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________________ A सत्य के द्वार की कंजी : सम्यक-श्रवण / | कभी-कभी उनके भक्त भी उनको रोकते थे कि परमहंसदेव, सोचते हैं कि श्रद्धा कोई हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई हो जाना है। अच्छा नहीं मालूम होता, लोग क्या कहेंगे? उनकी पत्नी भी श्रद्धा में इतने नूतन फूल लगते हैं कि वह जैन ढांचे में समा न उन्हें समझाती कि ऐसा आप न करें। ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही सकेगी। न बौद्ध ढांचे में समा सकेगी। न हिंद, न मुसलमान के हो, बीच में उठकर वे चौके में पहुंच जाते-क्या बना है आज? ढांचे में समा सकेगी। श्रद्धा को कौन समा पाया? यह बड़ा अब यह बात जमती नहीं। दूसरों तक को संकोच होता। शिष्यों आकाश भी श्रद्धा के आकाश से छोटा है। श्रद्धा को कौन कब को लगता कि लोग क्या कहेंगे? फिर आकर ब्रह्म-चर्चा शुरू बांध पाया? कौन लकीरों में बांध पाया? श्रद्धा की कौन कब कर देते। लेकिन बड़ी सरलता की खबर मिलती है। जैसे परिभाषा कर पाया? उपनिषदों के वचन 'अन्नं ब्रह्म' पर टीका कर रहे हों-जीवन और महावीर को समझते समय यह खयाल रखना, और धर्मों से। ब्रह्म की चर्चा और अन्न की चर्चा में कुछ भेद नहीं। बीच में ने कहा है, परमात्मा पर श्रद्धा करो, श्रद्धा के बिना तुम परमात्मा उठकर पूछ आए तो हर्ज क्या! छोटे बच्चे-जैसी सरलता। पर न पहुंच सकोगे; महावीर ने कहा, परमात्मा की तो फिकिर छोटा बच्चा बार-बार पहुंच जाता है चौके के पास, पकड़ लेता है | छोड़ो-हो, न हो-श्रद्धा करो, क्योंकि श्रद्धा ही परमात्मा है। मां का आंचल, क्या बन रहा है? ओरी ने कहा है परमात्मा पर श्रद्धा करो, महावीर ने कहा श्रद्धा सरल-चित्त हो जाता है विरागी। ऐसा सरल कि रीति-नियम, पर श्रद्धा करो। नवनवसेवेगसद्धाओ। व्यवस्था, अनुशासन, सब व्यर्थ हो जाते हैं। आंतरिक सहजता | मेरी मस्ती में अब होश ही का तौर है साकी से जीता है। तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी न अहदे-माजी की यह रवायत मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी—अब मेरी मस्ती न आज और कल की यह हिकायत में भी होश का ही रंग-ढंग है। अब यह बेहोशी भी बेहोशी नहीं हयात है हर कदम पे 'सागर' है, अब इसमें होश का ही दीया जलता है। अब यह मस्ती कोई नयी हकीकत नया फसाना पागलपन नहीं है, यह मस्ती ही परम बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा, प्रतिभा है। जीवन उसके लिए प्रतिपल नया है। नयी हकीकत नया | मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी फसाना। वीतरागी तो गायक है जीवन के नये स्वर का, संगीतज्ञ तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी है जीवन की वीणा का, नर्तक है जीवन के महानृत्य का। और और तेरे सागर में शराब नहीं, अंगूरी शराब नहीं। प्रतिपल उमंग है, और प्रतिपल नया है। कुछ और है साकी...। ,'तह तह पल्हाइ मुणी।' बड़ा प्यारा वचन है। महावीर कहते जब तुम्हारा ध्यान नयी-नयी सीढ़ियां और सोपान पार करता हैं--'जह जह सुयभोगाहइ'—जैसे-जैसे वह महासुख भरने है, तो तुम एक दिन पाते हो कि परमात्मा ने अपनी सुराही से लगता है, रस बरसता है, 'तह तह पल्हाइ मुणी'-और उंडेला कुछ तुममें। पल्लवित होता मुनि, आह्लादित होता; उमंग उठती है, उल्लास तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी उठता है, भीतर नृत्य-गान उठता है। जैसे आषाढ़ में जब बादल और यह शराब कुछ ऐसी है, यह मस्ती कुछ ऐसी है कि घिर जाते हैं और मोर नाचते हैं, ऐसे ही आंतरिक-जीवन में जब जगाती है, सुलाती नहीं। उठाती है, गिराती नहीं। संभालती है, प्रकाश के बादल चारों ओर घिरने लगते हैं-आषाढ़ के प्रथम डगमगाती नहीं। होश लाती है, बेहोशी काटती है। 'तह तह दिवस आते हैं तो मन का मोर नाचता है। जह जह | पल्हाइ मुणी'। और जैसे-जैसे यह अंगूरी शराब, यह अमृत सुयभोगाहइ, तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ। और भीतर उतरना शुरू होता है, मुनि पल्लवित होता, प्रफुल्लित प्रतिपल नये-नये पल्लव खिलते, नये-नये फूल, नयी-नयी | होता, आह्लादित होता। 'नवनवसेवेगसद्धाओ'। श्रद्धा। नितनूतन! 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं...।' लोग समझते हैं श्रद्धा कोई बंधा-बंधाया ढांचा है। लोग बड़ा प्यारा सूत्र है...'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340132
Book TitleJinsutra Lecture 32 Satya ke Dwar ki Kunji Samyak Shravan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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