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________________ जिन सूत्र भाग : 2 होगा, सुना होगा, शास्त्र में पढ़ा होगा, लेकिन अभी तुम्हारे संन्यास बोध की छाया है। संन्यास समझ की प्रगाढ़ता है। जीवन का अनुभव नहीं बना। शास्त्र से उधार लिया होगा। सभी संन्यास सम्यक-बोध, केवल सम्यक-बोध है। शुद्ध, सार बोध शास्त्र कहते हैं क्रोध बुरा है। सुनते-सुनते तुम भी मानने लगे हो है। चेष्टा नहीं है। अगर तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम कि क्रोध बुरा है। लेकिन, तुम्हारे प्राणों ने अभी इसकी गवाही जबर्दस्ती करोगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम खंड-खंड | नहीं दी। और जब तक तम गवाही न बनो, तब तक जीवन में हो जाओगे। तुमने चेष्टा से कछ साधा, तो तम दो टुकड़ों में ट कोई क्रांति नहीं होती। उधार ज्ञान से क्रांति नहीं होती। | जाओगे। एक टुकड़ा जिस पर तुम जबर्दस्ती कर रहे हो और एक ज्ञान तुम्हारा होना चाहिए। दूसरे जाग गये इससे कुछ न होगा, टुकड़ा जो जबर्दस्ती कर रहा है। तुम्हारे भीतर बड़ी आत्म-हिंसा जाग तुम्हारी होनी चाहिए। सुन लो उन्हें, उनकी पुकार से जागो, शुरू हो जाएगी। लेकिन जैसे ही आंख खुलेगी तत्क्षण तुम देख लोगे कि सपना दूसरा सूत्रसपना है, सत्य सत्य है। फिर कोई सपने को थोड़े ही चुनता है! और फिर ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यक दर्शन-मूलक तप, 'जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए।' महावीर ने नियम, संयम में स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यंत कहा है, मैं कोई आदेश नहीं देता, मैं जो कहता हूं वह सिर्फ निष्कंप (स्थिर चित्त) होकर विहार करता है।' उपदेश है, आदेश नहीं। क्योंकि मैं कौन हूं, जो तुमसे कहूं ऐसा और जिसने जान लिया सत्य क्या है, उसके जीवन में एक नयी करो। ऐसा करना कहते ही हिंसा हो जाएगी। मैं तुम्हें दबाने ही ऊर्जा का आविर्भाव होता है। निष्कंप हो जाता है चित्त। चित्त लगा। मैं तुम्हें ढालने लगा। महावीर कहते हैं, तुम परम | कंपता तभी तक है, जब तक हमें सत्य और असत्य का बोध स्वातंत्र्य हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से ही तुम्हारा अनुशासन | नहीं। तब तक डांवाडोल होता है, यह करूं या वह करूं? यहां निकले। और तुम्हारे अनुभव से ही तुम्हारा आचरण बने। तो ही | जाऊं, या वहां जाऊं? मंदिर कि वेश्यालय? ऐसा डोलता है। सार्थक है। अन्यथा जन्मों-जन्मों तक धोखा चलता रहता है। धन कि ध्यान ? ऐसा डोलता है। शरीर कि आत्मा? ऐसा जैसे ही समझ की जरा-सी झलक आती है डोलता है। जब तक तुम्हारे भीतर सत्य और असत्य की कोई दम में हयाते-नौ का फिर परचम उठाता हूं ठीक-ठीक प्रतीति नहीं है तब तक तुम्हें असत्य में सत्य की भ्रांति बईमां-ए-हमीयत जान की बाजी लगाता हूं होती रहती है। सत्य में असत्य की भ्रांति होती रहती है। मन मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं डांवाडोल रहता है। इस डांवाडोल चित्त के कारण ही तो बेचैनी मझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज से आखिर है, अशांति है। महावीर कहते हैंजैसे ही समझ आनी शुरू होती है, यात्रा बदली। मैं जाऊंगा, णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा। मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना ही है इक दिन विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।। तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। एक दिन जाना ही है, तो रुकने का जिसने सत्य की प्रतीति की, वह निष्कंप हो जाता है। जिसको अर्थ क्या? मौत आनी ही है, तो जीवन को पकड़ने का सार कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है। ठहर जाती है उसकी प्रज्ञा। क्या? जिस जीवन में मौत घटनी ही है, वह जीवन मौत की ही ऐसी ठहर जाती है, जैसे बंद घर में दिया जलता हो, जहां हवा का तैयारी है। जिस जीवन में मौत आती ही है, वह जीवन मरा हुआ कोई झोंका न आता हो। निष्कंप हो जाती है वह लौ। ऐसी भीतर है, वह वास्तविक जीवन नहीं। जो मुझसे छीन ही लिया जाना है, चेतना की लौ निष्कंप हो जाती है। कुछ चुनने को न उसे रोकने की चेष्टा करने से सार क्या है? जो मुझसे छिन ही रहा-चुनाव हो गया, सत्य को जानते ही चुनाव हो गया। सत्य जाएगा, उस साम्राज्य को बनाने का पागलपन बस पागलपन ही | को जानते ही निर्णय हो गया। जीवन की दिशा उपलब्ध हो है। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना | गयी; अर्थ, अभिप्राय आ गया। अब कुछ चुनाव नहीं करना है एक दिन तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। जैसे ही बोध जगना शुरू | है। अब व्यक्ति सत्य की तरफ ऐसे ही बहने लगता है जैसे होता है, जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है। नदियां सागर की तरफ बह रही हैं। 12 Jan Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340132
Book TitleJinsutra Lecture 32 Satya ke Dwar ki Kunji Samyak Shravan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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