Book Title: Jinsutra Lecture 32 Satya ke Dwar ki Kunji Samyak Shravan
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रवचन सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण 2010_03 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।।८१।। णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा। विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।।८२।। जह जह सुयभोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं। तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ।।८३।। सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।।८४ / / ___ 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र हम महावीर के तीर्थ की चर्चा करें। ऐसे सत्पुरुषों साधु का अर्थ है, जो सुनकर न पहुंच सके, सुनना जिसे काफी न " को फिर-फिर सोचना जरूरी है। सोच-सोचकर पड़े जिसे कुछ और करना पड़े। साधुओं ने हालत उल्टी बना दी सोचना जरूरी है। बार-बार उनका स्वाद हमारे है। साधु कहते हैं कि साधु श्रावक से ऊपर है। ऊपर होता तो प्राणों में उतरे। हमें भी वैसी प्यास जगे। जिस प्यास ने उन्हें महावीर उसकी गणना पहले करते। तो उसे प्रथम रखते। मात्मा बनाया, वही प्यास हमें भी परमात्मा बनाये। क्योंकि महावीर कहते हैं, ऐसे हैं कुछ धन्यभागी, जो केवल सुनकर अंततः प्यास ही ले जाती है। | पहुंच जाते हैं। जिन्हें कुछ और करना नहीं पड़ता। करना तो उन्हें जब प्यास इतनी सघन होती है कि सारा प्राण प्यास में पड़ता है जो सुनकर समझ नहीं पाते। तो करनेवाला सुनने से रूपांतरित हो जाता है, तो परमात्मा दूर नहीं। परमात्मा पाने के दोयम है, नंबर दो है। लिए कुछ और चाहिए नहीं। ऐसी परम प्यास चाहिए कि उसमें इसे समझना। सब कुछ डूब जाए, तल्लीन हो जाए। बुद्ध कहते थे, ऐसे घोड़े हैं कि जिनको मारो तो ही चलते हैं। तो फिर महावीर की चर्चा करें। और महावीर की फिर चर्चा ऐसे भी घोडे हैं कि कोडे की फटकार देखकर चलते हैं. मारने की करने में यह बात सबसे पहले समझ लेनी जरूरी है कि महावीर जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे भी घोड़े हैं कि कोड़े की छाया देखकर ने श्रवण पर बड़ा जोर दिया है। महावीर कहते हैं, सोया है चलते हैं। फटकारने की भी जरूरत नहीं पड़ती। आदमी, तो कैसे जागेगा? कोई पुकारे उसे, कोई श्रावक को सुनना काफी है। उतना ही जगा देता है। तुमने हिलाये-डुलाये, कोई जगाये। कोई उसे खबर दे कि जागरण का किसी को पुकारा, कोई जग जाता है। पर किसी को हिलाना भी कोई लोक है। सोया आदमी अपने से कैसे जागेगा। सोया पड़ता है। किसी के मुंह पर पानी फेंकना पड़ता है। तब भी वह तो जागने का भी सपना देखने लगता है। सोया तो सपने में भी करवट लेकर सो जाता है। श्रावक है वह, जिसने सुनी पुकार सोचने लगता है, जाग गये! भेद कैसे करेगा सोया हुआ आदमी और जाग गया। साधु है वह, जो करवट लेकर सो गया। कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है या सत्य? कोई जागा उसे | जिसको हिलाओ, शोरगुल मचाओ, आंखों पर पानी फेंको। जगाये। कोई जागा उसे हिलाये। इसलिए महावीर कहते हैं, श्रवण-सम्यक-श्रवण-सुधी व्यक्ति के लिए पर्याप्त है। सुनकर ही सत्य की यात्रा शुरू होती है। इशारा बहुत है बुद्धिमान को। महावीर ने कहा है, मेरे चार तीर्थ हैं। श्रावक का, श्राविका पहला सूत्र है आज काका; साधु का, साध्वी का। लेकिन पहले उन्होंने कहा, श्रावक सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। का, श्राविका का। श्रावक का अर्थ है, जो सुनकर पहुंच जाए। | उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।। 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 STERS __ 'सनकर ही कल्याण का-आत्महित का मार्ग जाना जा पीकर ही तुम समझ सकोगे कि सही है या गलत है। और तो सकता है।' सुनकर ही। 'सुनकर ही पाप का मार्ग भी जाना जा कोई उपाय नहीं। सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग | लेकिन अगर ठीक से सुना गया, तो सत्य की महिमा है कि जानकर जो श्रेयस हो उसका आचरण करे।' | ठीक से सुननेवाले को सत्य तत्क्षण हृदय में चोट करने लगता जाओ उनके पास, जो जाग गये हैं। बैठो उनके पास, जो जाग है। कहा गया अगर असत्य है, तो ठीक से सुनते समय ही साफ गये हैं। डूबो उनकी हवा में, जो जाग गये हैं। उनकी तरंगें तुम्हें हो जाता है कि असत्य है। तय नहीं करना पड़ता, विचार भी नहीं जगायें। सत्संग का इतना ही अर्थ है। सुनो उन्हें, जिन्होंने पाया | करना पड़ता। असत्य के कोई पैर ही नहीं हैं। पैर तो सत्य के हैं। है। उनके शब्दों में भी शून्य होगा। उनकी आवाज में भी मंत्र असत्य तो तुम्हारे हृदय तक जा ही नहीं सकता। असत्य तो होगा। उनके इशारे में भी तुम्हारे जीवन की नाव निर्मित हो | लंगड़ा है। असत्य तो बाहर ही गिर जाएगा। तुम अगर शांत बैठे जाएगी। सुनकर ही। और उपाय भी तो नहीं है। | सुनने को तैयार हो, तो घबड़ाओ मत कि कहीं ऐसा न हो कि गुरजिएफ कहता था-इस सदी का एक बहुत बड़ा असत्य भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य तो तभी प्रवेश करता है तीर्थंकर-कहता था, हमारी हालत ऐसे है जैसे रेगिस्तान में, जब तुम शांत, मौन श्रवण नहीं करते। तुम्हारी नींद के द्वार से ही - जंगल में, निर्जन में कुछ यात्री रात पड़ाव डालें। खतरा है। असत्य प्रवेश करता है। तुम्हारी मूर्छा से ही प्रवेश करता है। बीहड़ है। जंगली पशु हमला कर सकते हैं। डाकू-लुटेरे छिपे अगर तुम सजग होकर सुनने बैठे हो, तो असत्य गिर जाएगा हो। अनजान जगह हैं। अपना कोई नहीं, पहचान नहीं। ऐसा ही बाहर। तुम्हारी आंख का सामना न कर सकेगा असत्य। वह तो संसार है। तो क्या करे यात्रीदल? एक को जागता हआ छोड़ शांत सननेवाले के प्राण पर्याप्त हैं असत्य को देता है कि कम से कम एक जागता रहे, बाकी सो जाएं। फिर सत्य है, वही चला आयेगा चुंबक की तरह खिंचता हुआ। जो पारी-पारी से और लोग जागते रहते हैं। जो जागा है, वह खुद के | सत्य है वही तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह प्रवेश कर जाएगा। जो सोने के पहले किसी और को उठा देता है। कम से कम एक दीया असत्य है, बाहर रह जाएगा। तुम सत्य हो, तुम सत्य को ही तो जलता रहे अंधेरे में। कम से कम कोई एक तो जागकर देखता | खींच लोगे।। रहे। खतरा आये तो हमें सोया हुआ न पाये। लेकिन अगर तुमने ठीक से न सुना, अगर तुमने विचार किया, सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम जब सोये हो तब कोई तुमने सोचा, तुमने कहा यह ठीक है या नहीं, मेरी अतीत तुम्हारे पास में बैठा हुआ, जागा हुआ है। तुम तो सोये हो, तो मान्यताओं से मेल खाता, नहीं खाता, तो संभव है कि असत्य सपने में डूब जाओगे। तुम तो न-मालूम कितने वासनाओं, | तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य बहुत तार्किक है। जीवंत कल्पनाओं के लोक में भटक जाओगे। तुम तो न-मालूम कितने | तो जरा-भी नहीं, लेकिन बड़ा तर्कयुक्त है। मन के खेलों में डूब जाओगे। लेकिन जो जागा है, वह यथार्थ | सत्य के पास कोई तर्क नहीं, कोई प्रमाण नहीं। सत्य को देखता रहेगा। उसे सुनो। जब जागा हुआ कुछ कहे, तो अस्तित्ववान है, वही उसका प्रमाण है। इसलिए शास्त्र कहते हैं सुनो, समझो। सत्य स्वयं प्रमाण है। असत्य स्वयं अप्रमाण है। सुन लो ठीक जागे हुए के साथ तर्क का सवाल नहीं है, क्योंकि उसकी भाषा से। उस सुनने में ही चुनाव हो जाएगा। बड़ी और है। उससे तर्क करके तुम कुछ भी न पाओगे। उससे 'सोच्चा जाणइ कल्लाणं।' सुनकर ही कल्याण का पता चल तर्क करके केवल तुम बंद रह जाओगे। जागे के साथ तर्क नहीं जाता है कि क्या है कल्याण। ‘सोच्चा जाणइ पावगं।' सुनकर हो सकता। जागे के साथ तो केवल श्रवण हो सकता है। उससे ही पता चल जाता है कि पाप क्या है, गलत क्या है, अकल्याण विवाद नहीं हो सकता, केवल सुनना हो सकता है। वह जो कहे, | क्या है? और महावीर की बड़ी खूबी है; वे कहते हैं मेरे पास उसे पीओ। वह जो कहे, तुम्हारे सोचने का सवाल उतना नहीं है कोई आदेश नहीं है। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम ऐसा करो। जितना पीने का सवाल है। क्योंकि वह जो कह रहा है, उसे | महावीर कहते हैं, तुम सिर्फ सुन लो। 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण 'अतः सुनकर हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो कि यह मुर्दा है। आधा सत्य खतरनाक है। क्योंकि आधे सत्य में श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।' | थोड़ी-सी प्राणों की झलक है। श्वास अभी चलती है, मरीज महावीर यह भी नहीं कहते कि पाप को छोड़ो। कहने की | अभी मरा नहीं। लगता है जिंदा है। अभी शरीर थोड़ा गरम है, जरूरत नहीं। ठीक से सुननेवाले को पाप पकड़ता ही नहीं। ठंडा नहीं हो गया है। खून अभी बहता है। लगता है जिंदा है। महावीर यह भी नहीं कहते कि सत्य का अनुसरण करो। यह आधा सत्य असत्य से बदतर है। इसलिए महावीर का सारा बात ही व्यर्थ होगी। जिसने ठीक से सुना है वह सत्य के संघर्ष आधे सत्यों के खिलाफ है, असत्य के खिलाफ नहीं। अनुसरण में लग जाता है। अनुसंधान में लग जाता है। इसका उन्होंने कहा असत्य तो सुनकर ही समझ में आ जाता है कि यह अर्थ हुआ–सम्यक-श्रवण कुंजी है सत्य के द्वार की। असत्य है। लेकिन आधे सत्य बड़े भरमाते हैं। जिसके हाथ में सम्यक-श्रवण है, वह पहुंच जाएगा। उसे कोई महावीर ने एक नये जीवन-दर्शन को जन्म दिया। उसे कहा, रोक न सकेगा। स्यातवाद। उसे कहा, अनेकांतवाद। उसे कहा कि मैं सारे इसे हम थोड़े वैज्ञानिक अर्थों में समझें।। एकांगी सत्यों को इकट्ठा कर लेना चाहता हूं। ये पांचों अंधों ने आदमी के पास आंख है देखने को, कान हैं सुनने को। आंख जो कहा है हाथी के संबंध में, यह सभी सच है। और सत्य इन से जब तुम देखते हो, तो एक ही दिशा में देख सकते हो। आंख | सभी का इकट्ठा जोड़ है, समन्वय है। बहु-आयामी नहीं है। 'मल्टी-डायमेंशनल' नहीं है। एक कान की खूबी है कि कान आंख से ज्यादा समग्र है। जब तुम तरफ देखो, तो सब दिशाएं बंद हो जाती हैं। आंख एकांगी है। सुनते हो तो चारों दिशाओं से सुनते हो। कान ऐसे हैं जैसे दीया आंख एकांत है। इसलिए महावीर का जोर कान पर ज्यादा है, जले। सब तरफ प्रकाश पड़े। आंख ऐसे हैं जैसे टार्च। एक आंख की बजाय। कान बहु-आयामी है। आंख बंद करके दिशा में। एकांगी। महावीर कहते हैं कि दर्शनशास्त्र एकांगी है। सुनो, तो चारों तरफ की आवाजें सुनायी पड़ती हैं। आंख समग्र श्रवणशास्त्र बहु-अंगी है। इसलिए महावीर ने एक बड़ी को नहीं ले पाती। कान समग्र को भीतर ले लेता है। यह पहली क्रांतिकारी प्रज्ञा दी। उन्होंने कहा कि सुनो। अगर ध्यान में जाना बात खयाल में लेने की! | है, तो सुनकर जल्दी जा सकोगे, बजाय देखकर। इसलिए आंख से जब भी तम देखते हो, तो एक दिशा में, एक रेखा में। समस्त ध्यानियों ने आंख बंद कर लेनी चाही है। समस्त ध्यान उतनी रेखा को छोड़कर शेष सब बंद हो जाता है। आंख है जैसे | की प्रक्रियाएं कहती हैं आंख बंद कर लो। टार्च। एक दिशा में प्रकाश की धारा पड़ती है। लेकिन शेष सब यह भी थोड़ा समझने जैसा है कि परमात्मा ने आंख को ऐसा अंधकार में हो जाता है। बनाया है कि चाहो तो खोल लो, चाहो तो बंद कर लो। कान को महावीर कहते हैं, यह एकांगी होगा; यह एकांत होगा। तुम ऐसा नहीं बनाया। कान खुला है। बंद करने का उपाय नहीं। एक पहलू को जान लोगे, लेकिन शेष पहलुओं से अनजान रह आंख तुम्हारे हाथ में है। कान अब भी परमात्मा के हाथ में है। जाओगे। यह ऐसा ही होगा जैसे उन पांच अंधों की कथा है, जो तुम्हारे वश में नहीं कि तुम उसे खोलो, बंद करो। सदा खुला है। हाथी को देखने गये थे। सबने हाथी के अंग छुए, लेकिन सभी तुम्हारी गहरी से गहरी नींद में भी कान खुला है। आंख तो बंद का दर्शन–अंधे थे, सभी की प्रतीति एकांगी थी। जिसने पैर है। जब तुम मूर्छा में खोये हो, तब भी कान खुला है। आंख तो छुआ उसने सोचा कि हाथी खंभे की भांति है। जिसने कान छुए बंद है। नींद में पड़े आदमी के पास जागा आदमी खड़ा रहे, तो उसने सोचा कि हाथी पंखे की भांति है। अलग-अलग। वे सभी देख न पायेगा। नींद में पड़ा आदमी देखेगा कैसे, आंख तो बंद सत्य थे, लेकिन सभी अधूरे सत्य थे। | है। लेकिन अगर वह आदमी उसका नाम ले, आवाज दे, तो सुन और महावीर कहते हैं, अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर है। तो पायेगा। क्योंकि असत्य को तो पहचानने में कठिनाई नहीं, वह तो निष्प्राण हम सोये हैं। श्रवण से रास्ता मिलेगा। आंख तो हमारी बंद ही है, वह तो लाश की तरह है। उसको तो तुम समझ ही जाओगे है। और खुली भी हो तो ज्यादा से ज्यादा अधूरा सत्य देख 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सुत्र सकती है। पूरा सत्य आंख के वश में नहीं है। तुम्हारे हाथ में मैं ज्यादा देर तक गपशप में लगा रहा। रात बहुत बीत गयी। एक छोटा-सा कंकड़ दे दूं और तुमसे कहूं इसे पूरा एक-साथ | चौंककर उठा, उसने कहा बहुत देर हो गयी, अब घर जाऊं। देख लो, तो तुम न देख पाओगे। आंख इतनी कमजोर है! एक मित्र ने कहा, आज भाभी तो बहुत इत्र-पान करेंगी। मुल्ला ने हिस्सा देखेगी, दूसरा हिस्सा दबा रह जाएगा। एक छोटा-सा | कहा तूने मुझे समझा क्या है? अगर घर जाते ही पहला शब्द कंकड़ भी तुम पूरा नहीं देख सकते, तो पूरे परमात्मा को, पूरे पत्नी से प्रीतम न निकलवा लूं, तो मेरा नाम बदल देना। या तेरी सत्य को कैसे देख सकोगे? इसलिए जिन्होंने देखने पर जोर | जिंदगी भर गुलामी कर दूंगा। मित्र भलीभांति मुल्ला की पत्नी दिया है, उन्होंने अधूरे दर्शनशास्त्र जगत को दिये हैं। महावीर का को जानता है, उसने कहा कोई फिक्र नहीं, दो मील चलना दर्शनशास्त्र परिपूर्ण है, समग्र है। जोर बड़ा भिन्न है। सनो। पडेगा-इस अंधेरी रात में लेकिन मैं आता हं. शर्त रही। / सत्य को देखना नहीं, सत्य को सुनना है। सत्य कोई वस्तु थोड़े नसरुद्दीन घर गया। उसने जाकर द्वार पर दस्तक दी और जोर ही है कि तुम उसे देख लोगे। सत्य तो किसी व्यक्ति का अनुभव से बोला, 'प्रीतम आ गये हैं।' पत्नी चिल्लायी अंदर से, है। वह कहेगा तो तुम सुन लोगे। महावीर खड़े रहें तुम्हारे | 'प्रीतम जाएं भाड़ में।' उसने मित्र से कहा, 'देखा, कहलवा समक्ष, तुम कुछ भी न देख पाओगे। बहुतों ने महावीर को देखा लिया न! पहला शब्द प्रीतम निकलवा लिया न।' था और कुछ भी न देखा। गांव-गांव खदेड़े गये। पत्थर मारे अगर कोई धारणा है, अगर पहले से कोई पक्षपात है, तो तुम गये। गांव-गांव निकाले गये। महावीर को देखने में क्या कुछ का कुछ सुन लोगे। तुम सत्य को अपने हिसाब से ढाल अड़चन आती थी? | लोगे। तुम उसे असत्य कर लोगे। ऐसे ही तो लोग चूके महावीर इस महिमावान पुरुष को ऐसा तिरस्कार क्यों झेलना पड़ा? को, बुद्ध को, कृष्ण को, जरथुस्त्र को, जीसस को। कुछ का लोग अंधे हैं। दिखायी उन्हें पड़ता ही नहीं। सुन सकते हैं। कुछ सुन लिया। कहा था कुछ, सुन लिया कुछ। सुननेवाले के इसलिए सुनने की कला को सीख लेना धर्म के जगत में पहला पास अपना मन था, अपना मजबूत मन था, उसने मन के माध्यम कदम है। से सुना। मन को हटाकर सुनो, तो महावीर का श्रवण समझ में क्या है सुनने की कला? कैसे सुनोगे? जब सुनो, तो सोचना आयेगा। मन को किनारे रख दो, जहां तुम जूते उतार आये हो मत। क्योंकि तुमने अगर सोचा सुनते समय, तो तुम वह न सुन वहीं मन को उतार आना। एक बार जूते भी मंदिर में ले आओ तो पाओगे जो कहा गया। कुछ और सुन लोगे। सुनते समय इतना अपवित्र नहीं, मन को मंदिर में मत लाना। नहीं तो मंदिर में पूर्व-धारणाओं को लेकर मत चलना। नहीं तो पर्व-धारणाएं पर्दे | कभी आ ही न सकोगे। का काम करेंगी। रंग घोल देंगी जो कहा गया है उसमें। तुमने "सुनकर ही कल्याण का, आत्महित का मार्ग जाना जा सकता कभी खयाल किया, रात तुम अलार्म लगाकर सो गये हो, चार है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जा सकता है।' बजे उठना है ट्रेन पकड़ने। और जब अलार्म बजता है, तो तम श्रवण की कला आते ही तम दध और पानी को अलग-अलग एक सपना देखते हो कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अलार्म करने में कुशल हो जाते हो। विवेक का जन्म होता है। तुम हंस खतम! तुमने एक सपना बना लिया। हो जाते हो। इसीलिए तो हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। अब घड़ी एलार्म बजाती रहे, क्या करेगी घड़ी? तुमने एक | परमहंस का अर्थ है, गलत को और सही को वे तत्क्षण अलग तरकीब निकाल ली। तुमने कुछ और सुन लिया! सुबह तुम कर लेंगे। उनकी आंख, उनकी दृष्टि, उनकी भावदशा बड़ी हैरान होओगे कि हुआ क्या? अलार्म भरा था, अलार्म बजा भी, साफ है, निर्मल है। जो जैसा है उसे वे वैसा ही देख लेते हैं। जैसे मैं चूक क्यों गया? तुम्हारे पास अपनी एक धारणा थी, एक को तैसा देख लेते हैं। उसमें कुछ जोड़ते नहीं। फिर कोई भ्रांति सपना था। तो अगर तुमने सुना कोई पक्षपात के साथ, तो तुम खड़ी नहीं होती। कुछ का कुछ सुन लोगे। बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ __ हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANANMAMINAKAMANARAMANANAWARANANMEANINNAMAMANNARAAMANAMAMANRNNIMAMAMANNEL सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण / तुम भी गुजरे हो। मंदिर के आसपास ही परिक्रमा चल रही है। आंख आक्रामक है, कान ग्राहक है। और महावीर की अहिंसा क्योंकि परमात्मा सब जगह मौजूद है। कहीं भी जाओ, उसी के इतनी गहरी है कि वह आंख का उपयोग न करेंगे। क्योंकि आंख पास परिक्रमा चल रही है। कुछ भी देखो, तुमने उसी को देखा में आक्रमण है। जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो मेरी आंख तुम तक है। कुछ भी सुनो, तुमने उसी को सुना है। कोयल पुकारी हो, गयी। जब मैं तुम्हें सुनता हूं, तब मैंने तुम्हें अपने भीतर लिया। कि झरने की आवाज हो, कि जलप्रपात हो, कि हवाएं गुजरी हों जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो देखने में एक आक्रमण है। इसलिए वृक्षों से, वही गुजरा है। लेकिन, तुम उसे पहचान नहीं पाते। कोई आदमी तुम्हें घूरकर देखे, तो अच्छा नहीं लगता। कोई तुम्हें बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल गौर से सुने, तो बहुत अच्छा लगता है, खयाल किया? गौर से हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं सुननेवाले को तुम बड़ा प्यार करते हो। लोग तलाश में रहते हैं, मंजिल तो तुम्हारे भीतर है; गुजर चके, यह कहना भी ठीक | कोई मिल जाए सुननेवाला। नहीं। जहां तुम सदा से हो, मंजिल वहीं है। कसौटी तुम्हारे पास | पश्चिम में, जहां कि सुननेवाले कम होते चले गये हैं, नहीं। सोने का ढेर लगा है चारों तरफ, तुम्हारे पास सोने को मनोविश्लेषक है। वह 'प्रोफेशनल' सुननेवाला है। कसने का पत्थर नहीं। हीरे-जवाहरात बरस रहे हैं चारों तरफ, | व्यवसायी। उसे पैसे चुकाओ, वह घंटे भर बड़े गौर से सुनता तुम्हारे पास जौहरी की आंख नहीं। है। पता नहीं सुनता है कि नहीं सुनता, लेकिन जतलाता है कि और महावीर कहते हैं, श्रवण पहला सूत्र है। सुनो। ऐसा | सुनता है। कभी भी नहीं हुआ है पृथ्वी पर कि जागे पुरुष न रहे हों। ऐसा लोग बड़े प्रसन्न लौटते हैं मनोवैज्ञानिक के पास से। वह कुछ होता ही नहीं। उनकी शृंखला अनवरत है। अनुस्यूत हैं वे। भी नहीं करता। वह कहता है सिर्फ तुम बोलो, हम सुनेंगे। अस्तित्व में प्रतिपल कोई न कोई जागा हुआ पुरुष मौजूद है। सुननेवाला इतना भला लगता है, इतना ग्राहक! तुम्हें स्वीकार अगर तुम सुनने को तैयार हो, तो परमात्मा तुम्हें पुकार ही रहा करता है। लेकिन अगर कोई तुम्हें गौर से देखे, तो अड़चन आती है। कभी महावीर से, कभी कृष्ण से, कभी मुहम्मद से। वह है। मनस्विद कहते हैं तीन सेकेंड तक बर्दाश्त किया जा सकता तुम्हें हजार ढंगों से पुकारता है। वह हजार भाषाओं में पुकारता है। वह सीमा है। उसके आगे आदमी लुच्चा हो जाता है। लुच्चे है। वह हजार तरह से तम्हारे हाथ हिलाता है। लेकिन तम हो कि का मतलब, गौर से देखनेवाला। और कछ मतलब नहीं। जो तुम सुनते नहीं। मतलब आलोचक का होता है, वही लुच्चे का होता है। दोनों मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर एक ही शब्द से बने हैं—लोचन, आंख। लुच्चे का अर्थ है, जो रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर तुम्हें घूरकर देखे। आलोचक का भी यही अर्थ होता है कि जो अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा चीजों को घर-घूरकर देखे, कहां-कहां भूल है। दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा / लेकिन तुम गौर से सुननेवाले को बड़ा आदर देते हो। घूर के और मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर, रात ही देखनेवाले को बड़ा अनादर। हां, किसी से तुम्हारा प्रेम हो, तो तारी रही इंसान के इद्राक पर। सूरज चमकता ही रहा है, सदियों तुम क्षमा कर देते हो। वह तुम्हें गौर से देखे, चलेगा। लेकिन से, सदा से। सूरज इस अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। लेकिन जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तो तीन सेकेंड से ज्यादा आंख आदमी अंधेरे में ही जीता है। आदमी अपने भीतर बंद है। ऐसा नहीं टिकनी चाहिए किसी पर। वहां से शिष्टाचार समाप्त हो समझो कि सूरज निकला हो और तुम घर के भीतर द्वार-दरवाजे जाता है। वहां से बात अशिष्ट हो जाती है। तो हम रास्ते पर बंद किये बैठे हो। फिर सूरज करे भी तो क्या? द्वार-दरवाजे आंखें बचाकर चलते हैं। देखते भी हैं, नहीं भी देखते हैं। दुबारा खोलो, थोड़े ग्रहणशील बनो। कान का यही अर्थ है। कान | लौटकर नहीं देखते। देखने का मन भी हो, तो भी आंखें प्रतीक है ग्रहणशीलता का। यहां-वहां कर लेते हैं। इसे भी समझ लेना। तुमने कभी खयाल किया, लोग एक-दूसरे की आंखों में आंखें 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 - डालकर बात नहीं करते, क्योंकि वह बेहूदगी है। लोग तुम्हारे सामने वस्त्र गिरा देती है। वस्त्र खींचने नहीं पड़ते। इधर-उधर देखते हैं। बात एक-दूसरे से करते हैं, देखते प्रेयसी खुद ही उघड़ने को राजी होती है। आतुर होती है। सत्य कहीं-कहीं हैं। कोई आदमी ठीक तुम्हारी आंखों में देखकर बात स्वयं उघड़ने को आतुर है, लेकिन प्रेम से उघड़ेगा। आक्रमण से करे, तुम बेचैनी अनुभव करोगे, तुम्हें पसीना आने लगेगा। तुम नहीं। परमात्मा खुद बूंघट उठाने के लिए तैयार है, तैयार नहीं थोड़े घबड़ाओगे कि मामला क्या है? कोई जासूस है ? सरकारी बड़ा प्रतीक्षारत है, लेकिन जबर्दस्ती से न होगा। आंख में थोड़ी आदमी है? मामला क्या है, ऐसा गौर से क्यों देखता है? या जबर्दस्ती है। कान में कोई भी जबर्दस्ती नहीं। कान कहीं जा नहीं पागल है? प्रयोजन होगा कुछ। कुछ तलाश कर रहा है, कुछ सकता। ध्वनि कान तक तैरकर आती है। खोज रहा है। कान रिक्त है, आंख भरी हुई है। आंख में पर्त दर पर्त विचारों कान ग्राहक है। आंख सक्रिय है। कान निष्क्रिय-स्वीकार है। की हैं, पर्त दर पर्त बादलों की हैं। आंख में बड़े पर्दे हैं। कान कान ऐसे है जैसे कोई द्वार को खोलकर अतिथि की प्रतीक्षा करे। बिलकुल खाली है। कान के पास कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक सत्य निमंत्रित करना है। सत्य को बुलाना है। सत्य को कहना तंतु-जाल है। चोट होती है, कान सजग हो जाता है, स्वीकार है, द्वार खुले हैं, आओ। आंखें बिछा रखी हैं, आओ। मैं तैयार कर लेता है। हूं, आओ। तुम मुझे सोया हुआ न पाओगे, आओ। दरवाजे बंद महावीर कहते हैं, जो सुनेगा—ठीक से सुनेगा, न होंगे, तुम्हें दस्तक देने की भी तकलीफ न होगी, आओ। सम्यक-श्रवण, 'राइट लिसनिंग'; कृष्णमूर्ति जिसको कहते हैं आंख खोजने जाती है। कान प्रतीक्षा करता है। इसे ऐसा 'राइट लिसनिंग', ठीक से जो सुनेगा–सत्य अपने-आप समझो। आंख पुरुष है। कान स्त्री है। पुरुष सक्रिय है, असत्य से अलग हो जाता है। दूध दूध, पानी पानी हो जाता है। आक्रामक है। स्त्री ग्राहक है। पुरुष जन्म नहीं दे सकता बच्चे ठीक से सुनने से तुम परमहंस हो जाते हो। को, स्त्री देती है। उसके पास गर्भ है। वह अपने भीतर लेने को मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर राजी है। सत्य भी तुम्हारे गर्भ में प्रवेश पाये, तो ही जन्म हो रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर सकेगा। सत्य को तुम्हें जन्माना होगा। यह कहीं रखा नहीं है कि और आदमी के बोध पर अंधेरा छाया रहा, और सूरज था कि गये और उठा लिया और आ गये। या बाजार में बिकता है, चमकता ही रहा। खरीद लिया, या दाम चुका दिये। यह तो तुम्हें जन्म देना होगा। अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा और प्रसव की पीड़ा से गुजरना होगा। तुम्हें स्त्री-जैसा होना दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा होगा। समस्त धर्म के खोजियों ने इस बात पर बहत जोर दिया है। फिर कभी-कभी किसी महावीर के पास थोडी-सी झलक कि सत्य को पाना हो, तो स्त्रैण ग्राहकता चाहिए। स्वीकार का | मिलती है। भाव चाहिए। कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे-सहर देखा तो है श्रद्धा स्वीकार है, तर्क खोज है। विज्ञान खोजता है। धर्म | जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है प्रतीक्षा करता है। विज्ञान जाता है कोने-कांतर, उघाड़ता है, किसी महावीर के पास, किसी महावीर की वाणी को जबर्दस्ती भी करता है। विज्ञान एक तरह का बलात्कार है। | सुनकर-जिस तरफ कभी देखा ही न था...भूल ही गये थे, अगर प्रकति राजी नहीं है अपने पर्दे उठाने को, अगर प्रकति राजी | सोचा ही न था कि वह भी कोई आयाम है...उस तरफ देखा तो नहीं है चूंघट हटाने को, तो विज्ञान दुर्योधन-जैसा है। वह द्रौपदी | है। माना कि अभी यह सपना है। पहली दफे जब महावीर की को नग्न करने की चेष्टा करता है। उसमें बलात चेष्टा है। वाणी किसी के हृदय में उतरती है, नाचती, धूघर बजाती, संगीत आक्रमण है। की तरह मधुर, मधु की तरह मीठी, जब पोर-पोर हृदय में प्रवेश धर्म प्रतीक्षा है। धर्म भी उघाड़ लेता है संसार को। धर्म भी करती है, तो एक नये स्वप्न का प्रादुर्भाव होता है। सत्य के स्वप्न | सत्य को उघाड़ लेता है, लेकिन प्रेमी की तरह। तुम्हारी प्रेयसी का प्रादुर्भाव। पहली बार याद आनी शुरू होती है जिसको हम Jair Education International 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2- ARAT953035MARRANEE -सत्य के द्वार की कुंजी: सम्यक-श्रवण भूले बैठे हैं और जो हमारा है। और जो हमारा स्वभाव है और फिर महावीर कहते हैं, 'उभयं पि जाणए सोच्चा।' दोनों देख जिसकी तरफ हमने पीठ कर ली है। और जिसकी तरफ हमने | लिये। क्या है सत्य, क्या असत्य। देख लिया क्या है आंख उठानी बंद कर दी है और जिस तरफ हमने पहुंचना ही | मंगलदायी, क्या अमंगलदायी। 'जं छेयं तं समायरे।' यह छोड़ दिया है। हम भल ही गये हैं कि घर भी लौटना है। बढ़ते ही उनकी बड़ी अनूठी बात है। वह जरा भी किसी पर अपने को चले जाते हैं संसार में। आरोपित नहीं करना चाहते। वह कहते हैं, फिर तुम्हारी अपनी लेकिन यह स्वप्न! इच्छा। फिर तुम्हें जो श्रेयस्कर लगे। वह यह नहीं कहते कि तुम कुछ नहीं तो कम से कम ख्बाबे-सहर देखा तो है सत्य का अनुसरण करना। यह तो बात ही गलत हो जाएगी। यह सुबह का सपना ही सही अभी, किसी की वाणी से पहली | सत्य को जानकर कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने अनुसरण न दफा तरंगें उठी हैं, और सुबह का भाव, सुबह का बोध जगा है। | किया हो? वह यह नहीं कहते कि असत्य का त्याग करना। जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है | ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि असत्य को जानकर और त्याग न हो लेकिन यह तभी संभव होगा, जब तुम्हारा हृदय शून्य और गया हो। कंकड़-पत्थर पहचान लिए कंकड़-पत्थर हैं फिर कौन शांत हो, मौन हो। तिजोड़ी में रखता है? हां, जब तक हीरों का भ्रम था तब तक मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नदी के किनारे से गुजर रहा तिजोड़ी में संभाले बैठे थे। जिस दिन पहचान आ जाती है था। सांझ घिरने लगी। सूरज ढल चुका है। और एक आदमी कूड़ा-कर्कट, कूड़ा-कर्कट है, उसे घर के बाहर हम फेंक आते डूब रहा है; और वह आदमी चिल्लाया, सहायता करो, | हैं। त्याग थोड़े ही करना पड़ता है, उद्घोषणा थोड़े ही करनी सहायता करो, मैं डूब रहा हूं! मुल्ला किनारे पर खड़ा है, वह पड़ती है कि देखो, आज हम बड़ा त्याग कर रहे हैं, सारा बोला हद्द हो गयी; अरे, डूबने में किसी से क्या सहायता की कूड़ा-कर्कट कचरे-घर में डाल रहे हैं। जब कूड़ा-कर्कट हो जरूरत, डूब जाओ! इसमें सहायता की क्या जरूरत है! गया, तो त्याग कैसा! तुम कुछ का कुछ सुन ले सकते हो। इससे सावधान रहना। इसलिए ध्यान रखना, महावीर त्याग करने को नहीं कहते। लेकिन जब तक तुमने मन को बिलकुल हटाकर न रखा हो, तुम वह तो कहते हैं सिर्फ जागकर देख लो; जो ठीक है, वही तुम्हारा कुछ का कुछ सुनोगे ही। मार्ग हो जाएगा, जो गलत है, उस पर कभी कोई गया ही नहीं। इसलिए ध्यान श्रवण के लिए मार्ग बनाता है। ध्यान का अर्थ जानकर कभी कोई ने दीवाल से निकलने की कोशिश की है? है, मन की सफाई। ध्यान का अर्थ है, अ-मन की तरफ यात्रा। द्वार दिख गया, फिर लोग द्वार से निकलते हैं, कौन सिर तोड़ता है |-ध्यान का अर्थ है, थोड़ी घड़ियों को मन की धूल से चित्त के दर्पण दीवाल से! को बिलकुल साफ कर लेना। महावीर के पास लोग आते, तो फिर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।' फिर तुम्हें जो महावीर कहते-कुछ देर ध्यान, फिर सुनना। श्रेयस्कर लगे, इतने बलपूर्वक महावीर कहते हैं कि फिर जो इसलिए मैं इतना जोर देता हं ध्यान पर। तम मझे सीधा-सीधा श्रेयस्कर हो, क्योंकि वह जानते हैं कि सत्य श्रेयस्कर है। पहचान न सुन सकोगे। कई बुद्धिमान आ जाते हैं, वह कहते हैं ध्यान भर की कमी है। ज्ञान भर की कमी है। वगैरह से हमें कुछ मतलब नहीं, हमें तो आपको सुनने में मजा अक्सर लोग मेरे पास आते हैं, वह कहते हैं हमें पता है कि आता है। मर्जी आपकी! लेकिन यह मजा कहीं ले जानेवाला | ठीक क्या है, लेकिन क्या करें गलत हो जाता है। पता संदिग्ध नहीं। यह बुद्धि की खुजलाहट है। खुजलाने से थोड़ा अच्छा है। कहते हैं हमें मालूम है कि क्रोध बुरा है, लेकिन हो जाता है। लगता है, मीठा-मीठा लगता है। जल्दी ही लहूलुहान हो कहते हैं, बहुत बार कसम भी खायी, व्रत भी लिया, फिर भी हो जाएंगे। नहीं, इससे कछ सनने से सार न होगा। क्योंकि सच तो जाता है। तो इसका अर्थ इतना ही है कि अभी जाना नहीं कि यह है, सुन तुम पाओगे ही न बिना ध्यान के। ध्यान तुम्हें तैयार क्रोध बुरा है। अभी क्रोध की आग अनुभव नहीं बनी। अभी करेगा कि तुम सुन सको। क्रोध का जहर खुद के कंठ को जलाया नहीं। किसी और ने कहा 2010_03 www.jainelibrar org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 होगा, सुना होगा, शास्त्र में पढ़ा होगा, लेकिन अभी तुम्हारे संन्यास बोध की छाया है। संन्यास समझ की प्रगाढ़ता है। जीवन का अनुभव नहीं बना। शास्त्र से उधार लिया होगा। सभी संन्यास सम्यक-बोध, केवल सम्यक-बोध है। शुद्ध, सार बोध शास्त्र कहते हैं क्रोध बुरा है। सुनते-सुनते तुम भी मानने लगे हो है। चेष्टा नहीं है। अगर तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम कि क्रोध बुरा है। लेकिन, तुम्हारे प्राणों ने अभी इसकी गवाही जबर्दस्ती करोगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम खंड-खंड | नहीं दी। और जब तक तम गवाही न बनो, तब तक जीवन में हो जाओगे। तुमने चेष्टा से कछ साधा, तो तम दो टुकड़ों में ट कोई क्रांति नहीं होती। उधार ज्ञान से क्रांति नहीं होती। | जाओगे। एक टुकड़ा जिस पर तुम जबर्दस्ती कर रहे हो और एक ज्ञान तुम्हारा होना चाहिए। दूसरे जाग गये इससे कुछ न होगा, टुकड़ा जो जबर्दस्ती कर रहा है। तुम्हारे भीतर बड़ी आत्म-हिंसा जाग तुम्हारी होनी चाहिए। सुन लो उन्हें, उनकी पुकार से जागो, शुरू हो जाएगी। लेकिन जैसे ही आंख खुलेगी तत्क्षण तुम देख लोगे कि सपना दूसरा सूत्रसपना है, सत्य सत्य है। फिर कोई सपने को थोड़े ही चुनता है! और फिर ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यक दर्शन-मूलक तप, 'जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए।' महावीर ने नियम, संयम में स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यंत कहा है, मैं कोई आदेश नहीं देता, मैं जो कहता हूं वह सिर्फ निष्कंप (स्थिर चित्त) होकर विहार करता है।' उपदेश है, आदेश नहीं। क्योंकि मैं कौन हूं, जो तुमसे कहूं ऐसा और जिसने जान लिया सत्य क्या है, उसके जीवन में एक नयी करो। ऐसा करना कहते ही हिंसा हो जाएगी। मैं तुम्हें दबाने ही ऊर्जा का आविर्भाव होता है। निष्कंप हो जाता है चित्त। चित्त लगा। मैं तुम्हें ढालने लगा। महावीर कहते हैं, तुम परम | कंपता तभी तक है, जब तक हमें सत्य और असत्य का बोध स्वातंत्र्य हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से ही तुम्हारा अनुशासन | नहीं। तब तक डांवाडोल होता है, यह करूं या वह करूं? यहां निकले। और तुम्हारे अनुभव से ही तुम्हारा आचरण बने। तो ही | जाऊं, या वहां जाऊं? मंदिर कि वेश्यालय? ऐसा डोलता है। सार्थक है। अन्यथा जन्मों-जन्मों तक धोखा चलता रहता है। धन कि ध्यान ? ऐसा डोलता है। शरीर कि आत्मा? ऐसा जैसे ही समझ की जरा-सी झलक आती है डोलता है। जब तक तुम्हारे भीतर सत्य और असत्य की कोई दम में हयाते-नौ का फिर परचम उठाता हूं ठीक-ठीक प्रतीति नहीं है तब तक तुम्हें असत्य में सत्य की भ्रांति बईमां-ए-हमीयत जान की बाजी लगाता हूं होती रहती है। सत्य में असत्य की भ्रांति होती रहती है। मन मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं डांवाडोल रहता है। इस डांवाडोल चित्त के कारण ही तो बेचैनी मझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज से आखिर है, अशांति है। महावीर कहते हैंजैसे ही समझ आनी शुरू होती है, यात्रा बदली। मैं जाऊंगा, णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा। मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना ही है इक दिन विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।। तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। एक दिन जाना ही है, तो रुकने का जिसने सत्य की प्रतीति की, वह निष्कंप हो जाता है। जिसको अर्थ क्या? मौत आनी ही है, तो जीवन को पकड़ने का सार कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है। ठहर जाती है उसकी प्रज्ञा। क्या? जिस जीवन में मौत घटनी ही है, वह जीवन मौत की ही ऐसी ठहर जाती है, जैसे बंद घर में दिया जलता हो, जहां हवा का तैयारी है। जिस जीवन में मौत आती ही है, वह जीवन मरा हुआ कोई झोंका न आता हो। निष्कंप हो जाती है वह लौ। ऐसी भीतर है, वह वास्तविक जीवन नहीं। जो मुझसे छीन ही लिया जाना है, चेतना की लौ निष्कंप हो जाती है। कुछ चुनने को न उसे रोकने की चेष्टा करने से सार क्या है? जो मुझसे छिन ही रहा-चुनाव हो गया, सत्य को जानते ही चुनाव हो गया। सत्य जाएगा, उस साम्राज्य को बनाने का पागलपन बस पागलपन ही | को जानते ही निर्णय हो गया। जीवन की दिशा उपलब्ध हो है। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना | गयी; अर्थ, अभिप्राय आ गया। अब कुछ चुनाव नहीं करना है एक दिन तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। जैसे ही बोध जगना शुरू | है। अब व्यक्ति सत्य की तरफ ऐसे ही बहने लगता है जैसे होता है, जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है। नदियां सागर की तरफ बह रही हैं। 12 Jan Education International 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण हम साधारणतः नदी के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि बिना जले तुम चेतोगे नहीं। उस आग को बुझाओ मत, हमारी कोशिश असंभव को संभव बनाने की है। हम स्वभाव के पानी मत फेंको-व्रत और नियम, कसमें, इनका पानी फेंककर प्रतिकूल चेष्टा में रत हैं। हम इस जीवन को, जो केवल अंगारों को बुझाओ मत—आग को जलने दो, आग को क्षणभंगुर है, शाश्वत बनाने की आयोजना कर रहे हैं। हम प्रज्वलित होने दो, आग को पूरी तरह जलने दो, ताकि तुम्हें दग्ध मिट्टी-पत्थर को हीरे-जवाहरातों की तरह छाती से लगाने की कर जाए, ताकि तुम्हें अनुभव हो जाए कि क्रोध कैसी अग्नि है! कोशिश कर रहे हैं। हम हड्डी-मांस-मज्जा की देह को अपना वही अनुभव तुम्हें क्रोध की तरफ जाने से रोक लेगा। फिर जीवन शाश्वत घर समझने की, समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी में एक नियम आता है। वह नियम कसम से आया नियम नहीं चेष्टा है कि किसी तरह दो और दो चार न हों, पांच हो जाएं। हो | है। वह नियम बोध से आया नियम है। नहीं सकता। संसार में असफलता मिलती है, क्योंकि सांसारिक | 'और संयम में स्थित होकर विशुद्ध साधक जीवनपर्यंत मन की चेष्टा असंभव को पूरा करने की चेष्टा है। | निष्कंप, स्थिर-चित्त होकर विहार करता है।' जिस व्यक्ति को सत्य और असत्य दिखायी पड़ने शुरू हो महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे गये, शुद्ध निर्मल प्रतीति होनी शुरू हुई, उसके जीवन में तप, | जीए, 'विहार' कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को नियम, संयम अपने-आप उतर आते हैं। इन्हें लाना नहीं पड़ता। | समझना। विहार का मतलब है-विहार बड़े सुख की, महासुख इन्हें खींच-खींचकर आयोजना नहीं करनी पड़ती। एक बात सूत्र की दशा है—जब चित्त बिलकुल स्थिर हो जाता है, जब कोई की तरह याद रखना, जिसे खींच-खींचकर लाना पड़ता हो, वह चीज डांवाडोल नहीं करती, कोई विकल्प मन में नहीं रह जाते आएगा नहीं। इस जगत में जबर्दस्ती कुछ घटता ही नहीं। सत्य | | और चित्त निर्विकल्प होता है; जब तुम्हारी दिशा सत्य की तरफ सहज है। इसलिए जब तक साधना सहज न हो, तब तक तुम सीधी और साफ हो जाती है, जब तुम रोज-रोज रास्ते नहीं व्यर्थ ही कष्ट अपने को दे रहे हो। बदलते, जब तुम्हारा प्रवाह संयत हो जाता है, तब तुम्हारे जीवन न मालूम कितने लोग अकारण खुद को पीड़ा देने में लगे रहते में एक महासुख का आविर्भाव होता है, वैसे महासुखी का हैं। कोई उपवास कर रहा है, कोई धूप में खड़ा है, कोई रात सोता | जहां-जहां विचरण होता है, वह भूमिखंड भी सुख से भर जाता नहीं, कोई दिन-रात खड़ा रहता है—वर्षों से खड़ा है, कोई कांटों है; वह भूमिखंड भी, हवा के कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत भी, पर लेटा है, ये सारे के सारे लोग रुग्ण लोग हैं। यह तप नहीं है। नदी-नाले भी उसकी आंतरिक-आभा को झलकाने लगते हैं। यह तो एक तरह की आत्महिंसा है। ये लोग 'मेसोचिस्ट' हैं। कथाएं हैं बड़ी प्यारी कि महावीर जहां से निकल जाते, इन्हें स्वयं को दुख देने में रस आ रहा है। कुछ लोग होते हैं, कुम्हलाये वृक्ष हरे हो जाते। महावीर जहां से निकल जाते, जिनको स्वयं के घाव में अंगलियां डालकर दख और पीड़ा पैदा असमय में वक्षों में फल लग जाते। ऐसा हआ होगा, ऐसा मैं | करने में रस आता है। ये बीमार-चित्त लोग हैं। ये तपस्वी नहीं | नहीं कहता हूं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा जरूर कहता हूं। हैं। यह तप क्रोध से भरा है। यह तप हिंसा से डूबा हुआ है। ऐसे | जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने बड़े गहरे काव्य को तप से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हआ। तप से कोई सत्य अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने जीवन के सत्य को बड़ी गहरी भाषा को उपलब्ध होता ही नहीं; सत्य की उपलब्धि से तप उपलब्ध | दी है। मानता नहीं कि वृक्षों ने ऐसा किया होगा—आदमी नहीं होता है। करते, वृक्षों की तो बात क्या; आदमी नहीं खिलते, तो वृक्षों की तप, संयम, नियम तुम्हारी सहजता से आने चाहिए। तुम्हारे तो बात क्या है लेकिन ऐसा होना चाहिए। लेकिन अगर वृक्षों अनुभव से आने चाहिए। तो मैं तुमसे कहूंगा, अगर क्रोध हो तो में फूल न खिले हों तो जिन्होंने कहानी लिखी उनका कोई दोष कसम मत खाना कि क्रोध न करेंगे। अगर क्रोध होता हो, तो नहीं, वृक्षों की भूल रही होगी। वे चूक गये। इसमें कवि क्या क्रोध को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना क्या है। क्रोध करे! कवि ने तो बात ठीक-ठीक कह दी, ऐसा होना चाहिए को बोधपूर्वक करना। क्रोध में उतरना। उस आग को जलाने दो, था। नहीं हुआ, वृक्ष नासमझ रहे होंगे। अगर असमय फूल न 13 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 खिले, तो चूक फूलों की है; उसमें महावीर क्या करें? महावीर जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से।' नारद भी अब ने स्थिति तो पैदा कर दी थी। वृक्षों में थोड़ी भी समझ होती तो और क्या करेंगे। यह भाषा का ही थोड़ा-सा भेद है। महावीर फूल खिलने चाहिए थे। वातावरण मौजूद था-और मौसम | कहते हैं, जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से, ऐसे रस क्या चाहिए, महावीर मौजूद थे! अब किसकी और प्रतीक्षा की वर्षा होती है। स्थिरचित्त होते ही द्वार खुल जाता है। बाढ़ आ थी? और किस वसंत की अब अभीप्सा है ? वसंत मौजूद था। | जाती है। कूल-किनारे तोड़कर बहती है चेतना की धारा। इससे बड़ा वसंत कभी पृथ्वी पर आया है? खिले हों तो ठीक, न ‘अतिशय रस के अतिरेक से।' अतिरेक हो जाता है। खिले हों, फूलों की गलती; महावीर का कोई कसूर नहीं है। अतिशयोक्ति हो जाती है। तुम्हारा पात्र संभाल नहीं पाता। बहने तुममें से भी बहुत महावीर के पास से गुजरे होंगे, क्योंकि नया | लगता है। देना ही पड़ता है, बांटना ही पड़ता है। किसी को तो यहां कोई भी नहीं है। सभी बड़े पुराने यात्री हैं। जराजीर्ण! | साझेदार बनाना ही पड़ता है। जब तक नहीं मिला तब तक सदियों-सदियों चले हैं। तुममें से भी कुछ जरूर महावीर के पास अकेले रह जाओ, मिलते ही ढूंढ़ना पड़ेगा किसी को, किसी गुजरे होंगे। नहीं महावीर, तो मुहम्मद के पास गुजरे होंगे। नहीं सुपात्र को जो लेने को तैयार हो। मुहम्मद, तो कृष्ण के पास गुजरे होंगे। ऐसा तो असंभव है इस महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में,, विराऽऽऽट और अनंत की यात्रा में तुम्हें कभी कोई महावीर-जैसा | पहाड़ों में। जब अतिशय रस का अतिरेक हुआ, भागे आए। पुरुष न मिला हो। अगर तुम्हारे फल न खिले, तो कसूर तुम्हारा | भाग गये थे जिस बस्ती से, उसी में वापिस लौट आए: दंढने है। मौसम तो आया था, द्वार पर खड़ा था, वसंत ने तो दस्तक दी लगे लोगों को, पुकारने लगे, बांटने लगे। अब घटा था अब इसे थी, तुम सोये पड़े रहे। तालमेल बैठ जाए, फूल खिल जाते हैं। रखना कैसे संभव है। जैसे एक घड़ी आती है, नौ महीने के बाद, मेरे पास कुछ लोग आते हैं, वे कहते हैं हमें भरोसा नहीं आता | मां का गर्भ परिपक्व हो जाता है। फिर तो बच्चा पैदा होगा। फिर कि दूसरे लोग आपके पास आकर इतने आनंदित क्यों हैं! तो उसे नहीं गर्भ में रखा जा सकता। अब तक संभाला, अब तो जिसका तालमेल बैठ जाता है, उसके फूल खिल जाते हैं। नहीं संभाला जा सकता। उसे बांटना होगा। जिसका तालमेल नहीं बैठता, वह तर्क की उधेड़बुन में ही लगा शास्त्रों ने बहुत कुछ बात बहुत तरह से महावीर, बुद्ध और ऐसे रह जाता है। वह सोच-विचार में लगा रहता है, क्या ठीक, क्या पुरुषों का संसार का त्याग करके पहाड़ों और वनों में चले जाना, गलत ? उसका तर्क वसंत से मेल नहीं खाने देता। ऋतु आ| इसकी कथा कही है। लेकिन वह कथा अधूरी है। दूसरा हिस्सा, जाती है. वक्ष उदास ही खड़ा रहता है. वह सोचता ही रहता है जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, उन्होंने छोड़ ही दिया। दसरा हिस्सा जो यह वसंत है या नहीं? और आए वसंत को जाने में देर कितनी ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है उनका वापिस लौट आना लगती है। वसंत आ गया। वसंत आ, गया। इतनी देर। चके लोक-मानस के बीच। एक दिन जरूर वे जं तर्क में, संदेह में कि जो था, नहीं हो जाता है। | तब उनके पास कुछ भी न था। जब गये थे तब खाली थे। खाली _ 'जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होकर थे, इसीलिए गये थे, ताकि भर सकें। इस भीड़-भाड़ में, इस अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन उपद्रव में, इस विषाद में, इस कलह में शायद परमात्मा से वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।' मिलना न हो सके। तो गये थे एकांत में, गये थे मौन में, शांति वेद कहते हैं-'रसो वै सः।' वह परमात्मा रसरूप है। में, ताकि चित्त थिर हो जाए, पात्रता निर्मित हो जाए। लेकिन महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं, लेकिन भरते ही भागे वापिस।। रस से थोड़े ही बच सकोगे? परमात्मा छोड़ दो, रस को थोड़े ही वह दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरे हिस्से में छोड़ सकोगे? वेद कहते हैं परमात्मा रसरूप है, महावीर कहते ही वह असली में महावीर हुए हैं। पहले हिस्से में वर्द्धमान की हैं रसरूप हो जाना परमात्मरूप हो जाना है। यह सिर्फ भाषा का तरह गये थे। जब लौटे तो महावीर की तरह लौटे। जब बुद्ध गये | ही फर्क है। थे तो गौतम सिद्धार्थ की तरह गये थे। जब आए तो बुद्ध की तरह | 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के द्वार की कुंजी: सम्यक-श्रवण आए। यह कोई और ही आया। यह कुछ नया ही आया। रूखे-सूखेपन को उन्होंने साधना समझ लिया है। उनसे तो नि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रत संसारी भी कभी ज्यादा आनंदित दिखायी पड़ता है। यह तो का अवगाहन करता है...।' और जिसे कभी नहीं सुना उसे इलाज बीमारी से महंगा पड़ गया। यह तो औषधि रोग से भी सुनता है। सत्य ऐसा है जिसे कभी नहीं सुना, जिसे कभी नहीं भयंकर सिद्ध हुई। देखा। ऐसा अनजान, ऐसा अपरिचित, ऐसा अज्ञेय है। संसारी भी कभी हंसता मिलता है, तुमने जैन-मुनियों को हंसते 'उस अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है...।' जब चित्त थिर देखा? न हंस सकेंगे। हंसना उन्हें कठिन हो जाएगा। हंसना होता है, तो शांति भी बोलने लगती है। तो मौन भी मुखर हो | उन्हें सांसारिक मालूम पड़ेगा। तुमने उन्हें आह्लादित देखा? जाता है। जब भीतर सब शून्य होता है, तो बाहर से शून्य भी तुमने उन्हें देखा किसी गहन संगीत से भरे हुए? तुमने उन्हें तरंगित होकर भीतर प्रवेश करने लगता है। जब तुम ध्यान की | बांसुरी बजाते, वीणा बजाते देखा? तुमने उन्हें नाचते देखा? आखिरी अवस्था में आते हो, तो अस्तित्व तुमसे बोलता है। नहीं, असंभव है। कहीं कुछ भूल हो गयी। और भूल वहां हो परमात्मा तुमसे बोलता है। ध्यान की परम अवस्था में परमात्मा गयी–प्रथम चरण पर उन्होंने प्रतिज्ञा लेकर संन्यास लिया। की तरफ से, अस्तित्व की तरफ से तुम्हारी तरफ संदेश आने सत्य को जानकर नहीं, शास्त्र को मानकर संन्यास लिया। शुरू हो जाते हैं। अनुभव से नहीं, विश्वास से संन्यास लिया। व्रत, अनुशासन इसको खयाल में लेना। थोपा। अपने ऊपर बलात्कार किया। उसी में सूख गये, खराब प्रार्थना में भक्त भगवान को पातियां भेजता है। ध्यान में, हो गये। भगवान भक्त को। प्रार्थना में भक्त भगवान से बोलता है, जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होता है, कहता है कुछ; ध्यान में भगवान साधक से बोलता है, कहता है अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन कुछ। महावीर का मार्ग ध्यान का मार्ग है। वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।' डूबना होता है, जैसे-जैसे उस अतिशय रस में उतरना होता लोगों को तो प्रसन्न देखा। इससे तुम यह भूल मत कर लेना कि है...'अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।' और जैसे-जैसे अपूर्वश्रुत वैराग्ययुक्त लोग तो कैसे प्रसन्न हो सकते हैं! वैराग्य की अपनी का अवगाहन होता है। जैसे-जैसे सुनायी पड़ता है शून्य का प्रसन्नता है। और राग की प्रसन्नता से बड़ी ऊंची और बड़ी स्वर, जिसको झेन फकीर कहते हैं 'साउंडलेस साउंड'- शून्य गहरी। राग की भी कोई प्रसन्नता हो सकती है! सिर्फ मन को का स्वर, एक हाथ की ताली, कोई बोलता नहीं है, कोई समझा लेना है। वैराग्य का भी आनंद है। तुमने क्या किया? बोलनेवाला नहीं है, अस्तित्व ही संदेश देता है। जब परमात्मा | राग से भरा हुआ आदमी थोड़ा प्रफुल्लित दिखायी पड़ता है, तो चारों तरफ से तरंगायित होने लगता है-अपूर्वश्रुत का तुमने उससे विपरीत वैराग्य की प्रतिमा बना ली। क्योंकि रागी अवगाहन–'वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से हंसता है, रागी गीत गाता है, तो वैरागी हंस नहीं सकता, गीत आह्लादित होता है। | नहीं गा सकता। तुम्हारा वैरागी राग का ही शीर्षासन है। उल्टा इसे लक्षण समझना साधु का। इसे लक्षण समझना संन्यासी खड़ा कर दिया वैरागी को। लेकिन वास्तविक वैराग्य परम राग का। अगर आह्लाद न हो, तो समझ लेना कि कहीं भूल हो गयी। है। वास्तविक वैराग्य का तो कैसे रागी मुकाबला करेंगे! उस अगर नाचता न मिले संन्यासी, तो समझ लेना कहीं भल हो नृत्य को तो कैसे रागी पहुंच सकते हैं। उस आह्लाद को तो, गयी। अब जाओ जैन-आश्रमों में, जैन-मंदिरों में, | कमल के उन फूलों को तो तभी कोई छू सकता है जब चित्त सब जैन-पूजागृहों में, जैन-मुनियों को देखो, इस सूत्र का कहीं भी भांति निर्मल हुआ हो। वैसी मुस्कुराहट तो केवल परम शांत तुम्हें कोई लक्षण मिलेगा? रूखे-सूखे, मरुस्थल-जैसे, जहां | चित्त से ही उठ सकती है। कभी कोई हरियाली नहीं। कहीं कुछ भूल-चूक हो गयी। हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 मेरे लब पे लबे-लालीने निगार आ ही गया मुतरिबे-फर्दा हूं 'सागर' माजी के अजादारों में नहीं तृष्णा स्वर्ग की अमृत-नदी से कृतज्ञ हो गयी, प्रिय के ओंठ मेरे | है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम—जो टूट ओंठों पर आ गये चुके साज, अतीत जो बीत चुका, उसे तो मैं पाप समझता हूं। हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर | उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है। जो जा चुका, जा चुका। मेरे लब पे लबे-लालीने निगार आ ही गया है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम वह तो ऐसा है जैसे परमात्मा ने आलिंगन किया। परम वैराग्य मुतरिबे-फर्दा हूँ सागर—मैं भविष्य का गायक हूं। का आह्लाद तो ऐसे है जैसे परमात्मा के ओंठ तुम्हारे ओंठ पर आ | माजी के अजादारों में नहीं—मैं अतीत के लिए रोनेवालों में गये। रागी तो असंभव चेष्टा में लगा है। रागी तो ऐसी चेष्टा में | नहीं। लगा है, जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ रहा हो। रागी तो ऐसी विरागी, वीतरागी, स्वयं में थिर हुआ संन्यासी कोई धूल लेकर चेष्टा में लगा है कि नीम के पौधों को सींच रहा हो और आम की नहीं चलता। वह कोई संग्रह लेकर नहीं चलता। जो बीत गया, आशा कर रहा हो। बीत गया। जो बीत रहा है, बीत रहा है। वह सदा नया है। आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा सुबह की ओस की भांति ताजा। सदा स्वच्छ है। क्योंकि मन का जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी संग्रह ही अस्वच्छ करता है, अपवित्र करता है, बासा करता है। रागी तो आग को फुलवाड़ी बनाने में लगा है। अंगारों को फूल | तुमने कभी खयाल किया, जो तुम अनुभव कर चुके बार-बार, बनाने में लगा है। वे बासे हो जाते हैं। छोटे बच्चे को देखा, तितलियों के पीछे आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा भागते! तुम नहीं भाग सकोगे। क्योंकि तुम कहते हो तितलियां जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी हैं, देख लीं बहुत। छोटे बच्चे को देखा, छोटी-छोटी चीजों से कभी आग फुलवाड़ी बनी है? कभी अंगारे फूल बने? | चमत्कृत होते हैं! छोटी-छोटी चीजें उसे आश्चर्य से भर जाती साधारण आदमियों से लेकर सिकंदरों तक चेष्टा करते हैं और हैं। घास का फूल, और छोटे बच्चे को ऐसा आंदोलित कर देता हार जाते हैं। पराजय संसार का निचोड़ है। इसीलिए तो हमने है, ऐसा रस-विभोर कर देता है कि वह खड़ा है और देख रहा है, महावीर को जिन कहा। जिन अर्थात जिसने जीत लिया। जिन आंखों पर उसे भरोसा नहीं आता कि ऐसा चमत्कार हो सकता अर्थात जिसने पा लिया। जिन अर्थात जो वस्तुतः सफल हुआ। है! छोटे बच्चे को देखा, सागर के किनारे कंकड़-पत्थर-सीपी सफल ही नहीं सुफल भी हुआ। जिसके जीवन में फल लगे। बीन लेता है, ऐसे जैसे कि हीरे-जवाहरात हों, कोहिनूर हों! क्या 'जैसे-जैसे अश्रुतपूर्व का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे मामला है? इस छोटे बच्चे के पास ताजा मन है। इसके पास नितनूतन...।' और वैराग्य भी नितनूतन फूल खिलाता है। तुम | कुछ अतीत का संस्मरण नहीं है। इसलिए ये यह नहीं कह यह मत सोचना कि वैराग्य एक बंधी-बंधायी रूढ़ि है। तुम यह सकता कि यह पुराना है। इसके पास तौलने का कोई उपाय ही मत सोचना कि विरागी बस उसी-उसी ढांचे में बंधा हुआ रोज नहीं है कि कह सके पुराना है। जीता है। वस्तुतः रागी जीता है ढांचे में, वैरागी तो प्रतिपल नये, वैराग्य नया जन्म है। फिर से छोटे बच्चे की भांति हो जाना है। और नये में प्रवेश करता है। विरागी का न तो कोई अतीत जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही केवल मेरे है—वह अतीत को नहीं ढोता-और न उसकी कोई अतीत को प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। हिंदू कहते हैं द्विज होना होगा, पुनरुक्त करने की आकांक्षा है। इसलिए कुछ भी पुनरुक्त नहीं दुबारा जन्म लेना होगा। एक जन्म तो मां-बाप से मिलता है। होता। वैरागी की सुबह हर रोज नयी है। वैरागी की सांझ हर | वह जन्म शरीर का है। एक जन्म तुम्हें स्वयं ही अपने को देना सांझ नयी है। वैरागी का हर चांद नया है, हर सूरज नया है। वह होगा। वह आत्मसृजन है। वही आत्मसाधना है। तब फिर धूल को संभालता ही नहीं, इसलिए प्रतिपल ताजा है, निर्मल है। व्यक्ति सदा ताजा रहता है। रोज-रोज आह्लाद से भरा हुआ। है कफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम ऐसी कथा है, रामकृष्ण को छोटी-छोटी चीजों में रस था। 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A सत्य के द्वार की कंजी : सम्यक-श्रवण / | कभी-कभी उनके भक्त भी उनको रोकते थे कि परमहंसदेव, सोचते हैं कि श्रद्धा कोई हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई हो जाना है। अच्छा नहीं मालूम होता, लोग क्या कहेंगे? उनकी पत्नी भी श्रद्धा में इतने नूतन फूल लगते हैं कि वह जैन ढांचे में समा न उन्हें समझाती कि ऐसा आप न करें। ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही सकेगी। न बौद्ध ढांचे में समा सकेगी। न हिंद, न मुसलमान के हो, बीच में उठकर वे चौके में पहुंच जाते-क्या बना है आज? ढांचे में समा सकेगी। श्रद्धा को कौन समा पाया? यह बड़ा अब यह बात जमती नहीं। दूसरों तक को संकोच होता। शिष्यों आकाश भी श्रद्धा के आकाश से छोटा है। श्रद्धा को कौन कब को लगता कि लोग क्या कहेंगे? फिर आकर ब्रह्म-चर्चा शुरू बांध पाया? कौन लकीरों में बांध पाया? श्रद्धा की कौन कब कर देते। लेकिन बड़ी सरलता की खबर मिलती है। जैसे परिभाषा कर पाया? उपनिषदों के वचन 'अन्नं ब्रह्म' पर टीका कर रहे हों-जीवन और महावीर को समझते समय यह खयाल रखना, और धर्मों से। ब्रह्म की चर्चा और अन्न की चर्चा में कुछ भेद नहीं। बीच में ने कहा है, परमात्मा पर श्रद्धा करो, श्रद्धा के बिना तुम परमात्मा उठकर पूछ आए तो हर्ज क्या! छोटे बच्चे-जैसी सरलता। पर न पहुंच सकोगे; महावीर ने कहा, परमात्मा की तो फिकिर छोटा बच्चा बार-बार पहुंच जाता है चौके के पास, पकड़ लेता है | छोड़ो-हो, न हो-श्रद्धा करो, क्योंकि श्रद्धा ही परमात्मा है। मां का आंचल, क्या बन रहा है? ओरी ने कहा है परमात्मा पर श्रद्धा करो, महावीर ने कहा श्रद्धा सरल-चित्त हो जाता है विरागी। ऐसा सरल कि रीति-नियम, पर श्रद्धा करो। नवनवसेवेगसद्धाओ। व्यवस्था, अनुशासन, सब व्यर्थ हो जाते हैं। आंतरिक सहजता | मेरी मस्ती में अब होश ही का तौर है साकी से जीता है। तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी न अहदे-माजी की यह रवायत मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी—अब मेरी मस्ती न आज और कल की यह हिकायत में भी होश का ही रंग-ढंग है। अब यह बेहोशी भी बेहोशी नहीं हयात है हर कदम पे 'सागर' है, अब इसमें होश का ही दीया जलता है। अब यह मस्ती कोई नयी हकीकत नया फसाना पागलपन नहीं है, यह मस्ती ही परम बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा, प्रतिभा है। जीवन उसके लिए प्रतिपल नया है। नयी हकीकत नया | मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी फसाना। वीतरागी तो गायक है जीवन के नये स्वर का, संगीतज्ञ तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी है जीवन की वीणा का, नर्तक है जीवन के महानृत्य का। और और तेरे सागर में शराब नहीं, अंगूरी शराब नहीं। प्रतिपल उमंग है, और प्रतिपल नया है। कुछ और है साकी...। ,'तह तह पल्हाइ मुणी।' बड़ा प्यारा वचन है। महावीर कहते जब तुम्हारा ध्यान नयी-नयी सीढ़ियां और सोपान पार करता हैं--'जह जह सुयभोगाहइ'—जैसे-जैसे वह महासुख भरने है, तो तुम एक दिन पाते हो कि परमात्मा ने अपनी सुराही से लगता है, रस बरसता है, 'तह तह पल्हाइ मुणी'-और उंडेला कुछ तुममें। पल्लवित होता मुनि, आह्लादित होता; उमंग उठती है, उल्लास तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी उठता है, भीतर नृत्य-गान उठता है। जैसे आषाढ़ में जब बादल और यह शराब कुछ ऐसी है, यह मस्ती कुछ ऐसी है कि घिर जाते हैं और मोर नाचते हैं, ऐसे ही आंतरिक-जीवन में जब जगाती है, सुलाती नहीं। उठाती है, गिराती नहीं। संभालती है, प्रकाश के बादल चारों ओर घिरने लगते हैं-आषाढ़ के प्रथम डगमगाती नहीं। होश लाती है, बेहोशी काटती है। 'तह तह दिवस आते हैं तो मन का मोर नाचता है। जह जह | पल्हाइ मुणी'। और जैसे-जैसे यह अंगूरी शराब, यह अमृत सुयभोगाहइ, तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ। और भीतर उतरना शुरू होता है, मुनि पल्लवित होता, प्रफुल्लित प्रतिपल नये-नये पल्लव खिलते, नये-नये फूल, नयी-नयी | होता, आह्लादित होता। 'नवनवसेवेगसद्धाओ'। श्रद्धा। नितनूतन! 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं...।' लोग समझते हैं श्रद्धा कोई बंधा-बंधाया ढांचा है। लोग बड़ा प्यारा सूत्र है...'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 खोती नहीं, वैसे ही ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता।' जहां धागे के साथ है-ससुत्ता-सूत्र के साथ है, 'न नस्सइ सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि। कयवरम्मि पडिआ वि', गिर भी जाए तो खोती नहीं। 'जीवो वि जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।। | तह ससुत्तो'–और जो जीव भी सूत्र के साथ जुड़ा है, 'न सुई गिर जाए बिना धागा पिरोयी, तो खोजना बड़ा मुश्किल हो नस्सइ गओ वि संसारे'-वह संसार में कभी नष्ट नहीं होता। जाता है। ऐसे ही हमारा जीवन धागा पिरोया नहीं अभी। ध्यान मौत आए, हजार बार आए, ससूत्र जीव को जीवन ही लाती है। का धागा अनुस्यूत नहीं किया अभी। अभी हमारा जीवन एक मृत्यु भी उसे मारती नहीं। ससत्र जीव को जहर भी अमत हो बिखरी राशि है। जैसे फूल किसी ने लगा दिये ढेर में। अभी | जाता है। इसमें शास्त्रयुक्तज्ञान का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। हमारा जीवन एक माला नहीं बना कि फूलों को कोई पिरो दे एक लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद करते हैं—'जैसे धागा धागे में। जब जीवन माला बनता है, तो ही जीवन में अर्थवत्ता | पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त आती है। ढेर की तरह हम क्षण-क्षण जीते हैं, लेकिन हमारे सारे जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' अब उन्होंने कुछ अपने क्षणों को जोड़नेवाला कोई अनुस्यूत धागा नहीं है। हमने अनंत | हिसाब से डाल लिया! शास्त्रज्ञान की तरफ इशारा नहीं है, जन्म जीए हैं, लेकिन सब ढेर की तरह लगा है, उसके भीतर कोई अन्यथा महावीर खुद ही कह देते; मुनियों के लिए न छोड़ते। , शृंखला नहीं है। शृंखला न होने से हमारी सरिता सागर तक नहीं | ससूत्रता। एक क्रमबद्धता, एक शृंखला बने जीवन, ऐसा पहुंच पाती। बिखरा-बिखरा न हो। तुम अपने जीवन को देखो, एक पैर बायें तुम ही हो वह जिसकी खातिर जा रहा है, दूसरा पैर दायें जा रहा है। आधा मन मंदिर जा रहा है, निशिदिन घूम रही यह तकली आधा वेश्यालय में बैठा है। दुकान पर बैठे हैं, राम-राम जप रहे तुम ही यदि न मिले तो है सब हैं; जब राम-राम जप रहे हैं, दुकान भीतर चल रही है। ऐसे व्यर्थ कताई असली-नकली सूत्रहीन नहीं काम चलेगा। जीवन में एक दिशा हो, एक गंतव्य अब तो और न देर लगाओ, हो, एक खोज, एक अन्वेषण हो। और जीवन में एक शंखला चाहे किसी रूप में आओ, हो, अन्यथा शक्ति कम है, खोजना बहुत है; समय कम है, एक सूत भर की दूरी है खोजना बहुत है; ऐसे तुम भटकते रहे कभी बायें, कभी दायें; बस दामन में और कफन में कभी यहां, कभी वहां, तो सब खो जाएगा। ध्यान का सत्र, और जीवन महाजीवन बन जाता है। और मृत्यु यह अवसर खो मत देना। यह अवसर मश्किल से मिलता समाधि बन जाती है। ध्यान का सूत्र, और पदार्थ में परमात्मा है। महावीर ने बार-बार कहा है, मनुष्य होना मुश्किल से घटता झलकने लगता है। ध्यान का सूत्र, और जीवन का क्षुद्र से क्षुद्र है। इसे ऐसे मत गंवा देना। एक सूत्रबद्धता लाओ जीवन में। अंग भी विराट से विराट की आभा से परिप्लावित हो जाता है। एक दिशा-बोध। ध्यान से जीया गया जीवन ही जीवन है। शेष भटकाव है। शेष जैसे-जैसे दिशा आएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कठिनाइयों में ऐसी यात्रा है कि तुम्हें पता नहीं क्यों जा रहे, कहां जा रहे, भी आशीर्वाद बरसने लगे। दुख में भी सुख की झलक मिलने किसलिए जा रहे? कौन हो, यह भी पता नहीं। लगी। तूफान में भी सकून, शांति आने लगी। _ 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही | लुत्फ आने लगा जफाओं में ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' यहां स्मरण दिला दूं, वो कहीं मेहरबां न हो जाएं जैन-शास्त्रकार जब इस सूत्र का अनुवाद करते हैं, तो वह ससूत्र का अर्थ करते हैं—शास्त्रज्ञानयुक्त जीव, जो कि बिलकुल ही आज इतना ही। गलत है। मौलिक रूप से गलत है। महावीर के मूल वचन में कहीं भी शास्त्र का उल्लेख नहीं है। 'सूई जहा ससुत्ता'-सुई 2010_03