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________________ जिन सूत्र भागः 2 सार है।' बैठा है, उठ; क्योंकि उनके पास पूरी दृष्टि थी। और जो उन्होंने हवा के झोंके जैसा-आया, गया। प्रेम बंधता नहीं कहीं। कहा, जानकर कहा है। वे शास्ता हैं। वे शास्त्र हैं। जीवंत | बादलों जैसा है। कोई जड़ें नहीं हैं प्रेम की। स्वतंत्रता है प्रेम। शास्त्र। उन्होंने जो कहा है, वह शुद्ध विज्ञान है। उसमें एक कड़ी मुक्ति है प्रेम। प्रेम बहता है, रुकता नहीं। रुका, डबरा बना, | भी गलत नहीं है। कहते हैं, 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है। राग हुआ। जहां प्रेम रुका, वहीं राग हो जाता है। सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों का और गुणों का पिंडभूत | महावीर ने एक बड़ी अनूठी बात कही है। महावीर ने कहा है, | जो बहता रहे, चलता रहे, वह धर्म। और जो रुक जाए, ठहर अहिंसा को अगर हम धर्म की भाषा से उतारकर आदमी की जाए, वह अधर्म। चकित होओगे यह परिभाषा जानकर। सरल भाषा में रखें, तो अहिंसा का अर्थ, प्रेम। अगर हम महावीर कहते हैं, जो सतत गतिमान है, वही धर्म है। जो ठहर जैन-शास्त्रों से अहिंसा शब्द को छुड़ा लें, मुक्त कर लें, | गया, रुक गया, जड़ हो गया, वही अधर्म। तुमने खयाल किया, | पारिभाषिक-जाल से अलग कर लें, तो अहिंसा का अर्थ होता प्रेम जब रुक जाता है, ठहर जाता है, किसी एक से अटक जाता है, प्रेम। प्रेम सृजनात्मक है। घृणा विध्वंसक है। है, फिर वहां से आगे नहीं बढ़ पाता, वहीं राग। अगर प्रेम क्या करेगा प्यार वह भगवान को फैलता रहे, किसी पर रुके न; प्रेमपात्र के ऊपर से फैलता रहे, क्या करेगा प्यार वह ईमान को और दूसरों पर बिखरता रहे; फैलता जाए...फैलता जाए...एक जन्म लेकर गोद में इंसान की घड़ी ऐसी आये कि इस जगत में तुम्हारे प्रेमपात्र के अतिरिक्त प्यार कर पाया न जो इंसान को और कोई न रह जाए, तो अहिंसा। प्रेम का आखिरी विस्तार, प्रेम प्रेम का पाठ जहां से सीखने मिल जाए, उसे चूकना मत। जहां | का परम विस्तार, प्रेम का चरम विस्तार अहिंसा है। इस जगत में से प्रेम का पाठ मिल जाए, उसे तो हीरे की तरह गांठ में गठिया | फिर एक भी कण ऐसा न रह जाए, जो तुम्हारा प्रेमपात्र नहीं। तब लेना। ऐसे प्रेम के पाठों को इकट्ठा कर-करके एक दिन तुम तुम अहिंसक हुए। पाओगे, अहिंसा का शास्त्र बन गया। प्रेम के अनुभव इकट्ठे होते निश्चित ही तब तुम पानी छानकर पी लोगे। तुम मांसाहार न चले जाएं, तो ऐसा समझो जैसे बहुत फूलों को निचोड़कर इत्र | करोगे। यह घटेगा। क्योंकि तुम्हारे मन में अब किसी भी वस्तु, बन जाता है, ऐसे बहुत जीवन में प्रेम के अनुभवों का किसी भी व्यक्ति, किसी भी पशु-पक्षी, वस्तु तक के प्रति सार-निचोड़ अहिंसा बन जाता है। अब यहां कुछ लोग हैं जो विध्वंस का कोई भाव नहीं, प्रेम की ही वर्षा हो रही है, तो तुम फूलों का तो त्याग करते हैं और इत्र की आकांक्षा करते हैं। सावधानी से बरतोगे। तुम जहां तक बन सकेगा, बचाओगे। पागल हैं वे। फूल को त्यागकर इत्र आयेगा कहां से? जहां तक बन सकेगा, सम्हालोगे। अहिंसा तो है प्रेम का परम इसलिए मैं कहता हूं कि महावीर के पीछे चलनेवालों ने विस्तार। लेकिन तर्क, पंडित, बुद्धिमानों की बुद्धिहीनता महावीर को बिलकुल भुला दिया है। उनके पास लकीरें रह गयीं ऐसे-ऐसे नतीजों पर पहुंच जाती है जिनकी महावीर ने कल्पना पिटी-पिटायी, उनको वे दोहराये चले जाते हैं। लेकिन उन भी न की होगी। लकीरों का सार खो गया है। शब्द रह गये हैं-कोरे, खाली, | अब जैनों के बीच पंथ है एक-तेरापंथ। आचार्य तुलसी का चली हुई कारतूसों जैसे, जिन्हें अब व्यर्थ ढो रहे हैं। अहिंसा का | पंथ। वहां अहिंसा की व्याख्या ठीक अहिंसा के विपरीत चली प्राण अगर प्रतिष्ठित करना हो, तो प्रेम शब्द में वह प्राण है। गयी है। तर्क के बड़े मजे हैं। चीजें इतनी खींची जा सकती हैं कि अहिंसा प्रेम के विपरीत नहीं है। अहिंसा राग के विपरीत है। प्रेम अपने से विपरीत हो जाएं। तेरापंथ कहता है कि अगर राह से स्वयं राग के विपरीत है। तुमने राग को ही प्रेम जाना है। इससे | तुम चल रहे हो और कोई आदमी मरता हो किनारे, प्यास के मारे भूल हो रही है। प्रेम तो राग को जानता ही नहीं। प्रेम की तो राग | चिल्लाता हो-पानी, पानी, तो भी पानी मत पिलाना। क्यों? से कोई पहचान ही नहीं है। जिससे तुम्हें प्रेम होता है, न तो तुम क्योंकि उस आदमी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ रहा है। उसे अपने से बांधते हो, न तुम उससे बंधते हो। प्रेम तो मुक्त है, उसने कुछ पाप किये होंगे, जिसके कारण वह मर रहा है। 1661 -JanEducation International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340140
Book TitleJinsutra Lecture 40 Prem ki Aakhiri Vistar Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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