वह भगवान को फैलता रहे, किसी पर रुके न; प्रेमपात्र के ऊपर से फैलता रहे, क्या करेगा प्यार वह ईमान को और दूसरों पर बिखरता रहे; फैलता जाए...फैलता जाए...एक जन्म लेकर गोद में इंसान की घड़ी ऐसी आये कि इस जगत में तुम्हारे प्रेमपात्र के अतिरिक्त प्यार कर पाया न जो इंसान को और कोई न रह जाए, तो अहिंसा। प्रेम का आखिरी विस्तार, प्रेम प्रेम का पाठ जहां से सीखने मिल जाए, उसे चूकना मत। जहां | का परम विस्तार, प्रेम का चरम विस्तार अहिंसा है। इस जगत में से प्रेम का पाठ मिल जाए, उसे तो हीरे की तरह गांठ में गठिया | फिर एक भी कण ऐसा न रह जाए, जो तुम्हारा प्रेमपात्र नहीं। तब लेना। ऐसे प्रेम के पाठों को इकट्ठा कर-करके एक दिन तुम तुम अहिंसक हुए। पाओगे, अहिंसा का शास्त्र बन गया। प्रेम के अनुभव इकट्ठे होते निश्चित ही तब तुम पानी छानकर पी लोगे। तुम मांसाहार न चले जाएं, तो ऐसा समझो जैसे बहुत फूलों को निचोड़कर इत्र | करोगे। यह घटेगा। क्योंकि तुम्हारे मन में अब किसी भी वस्तु, बन जाता है, ऐसे बहुत जीवन में प्रेम के अनुभवों का किसी भी व्यक्ति, किसी भी पशु-पक्षी, वस्तु तक के प्रति सार-निचोड़ अहिंसा बन जाता है। अब यहां कुछ लोग हैं जो विध्वंस का कोई भाव नहीं, प्रेम की ही वर्षा हो रही है, तो तुम फूलों का तो त्याग करते हैं और इत्र की आकांक्षा करते हैं। सावधानी से बरतोगे। तुम जहां तक बन सकेगा, बचाओगे। पागल हैं वे। फूल को त्यागकर इत्र आयेगा कहां से? जहां तक बन सकेगा, सम्हालोगे। अहिंसा तो है प्रेम का परम इसलिए मैं कहता हूं कि महावीर के पीछे चलनेवालों ने विस्तार। लेकिन तर्क, पंडित, बुद्धिमानों की बुद्धिहीनता महावीर को बिलकुल भुला दिया है। उनके पास लकीरें रह गयीं ऐसे-ऐसे नतीजों पर पहुंच जाती है जिनकी महावीर ने कल्पना पिटी-पिटायी, उनको वे दोहराये चले जाते हैं। लेकिन उन भी न की होगी। लकीरों का सार खो गया है। शब्द रह गये हैं-कोरे, खाली, | अब जैनों के बीच पंथ है एक-तेरापंथ। आचार्य तुलसी का चली हुई कारतूसों जैसे, जिन्हें अब व्यर्थ ढो रहे हैं। अहिंसा का | पंथ। वहां अहिंसा की व्याख्या ठीक अहिंसा के विपरीत चली प्राण अगर प्रतिष्ठित करना हो, तो प्रेम शब्द में वह प्राण है। गयी है। तर्क के बड़े मजे हैं। चीजें इतनी खींची जा सकती हैं कि अहिंसा प्रेम के विपरीत नहीं है। अहिंसा राग के विपरीत है। प्रेम अपने से विपरीत हो जाएं। तेरापंथ कहता है कि अगर राह से स्वयं राग के विपरीत है। तुमने राग को ही प्रेम जाना है। इससे | तुम चल रहे हो और कोई आदमी मरता हो किनारे, प्यास के मारे भूल हो रही है। प्रेम तो राग को जानता ही नहीं। प्रेम की तो राग | चिल्लाता हो-पानी, पानी, तो भी पानी मत पिलाना। क्यों? से कोई पहचान ही नहीं है। जिससे तुम्हें प्रेम होता है, न तो तुम क्योंकि उस आदमी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ रहा है। उसे अपने से बांधते हो, न तुम उससे बंधते हो। प्रेम तो मुक्त है, उसने कुछ पाप किये होंगे, जिसके कारण वह मर रहा है। 1661 -JanEducation International 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा तुम्हारी यह अहिंसा है कि तुम उसके इस कर्मफल के भोगने में होगा, तो दौड़ तो पड़ेंगे। कोई राह के किनारे प्यासा मरता होगा, बाधा न दो। क्योंकि बाधा डालने से अड़चन होगी उसे। तुम तो दो बूंट पानी तो पिला सकेंगे। चुपचाप अपने रास्ते पर चलो। यह मैं इसलिए उदाहरण ले रहा हूं कि तुम्हें खयाल आ सके कि यह अहिंसा तो प्रेम के बिलकुल विपरीत हो गयी। और तर्क कितनी खतरनाक बात है। तर्क बिलकुल साफ-साफ भी तर्कयुक्त मालूम पड़ती है। तर्क खोज लिया। तर्क यह खोज | दिखायी पड़ता हो, तो भी खतरनाक हो सकता है। दमी अगर मर रहा है प्यासा, तो किसी पाप के अहिंसा तर्क नहीं है। अहिंसा गणित नहीं है। अहिंसा शद्ध कारण मर रहा है। उसको उसका कर्मफल भोग लेने दो। तुम प्रेम का भाव है। अहिंसा का अर्थ है, सारे जगत में परमात्मा है; बाधा मत दो। इस सारे जगत में मेरा ही स्वभाव व्याप्त है; मैं ही हूं दूसरा भी; कोई आदमी कुएं में गिर गया है, तो तुम उसे निकालो मत। दूसरा भी मेरे जैसा है; जो मैं अपने लिए ठीक समझता हूं, वही क्योंकि वह गिरा है अपने कर्मों के कारण। फिर कुएं में गिरे मैं दूसरे के लिए ठीक समझू। अगर मैं प्यासा मर रहा हूं, तो मैं आदमी को तुम निकाल लो और कल वह जाकर किसी की हत्या चाहूंगा कि कोई पानी पिला दे; यही मैं दूसरे के लिए ठीक कर दे, तो फिर तुम पर भी हत्या का भाग लगेगा। न तुम समझू। अगर मैं कुएं में गिर गया हूं और चिल्ला रहा हूं और निकालते, न वह हत्या कर सकता। न रहता बांस, न बजती चाहता हूं कि कोई मुझे निकाल ले, कोई हाथ बढ़े, कोई हिम्मत बांसुरी। अब बांसुरी बजी, तो बांस में तुम्हारा हाथ है। तुमने करे, तो जो मैं अपने लिए चाहता हूं, वही मैं दूसरे के लिए भी निकाला इस आदमी को, यह गया और कल इसने जाकर हत्या चाहूं। अगर मेरे पैर में कांटा गड़ा है, तो जो मैं चाहता हूं कोई कर दी किसी की, तो इस कल होनेवाली हत्या में तुमने सहभागी, खींच ले, वही मैं दूसरे के लिए भी करूं। साझेदारी की। अनजाने सही, जानकर नहीं, सोचकर नहीं, जीसस का प्रसिद्ध वचन है, जो तुम अपने लिए चाहते हो, लेकिन परिणाम तो बुरा हुआ! इसलिए तुम परिणाम से बाहर वही दूसरे के लिए चाहो! जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वही रहने के लिए चुपचाप अपनी राह पर, अलग-थलग। यह तो दूसरे के लिए मत चाहो। प्रेम से ठीक विपरीत बात हो गयी। | तेरापंथियों से तो जीसस कहीं ज्यादा महावीर के करीब हैं। प्रेम तो कहेगा कि ठीक है, अगर कल यह आदमी हत्या ऊपरी आवरण एक बात है, भीतरी आत्मा बड़ी और! और करेगा, तो भी मैं इसे बचाता हूं; अगर इसके बचाने के कारण व्यक्ति अगर सृजनात्मक हो जाए, तो व्यक्ति ही तो ईंट है समाज नर्क भी जाऊंगा, तो भी बचाता हूं। प्रेम तो कहेगा, मैं भोग लूंगा की। व्यक्ति अगर बदले, तो समूह बदलता है। चूंकि व्यक्ति नर्क, लेकिन यह जो सामने मर रहा है आदमी, इसको तो हिंसा से भरा है, इसलिए समूह युद्धों से भरा है।। बचाऊंगा। प्रेम सोचता थोड़े ही है। मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास युद्धों का इतिहास है। लोग प्रेम सजनात्मक है। जहां भी देखता है विध्वंस हो रहा है, लड़ते ही रहे। लोगों ने लड़ने में इतनी शक्ति व्यय की है कि हम रोकता है। जहां भी देखता है कोई चीज मर रही, वहां | कल्पना भी नहीं कर सकते। अगर इतनी शक्ति सृजनात्मक हुई सहज-भाव से, बिना किसी चिंतना के, हिसाब-किताब के, होती, तो मनुष्य अब कहां होता! शायद स्वर्ग कहीं और होने की गणित के, सहज-भाव से दौड़ा चला जाता है। अब किसी के जरूरत न थी, हमने उसे यहां बना लिया होता। हम कभी के घर में आग लग गयी है और बच्चा भीतर छूट गया है, तेरापंथी स्वर्ग में पहुंच गये होते। मनुष्य-जाति की करीब-करीब नब्बे सोचेगा-अपने कर्मों का फल भोग रहा है। ऐसे अहिंसकों से प्रतिशत शक्ति युद्ध में व्यय हुई है। अभी भी वही हालत है। तो दुनिया खाली रहे, तो अच्छा! ऐसी अहिंसा से तो वे हिंसक अभी भी रक्षा-विभाग, सभी राष्ट्रों का, देश की सारी संपत्ति पी बेहतर हैं, जो रात खाना खा लेते हों, मांसाहार कर लेते हों, पानी जाता है। सत्तर प्रतिशत, पचहत्तर प्रतिशत, अस्सी प्रतिशत तक बिना छना पी लेते हों, कम से कम घर में आग लगेगी, किसी को युद्ध के मैदान की तैयारी में लग जाता है। बचाने की जरूरत होगी, तो दौड़ तो पड़ेंगे। कोई नदी में डूबता राजनेता कहे चले जाते हैं शांति की बात, उड़ाते हैं शांति के 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 कबतर. बनाते हैं एटम और हाइडोजन बम। इधर कबतर उडाते हासिले-जिंदगी जनं ही नहीं रहते हैं, उधर बम की फैक्ट्रियां चलाते रहते हैं। इधर शांति की जीवन का लक्ष्य पागल हो जाना थोड़े ही है। जीवन का लक्ष्य बातें करते रहते हैं, उधर युद्ध की तैयारी करते रहते हैं। शांति की तो प्रज्ञा को उपलब्ध होना है। अगर संघर्ष ही करना है, तो करो बातें सब बकवास मालूम होती हैं। अगर शांति की बात में प्रज्ञा के लिए। अगर युद्ध ही लड़ना है, तो लड़ो अंधेरे से, तो सचाई है, तो शांति की तैयारी तो करो। शांति की तैयारी करोगे लडो क्रोध से. तो लडो हिंसा से। शत्र भीतर है। करुक्षेत्र बाहर तो महावीर की बात सुननी पड़ेगी। लेकिन शांति की बात करने मत बनाओ। भीतर ही बनाओ। में कोई अड़चन नहीं है। शांति की बात युद्ध को, युद्ध की प्रवृत्ति गीता शुरू होती है तो कहती है, कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है। बड़ा को ढांकने के लिए बड़ा सुगम उपाय हो जाती है। बमों के ढेर पर | गहरा इंगित है। कुरुक्षेत्र बाहर नहीं। धर्म का क्षेत्र। धर्म का क्षेत्र खड़े हैं, कबूतर उड़ा रहे हैं। तो भीतर है। जंग तो खुद ही एक मसला है आओ इस पीरावक्त दुनिया में जंग क्या खाक मसलों का हल देगी फिक्र की रोशनी को आम करें युद्ध तो खुद ही एक समस्या है। उससे हम हल खोज रहे हैं, अमन को जिससे तकवियत पहुंचे समाधान खोज रहे हैं। ऐसी जंगों का एहतमाम करें इसलिए ऐ शरीफ इंसानो आओ इस पीरावक्त दुनिया में जंग टलती रहे तो बेहतर है। इस भाग्यहीन दुनिया में, इस अंधेरे से भरी दुनिया में आप और हम सभी के आंगन में फिक्र की रोशनी को आम करें शमा जलती रहे तो बेहतर है ध्यान-चिंतन की, मनन की, स्वाध्याय की रोशनी जलायें। कौन-सी शमा? महावीर की शमा। अहिंसा की शमा। प्रेम अमन को जिससे तकवियत पहुंचे की शमा। और शांति से जिनको सहारा मिले, शक्ति मिले, बल मिले। आप और हम सभी के आंगन में ऐसी जंगों का एहतमाम करें शमा जलती रहे तो बेहतर है और ऐसे युद्धों का इंतजाम करें। ऐसे युद्धों का प्रबंध करें। बरतरी के सुबूत की खातिर जिनसे शांति बढ़े। खू बहाना ही क्या जरूरी है उसी युद्ध की तरफ महावीर का इशारा है। उसी युद्ध को घर की तारीकियां मिटाने को जीतकर वे महावीर बने। वह युद्ध भीतर है। वह दूसरे से नहीं, घर जलाना ही क्या जरूरी है वह अपनी ही अधोगामी वृत्तियों से है। वह अपने को ही नीचे घर में अंधेरा है, माना। लेकिन घर के अंधेरे को मिटाने के खींचनेवाली वासनाओं से है। वह अपने को ही अंधेरे में ले लिए क्या पूरे घर को जलाना जरूरी है! और जानेवाली आदतों से है। वह अपनी ही बेहोशी और मूर्छा से बरतरी के सुबूत की खातिर... है। आदमी तो इतना लड़ता रहा है, और बड़े अच्छे बहाने बड़प्पन, अहंकार, मैं बड़ा हूं, यह बताने के लिए... खोज-खोजकर लड़ता रहा है। बहानों पर मत जाओ! आदमी खू बहाना ही क्या जरूरी है लड़ने के लिए बड़ी गहरी आतुरता रखता है। राजनीति में तो क्या कोई और उपाय नहीं? लड़ता ही है, धर्म तक के लिए लड़ता है। इस्लाम खतरे में है। जंग के और भी तो मैदां हैं जैसे कि धर्म कभी खतरे में हो सकता है! हिंदू-धर्म खतरे में है। सिर्फ मैदाने-कुस्तखू ही नहीं ये सब आवाजें आदमी के भीतर हिंसा को भड़कानेवाली आवाजें और भी तो मैदान हैं युद्ध के। हैं। मंदिर-मस्जिद लड़ते हैं। यहां तक हालत पहुंच गयी हासिले-जिंदगी खिरद भी है। है...कल रात मैं किसी कवि की पंक्तियां पढ़ता था 168 | JainEducation International 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाए। सभी अपने हों, ताकि किसी को अपना कहने की कोई मयकशों तक पहुंचने न पायें जरूरत न रह जाए। फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की अब देखना, यहां कैसी आसान तरकीब आदमी निकाल लेता मयकदों की जमीनों में क्यों हो है। महावीर कहते हैं, 'मेरे' को छोड़ो। लेकिन उनका प्रयोजन बुग्ज़ की आग है, ताकि सभी मेरे हो जाएं। जैन-मुनि कहते हैं, 'मेरे' को द्वेष की आग... छोड़ो। उनका प्रयोजन है, ताकि जो मेरे हैं, वे भी न रह जाएं। ये नफरत के शोले दोनों एक-ही तरह के शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन दोनों में मयकशों तक पहुंचने न पायें बड़ा बुनियादी विरोध है। इन्हें रोकना, शराबियों तक इन्हें मत आने देना। इन्हें सज्जनों | महावीर कहते हैं, किसी घर के मत बनो, ताकि सारा अस्तित्व तक रहने देना। इन्हें संतों-साधुओं तक रहने देना। तुम्हारा घर हो जाए। महावीर कहते हैं, गृहस्थ से संन्यस्त हो बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाओ। प्रयोजन इतना है कि घर में बंधे न रह जाओ। सारा मयकशों तक पहुंचने न पायें / संसार तुम्हारा घर हो जाए। जैन-साधु जब कहता है, छोड़ो घर, पियक्कड़ों तक न पहुंच पायें ये द्वेष और हिंसा की आग और छोड़ो 'मेरा', तब वह तुमसे वह छोटा-सा जो घर था, वह भी शोले। छीने ले रहा है। महावीर कहते हैं, वह छोटा-सा घर इतना फैले, फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की इतना फैले कि विराट विश्व हो जाए। वह उस छोटे-से घर को यह मंदिरों-मस्जिदों में ठीक है फस्ल। छीनने के लिए आतुर नहीं हैं। इस पूरे विश्व को तुम्हारा घर बना मयकदों की जमीनों में क्यों हो? देना चाहते हैं। कहीं तुम छोटे-से घर में अटके न रह जाओ, मधुशाला की जमीन में नहीं होनी चाहिए। मधुशाला तक | इसलिए छोड़ने को कहते हैं। डरती है कि कहीं मंदिरों की आग यहां न आ जाए। मंदिरों का महावीर का त्याग महाभोग की तरफ कदम है। वह पीड़ित हैं इससे बड़ा कोई पतन हो सकता है! शराबी डरते हैं, कहीं यह देखकर, परेशान हैं, यह देखकर कि तुम जो विराट सागर हो साधु-संतों के उपद्रव यहां न आ जाएं। अब इससे बड़ा पतन सकते थे, कैसा डबरा हो गये हो। वह कहते हैं, छोड़ो यह साधु-संतों का कोई और हो सकता है! डबरा, तुम सागर होने को हो। इतने छोटे में क्यों बंधकर रह गये मंदिर-मस्जिदों ने इतना लड़वाया आदमी को, ऐसे अच्छे | हो? बड़ी तुम्हारी संभावना है। विराट तुम्हारी नियति है। प्रभुता बहाने लेकर लड़वाया, ऐसे सुंदर आदर्श लेकर लड़वाया कि उन तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन जब महावीर के पीछे आदर्शों की आड़ में यह दिखायी ही न पड़ा कि यह सिर्फ लड़ने चलनेवाले लोग कहते हैं, छोड़ो घर, तो वे सारे संसार को घर की वृत्ति है। यह विध्वंस की आकांक्षा है, और कुछ भी नहीं। बनाने के लिए नहीं कह रहे हैं; वे कह रहे हैं, यह जो घर है, यह 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य और भी तुम्हारा न रह जाए, बेघर हो जाओ। इन्हीं शब्दों की भ्रांतियों सब व्रतों और गणों का पिंडभत सार है।' | के कारण अक्सर तो तीर्थंकरों, अवतारों और पैगंबरों ने जो कहा लेकिन इस अहिंसा का अर्थ है, प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, है, उसके ठीक उल्टे अर्थ लोगों की पकड़ में आ गये। सीधे अर्थ रागमुक्त प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, वीतराग प्रेम। पकड़ना तो बहुत कठिन। क्योंकि सीधे अर्थ पकड़ने का तो अर्थ इस अहिंसा का अर्थ है प्रेम फैलता चला जाए। प्रेम कोई सीमा होगा-आत्मक्रांति। एक-एक भीतर के कोने-कांतर को न माने। जहां प्रेम ने सीमा मानी, वहीं राग। जब तुमने कहाः | बदलना होगा। अंधेरा जरा-भी न बचने देना होगा। मेरा बेटा, मेरा भाई, वहीं राग। भाईचारा इतना फैले कि गलत अर्थों को पकड़ना बहुत आसान है। प्रेम को इतना 'मेरे-तेरे' की कोई जगह न रह जाए। भाईचारे का सागर हो। विराट बनाना तो बहुत कठिन है, हां प्रेम को बिलकुल खाली कर सभी भाई हों, ताकि किसी को भाई कहने का कोई कारण न रह | लेना बहुत आसान है। वैसे ही खाली हो, वैसे ही प्रेम कुछ है 11697 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 नहीं, तो यह बात समझ में आ जाती है, यह भी छोड़ दो। है भी पर इससे क्या फर्क होता। फिर नया जन्म, फिर तुम नया क्या? लेकिन अगर प्रेम को बड़ा करना है, तब तो बड़ा श्रम सपना देखते हो। नींद जारी रहती है। मौत सपना तोड़ सकती है, होगा, बड़ी साधना होगी। यह आगे के सूत्र साफ करेंगे। | नींद नहीं तोड़ सकती है। इसे फिर से कहूं, मौत सपना तोड़ दूसरा सूत्र सकती है, क्योंकि मौत का बल इससे ज्यादा नहीं है। मौत नींद 'महावीर ने परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने नहीं तोड़ सकती। नींद तो सिर्फ ध्यान ही तोड़ सकता है। नींद तो मूर्छा को परिग्रह कहा है।' सिर्फ जागरूक होने की अथक अभीप्सा तोड़ सकती है। नींद तो महावीर ने यह नहीं कहा कि वस्तओं के होने में परिग्रह है। घर तम तोडना चाहो तो तोड सकते हो. कोई और नहीं तोड़ सकता के होने में परिग्रह नहीं है, न धन के होने में परिग्रह है। न पत्नी के | है। अगर तुम सोना चाहते हो, तो कोई उपाय नहीं है। महावीर होने में परिग्रह है। कहते हैं, सपना छोड़ने की फिक्र छोड़ो, एक सपना छूट भी __ 'उन महर्षि ने मूर्छा को परिग्रह कहा।' जाएगा तो क्या फर्क होगा। जहां से सपने आते हैं, वहां से और इन वस्तुओं को अपना मान लेने में। इन वस्तुओं के साथ सपने आ जाएंगे। जकड़ जाने में। इन वस्तुओं के साथ आसक्त हो जाने में। इन मुल्ला नसरुद्दीन ने एक नौकरी के लिए दरख्वास्त दी। पानी वस्तुओं और अपने बीच एक तरह का गहरा संबंध बना लेने में, | के जहाज पर कोई जगह खाली थी। जहाज के कप्तान ने उसका कि उस संबंध को छोडना मश्किल हो जाए। उस मर्छा में इंटरव्य लिया और पछा कि अगर तफान आ जाए और जहाज परिग्रह है। डगमगाने लगे, तो तुम क्या करोगे? मुल्ला ने कहा, लंगर यह सूत्र बड़ा अनूठा है। धर्म-शास्त्रों में सारे जगत के डालेंगे! कप्तान ने कहा कि और बड़ा तूफान आ जाए, फिर क्या धर्म-शास्त्रों में इसके मुकाबले सूत्र खोजना कठिन है। करोगे? उसने कहा एक लंगर और। कप्तान ने कहा और बड़ा न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। तूफान आ जाए, फिर क्या करोगे? उसने कहा, एक लंगर और। मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।। कप्तान ने कहा, ठहरो, ये लंगर तुम ला कहां से रहे हो? मुल्ला | कहा है: वस्तुओं को छोड़ने से परिग्रह नहीं ने कहा, ये तूफान आप कहां से ला रहे हैं? वहीं से हम लंगर ला छूटता, मूर्छा छूटने से परिग्रह छूट जाता है। मूर्छा; घर नहीं रहे हैं। तुम लाये जाओ तूफान, हम लाये जाएंगे लंगर। छोड़ना, धन नहीं छोड़ना, पत्नी-बेटे नहीं छोड़ना, मूर्छा छोड़नी अगर कल्पना का ही जाल है, तो ठीक। न तूफान है कहीं, न है। सोया-सोयापन छोड़ना है। तुम ऐसे जी रहे हो जैसे नींद में लंगर दिखायी पड़ता है। एक सपना जहाँ से आ रहा है, अगर हो। सपना नहीं छोड़ना है, नींद छोड़नी है। उसका मूल स्रोत न तोड़ा गया, तो दूसरा सपना चला आयेगा। इस बात को खयाल में लो। यह सपना कहां से आया? इस पत्नी को तुमने क्यों कहा मेरी? अगर नींद न छूटी, तो एक सपना छूट जाए, दूसरा शुरू हो इस पति को तुमने क्यों कहा मेरा? इस बेटे को तुमने कैसे माना जाएगा। सपनों की फसलें नींद में उगती ही रहेंगी। तो महावीर मेरा? इस मकान को तुमने कैसे कहा मेरा? इस धन को, इस कहते हैं, सपने छोड़ने से क्या होगा? सपने तो बहुत बार देह को, तुमने कैसे दावा किया कि मेरी? यह सपना जहां से अपने-आप भी छूटे हैं। कितनी बार तुम जन्मे! कितनी पत्नियों आया है, उस स्रोत का तुम्हें पता है? अगर उस स्रोत को न को अपना नहीं कहा! कितने बेटों को अपना नहीं कहा! कितने | तोड़ा, इस देह को छोड़ दो, इस पत्नी को छोड़ दो, इस मकान को मित्र बनाये, कितने शत्रु बनाये! कितने घर बसाये! मौत आयी, छोड़ दो, इस दुकान को छोड़ दो, फिर किसी दूसरी दुकान पर वह सब उजाड़ गयी। तो मौत तो सभी को संन्यस्त कर जाती है, कहेगा-मेरा। घर छोड़ दो, जंगल में चले जाओ, गुफा में बैठ ख चीखो-चिल्लाओ, मौत तो छीन जाओ, तो गुफा को कहेगा-मेरी। क्या फर्क पड़ेगा? ही लेती है सब, जो तुम छोड़ना नहीं चाहते। छोड़ना ही पड़ता हिमालय में जाकर किसी साधु की गुफा में अड्डा जमाओ, पता है। कितनी बार मौत तुम्हारा सपना नहीं तोड़ गयी! चलेगा! धक्का मार बाहर कर देगा–पता है, यह गुफा मेरी है! 170 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा एक भिखमंगा एक गांव की एक सड़क पर नियमित रूप से आते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की गयी। तुम काटते हो, वृक्ष भीख मांगता था। तगड़ा भिखमंगा था। कोई दूसरा भिखमंगा बढ़ता है। वृक्ष घना होता है, जैसे-जैसे तुम काटते हो। जड़ को वहां घुस भी नहीं सकता था। भिखमंगों की भी अपनी-अपनी काटना पड़े। जड़ के कटते ही वृक्ष निष्प्राण हो जाता है। उसका सीमा होती है। उसकी सीमा-रेखा में कोई दूसरा भिखमंगा नहीं संबंध टूट गया भूमि से। मूर्छा तोड़नी है। एक ही चीज तोड़नी आ सकता था। उनका भी साम्राज्य होता है-भिखमंगों का है—मूर्छा तोड़नी है। एक ही धर्म है-मूर्छा के बाहर आना। भी! लेकिन एक दिन किसी ने देखा कि वह भिखमंगा किसी और एक ही अधर्म है-मूर्छा में जीना। मूर्छा में तो मन सपने दूसरी सड़क पर भीख मांग रहा है। तो उसने पूछा, अरे! वह | ही सपने देखता रहता है। कभी-कभी विपरीत सपने देखता पुरानी जगह छोड़ दी? क्योंकि वह पुराना मोहल्ला तो धनपतियों | है-एक से ऊब जाता है। बाजार में रहते-रहते ऊब गये, पहाड़ का मोहल्ला था और वहां ज्यादा भीख मिलने की संभावना थी। भाग गये। उसने कहा, छोड़ नहीं दी, मेरी लड़की का विवाह हो गया, तुमने खयाल किया, पहाड़ में जो रहते हैं, वे बंबई आने को उसको दहेज में दे दी, उसके पति को। उत्सुक! बंबई जो रहते हैं, वे पहाड़ जाने को उत्सुक ! मन के बड़े तम्हें पता नहीं है कि तम्हारा मोहल्ला भिखमंगे ने किसी को अजब खेल हैं। मन एक सपने से ऊब जाता है, तो सोचता है दहेज में दे दिया है। भिखमंगे का भी साम्राज्य है! नंगा भी | शायद विपरीत में कुछ मजा होगा। गरीब अमीर होने को उत्सुक आदमी खड़ा हो, लंगोटी भी उसके पास न हो, तो भी जहां से है। अमीर सोचता है, गरीब बड़े मजे में है, रात चैन की नींद सपने आते थे वह जगह तो अभी नहीं तोड़ी। तो वह जहां खड़ा सोता है। भूख लगती है गरीब को, मुझे भूख भी नहीं लगती। है, जितनी छोटी-सी जमीन को घेर रहा है, उस पर ही 'मेरे' का नींद भी नहीं लगती। क्या सार हुआ इस धन को पा लेने से। कब्जा हो जाएगा। मूल को तोड़ना पड़ेगा। शाखाएं-प्रशाखाएं। ऐसा आदमी अमीर ही नहीं है, जिसे गरीब के जीवन में सुख काटने से कुछ भी न होगा। दिखायी न पड़ने लगा हो। इसे मैं अमीर की परिभाषा मानता हूं, महावीर कहते हैं, वह मूल है मूर्छा। बाकी सब सपना है। जिस दिन कोई आदमी सच में अमीर होता है, उसी दिन गरीब की 'मेरा-तेरा' 'अपना-पराया', बाकी सब सपना है। मूल है | आकांक्षा शुरू हो जाती है। वह सोचता है, इससे तो गरीब मूर्छा। मूल है कि मुझे होश नहीं। मूल है कि विवेक जागा | बेहतर। भिखमंगे को देखता है, भरी दुपहरी में, भरे बाजार में, नहीं। मूल है कि ध्यान जला नहीं, मशाल बोध की मेरे पास वृक्ष के नीचे घुर्रा रहा है, सो रहा है। न तकिया है, न बिस्तर है, नहीं। इस अंधेरे में सब उठता है; सब सांप-बिच्छू, सब न घर-द्वार है, लेकिन ऐसी गहरी नींद! ईर्ष्या से भर जाता है। कीड़े-पतंगे, मकड़ी के जाले। इस अंधेरे में भूत-प्रेत सब पलते वह रात अपने बहुमूल्य बिस्तर पर करवटें बदलता है। कोई नींद हैं। रोशनी आते ही सब विदा होने लगते हैं। का पता नहीं। रूखी-सूखी मांगी रोटी को खाते भिखमंगे को महावीर कहते हैं : 'न सो परिग्गहो वुत्तो-परिग्रह में परिग्रह देखता है, लेकिन जिस स्वाद से भिखमंगा खा रहा है, जिस भाव नहीं—नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-मूर्छा में है से; और भूख भर जाने पर जिस तृप्ति से उठता है, ऐसी तृप्ति परिग्रह।' हिंसा में हिंसा नहीं, मूर्छा में है हिंसा। क्रोध में क्रोध अमीर भूल गया है। सब है उसके पास! नहीं, मूर्छा में है क्रोध। राग में राग नहीं, मूर्छा में है राग। तो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जब तक भोजन नहीं होता, तब महावीर ने मूल स्रोत को पकड़ा। तक भूख होती है; जिस दिन भोजन के सब साधन हो जाते हैं, सभी पापों की जड़ मूर्छा है। अलग-अलग पापों से लड़ने में उस दिन भूख नहीं रहती। दुनिया बड़ी बेढंगी है। यहां हिसाब समय मत गंवाना। उससे कछ सार न होगा। ऐसे ही तो तमने बड़ा उलटा है। जब तक सोने का इंतजाम नहीं रहता, तब तक जनम-जनम गंवाये। छोटी-छोटी चीजों से लड़ रहे हो–पत्तों नींद आती है। जब सोने का सब इंतजाम कर चुके होते हैं, तब को काटते हो। वृक्ष को कोई चोट नहीं पहुंचती पत्ते काटने से। तक नींद खो जाती है। गरीब सोचता है, महलों में सुख होगा; वस्तुतः हालत उलटी होती है। एक पत्ता काटते हो, तीन निकल महलों में जो बैठे हैं, सोचते हैं गरीब बड़े मजे में हैं। शहरों में 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 रहनेवाले लोग कविताएं लिखते हैं गांवों की प्रशंसा की। गांव में | फेर रहे हैं, मूर्ख बन गये हैं! यह शक उठता है। रहनेवाले लोग सिर ठोंकते हैं कि कब सौभाग्य होगा कि शहर मुझसे बड़े-बड़े बुजुर्ग साधुओं ने यह कहा है, कि शक होता है पहुंच जाएं। विपरीत। जिसको हम भोग रहे हैं, उससे तो हम कि पता नहीं हमने कुछ गलती तो नहीं कर ली! थक जाते हैं। ऊब जाते हैं। हालांकि इस सबके कारण दूसरे दिन प्रवचन में वह और जोर रात हंस-हंस के ये कहती है कि मयखाने में चल से लोगों को समझाते हैं कि संसार व्यर्थ है! कि छोड़ो, कहां फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उलझे हो कीचड़ में! ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त, वीराने में चल खयाल रखना, जो साधु जितने जोर से तुम्हें छोड़ने को समझा ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं रहा हो, उतनी ही खबर दे रहा है कि वह बेचैन है। वह बेचैन है रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल इस बात से, जब तक वह दूसरों को भी राजी न कर ले तब तक फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उसे चैन नहीं है। वह सोचता है, दूसरे शायद मजा लूट रहे हों। फिर किसी लाल फूल-ऐसे मुखड़ेवाली के घर चल। और एक अर्थ में बात ठीक भी लगती है, क्योंकि दूसरों की ये नहीं मुमकिन... संख्या बहुत है। संख्या का बल मालम होता है। अगर धर्म सच तो मन कहता है अगर यह न हो सके... ही होता, तो सभी लोग कभी के धार्मिक हो गये होते। तो अगर तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल मंदिर में बैठे पुजारी को मधुशाला में बैठे पियक्कड़ से ईर्ष्या पैदा तो फिर वह ठीक दूसरा विपरीत रास्ता बताता है, फिर जंगल | हो जाती हो, कुछ आश्चर्य नहीं। क्योंकि मंदिर तो लोगों को भाग चलो। लाख समझाओ और लोग नहीं आते। और मधुशाला जाने से जो-जो लोग मयखानों से ऊब गये हैं, लाल मुखड़ेवाली लाख रोको, तो भी जाते हैं। कुछ होना ही चाहिए! कुछ प्रबल स्त्रियों से ऊब गये हैं, वे जंगल भागते हैं। लेकिन जंगल भागने | आकर्षण होना ही चाहिए! लाख समझाओ कि राख है, मिट्टी है से कुछ हल नहीं है। जंगल में जो बैठे हैं, उनसे तो पूछो! उनका सोना, फिर भी सोने को पकड़ते हैं। इतने समझानेवाले हुए हैं, दिल कहता है फिर भी कोई संसार से भागता नहीं है! आसानी से भागता नहीं। रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल और अकसर जो संसार से भागते हैं, बहुत बुद्धिमान नहीं मालूम फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल होते हैं। इससे और शक पैदा होता है। तुम जरा साधुओं के भीतर तो उतरो। तुम पाओगे वे उन्हीं सब तुम अकसर साधु-संन्यासियों को निर्बुद्धि पाओगे। सौ में चीजों के लिए तड़फ रहे हैं, जिनके कारण तुम तड़फ रहे हो। तुम | अगर एक भी तुम्हें बुद्धिमान मिल जाए, तो अपवाद है। तुम मरे जा रहे हो जिन चीजों के कारण, घबड़ाये जा रहे हो, सोचते उन्हें निर्बुद्धि पाओगे। ये जिंदगी से हारे-थके लोग हैं। ये जिंदगी हो कब साधु हो जाएं; कब सौभाग्य का क्षण आयेगा सब में जीत न सके। ये पराजित लोग हैं। जिंदगी में प्रतियोगिता न छोड़कर चले जाएं, जो छोड़कर चले गये हैं, जरा उनसे तो पूछो! कर सके। इनके पास न इतनी बुद्धि थी, न सोच-समझ था, न वे तड़फ रहे हैं ईर्ष्या से। वे तुम्हें देख रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि इतना साहस था, इसलिए भगोड़े हैं। लेकिन भगोड़े होने से कुछ पता नहीं तुम मजा तो नहीं लूट रहे हो! हम कहीं चूक तो नहीं मन की नींद तो नहीं टूटती! मूर्छा तो नहीं जाती! गये—जिंदगी हाथ से गुजरी जाती है, आत्मा का कुछ पता नहीं महावीर कहते हैं, भागने से कुछ न होगा, जागो। भागो नहीं, चल रहा है, भगवान के कोई दर्शन नहीं हो रहे हैं, माला | जागो। सारा जोर जागने पर है। फेरते-फेरते थक गये हैं, कहीं कोई साक्षात्कार नहीं हो रहा है, 'जीव मरे या जीए, आ-यतन-आचारी को हिंसा का दोष कहीं ऐसा तो नहीं है कि बस यही जिंदगी सब कुछ है! यह अवश्य लगता है। किंतु जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे मयखाने और लाल मुखड़ेवाली स्त्रियोंवाली जिंदगी ही सब कुछ | बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबंध नहीं होता।' है! कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नाहक बैठे हैं! खाली कोरी-माला | महावीर कहते हैं, जो जागकर नहीं जी रहा है, यतन से नहीं जी 172 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा . रहा है...यतन से जीने का अर्थ समझ लेना-उसी को कबीर ने छिपाओ, तो भी खुल जाता है। सच को बचाओ, छिपाओ, तो | जतन कहा है। जतन को रतन कहा है। जतन से जीना। यत्न से भी प्रगट हो जाता है। जीना! क्या अर्थ है? होश से जीना! चलना काफी नहीं है, तुम अपने बावजूद बहुत-सी बातें कह जाते हो। पीछे पछताते भीतर दीया जलता रहे, फिर चलना। बोलना काफी नहीं है, हो। निश्चित ही तुम्हारे बोलने में होश का दीया नहीं है। बोलो | जतन से बोलना। होश से बोलना। होश से, जाग्रत हुए। इसको महावीर कहते हैं, यत्न। बोधपूर्वक तुम्हें कभी ऐसा मौका आता है या नहीं, जब तुम ऐसी बात कह जीने का नाम, येत्न। देते हो जो नहीं कहना चाहते थे? यह कैसा बोलना हुआ! तुम आंसू से कहो बरसे, मगर रोये नहीं कहना नहीं चाहते थे और कह गये। तय करके आये थे कि यह शबनम से कहो बिखरे, मगर खोये नहीं बात कहेंगे नहीं, और निकल गयी। तुम कहते हो, मेरे बावजूद पीने का मजा तो है तभी ऐ साकी निकल गयी। कहना नहीं चाहता था, फिर भी निकल गयी। मयखाना सभी झूमे मगर सोये नहीं अकसर तो यह होता है, जो तुम नहीं कहना चाहते हो, वह मस्ती से कुछ हर्जा नहीं है, नींद भर न आये। निकल ही जाता है। वह कोई रास्ता खोज लेता है। मयखाना सभी झूमे, मगर सोये नहीं एक मुल्ला नसरुद्दीन का मित्र बीमार था। मरने के करीब था। उठो, बैठो, चलो, जागे रहो! गीत गाओ, कि हंसो, कि रोओ, मित्र जाकर उसको समझाते थे कि कोई फिकिर नहीं, मौत आ जागे रहो! जागरण को धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन की शैली बना नहीं रही, तुम रोज-रोज ठीक हो रहे हो। आखिरी रात भी आ लो; इसको महावीर यत्न कहते हैं। गयी, डाक्टरों ने कहा, अब बचेगा नहीं। मल्ला उसे देखने गया 'जीव मरे या जीए।' था। मित्रों ने उसे समझाया कि देखो भूल से भी उसके मरने की हिंसा से इसका कोई संबंध नहीं है। आमतौर से लोग सोचते बात मत कहना। वह वैसे ही मर रहा है, अब उसे और दुखी क्यों हैं, दूसरे को मत मारो, क्योंकि मर जाएगा तो पाप लगेगा। करना! घड़ी-दो घड़ी सुख से, शांति से रह ले। जाना तो है ही। महावीर कहते हैं, जीव मरे या जीए, इससे कुछ हिंसा का संबंध उसको दुख क्यों देना! सदमा मत पहुंचाना। मुल्ला ने कहा, नहीं है। तुम्हारे मन में जो मारने की वृत्ति उठी, जो तुमने मारने की क्या तुमने मुझे नासमझ समझा है? मुझे पता है। वृत्ति उठने दी, वह तुम्हारे सोये होने का सबूत है। जो जागा हुआ मुल्ला गया उसने बड़ी इधर-उधर की हांकी, मित्र को खूब है, वह तो जानता है यहां सभी अमृतधर्मा हैं। प्रसन्न किया, इतना कि वह मरनेवाला आदमी हंसने लगा। जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे बाह्य हिंसा हो जाने पर उसके गप-सड़ाका, उलटी-सीधी कहानियां, वह बिलकुल भी उसे कर्मबंध नहीं होता।' | उठकर बैठ गया मरनेवाला, तभी मुल्ला, जोर-जोर से सिर महावीर बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, जो हिलाने लगा, उसने पूछा क्या हुआ? उसने कहा, पूछो मत! होशपूर्वक जी रहा है, उससे कभी बाह्य हिंसा हो भी जाए...तुम यह तुम किस चीज के लिए सिर हिला रहे हो? उसने कहा कि चल रहे थे, एक चींटी दबकर मर गयी। लेकिन तुमने चलने में तुमसे मैं बात जरूर कर रहा हूं, लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में उठ | होश रखा था। तुमने अपनी तरफ से पूरा होश रखा था...तो रहा है कि यह तुम्हारे घर की जो सीढ़ियां हैं, मर जाओगे तो अर्थी | महावीर कहते हैं, फिर कोई हर्जा नहीं। निकाली कैसे जाएगी? यह सीढ़ियां इरछी-तिरछी हैं। तो मैं | कुछ हिंसा तो होती है जीवन के होने में ही। श्वास लोगे। बार-बार उसी को इनकार कर रहा हूं कि मुझे क्या मतलब! यह | प्रत्येक सांस में लाखों जीवाणु मर जाते हैं। सांस तो लेनी ही जब मरेगा, जब मरेगा! और जिनको उतारना होगा, वे समझें! होगी। जीवाणु तो मरेंगे ही। पानी पीयोगे, भोजन करोगे, हाथ मगर यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार आ रहा है कि इन सीढियों से | भी हिलाओ-डुलाओ, तो पुरा वायमंडल सक्ष्म-जीवाणुओं से अर्थी निकालना बड़ा मुश्किल है। छिपाना चाहता था | भरा है, वे मरते हैं। चलोगे, तो जीवाणु मरेंगे। हिंसा तो होगी। जो...सत्य के प्रगट होने के रास्ते हैं! झूठ को बचाओ, लेकिन तुम सावधानीपूर्वक बरतना। 173 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः2 कहते हैं महावीर एक ही करवट सोते थे पूरी रात। रात करवट | कारण हुई। जीवन की अनिवार्यता के लिए वह जिम्मेवार नहीं भी न बदलते। नींद में भी सावधानी रखते। न्यूनतम। एक है। अपनी तरफ से उसने सब भांति अपने को रोक लिया है। करवट तो सोना ही पड़ेगा। इससे कम तो और किया नहीं जा और जो व्यक्ति विवेक से नहीं जी रहा है, होश से नहीं जी रहा सकता। हां, दो करवट बदलने से रोका जा सकता है। एक ही है, वह हिंसा न भी करे-पानी छानकर पीये, मांसाहार न करे, करवट, एक ही बाजू पर सोये रहेंगे, करवट न बदलेंगे रात में, रात भोजन न करे, सब तरह से अपने को सम्हालकर बैठा रहे, क्योंकि दूसरी तरफ कुछ कीटाणुओं के मर जाने की फिर लेकिन भीतर अगर हिंसा चलती जा रही है, भीतर अगर हिंसा के संभावना है शरीर के हिलने से। | विचार उठ रहे हैं, तरंगें उठ रही हैं, तो पाप हो गया। मारने से महावीर उतना ही करेंगे जितना जीवन के लिए एकदम | हिंसा नहीं लगती, मारने के भाव से हिंसा लगती है। अनिवार्य है। महावीर ने एकदम जीवन को वहां लाकर ठहरा | इसे तुम समझोगे तो गीता के कृष्ण और महावीर ठीक एक दिया जहां जरा भी अतिशय नहीं है। ठीक परिमार्जित। जगह खड़े हो जाते हैं। दोनों की प्रक्रिया बिलकुल अलग है, राम को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। कहना महावीर को दोनों के साधन बिलकुल अलग हैं, लेकिन लक्ष्य बिलकुल साफ चाहिए। ऐसी मर्यादा में कोई आदमी नहीं जीया। उस मर्यादा का है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं तू परमात्मा के ऊपर सब छोड़ दे। तू महावीर का नाम है-समिति। समिति का अर्थ होता है, सीमा कर्ता न रह जा। तू भाव भी मत कर कि मैं मार रहा हूं, कि मैं नहीं बनाकर जीना। इतना पर्याप्त है, इससे फिर रत्तीभर ज्यादा नहीं। मार रहा हूं; परमात्मा पर छोड़ दे। फिर जो होता है, होने दे। 'इसका कारण है कि समिति का पालन करते हुए साधु से जो अगर तेरे भीतर भाव न रहा कि मैं मारता हूं, फिर कोई हिंसा आकस्मिक हिंसा हो जाती है वह केवल द्रव्य-हिंसा है. नहीं। महावीर कहते हैं जाग जा। क्योंकि महावीर की धारणा में भाव-हिंसा नहीं। भाव-हिंसा तो उनसे होती है जो असंयमी होते | परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है। जो परमात्मा का स्थान है हैं। ये जिन जीवों को कभी मारते नहीं उनकी हिंसा का भी दोष | गीता में, वह महावीर की धारणा में ध्यान का स्थान है उन्हें लगता है। परमात्मा का ध्यान नहीं करना है; महावीर कहते हैं, ध्यान ही असंयमी को, अ-यतन में डूबे हुए मूर्छित व्यक्ति को, | परमात्मा है। जाग जा। फिर जागकर जो होता है, वह अनिवार्य जिनको वह नहीं मारता उनकी भी हिंसा का पाप लग जाता है। है। लेकिन तेरे भीतर भाव न रहे कि मैं हिंसा कर रहा हूं, कि मैं क्योंकि बहुत बार वह सोच लेता है। तुमने कई बार सोचा हिंसा करना चाहता हूं। अभिप्राय से दोष है। कृत्य का कोई दोष होगा-फलां आदमी को मार ही डालें। मारा नहीं है! कितनी नहीं है। बार तुमने नहीं सोच लिया कि आदमी मर ही जाए! तुमने मारने कभी-कभी तो ऐसा होता है, तुम किसी का नुकसान करने गये का भी नहीं सोचा; लेकिन मर ही जाए! दुश्मन की तो बात छोड़ थे...एक आदमी राह से चला जा रहा है, उसको वर्षों से सिरदर्द दो। कभी मां भी अपने बेटे से गुस्से में कह देती है कि तुम पैदा न है; तुमने एक पत्थर उठाकर उसको मार दिया, पत्थर उसके सिर ही हुए होते तो अच्छा था। जिसने पैदा किया है, जिसने जन्म पर ऐसी जगह लगा कि सिरदर्द चला गया। तुम चाहते थे सिर दिया है, वह भी क्रोध में सोचने लगती है कि यह तो न होता तो | तोड़ देना, फल इतना हुआ कि सिरदर्द चला गया। तुमने अच्छा ता नहीं इतना, लेकिन योजना तो मन में किया या बुरा किया? हुआ तो अच्छा, किया था बुरा। पाप तो चलती है। उस योजना में ही हिंसा है। विध्वंस है। लगेगा। क्योंकि पाप अभिप्राय से लगता है, तुम्हारे भाव से तो संयमी, मर्यादा में जीनेवाला, समिति में जीनेवाला, | लगता है। इसको महावीर कहते हैं-भाव-हिंसा और यत्नपूर्वक जीनेवाला-अगर कभी उससे संयोगवशात, | द्रव्य-हिंसा...तुम किसी को मारना नहीं चाहते थे। एक डाक्टर अनिवार्य कारणों से कुछ हिंसा हो भी जाती है, तो उसे कोई किसी का आपरेशन कर रहा है। सब तरह से बचाने को आतुर पापबंध नहीं। उसने करनी नहीं चाही थी। उसके भीतर कोई है, प्राणपण लगा दिये हैं, लेकिन आदमी मर जाता है। तो उसे भाव न था करने का। हुई तो वह जीवन की अनिवार्यता के हम मारे जाने का दोष नहीं देंगे। आदमी तो मरा, उसके 174 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा आपरेशन में ही मरा, लेकिन फिर भी उसकी कोई भावदशा न किया होगा। दबाया होगा जबर्दस्ती। जो व्यक्ति कामवासना थी। द्रव्य-हिंसा तो हुई, आदमी मरा, लेकिन कोई अभिप्राय न | को दबा लेता है, उसे सब तरफ कामवासना दिखायी पड़ने था। इसलिए पाप का कोई कारण नहीं है। | लगती है। जिस व्यक्ति ने कामवासना को दबाया नहीं, समझा 'किसी प्राणी का घात हो जाने पर जैसे संयत या असंयत | है, उसे फिर कहीं कामवासना नहीं दिखायी पड़ती। जिसे तुमने व्यक्ति को द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा का दोष लगता दबाया, वही तुम्हारी आंख से उभर-उभरकर तुम्हें सब जगह है, वैसे ही चित्तशुद्धि से युक्त, समितिपरायण साधु द्वारा दिखायी पड़ेगी। दमन मुक्ति नहीं है। दमन बड़ा गहरा बंधन है। मनःपूर्वक किसी का घात न होने के कारण उसके द्रव्य तथा भाव, अब सोचो, अगर यह 'स्वामी नारायण संप्रदाय' को दोनों प्रकारों की अहिंसा होती है।' माननेवाले सज्जन महावीर को मिल जाएं, तो यह तो घबड़ा ही 'यत्नाचार धर्म की जननी है। यत्नाचारिता ही धर्म की जाएंगे कि यह आदमी नग्न खड़ा है! यह तो बड़ी अनैतिक बात पालनहार है। यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यत्नाचारिता है, बड़ी अश्लील बात है। अशोभन है। अशिष्ट है। ऐसा ही एकांत सुखावह है।' हुआ था। महावीर को गांवों से खदेड़ा गया, मारा गया। क्योंकि जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। उनका नग्न होना दूसरों को पीड़ादायी हो गया। महावीर किसी यत्नपूर्वक जीना धर्म की जन्मदात्री है। यत्नपूर्वक जीना धर्म को पीड़ा नहीं देना चाहते। वह वस्तुतः नग्न इसलिए हुए कि वे की पालनकर्ता है, धारणकर्ता है। यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती नैसर्गिक होना चाहते हैं। स्वाभाविक होना चाहते हैं। नग्न है। यत्नपूर्वक-राह चलते, उठते-बैठते सब तरफ होश रखना, आदमी पैदा हुआ है, नग्न ही विदा होगा, तो बीच में वस्त्र ढांकने तुम्हारे कारण किसी को दुख न पहुंचे। फिर भी किसी को दुख का क्या प्रयोजन! इसलिए महावीर नग्न हुए। महावीर की पहुंचे, वह उसका अपना भीतरी कारण होगा, तुम्हारा कुछ नग्नता तो वैसी निर्दोष है, जैसे छोटे बालक की। लेकिन लेना-देना नहीं। देखनेवालों को जो वही दिखायी पड़ा तो उनकी आंखों में भरा दुख तो महावीर के कारण तक लोगों को पहुंच जाता है। वह था। उन्होंने तो देखा कि यह बात कुछ गड़बड़ है। यह आदमी तो नग्न खड़े हैं। किसी को दुख हो जाता है कि यह आदमी नंगा तो समाज को तुड़वा देगा। शिथिल करवा देगा। जिस व्यक्ति क्यों खड़ा है? यह जिम्मेवारी उस आदमी की है। महावीर के आधार पर समाज सदा के लिए सुदृढ़ स्तंभ रख सकता था, उसके लिए नग्न नहीं खड़े हैं। यह उसकी ही भावदशा है। वह अनैतिक मालूम पड़ा लोगों को। उसे हटाया लोगों ने अपने एक मित्र ने प्रश्न किया है कि वह यहां संन्यास लेने आये थे। गांवों से। लेकिन उनका भरोसा, विश्वास ‘स्वामी नारायण संप्रदाय' में खयाल रखो, जो तुम्हारे भीतर है, वही दिखायी पड़ता है। यह है। तो उन्होंने पूछा है कि 'स्वामी नारायण संप्रदाय' में संन्यास | भी हो सकता है तुम किसी को दुख न देना चाहो, लेकिन फिर भी लूं या यहां? क्योंकि वहां तो ब्रह्मचर्य पर बड़ा जोर है, सख्ती | किसी को दुख पहुंच जाए। पर यह उसकी बात है। यह वह है। और यहां ऐसा लगता है कि आपका ब्रह्मचर्य पर कोई जोर | जाने। यह उसकी समस्या है। तुम अपने भीतर किसी को दुख नहीं है। और आपके संन्यासी शिथिल मालम होते हैं। उनको देने का भाव न रखना। तुम अपने भीतर किसी के विध्वंस की दुविधा पैदा हुई है। पूछा है कि बड़े द्वंद्व में पड़ गया हूं। द्वंद्व में आकांक्षा न करना। तुम किसी के विनाश का बीज अपने भीतर पड़ने की कोई जरूरत नहीं। तुम संन्यास लेना भी चाहो, तो मैं न | मत बोना। तुम निखालिस, तुम पवित्र रहना। तुम प्रेमपूर्ण दूंगा। इसलिए द्वंद्व छोड़ो। तुम रुग्ण हो। दूसरे संन्यासी क्या रहना। और तुम यत्नपूर्वक जीना। और एक-एक कदम रखना कर रहे हैं, इससे तुम्हारा प्रयोजन ही नहीं है। कौन शिथिल है, होगा। पहले तो भाव में बदलाहट करनी होगी। तभी बाहर कौन शिथिल नहीं है, तुमसे किसी ने पूछा नहीं है। तुम अपने बदलाहट होगी। लिए ही निर्णय लो। जिनने पूछा है, इस व्यक्ति ने निश्चित | जमीं सख्त है, आसमां दूर है 'स्वामी नारायण संप्रदाय' के प्रभाव में कामवासना का दमन बसर हो सके तो बसर कीजिए 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग 2 कफस तोड़ना बाद की बात है सूत्र हैअभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए। जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। पिंजड़े में बंद हैं हम। अभी पिंजड़े को तोड़ना तो बहुत मुश्किल | जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।। है। अभी तो पहले पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा कीजिए। विवेक से। 'विवेकपूर्वक चलने से, विवेकपूर्वक रहने से, जमीं सख्त है, आसमां दूर है विवेकपूर्वक बैठने से, विवेकपूर्वक सोने से, विवेकपूर्वक खाने बसर हो सके तो बसर कीजिए और विवेकपूर्वक बोलने से साधु को पापकर्म का बंध नहीं कफस तोड़ना बाद की बात है होता।' जो करो उसे विवेकपूर्वक करना। जो करो, एक शर्त अभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए जरूर पूरी करना कि वह विवेकपूर्वक हो, होशपूर्वक हो। निद्रा, अभी तो मेरे पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा, इस दिशा में मूर्छा में न हो। बेहोशी में न हो। क्या परिणाम होता है इसका? प्रयास। अभी तो पैर मजबूत हो जाएं, इस दिशा में प्रयत्न। फिर यह जीवन के शास्त्र की बड़ी गहरी बात है। जीवन-शास्त्र का यात्रा है। मंजिल दूर की है। बल चाहिए। भाव चाहिए। अदम्य बड़ा प्रगट लेकिन फिर भी बहुत गुप्त रहस्य है। जो तुम विवेक आशा चाहिए। से कर सको, वही पुण्य है। और जो विवेक के कारण न कर महावीर कहते हैं, 'यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। सको, वही पाप है। यत्नाचारिता एकांत सुखावह है।' जितना यत्न होगा, उतना जैसे मैं कहता हूं, क्रोध करते हो तो मैं नहीं कहता क्रोध मत सुख होगा। क्योंकि जितना हम दूसरे को दुख देना चाहते हैं, करो; मैं कहता हूं विवेकपूर्वक करो। क्रोध आये, जाग जाओ। उतना ही अपने दुख के बीज बोते हैं। जो हम काटते हैं वह हमारा झकझोर दो अपने को। जैसे सुबह नींद से उठते हो, अंगड़ाई लेते ही बोया हुआ है। जो हम बोते हैं, वह हमीं काटेंगे। जो गड्ढे हम हो, ऐसे भीतर चैतन्य की अंगड़ाई लो। झकझोर दो अपने को। दूसरों के लिए खोदते हैं, उनमें हम ही गिरेंगे। इसलिए किसी के | जागो! जानो कि क्रोध हो रहा है। करो जानकर। और तुम लिए दुख के बीज मत बोना। अगर तुम दुखी हो, तो इसका चकित हो जाओगे, तुम क्रोध न कर पाओगे। अगर प्रेम फैल इतना ही अर्थ है कि अब तक तुमने दुख के बीज दूसरों के लिए रहा हो और तुम जाग जाओ, तो तुम हैरान होओगे, जागने के बोये। यह जगत एक प्रतिबिंब है। तुम जैसे होते हो वैसी ही कारण प्रेम करोड़ गुना होकर फैलेगा। क्रोध तत्क्षण जलकर गिर तस्वीर तुम्हें दिखायी पड़ती है। यह जगत एक प्रतिध्वनि है। तुम जाएगा। प्रेम फैलेगा। अगर तुम किसी को मिटाने चले थे, तो गीत गुनगुनाओ, तो गीत लौट आता है। तुम गाली दो, तो गाली | जागने के कारण पैर वहीं ठिठक जाएंगे। और अगर किसी को ही तुम पर हजार गुना होकर बरस जाती है। उठाने चले थे, तो जागने के कारण तुम दौड़ पड़ोगे। जो जागने से आदमी ने वक्त को ललकारा है हो सके, वही पुण्य है। और जो जागने से न हो सके, वही पाप आदमी ने मौत को भी मारा है है। पाप और पुण्य की इससे ज्यादा गहरी कोई परिभाषा कभी जीते हैं आदमी ने सारे लोक नहीं की गयी है। आदमी खद से मगर हारा है महावीर कहते हैं, पाप वही है, जो सोये-सोये होता है, वहीं एक हार है। अपने पर बस नहीं हमारा। अपने पर जागकर नहीं होता। पुण्य वही है, जो सोये-सोये कभी नहीं समिति, संयम नहीं हमारा। अपने हम मालिक नहीं। महावीर ने होता, केवल जागकर ही होता है। इसलिए एक ही बात पकड़ इस पर इतना जोर दिया, स्वयं की मालकियत पर, कि उनका पूरा | लेने जैसी है, और वह है जागरण। ध्यानपूर्वक जीना। जो जाग धर्म जिन-धर्म कहलाया। जिन का अर्थ होता है. जीता जिसने। गया. उसका संबंध परम सत्य से जड जाता है। जैन-घर में पैदा होने से मत समझ लेना कि जैन हो गये। जब ऐ शौके-नजारा क्या कहिए, तक जिन न हो जाओ, तब तक जैन कैसे होओगे? जब तक | नजरों में कोई सूरत ही नहीं | जीत न लो अपने को...और जीत कैसे आयेगी, उसका परम ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे, 2010_03
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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा हम सूरते-जानां भूल गये छोर नापते थके न पल छिन, अब गल से नजर मिलती ही नहीं ये कैसे अभ्यास बन गये अब दिल की कली खिलती ही नहीं तम मेरे आकाश बन गये। जैसे ही कोई जागता है, गुल से नजर मिलने लगती है। दिल | दिवस, मास या वर्ष गिनूं क्या, की कली खिलने लगती है। सोये-सोये हमारी हालत ऐसी है- सारा जीवन एक तपस्या ऐ शौके-नजारा क्या कहिए, सांसों के जितने शिशु जन्मे, नजरों में कोई सूरत ही नहीं सभी तुम्हारे दास बन गये सोये आदमी की दृष्टि में सत्य का दर्शन कैसे! परमात्मा का तुम मेरे आकाश बन गये। दर्शन कैसे! प्रिय दिखायी कैसे पड़े नींद-भरी आंखों में ! वहां तो | विवेक तुम्हारा आकाश बन जाए, वही-वही एकमात्र तुम्हारा सिर्फ सपने दिखायी पड़ सकते हैं। सत्य दिखायी नहीं पड़ लक्ष्य बन जाए, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपस्या हो गयी। सकता। दिवस मास या वर्ष गिनूं क्या, ऐशौके-नजारा क्या कहिए, सारा जीवन एक तपस्या नजरों में कोई सूरत ही नहीं महावीर तुम्हें एक खंड को सुंदर बनाने को नहीं कहते। वे यह ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे, नहीं कहते कि एक घड़ी को धार्मिक बना लो और तेईस घड़ी जीए हम सूरते-जानां भूल गये जाओ संसार में। वह कहते हैं, कुछ ऐसा करो, कुछ ऐसे जीओ अब याद भी करें उस परम की, प्रभु की, तो कैसे करें, हम तो कि चौबीस घंटा एक ही धागे में पिरो जाए। उसकी सूरत भी भूल चुके! तो अगर पूजा करो, तो चौबीस घंटे तो नहीं कर सकते। कम हम सूरते-जानां भूल गये से कम भोजन के लिए छुट्टी लेनी पड़ेगी। मंदिर में बैठो, तो उस प्रीतम की सूरत भी याद नहीं, याद क्या करें? स्मरण कैसे | चौबीस घंटे तो नहीं बैठ सकते। रात सोना तो पड़ेगा। स्नान | करने के लिए तो उठना पड़ेगा। माला फेरो तो चौबीस घंटे तो अब गुल से नजर मिलती ही नहीं नहीं फेर सकते। जीवन पंगु हो जाएगा। लेकिन महावीर कहते अब दिल की कली खिलती ही नहीं हैं, विवेक कुछ ऐसी बात है कि चौबीस घंटे साध सकते हो, कोई जैसे ही कोई विवेक को उपलब्ध हआ, मिलने लगती है गल | बाधा न पड़ेगी। स्नान करो, तो भी-जागे। बैठो, उठो, भोजन से नजर, खिलने लगती है दिल की कली। करो, बात करो, सुनो—जागे। दुकान जाओ, मंदिर जाओ, यह विवेक का बल एकमात्र बल है, जो तुम्हें तीर्थ तक पहुंचा बजार जाओ, घर आओ—जागे। भीड़ में, अकेले में-जागे। देगा। यह विवेक के पंख ही तुम्हें खुले आकाश में उड़ा सकेंगे। और महावीर कहते हैं, अगर तुम्हारा सारा कृत्य जागरण से जुड़ यह विवेक के पैर ही तुम्हें उस परम यात्रा तक पहुंचा सकेंगे। जाए, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि रात तुम सोते हो अगर महावीर के सारे शास्त्र को दो शब्दों में रखा जा सके, तो वे | और जागे। इसको कृष्ण ने कहा है, 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां होंगे, 'विवेक' और 'अहिंसा'। अहिंसा है गंतव्य। विवेक है | जागर्ति संयमी।' जब सब सो जाते हैं, तब भी संयमी जागता है, उस तरफ गति। अहिंसा है साध्य, विवेक है साधन। अहिंसा है | इससे तुम ऐसा मतलब मत लेना कि संयमी बैठा रहता है बिस्तर मंजिल, विवेक है मार्ग। पर। पागल हो जाएगा! शरीर को तो नींद जरूरी है। लेकिन मन पंछी इस तरह उड़ा कुछ, भीतर का दीया जलता रहता है। रात के गहनतम अंधेरे में भी, तुम मेरे आकाश बन गये। शरीर जब सो जाता है, तब भी आत्मा जागी रहती है 'तस्यां पंखों की बिसात ही कितनी, जागर्ति संयमी।' भरी उड़ानें फिर भी इतनी, लेकिन इस जागरण को पहले जागी अवस्था में साधो। करें? 177 ___ 2010_03
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________________ जिन सत्र भाग: 2 धीरे-धीरे यह तुम्हारी नींद में भी उतर जाएगा। यह चौबीस घंटे पर फैल जाएगा। और जो धर्म चौबीस घंटे पर फैल जाए, वही तुम्हें मुक्त कर पायेगा। अन्यथा, घंटेभर धर्म को साधोगे, तेईस घंटे अधर्म को साधोगे, मुक्ति होगी कैसे? घंटेभर में जो बनाओगे, तेईस घंटे में तेईस गुना मिटा दोगे। फिर दूसरे दिन घंटे भर में बनाओगे, फिर तेईस घंटे में मिटा दोगे। और कछ राज ऐसा है कि अगर धागे को पिंडली में लपेटना हो, तो घंटों लगते हैं, और धागे को पिंडली से अलग निकालना हो तो क्षणभर में खुल जाता है। मकान बनाने में वर्षों लगते हैं, गिराना हो तो दिनभर में गिर जाता है। मिटाना बड़ा जल्दी हो जाता है। और मिटाने के लिए तेईस घंटे हैं। और बनाना बड़ा मुश्किल है और बनाने के लिए घंटाभर है। तुम जीत न पाओगे। इससे कभी जीत संभव नहीं है। जीत का यही सूत्र है'जयं चरे जयं चिट्ठे'-जागकर चलो, जागकर रहो। 'जयमासे जयं सए'-जागकर बैठो, जागकर सोओ। 'जयं भुंजतो भासंतो'-जागकर बोलो। 'पावं कम्मं न बंधइ'-फिर कोई पाप तुम्हारे लिए नहीं है। फिर पाप का कोई बंधन नहीं है। आज इतना ही। 178 2010_03