Book Title: Jinsutra Lecture 26 Tumhari Sampada Tum Ho
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां प्रवचन तुम्हारी संपदा-तुम हो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चला गया! शक्ति और प्रभुता की खोज में था, यहां शांति और शून्यता सीखने को मिली। अब न आगे जा सकता हूं और न पीछे। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। कृपया मार्गदर्शन दें। दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या भजन कहते हैं? जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए उनको मैं कैसे भूलूं? अतीत को भूलना मेरे बस की बात नहीं। आप वीतराग हैं। अब इन आंसुओं के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है। मन बार-बार कहता है, आप कब आएंगे? Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चलो, उन्हीं आकांक्षाओं को प्रभु के मार्ग पर सफल कर लेंगे! चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां | तो फिर तुम्हें असफलता हाथ लगेगी। और भी गहन असफलता समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से | हाथ लगेगी! जैसे संसार के मार्ग पर लगी, उससे भी ज्यादा! प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर | तुम उजड़े-उजड़े हो जाओगे! लेकिन कारण धर्म का पथ नहीं पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां है; कारण तुम्हारी गलत आकांक्षा है। / पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म | जब कोई चाहता है शक्ति मिल जाये, तो किसके खिलाफ नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ चाहता है? क्योंकि शक्ति तो सदा किसी के खिलाफ होती है। पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें! शक्ति का अर्थ ही हिंसा है। शक्ति हम चाहते ही इसीलिए हैं कि किसी दूसरे से बलशाली धर्म की खोज में निकलनेवाले लोग अकसर किसी और चीज हो जायें, कि किसी दूसरे की छाती पर बैठ जायें, कि किसी दूसरे की खोज में निकलते हैं-उस खोज को धर्म का नाम दे देते हैं। को दबा लें, कि किसी दूसरे को छोटा कर दें। शक्ति का अर्थ ही शक्ति की खोज धर्म की खोज नहीं है। शक्ति की खोज तो महत्वाकांक्षा है। वह अहंकार का ज्वर है। अहंकार की ही खोज है। शक्तिशाली होने की आकांक्षा धर्म तो शांति की खोज है। शांति का अर्थ है : शक्ति की खोज धर्म-विरोधी है। | व्यर्थ है, इस बात का बोध; और शक्ति की खोज से मैं सदा लेकिन अधिक लोग धर्म की यात्रा पर किन्हीं गलत कारणों से बीमार रहूंगा, स्वस्थ न हो पाऊंगा। निकलते हैं; जो संसार में नहीं मिल सका, उसी को खोजने शांति की खोज बिलकुल विपरीत है। शांति की खोज का अर्थ परमात्मा में जाते हैं। | है: मैं इस 'मैं' को भी गिराता है, जिसमें शक्ति की आकांक्षा जो संसार में नहीं मिल सका, उसे खोजने परमात्मा में मत पैदा होती है; मैं इस बीज को दग्ध करता हूं। इसने मुझे जाना। क्योंकि जो संसार में ही नहीं है, वह परमात्मा में तो हो ही तड़फाया, जन्मों-जन्मों तक भटकाया। नहीं सकता। जिसे तुम संसार में न पा सके, उसे तो समझ लेना बुद्ध ने, जब उन्हें परम ज्ञान हुआ तो आकाश की तरफ आंखें कि पाने का कोई उपाय ही नहीं है। उठाकर कहा, 'हे गृहकारक! हे तृष्णा के गृहकारक! अब तुझे लेकिन स्वाभाविक है। संसार में हम जीये हैं अब तक | मेरे लिए और कोई घर न बनाना पड़ेगा। बहुत तूने घर बनाए मेरे जन्मों-जन्मों तक। वही एक भाषा परिचित है-पद की, धन लिए, लेकिन अब मैं आखिरी जाल से मुक्त हो गया हूं। अब की, प्रभुता की, शक्ति की। संसार असफल हुआ तो सोचते हैं और मेरे लिए जन्म न होंगे।' 557 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सूत्र भागः1.. जहां महत्वाकांक्षा न रही, तृष्णा न रही, वहां और जन्म न रहे। है। और जब तक जोड़ा जा सकता है तब तक तुम अतृप्त जहां महत्वाकांक्षा न रही, वहां भविष्य न रहा, समय न रहा; | रहोगे। यह दौड़ तो कभी पूरी न होगी! वहां हम शाश्वत में प्रवेश करते हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। इसे कोई कभी भर शाश्वत में प्रवेश होने से जो अनुभव होता है उसी का नाम नहीं पाया। नहीं कि संसार में भरने के साधन नहीं हैं; पर तृष्णा शांति है। समय में दौड़ने से जो अनुभव होता है उसी का नाम | का स्वभाव दुष्पूर है। इस तृष्णा को जब हम थका-थका पाते हैं अशांति है। आज से कल, कल से परसों! जहां हम होते हैं वहां | संसार में और भर नहीं पाते तो हम प्रभ की ओर मड़ते हैं। प्रभ कभी नहीं होते अशांति का यही अर्थ है। जो हम होते हैं उससे की ओर मुड़ना तो ठीक, लेकिन मुड़ने का कारण गलत होता है। हम कभी राजी नहीं होते-कुछ और होना चाहिए! हमारी मांग प्रभु की ओर मुड़कर धीरे-धीरे तुम्हें समझ में पड़ेगा कि तुम्हारी का पात्र कभी भरता नहीं। हमारा भिक्षापात्र खाली का खाली आंखों में तो पुरानी वासना ही भरी है। तुम परमात्मा से भी वही रहता है : कुछ और ! कुछ और! कुछ और! मांग रहे हो जो तुमने संसार से मांगा था। तो तुम मुड़े तो जरूर, तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो भी मिलेगा उससे ज्यादा शरीर तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी डिग्री मुड़ गया लेकिन मिलने की कल्पना तो हम कर ही सकते हैं। जो भी मिल जायेगा आत्मा नहीं मुड़ी। उससे ज्यादा भी हो सकता है, इसकी वासना तो हम जगा ही यही अड़चन प्रश्नकर्ता को मालूम हो रही है : 'न मालूम कहां सकते हैं। से कहां चला गया! चाहता था शक्ति, यहां समझने को मिली क्या तुम सोचते हो ऐसी कोई घड़ी हो सकती है वासना के शांति...।' इससे उलझन पैदा हो रही है। इससे उलझन जगत में, जहां तुम ज्यादा की कल्पना न कर सको? ऐसी तो सलझनी चाहिए। कोई घड़ी नहीं हो सकती। सारा संसार मिल जाए तो भी मन समझ को थोड़ा जगाओ! साफ-सुथरा करो! अगर शक्ति कहेगाः और चांद-तारे पड़े हैं! | मिल जायेगी तो क्या करोगे? और शक्ति पाने में नियोजित कहते हैं, सिकंदर जब डायोजनीज को मिला तो डायोजनीज ने करोगे। लोग धन कमाते हैं, क्या करते हैं? और धन कमाने में एक बड़ा मजाक किया। उसने कहा, 'सिकंदर! यह भी तो लगाते हैं। और कमाकर क्या करेंगे? और कमाने में लगाते हैं। सोच कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा तो बड़ी मुश्किल में पड़ भोगोगे कब? जो मिलता है, उसे और आगे के लिये लगा देना जायेगा।' सिकंदर ने कहा, 'क्यों?' तो डायोजनीज ने कहा, पड़ता है। ऐसे जिंदगी हाथ से निकल जाती है। एक दिन मौत 'फिर इसके बाद दूसरी कोई दुनिया नहीं है।' और कहते हैं, यह | सामने खड़ी हो जाती है, जिसके आगे फिर कुछ भी नहीं है। तब सोचकर ही सिकंदर उदास हो गया। उसने कहा, 'मैंने इस पर तुम चौंकते हो, लेकिन तब बड़ी देर हो चुकी! कभी विचार नहीं किया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। सारी | मेरे पास आने का एक ही उपयोग हो सकता है कि जो मौत दुनिया जीतकर फिर मैं क्या करूंगा! फिर तो वासना अधर में करेगी वह मैं तुम्हारे लिए अभी करूं। इसलिए तुम घबड़ाओगे। लटकी रह जायेगी। फिर तो अतृप्ति अधर में लटकी रह | इसलिए तुम भागोगे, बचोगे, तुम उपाय करोगे। जानता हूं, तुम जायेगी। फिर तो छाती पर अतृप्ति का पत्थर सदा के लिए रखा कुछ और खोजने आए हो। लेकिन तुम जो खोजने आए हो वह रह जायेगा। क्योंकि और तो कुछ पाने को नहीं है, लेकिन पाने | मैं तुम्हें नहीं दे सकता। वह देना तो तुम्हारी दुश्मनी होगी। मैं तो की आकांक्षा थोड़े ही समाप्त होती है।' तुम्हें वही दे सकता हूं जो देना चाहिए। मैं तुम्हें शांति की दिशा में | तुम कुछ भी पा लो, कितनी ही शक्ति, कितनी ही प्रभुता, ही अग्रसर करूंगा। कितनी ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा-ज्यादा की कल्पना सदा _इसलिए एक महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है : शिष्य और संभव है। तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हारी तिजोड़ी कितनी ही गुरु के बीच जो संबंध है वह बड़ा बेबूझ है! शिष्य कुछ और ही बड़ी हो, और भी बड़ी हो सकती है; उसमें कुछ जोड़ा जा सकता | मांगता है; गुरु कुछ और ही देता है। शिष्य जो मांगता है, अगर है। तुम्हारा सौंदर्य कितना ही हो, उसमें कुछ जोड़ा जा सकता। गुरु दे दे तो वह गुरु गुरु नहीं; वह दुश्मन है। गुरु जो देना 5581 Jal Education International Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARIHANNEL तुम्हारी संपदा-तुम हो BRAREL चाहता है, उसे लेने को शिष्य राजी हो जाए तो ही शिष्य है। जा सकता है। तुम अपनी मांग लेकर मेरे पास मत रहना। अन्यथा तुम्हारी खयाल किया तुमने! बड़े से बड़े शक्तिशाली की शक्ति छिन मांग मेरे और तुम्हारे बीच दीवाल की तरह खड़ी रहेगी। जब मेरे सकती है-छीनी जा सकती है। पास ही हो तो यही कह दो कि अब तुम ही यह भी तय करो कि नेपोलियन हार गया अंत में तो उसे सेंट हेलेना के एक छोटे-से क्या ठीक है। इसका नाम ही समर्पण है। द्वीप में कारागृह में डाल दिया गया। सम्राट था। सारे जगत को समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि तुम कुछ मांगने आये हो; जीतने चला था। आखिरी नतीजा यह हुआ कि कारागृह में समर्पण करने से मिलेगा, इसलिए समर्पण करते हो। नहीं, पड़ा। द्वीप पर उसे चलने-फिरने की स्वतंत्रता थी। छोटा-सा समर्पण का अर्थ है: तुम अपनी मांग, तुम अपना मन सब द्वीप था। वह पूरा द्वीप ही कारागृह था। इसलिए कहीं भागने का समर्पण करते हो। | तो कोई उपाय न था। पहले ही दिन वह सुबह-सुबह घूमने तुम कहते हो, 'अब मेरी कोई मांग नहीं; अब मेरा कोई मन निकला। एक पगडंडी से गुजर रहा है। एक स्त्री घास का गट्ठर नहीं; अब जो मर्जी हो! अब जो उस पूर्ण की मर्जी हो, वह होने लिए सिर पर आती है। तो नेपोलियन का जो चिकित्सक दो! अब मैं यह न कहूंगा कि मेरी मर्जी पूरी हो।' है-उसे एक चिकित्सक दिया गया था क्योंकि वह बीमार था, मेरी मर्जी पूरी हो, यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। परेशान था, उसकी रक्षा के लिए-वह चिकित्सक चिल्लाकर गुरजिएफ कहता था, तथाकथित धार्मिक लोग अकसर तो कहता है उस घसियारिन से कि 'हट, तुझे पता है कौन आ रहा धर्म-विरोधी हैं। उसने तो यहां तक कहा कि जिनको तुम धर्म है! रास्ता छोड़!' लेकिन नेपोलियन स्वयं रास्ता छोड़कर कहते हो वह सभी ईश्वर-विरोधी हैं। क्योंकि उनके पीछे वही | किनारे खड़ा हो गया और उसने कहा कि तुम भूल करते हो। वे आकांक्षाएं हैं; अपनी मर्जी पूरी करने के इरादे हैं। दिन गये जब नेपोलियन के लिए पहाड़ हट जाते थे। अब तो तुम ईश्वर को भी संचालित करना चाहते हो-अपनी मर्जी घसियारिन भी न हटेगी। अब तो मुझे ही हट जाना उचित है। से! तुम उसे अपने पीछे चलाना चाहते हो। और ईश्वर केवल घसियारिन कम से कम स्वतंत्र तो है, मैं कैदी हूं! मेरी कोई उन्हीं के साथ चल पाता है जो उसके पीछे चलने को राजी हैं। हैसियत नहीं उसके सामने।। सत्य को अपने पीछे खडा करने के लिए तो बहत से लोग नेपोलियन की शक्ति छिन जाती है। सम्राट दीन और दरिद्र हो उत्सुक हैं। सत्य के पीछे खड़ा होने को जो उत्सुक होता है वही जाते हैं। जो छिन जाती है, जिस पर दूसरों का कब्जा हो सकता शिष्य है। उसने ही सीखना शुरू किया। है, जो परतंत्र है-उसका क्या मूल्य ? वह नाव बड़ी छोटी है। तो अब आ ही गए हो तो तुम जो कुछ सीखकर आये हो तुमने खयाल किया H शक्ति के लिए दूसरों की जरूरत है! जिंदगी से, वह तुम्हारे काम नहीं पड़ेगा। जिंदगी में ही काम न | अगर नेपोलियन को जंगल में अकेला छोड़ दो, उसके पास कोई पड़ा। जो नाव नदी-नाले में काम न आयी उसको लेकर तुम शक्ति नहीं है। प्रधानमंत्रियों को, राष्ट्रपतियों को जंगल में सागर में उतर रहे हो? जो नाव नदी-नालों में डुबाने लगी थी, अकेला छोड़ दो, उनके पास कोई शक्ति नहीं है। शक्ति के लिए उसको लेकर तुम सागर में उतरने का आयोजन कर रहे हो? फिर भीड़ चाहिए। शक्ति के लिए वे लोग चाहिए जिन पर शक्ति डुबो, तो परेशान मत होना! | आरोपित की जा सके। लेकिन शांति तो अकेले में भी तुम्हारी निश्चित ही डूबोगे, क्योंकि सागर के विराट का तुम्हें बोध है; अकेले में और भी ज्यादा तुम्हारी है। उसे तुमसे कोई छीन नहीं। सागर में शक्ति की नाव मत चलाना; वह कागज की नाव नहीं सकता, क्योंकि वह किसी पर निर्भर नहीं है। ठेठ हिमालय है। वह अहंकार की नाव है; बुरी तरफ डूबोगे! कूल-किनारा न के एकांत में भी शांति तुम्हारी होगी; तुम्हारे साथ जाएगी। मिलेगा। बहुत तड़फोगे, परेशान होओगे। वहां तो शांति की जो एकांत में भी तुम्हरे साथ हो, वही तुम्हारी संपदा है। और नाव चलाना। क्योंकि शक्ति की सीमा होती है। शांति की कोई | जो दूसरों पर निर्भर होती हो, उसे तुम एकांत में न ले जा सको, तो सीमा नहीं। शक्ति को छीना जा सकता है, शांति को छीना नहीं मृत्यु के पार कैसे ले जा सकोगे? वहां तो तुम अकेले जाओगे। 559 www.jainelibrarorg Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग न मित्र होंगे, न संगी-साथी, न पति-पत्नी, न बेटे-बेटियां, कोई यह नैसर्गिक जीवन का हिस्सा है। यह किसी से ली नहीं गयी, भी न होगा। मौत में तो तुम अकेले प्रवेश करोगे। सब छुट किसी से छीनी नहीं गई, किसी को दी नहीं जा सकती। जब तुम जायेगा जो दूसरों पर निर्भर था। जो दूसरों ने दिया था वह दूसरे अपने घर लौट आते हो और परम शांति में लीन होते हो, तो वापिस ले लेंगे। तुम कोरे के कोरे रह जाओगे। बुरी तरह डूबेगी अचानक तुम पाते हो शक्ति का आविर्भाव हुआ है! लेकिन यह यह नाव! शक्ति तम्हारी नहीं है। क्योंकि तम तो अशांति के साथ ही चले इसलिए मैं शक्ति की कोई शिक्षण, शक्ति का कोई स्वरूप, गये। यह शक्ति परमात्मा की है। शक्ति की कोई रूप-रेखा तुम्हें नहीं देता हूं। शांति! वही पाने तुम मुझे ऐसा कहने दोः परमात्मा के अतिरिक्त और कोई योग्य है। जो खोया न जा सके, बस वही पाने योग्य है। शक्तिशाली नहीं है। और परमात्मा के अतिरिक्त और कोई पर तुम्हें अड़चन हुई है, यह भी मैं समझता हूं। तुम अगर शक्तिशाली हो भी नहीं सकता। वस्तुतः परमात्मा के अतिरिक्त शक्ति ही खोजने आये थे...जैसा लोग आते हैं। लोग तो किसी को स्वयं को 'मैं' कहने का अधिकार नहीं है। यह तो सत्पुरुषों के पास भी चमत्कार के लिए ही जाते हैं। लोग तो वहां कामचलाऊ है। हम उपयोग करते हैं 'मैं'; लेकिन 'मैं' तो भी शक्ति का ही कोई तमाशा देखना चाहते हैं। लोगों की आंखें वही कह सकता है जो शाश्वत है। हमारे 'मैं' का भरोसा बाजार से इतनी भर गयी हैं कि जब वे मंदिर में भी आते हैं तो क्या? घडीभर तो टिकता नहीं! क्षणभर तो टिकता नहीं! अभी बाजार को अपने साथ ले आते हैं। कुछ, अभी कुछ! पानी पर खींची लकीर है! नहीं, यहां तो उन लोगों के लिए ही सुविधा है जो बाजार से सब तुम जब मिटते हो...और तुम उसी समय मिट जाते हो जब भांति जागकर आये हैं। कम से कम इतनी जाग तो लेकर आये हैं तुम अशांति के रास्ते पर चलना छोड़ देते हो; अर्थात जब तुम कि यह शक्ति की दौड़ व्यर्थ है। अब चलो, दूसरी यात्रा पर शक्ति की खोज छोड़ देते हो, तुम बिखरने लगते हो। इसीलिए निकलें! शांति की यात्रा! बेचैनी है। संसार की पूरी यात्रा शक्ति की यात्रा है—बहाने कुछ भी हों। 'खोपड़ी बड़ी उद्विग्न है', प्रश्नकर्ता ने पूछा है। ‘परेशान हूं। कोई धन इकट्ठा करता है। उससे भी पूछो, धन क्यों इकट्ठा करता आया था शक्ति खोजने, यहां मिली शांति। चाहता था प्रभुता, है? धन से शक्ति आती है। एक-एक रुपये में भरी है शक्ति। यहां मिली शून्यता।' कोई ज्ञान इकट्ठा करता है। उससे पूछो, क्यों? तो ज्ञान से शून्यता द्वार है प्रभु का। तुम अगर शून्य होने को राजी हो गये शक्ति आती है। कोई राज-पदों पर पहुंचने के लिए आतुर है, तो तुम्हें प्रभु होने से कोई भी रोक न सकेगा। और अगर तुम उससे शक्ति आती है। संसार में हम वही करते हैं जिससे शक्ति शून्य होने को राजी न हुए और तुमने प्रभुता की तलाश की, तो आती है। तुम भिखमंगे रहोगे, तुम सूने के सूने रहोगे, खाली के खाली तो अगर संक्षिप्त में कहें, तो संसार है शक्ति की दौड़। बहाने रहोगे। इस विरोधाभास को अपने हृदय में बहुत गहरे बैठ जाने अलग-अलग होंगे। फिर शक्ति की दौड़ से जो जागने लगा, | देना, क्योंकि यह जीवन का आत्यंतिक गणित है। जिसने उसकी व्यर्थता देखी, वही धर्म की यात्रा पर निकलता है। | जीसस ने कहा है जो अपने को बचाएंगे वह मिट जायेंगे; यह यात्रा अंतर्यात्रा है और यहां शांत होते जाना है। और जो अपने को मिटाने को राजी हैं उन्हें कोई भी मिटा नहीं शक्ति की दौड़ का एक ही परिणाम होता है-अशांति। अब सकता। लाओत्सु ने कहा है : जो जीतने की यात्रा पर निकलेंगे, तुमसे मैं एक बड़ी विरोधाभासी बात कहना चाहता हूं: शक्ति की एक दिन हारे हुए पाये जाएंगे; और जो हारने को राजी है, उसे दौड़ का एक ही परिणाम होता है-अशांति; और शांति की दौड़ कोई हरानेवाला नहीं। का एक ही परिणाम है-शक्ति। लेकिन वह तुम्हारी कामना के गुंचा फिर लगा खिलने कारण नहीं। शांत व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है। पर यह आज हमने अपना दिल शक्ति बड़ी और है। यह शक्ति उद्विग्नता नहीं है-स्वभाव है। खू किया हुआ देखा 560 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो गुम किया हुआ पाया। खोजनेवाले शक्ति को कभी नहीं पाते, केवल अशांति पाते हैं, जब उस शांति की वर्षा होती है तो कली फिर खिलने लगती और शांति खोजनेवाले शक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। है। गुंचा फिर लगा खिलने! जो कली आंखों से बिलकुल फिर डरो मत। ओझल हो गयी थी, जिसका पता भी न रहा था, जो बीज होकर उसका, उसको ही लौटा देने में इतना संकोच क्या? उसका कहीं भूमि में खो गयी थी—वह फिर अंकरित हो आती है। | उसके ही चरणों में चढ़ा देने में इतनी कंजूसी क्या? गुंचा फिर लगा खिलने जान दी, दी हुई उसी की थी। आज हमने अपना दिल हक तो यह है कि हक अदा न हुआ। खू किया हुआ देखा। उसी की दी हुई थी, उसी को वापस लौटा दी, उसी को दे दी! और जिसको हम समझते थे मर चुका, जिसका खून हो चुका, / एक लहर उछली सागर में, वापस सागर में गिर गई! वह दिल फिर धड़कने लगा। जान दी, दी हुई उसी की थी आज हमने अपना दिल हक तो यह है कि हक अदा न हुआ। खू किया हुआ देखा सच तो यह है कि कर्तव्य-पालन न हो पाया। यह क्या खाक गुम किया हुआ पाया! बात हुई, क्या दिया! जो उसका था उसी को लौटा दिया, इसमें और जो खो चुका था, गुम हो चुका था, वह फिर मिला। कौन-सा कर्तव्य पालन हुआ? जी हो अपने को मिटाने को, तो एक दिन तुम लेकिन हम बड़े कंजूस हैं। जिससे पाया है, उसी को लौटाने में पाओगे: आज हमने अपना दिल खू किया हुआ देखा! जिसको बेईमानी कर जाते हैं। जिसने बनाया है, उससे भी छिपा लेते हैं। हम सोचे थे कि मर ही चुका, जिसे हम छोड़ ही आए थे दूर कहीं जिससे पाया है उससे भी चोरी कर जाते हैं। राह पर, जिस की हमने अर्थी सजा दी थी, जिसे हम दफना आये क्या है तुम्हारे पास अपना? सांस उसकी! बहता हुआ तुम्हारे थे, या जिसे हमने सूली पर चढ़ा दिया था, जिसे हम जला चुके शरीर में जल उसका। देह में मिट्टी के कण उसके! देह में समाया थे-अचानक वह दिल फिर लहलहाया, फिर हरा हुआ, फिर आकाश उसका! देह में जीवन की धारा अग्नि उसकी! और कली खुली! गुम किया हुआ पाया! और जो खो गया था वह | चैतन्य, वह उसी का अंश! जैसे तुम्हारे आंगन में आकाश फिर मिला। समाया है-बाहर फैले आकाश का ही एक हिस्सा-ऐसे ही प्रभुता छोड़ोः प्रभुता मिलेगी! अहंकार छोड़ोः आत्मा तुममें चैतन्य समाया है। विराट चैतन्य का एक छोटा-सा कोना, मिलेगी! अपने को खो दो, मिट जाने दो, शून्य हो जाओः पूर्ण | एक छोटा आंगन! सब उसका है। के तुम पात्र हो जाओगे। पूर्ण तुममें उतरेगा। तुम्हारे शून्य में ही शून्य होने से डरते क्यों हो, घबड़ाते क्यों हो? बूंद की तरह उतर सकता है। जगह चाहिए न! और पूर्ण जैसे मेहमान के लिए डरो मत सागर के किनारे खड़े होकर, क्योंकि बूंद अगर सागर में जगह बनानी हो, तो शून्य से कम जगह न पड़ेगी, जरूरी होगी। गिर जाये तो सागर हो जायेगी। अगर किनारे पर पड़ी रह गयी तो इतनी ही जगह चाहिए। पूरा शून्य चाहिए, तभी पूर्ण उतर सकता | बूंद ही रह जायेगी। सीमा तड़फायेगी तुम्हें। सीमा दुख देगी। है। पूर्ण, शून्य में बिलकुल बैठ जाता है। असीम के साथ ही सुख हो सकता है। भूमा के साथ ही सुख हो पूर्ण की भी कोई सीमा नहीं है; शून्य की भी कोई सीमा नहीं | सकता है। अल्प में कहां सुख, कैसा सुख? है। असीम को बुलाओगे तो असीम होना ही पड़ेगा। जिस और घबड़ाओ मत! तुमने छोड़ दिया सब, तो तुम यह मत अतिथि को तुमने पुकारा है, उसके आतिथेय भी तो बनना होगा! सोचना कि उसने तुम्हें छोड़ दिया। तुम शून्य हुए तो यह मत मेजबान तो बनना होगा! जगह तो खाली करनी होगी। सिंहासन | सोचना कि वह तुम्हें खाली समझकर तुम्हारे घर में प्रवेश न पर स्थान तो रिक्त करना होगा! करेगा। खाली होओगे, तभी प्रवेश करेगा। तुमने सब छोड़ा, इसलिए कहता हूं: शांति! फिक्र छोड़ो शक्ति की। शक्ति तभी तुमने पात्रता अर्जित कर ली। तुमने सब छोड़ा-अशेष 561 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव से! कुछ भी बचाना मत! रत्तीभर भी मत बचाना। अन्यथा हुआ। अब न पीछे जा सकता हूं न आगे ही बढ़ पाता हूं।' बचाया हुआ ही बाधा हो जायेगी। __ कहीं मत जाओ! पुराना विश्वास बिखर चुका, अब तुम जल्दी तुम स्वयं के और सत्य के बीच कुछ भी रहस्य मत रखना, मत करना नये विश्वास को बनाने की। क्योंकि डर यह है कि सौ छिपाना मत! तुम सब भांति नग्न हो जाना। तुम सब भांति छोड़ | में से निन्यानबे व्यक्ति, जब उनका पुराना विश्वास बिखरता है देना, फिर चिंता की बात नहीं। तो नए को फिर पुराने के ही ढांचे में बना लेते हैं। पुराने से मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं परिचय होता है। पुराने से पहचान होती है। पुराने के रंग-ढंग गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था? पता होते हैं। पुराने की रूप-रेखा उनके हाथ में होती है। फिर साधारण मधुशालाओं में तो यह हो जाता है। नये विश्वास को वह मुराने के ढांचे में ही बना लेते हैं। मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं, कि मैं ऐसा प्यासा पुराना विश्वास बिखर गया है, डरो मत! तुम मत ढालना नये का प्यासा लौट जाऊं मधुशाला से! | विश्वास को, अन्यथा तुम फिर पुराने सांचे में ढाल लोगे। वही गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था? मैंने अगर सांचा तुम जानते हो। तुम चुप रहो। तुम इस बीच की बड़ी बेचैन कसम खायी थी कि न पीऊंगा तो साकी तो भर ही दे सकता था अवस्था में राजी रहो। और तब तुममें श्रद्धा का जन्म होगा। वह पात्र को! साकी तो पिलाने का आग्रह कर सकता था। मेरे तौबा विश्वास नहीं होगी। वह तुम्हारी ढाली हुई न होगी। यही मैं फर्क कर लेने से, मेरे कसम खा लेने से, उसने तो कसम न खायी थी, करता हूं विश्वास और श्रद्धा में। विश्वास है तुम्हारा ढाला वह तो मुझे मना, समझा-बुझा सकता था और जबर्दस्ती करता हुआ; क्योंकि तुम खाली रहने को राजी नहीं, कुछ न कुछ भरने तो हम पी ही लेते। | को चाहिए। सत्य न सही तो झूठ ही सही। अपना न सही तो साधारण मधशाला में तो ऐसा हो जायेगा कि तुमने अगर तौबा | और का ही सही। देखा हुआ न सही तो सुना हुआ ही सही। की है तो तुम तिश्नाकाम ही वापस जाओगे, प्यासे ही वापस | तुम विश्वास को ढालोगे तो तुम्हारा ही ढाला हुआ विश्वास लौटोगे। लेकिन उस परम की मधुशाला में जिसने छोड़ दिया | होगा। न, यह गृह उद्योग सत्य के जगत में काम न आयेगा। सब, वह कभी तिश्नाकाम नहीं जाता। जिसने पकड़ा सब, वही पुराना गिर गया, सौभाग्य! धन्यभागी हो! अब जल्दी मत तिश्नाकाम जाता है। जिसने सब पकड़ा वह प्यासा रह जाता है। | करो नये को बनाने की। अगर तुम इस खालीपन में थोड़ी देर रह तम पकड़नेवालों की तरफ तो देखो! कैसे प्यासे और कैसे उदास | गए तो नया उतरेगा; वह तुम्हारा बनाया हुआ न होगा। और कैसे थके और हारे रह गये हैं। तुम जरा छोड़े हुओं की तरफ | धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य को किसी प्रकाश ने उतरकर तो देखो! महावीर, बुद्ध-तुम उनको तो देखो, कैसे भर गए भर दिया। तुम तो गर्भ जैसे हो गए और कोई जीवन आया और हैं! प्यास सदा के लिए मिट गयी है, ऐसी गहन तृप्ति हुई है! तुम्हारे गर्भ में प्रविष्ट हो गया। यह तुम्हारा बनाया हुआ पुतला उसकी मधुशाला से तुम वापिस न आओगे। अगर तुमने सब | नहीं है—यह परमात्मा से आया हुआ जीवन है। छोड़ा तो वह तुम्हें बहुत मनाएगा, बहुत तुम्हें पिलाने का आग्रह श्रद्धा आती है। विश्वास लाया जाता है। विश्वास जबर्दस्ती करेगा। तुम अगर सब उस पर छोड़ दो तो सब हो जाये। है; श्रद्धा नैसर्गिक है; श्रद्धा सहज है। जो आदमी विश्वास के इसलिए मैं कहता हूं, शून्य हो जाओ। शून्य होने से मेरा अर्थ | बिना रहने के लिए राजी है, उसके जीवन में श्रद्धा उतरती है। यह नहीं है कि तुम ना-कुछ हो जाओ। तुम ना-कुछ हो। शून्य | विश्वास का न होना अविश्वास नहीं है। क्योंकि अविश्वास में तुम्हारा यह ना-कुछपन मिट जायेगा। धूल जम गयी है, उसे तो फिर एक तरह का विश्वास है। कोई मानता है, ईश्वर तुमने संपदा समझा है। शून्य होने में यह धूल हट जाएगी और है-यह भी विश्वास; कोई मानता है ईश्वर नहीं है-यह भी तुम्हारे भीतर की संपदा प्रगट हो जायेगी। शून्य होकर ही तुम विश्वास। 'नहीं' लगा देने से कहीं फर्क पड़ता है ? जो आदमी पूर्ण को पाओगे। दूसरा कोई उपाय नहीं है। | मानता है ईश्वर नहीं है-यह उसकी धारणा, उसका शास्त्र। कहा है, 'पुराना विश्वास बिखर चुका, नये का जन्म नहीं कोई महावीर को मानता है, कोई मुहम्मद को–कोई मार्क्स को Main Education International Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो। मानता है। कोई गीता को पूजता है, कोई कुरान को-कोई हूं, प्रतीक्षा करूंगा। कैपिटल को पूजता है। फर्क कुछ भी नहीं है। | प्रार्थना करो, प्रतीक्षा करो; लेकिन विश्वास को निर्मित मत वहां सोवियत रूस में पुराने देवता तो विदा हो गये, पुराने धर्म करो। होगा! धीरज रखो। और अगर धीरज से हुआ, खो गये, पुराने चर्च खो गये; लेकिन कम्युनिज्म का नया चर्च अपने-आप हुआ और तुम सिर्फ साक्षी रहे, गवाह; बनानेवाले निर्मित हो गया है। कम्युनिस्ट नेताओं की नयी प्रतिमाएं निर्मित नहीं, तुमने सिर्फ जगते देखा श्रद्धा को, तुमने श्रद्धा का वृक्ष बढ़ते हो गयी हैं। ईश्वर नहीं है, यही सिद्धांत हो गया है विश्वास का। देखा, तुमने श्रद्धा में फूल-फल लगते देखे, तुम सिर्फ साक्षी बच्चों को रटाया जाता है। जैसे ईसाई रटाते हैं बच्चों को, जैसे रहे तो तुम पाओगे यह श्रद्धा मुक्तिदायी है। मुसलमान रटाते हैं, हिंदू, जैन रटाते हैं बच्चों को, अपनी-अपनी इस श्रद्धा को ही महावीर ने दर्शन कहा है। दर्शन यानी धारणा-वैसे ही कम्युनिज्म अपनी धारणा रटाता है। लेकिन जिसको तुमने देखा, बनाया नहीं। श्रद्धा तुम्हारा कर्म नहीं है, दोनों ही विश्वास हैं। | दर्शन है। श्रद्धा तुम्हारा कृत्य नहीं है, तुम्हारा दर्शन है। जिसको विश्वास का अर्थ यही है : जो तुमने चेष्टा से करके पैदा कर तुमने उठते देखा, फैलते देखा, पूरे आकाश को भरते देखा, तुम लिया है। मनुष्य निर्मित का नाम है विश्वास। और जब मनुष्य साक्षी रहे जिसके-तब विराट से आयी श्रद्धा। और जो विराट कुछ निर्माण नहीं करता, न विश्वास न अविश्वास, न पक्ष न से आती है वह विराट कर जाती है। जो क्षुद्र की है वह क्षुद्र है। विपक्ष, खाली खड़ा रह जाता है; वह कहता है, जब तेरी मर्जी हो / 'अब न पीछे जा सकता हूं, न आगे ही बढ़ सकता हूं!' तब भर देना, अगर न भरेगा तो भी हम राजी हैं—तब एक दिन कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। तुम जहां हो, वहीं डूबने की तुम्हारे शून्य में उस पूर्ण का आगमन होता है। तब तुम्हारी अंधेरी | जरूरत है। आगे-पीछे की भाषा मन की है। आगे-पीछे की रात में जलता है उसका दीया। और यह तुम्हारा जलाया नहीं भाषा महत्वाकांक्षा की है। आगे-पीछे की भाषा : प्रगति हो रही होता; क्योंकि तुम्हारा जलाया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। कि नहीं, गति हो रही कि नहीं, कहीं जा रहा हूं कि नहीं! जाना तुम्हारा जलाया तुम्हारा ही हिस्सा होगा। तुम्हारा जलाया तुम्हारा कहां है? जो हो, वहीं ठहर जाना है! जो हो, उसमें ही लवलीन ही निर्माण होगा। तुम परमात्मा को मौका दो। तुम थोड़े बीच में हो जाना है। जो हो, उसमें ही तल्लीन हो जाना है। अपने में दखलंदाजी न करो। तुम खड़े देखते रहो। डूबना है, जाना कहां है? सब जाना बाहर है। घर आना है! यह शुभ घड़ी है कि पुराना विश्वास बिखर चुका और नया पैदा और तुम यह मत सोचना कि घर आने के लिए भी कहीं जाना करना भी मत! तुम जल्दी करोगे, क्योंकि खाली होगा। घर तो तम हो ही। जरा बेचैनी छोडो. विचार छोडो. तो जगह अखरती है। जैसे दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं | अचानक तुम पाओगे कि इस घर को तुमने कभी छोड़ा ही नहीं; जाती है—ऐसा जब पुराना विश्वास हट जाता है तो बार-बार तुम सदा ही इसमें थे। खयालों में ही छोड़ा था वस्तुतः कभी नहीं मन वहीं-वहीं लौटता है कि जल्दी विश्वास बनाओ! घर | छोड़ा था। खाली-खाली लगता है, बेचैनी मालूम होती है। इस बेचैनी को बोधिधर्म जब जाग्रत हुआ तो हंसने लगा, खूब हंसने लगा! झेल लेना। लेकिन विश्वास अब मत बनाना। बहुत तुमने उसके आसपास के और भिक्षुओं ने पूछा कि तुम पागल तो नहीं बनाए, कोई काम न आये। कितने-कितने धर्मों में तुम जी नहीं हो गये हो, हुआ क्या है? उसने कहा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चुके हो! कितने-कितने शास्त्रों को तुम पूज नहीं चुके हो! जिसको मैं खोजता था जन्मों-जन्मों से, उसे कभी खोया नहीं कितने-कितने परमात्मा तुमने निर्मित नहीं किये हैं। कितनी | था। खूब मजाक रही! प्रतिमाएं तुम्हारी अर्चना और पूजा को स्वीकार नहीं कर चुकी हैं। तुम्हीं सोचो कि वर्षों तक तुम खोजते रहे किसी चीज को और लेकिन क्या हुआ? अब तुम कह दो कि अब मैं न बनाऊंगा। आखिर में खीसे में हाथ डाला और वहां पायी! और खीसे में अब जब प्रकृति ही उपजाएगी... / अब कागज और प्लास्टिक तुमने खोजा ही नहीं अब तक; क्योंकि यह खयाल ही नहीं उठा के फूल नहीं; अब तो जब असली फूल आएंगे तभी। मैं राजी | कि खीसे में भी हो सकती है। 563) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग : 11 तुम्हारी संपदा तुम हो। तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर इसी क्षण भक्तों की परंपरा का शब्द है। दोनों को जोड़ने की कोशिश मत मौजूद है। कहीं न जाओ-न आगे न पीछे, न उत्तर न दक्षिण, न करो, अन्यथा तुम और उलझ जाओगे। दोनों को अलग-अलग पश्चिम न पूरब, न नीचे न ऊपर-दसों दिशाओं को छोड़ दो। ही रखो। दोनों सही हैं; पर अलग-अलग सही हैं; दसों दिशाओं को छोड़कर जो खड़ा हो जाता है, उस अवस्था को | अलग-अलग यंत्रों के अंग हैं। महावीर कहते हैं समाधि। वह आ गया घर! वापसी हो गयी! महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई जगह नहीं है। क्योंकि उसने जान लिया उसे—जिसका विस्मरण हो गया था। | भजन का अर्थ होता है: उत्सव। भजन का अर्थ होता है: यह भी खयाल रख लेना: तुम चाहते हो मुझे कि मैं तुम्हें कुछ प्रभु-नाम-स्मरण। भजन का अर्थ होता है : तल्लीनता। भजन चलाऊं, दौड़ाऊं, कहीं पहुंचाऊं, तुम्हें कोई ज्वर दूं, तुम्हें कोई का अर्थ होता है: बेहोशी, बेखुदी। भजन तो ऐसा है जैसे कोई तड़फ दूं, उत्साह दूं। भीतर की शराब, पीये और मस्त हो गये! भजन तो नृत्य है, मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, जरा हमें उत्साह गुनगुनाना है, गीत है। दें-उत्साह ढीला पड़ा जा रहा है। उत्साह किसलिए? तुम महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई चीज नहीं है। वह मार्ग कोई सैनिक नहीं हो कि कहीं युद्ध पर जा रहे हो। तुम संन्यासी बिलकुल भजन-शून्य है। हो, अपने घर आ रहे हो–उत्साह कैसा? इसलिए अगर महावीर के मार्ग के शब्द 'दर्शन' का उपयोग लेकिन लोगों को उत्साह चाहिए, दौड़ने के लिए उत्साह जरूरी कर रहे हो तो भजन को भूल जाओ। महावीर कहते हैं, दर्शन से है, रुकने के लिए उत्साह की जरूरत है? रुकने के लिए तो होगा ज्ञान, बोध। भजन तो है अबोध। महावीर कहते हैं, होगा उत्साह बाधा भी बन सकता है। क्योंकि वह तुम्हें दौड़ाए ज्ञान। महावीर कहते हैं, आयेगी जागति। भजन तो है गहरी रखेगा। शांत बैठ जाना है-कैसा उत्साह ? कहीं जाना नहीं, आत्म-विस्मृति, तल्लीनता। और महावीर कहते हैं, ज्ञान से ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं करना है। जैसे शांत झील हो, ऐसे हो चारित्र्य रूपांतरित होगा। जाना है जिसमें तरंग नहीं उठती, लहर नहीं उठती। भजन है भक्तों का शब्द। उसे भी समझ लेना जरूरी है। लेकिन तुम डरते हो। तुमने अब तक तो जिसको जीवन जाना | भजन के लिए दर्शन जरूरी नहीं। भजन के लिए भाव जरूरी है। है, वह दौड़-धूप है, आपा-धापी है। तुमने उसके अतिरिक्त महावीर का 'दर्शन' पाना हो तो निर्भाव होना जरूरी है। वे कोई जीवन नहीं जाना। तुमसे अगर कोई बैठने को कहे तो विपरीत रास्ते हैं। वहां सारे भाव का त्याग कर देना है। वहां तो लगता है, यह तो मरने जैसा हो गया। इसमें जीवन कहां है? भाव राग है। वहां तो प्रेम भी बंधन है। भक्त के मार्ग पर भाव लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जीवन तुम्हारे भीतर है। उसे दौड़-धूप | प्रारंभ है: भाव, भजन, भगवान! वहां न ज्ञान, न दर्शन, न करके तुम न पा सकोगे। जब दौड़-धूप से थक जाओगे, बैठ चारित्र्य। भक्त को चरित्र इत्यादि की चिंता ही नहीं। वह कहता जाओगे, और कहोगे, अब कहीं जाने की कोई इच्छा न | है, 'चरित्र उसका, हमारा क्या? उसकी जैसी मर्जी! वह जैसा रही–तत्क्षण तुम पाओगे कि वह मिल गया। नाच नचाये!' भक्त तो कहता है, 'हम तो कठपुतली की भांति हैं; धागे उसके हाथ में हैं! वह जो बनाये हम बन जाते हैं। दूसरा प्रश्नः दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या लीला उसकी है। सारा नाटक उसका रचा हुआ है। हम तो भजन कहते हैं? कृपा करके समझाएं। केवल पात्र हैं नाटक में राम बना देता है, राम बन जाते हैं; | रावण बना देता है, रावण बन जाते हैं।' 'दर्शन' महावीर की साधना-पद्धति का शब्द है; 'भजन' भक्त की भाव-दशा बड़ी अलग है। तो भक्त प्रेम से चलता उनकी साधना-पद्धति का शब्द नहीं। दर्शन के बाद तो महावीर | है, भाव से चलता है। भाव ही सघन होकर भक्ति बनती है। कहते हैं, ज्ञान घटता है। ज्ञान के बाद चारित्र्य घटता है। भजन और भक्ति जब प्रगट होती है फूलों की तरह, तो भजन। की कोई जगह महावीर की विचार-शृंखला में नहीं है। भजन भाव से शुरुआत है। जब भाव बहुत गहन होने लगता है, 564 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा--तुम हो इतना गहन होने लगता है कि भाव करनेवाला धीरे-धीरे भाव में | उसी किनारे पहुंचा देंगी; लेकिन दो नावों पर सवार आदमी डूब जाता है, अलग नहीं रह जाता-तो भक्ति। और भक्ति मुश्किल में पड़ जाता है। एक ही नाव पर सवार हुआ जा सकता जब इतनी सघन होती है कि स्वयं का तो दिखायी पड़ना है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि तुम यह घोषणा करो और बिलकुल बंद हो जाता है, स्वयं की जगह परमात्मा की प्रतीति चिल्लाओ और मानो कि मेरी ही नाव पहुंचाती है। वह भी होने लगती है, चारों तरफ उसका दर्शन होने लगता है तो पागलपन है। वह भी कमजोरी है। जो आदमी कहता है मेरी ही भगवान। और भगवान को पा लेने की जो खुशी है, वह भजन नाव पहुंचाती है, उस आदमी को संदेह है अभी। उसे अपनी नाव है। उसको पा लेने से जो नाच पैदा होता है कि मिल गया!... | पहुंचाएगी, इसमें संदेह है। चिल्ला-चिल्लाकर वह विश्वास आर्किमिडीज के जीवन में एक कथा है कि वह एक वैज्ञानिक जगा रहा है। वह कहता है, 'कहां जा रहे हो दूसरी नाव में? यह खोज कर रहा था। अपने टब में बैठा था स्नान करने, तब उसको कभी न पहुंचाएगी। आओ, मेरी ही नाव पहुंचाती है!' वह डरा सूझ आ गयी। तो नग्न बैठा था स्नानागार में, छलांग लगाकर है अपने से कि कहीं दूसरी भी नाव पहुंचाती हो तो उसका खुद उठा। भूल ही गया कि नग्न हूं। भूल ही गया कि स्नानागार है। का इस नाव में बैठना मुश्किल हो जाएगा। खोज का मजा ऐसा था कि दौड़ा सड़कों पर और चिल्लायाः तुम हैरान होओगे! जो लोग दूसरों को कनवर्ट करने चलते 'इरेका। मिल गया!' राजमहल पहुंच गया नंगा, भीड़ लग हैं—जैसे ईसाई हिंदओं को ईसाई बनाने में लगे रहते हैं, आर्य गयी। सम्राट ने भी कहा कि 'तुम पागल हो गये हो! मिल भी समाजी ईसाइयों को हिंदू बनाने में लगे रहते हैं ये सब संदिग्ध गया तो इतने पागल होने की क्या बात है? नग्न क्यों हो?' तब लोग हैं, इनको अपनी नाव पर भरोसा नहीं है। ये जब तक दूसरे उसे याद आया। उसने कहा, 'क्षमा करें! मिलने का क्षण इतना की नाव खाली न करवा लें तब तक इन्हें भरोसा नहीं। ये कहते गहन था कि मैं भूल ही गया; अपना मुझे होश ही न रहा।' हैं, दूसरी भी नावें हैं, इनमें भी लोग जा रहे हैं-कहीं ये लोग तो भजन तो ऐसा क्षण है : इरेका! मिल गया! | पहुंच तो नहीं जाते! ये खुद तो पहुंचे नहीं हैं अभी। इनकी नाव जब भगवान की पहली दफा झलक मिलती है, जब उसकी कहीं जाती नहीं मालूम हो रही है इनको। दूसरे! तो दो ही उपाय छवि पहली दफा दिखाई पड़ती है, जब उसका रूप पहली दफा हैं या तो ये सही हैं, या हम सही हैं। अगर ये सही हैं तो हमक प्रगट होता है, जब उसकी सुगंध नासापुटों में पहली बार भरती अपनी नाव में से उतरना पड़ेगा। अगर हम सही हैं तो इनको है-इरेका! तो भक्त नाच उठता है, गुनगुना उठता है, | इनकी नाव से उतार लें। आंसुओं की धार बह जाती है-आनंद के आंसुओं की! सारी दुनिया में धर्मों के बीच जो संघर्ष चलता है वह स्वयं की सम्हाले नहीं सम्हलता! मस्ती भर जाती है। प्याला छलकने | नाव पर विश्वास नहीं है, इसलिए चलता है। दूसरे को जब तुम लगता है!-तो भजन! समझाने जाते हो तब तुम गौर करनाः कहीं तुम दूसरे के बहाने भजन बिलकुल दूसरी धारा का हिस्सा है। दोनों धाराएं पहुंचा | अपने को ही तो नहीं समझा रहे हो? कहीं दूसरे के बहाने अपने देती हैं, लेकिन दोनों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। ही संदेहों को तो शांत नहीं कर रहे हो? जब तुम दूसरे को शेख काबे से गया उस तक बिरहमन दैर से समझाने में राजी हो जाते हो कि तुम सही हो, तो तुम्हें बड़ा एक थी दोनों की मंजिल फेर था कुछ राह का। हलकापन मालूम होता है, तुमने खयाल किया। क्यों? एक लेकिन वह कुछ फर्क बड़ा फर्क है! कोई मस्जिद से गया, कोई बोझ था भीतर : कौन जाने हम गलत हों! दूसरे को समझा मंदिर से गया; कोई तप से गया, कोई भाव से गया-थोड़ा-सा लिया, चलो एक आदमी और राजी हो गया! अपने पर तो फर्क है; लेकिन थोड़ा-सा फर्क भी बहुत बड़ा फर्क है। पहुंचकर भरोसा नहीं था; अब एक और राजी हो गया, शायद ठीक हों! तो सब रास्ते उसी पर मिल जाते हैं। लेकिन बीच में बड़े-बड़े दो राजी हो गये, तीन राजी हो गये, भीड़ इकट्ठी हो गयी, तो अंतर हैं। और बीच में तुम दो रास्तों के बीच अपने को डांवाडोल भरोसा पक्का हो गया कि नहीं, हम गलत कैसे हो सकते हैं! मत करना। दो नावों पर कभी सवार मत होना। यद्यपि दोनों नावें इतने लोग कैसे राजी हो जाते! हो सकता था हम भूल में होते, 564 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः लेकिन इतने लोग! इतने लोग तो भूल में नहीं हो सकते! वगैरह लगाकर ऊपर की बर्थ पर लेटने ही जा रहा था कि कुछ दूसरे को कनवर्ट करने की चेष्टा में अपने ही अविश्वासों को, याद आ गयी तो उसने नीचे की सीट पर लेटे आदमी से पूछा, संदेहों को शांत करने की चेष्टा छिपी है। इसलिए लोग चिल्लाते | भाई साहब! आप कहां जा रहे हैं? तो उस आदमी ने कहा, हैं कि बस यही मार्ग। कलकत्ते जा रहा हूं। मुल्ला बोला, हद्द हो गयी! हम तो बंबई जा महावीर के मार्ग पर बहुत लोग नहीं गये, क्योंकि महावीर ने रहे हैं। विज्ञान का चमत्कार तो देखो कि एक सीट कलकत्ता जा कहा सभी मार्ग सही हैं। रही है, एक सीट बंबई जा रही है! जैन अब हिम्मत नहीं करते यह कहने की कि सभी मार्ग सही अब गंगा और नर्मदा का अगर मिलन हो जाये तो बड़ी हैं। वह हिम्मत छोड़ दी उन्होंने। अब तो वे कहते हैं यही मार्ग | मुश्किल हो गयी। दोनों सागर की तरफ जा रही हैं और दोनों सही है। और कभी-कभी कैसी विडंबना हो जाती है! सागर में ही जा रही हैं। सब जाना सागर की तरफ है। मैं एक जैन मुनि से बात कर रहा था। तो मैंने उनसे कहा कि मैं तो तुमसे कहता हूं, जो संसार की तरफ जा रहा है वह भी जैन धर्म तो स्यादवाद को मानता है। जैन धर्म तो कहता है, और जरा लंबे रास्ते से परमात्मा की ही तरफ जा रहा है। क्योंकि सब भी सही हैं। जैन धर्म का तो यह कहना है, 'यही सही है', यह जाना उसकी तरफ है-देर-अबेर! मैं तो तुमसे कहता हूं, दृष्टि गलत है। 'यह भी सही है', यह दृष्टि सही है। वह भी जिसने वेश्या के द्वार पर दस्तक दी है, उसने भी अनजाने मंदिर सही है, यह भी सही है। यह ही सही है, ऐसे आग्रह में तो दूसरे के द्वार पर ही दस्तक दी है-थोड़ी दूर से दस्तक दी है। लेकिन सब गलत हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि निश्चित, स्यादवाद का वेश्या के पास भी वह मंदिर को ही खोजने गया है, क्योंकि प्रेम यही अर्थ है। फिर थोड़ी बात चलती रही। इधर-उधर की मैंने खोजने गया है। मिले न मिले, दूसरी बात। लेकिन आकांक्षा तो उनसे बात की, फिर थोड़े भूल गये वे तो मैंने उनसे कहा कि | उसी की है। खुद भी परिचित न हो, यह भी हो सकता है। गलत स्यादवाद के विपरीत अगर कोई हो, उसके लिए क्या दिशा में टटोलता हो, यह भी हो सकता है। लेकिन भीतर जो कहियेगा? वह भी सही है? 'कभी नहीं,' उन्होंने कहा, 'ऐसा खोज चल रही है, वह तो उसी की चल रही है। सभी सागर की कैसे हो सकता है? स्यादवाद के जो विपरीत है वह कभी सही | तरफ जा रहे हैं। और सभी पहुंच जाते हैं, क्योंकि सागर ने सब नहीं हो सकता।' दिशाओं से घेरा है। सागर की कोई दिशा नहीं है। ऐसे परमात्मा स्यादवाद का मूल आधार ही यही है कि जो मेरे विपरीत है वह की कोई दिशा नहीं है। भी सही हो सकता है। महावीर का आकाश बड़ा विराट है। वे तो ध्यान रखना, भजन से भी लोग पहुंचते हैं, भाव से भी कहते हैं, इतना बड़ा विराट आकाश है तो इतनी छोटी-छोटी | पहुंचते हैं। पर भाव की नाव अलग है। उसकी चाल अलग है। पगडंडियों पर तुम चिल्लाते हो, यही सही है? तुम पगडंडी के उसकी पतवार अलग है। उसका रंग-ढंग अलग है। वह बड़ी नाप को आकाश का नाप बना देते हो? तुम पहुंचने के संकीर्ण सजी-संवरी है। मार्ग को मंजिल बना देते हो? मंजिल बहुत बड़ी है। सब तरह | महावीर की नाव बड़ी भिन्न है। जरा भी सजी-संवरी नहीं है। के मार्ग वहां समाविष्ट हो जाते हैं। वहां भाव को कोई जगह नहीं है। वहां शुद्ध विचार और ध्यान ऐसा समझो कि गंगा बह रही है, नर्मदा भी बह रही है। गंगा | है। वहां भूलना नहीं है, स्मरण रखना है। भाव में भूलना है, बह रही है पूरब की तरफ, नर्मदा बह रही है पश्चिम की तरफ। स्मरण नहीं रखना है। भाव में आत्मविस्मति करनी है। और अगर दोनों का रास्ते में मिलना हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो | महावीर के मार्ग पर आत्मस्मृति जगानी है। बड़े विपरीत हैं। एक जाये। क्योंकि गंगा कहे, मैं सागर की तरफ जाती हूं, तू पागल पूरब जा रहा है, एक पश्चिम जा रहा है-एक नर्मदा, एक कहां जा रही है उलटी; और नर्मदा भी कहे, मैं भी सागर की गंगा-लेकिन दोनों सागर में पहुंच जाते हैं! और सागर में तरफ जाती हूं, तुम्हें कुछ अड़चन हो गयी है... पहुंचकर दोनों सागर हो जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार हुआ। वह अपना बिस्तर भजन विधायक जीवन-दृष्टि है; दर्शन नकारात्मक 566 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMARHTET तुम्हारी संपदा-तुम हो URI AAR जीवन-दृष्टि है। भजन का अर्थ है जो डूबा! भजन का अर्थ है जिसने अपने तु और तेरी चंचल सखियां, जब पानी भरने जाती हैं को खोया! भजन का अर्थ है: जिसने अपने को छोड़ा उसके तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है। हाथ में! भजन का अर्थ है जो उसके आसपास नाचा और रास वह जो भक्त है, वह प्रत्येक खेल में परमात्मा को देख रहा है। में सम्मिलित हुआ। भक्त को तो लगता है: यह सारा खेल, यह तू और तेरी चंचल सखियां जब पानी भरने जाती हैं सारी लीला, चाहे कैसा ही ढंग रखती हो-यह कोयल की तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है। कुहू-कुहू, ये वर्षा के बादल, यह वर्षा की रिमझिम टाप-यह धूप भी गुलाबी हो जाती है, साये भी धानी हो जाते हैं। और जो सब अनेक-अनेक रूपों में उसी का आगमन है! यह उसी के भी जा रहा है पनघट की तरफ, वह वही है-उसकी चंचल पैरों में बंधे हुए धुंघरुओं की आवाज है! सखियां हैं। भक्त संसार को सिर्फ संसार की तरह नहीं देखता-परमात्मा सारा जगत अनेक-अनेक रूपों में उसी की लीला है। जिसने की अभिव्यक्ति की तरह देखता है। यह उसका प्रगट रूप है। ने पहचानना शुरू कर दिया, वह हर जगह उसे पहचान लेगा। यह उसी चित्रकार का चित्र है। ये रंग उसी के हाथ ने फैलाए हैं। मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से ये गीत उसी ने रचे हैं। वेद कहते हैं : यह काव्य उसी का है। यह रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम। वही गुनगुनाया है। वही गुनगुना रहा है! भक्त तो कहता है, भगवान है रसाध्यक्ष उस मधुशाला का! साधक के मार्ग पर संसार और सत्य विपरीत हैं। संसार से इस जीवन की मधुशाला का रसाध्यक्ष! और उसी की कृपा का हटना है अगर सत्य में जाना हो। फल है। भक्त के मार्ग पर संसार सत्य का ही परिधान है, उसी की रिंद का, साकी का, मय का, खमका, पैमाने का नाम वेषभषा है। ये जो मोर नाच रहे हैं, ये मोर पंख उसी के मुकुट -इन सबके नामों की महिमा उसी के कारण है। पर लगे हैं। यह जो बांसुरी बज रही है, चाहे तुम्हें उसके ओंठ मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से।। दिखायी पड़ते हों न दिखायी पड़ते हों, यह बांसुरी उसी के ओंठों -उस रसाध्यक्ष की अनुकंपा कि उसी की अनुकंपा से रिंद | पर रखी है; नहीं तो कभी की बजनी बंद हो जाती। का, पियक्कड़ का...। मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं भक्त तो पियक्कड़ है। वह तो भगवान की शराब पी रहा है। जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम। जीवन को तो उसने मधुसिक्त भाव से देखा है। 'प्यारे' को और अगर तुम्हें दिखायी न पड़े वह, तो फिर ऐसा लगेगा कि पहचानने की तरह उसने जीवन की खोज की है। वह सत्य की संसार में आग ही लगा दो। खोज में नहीं है-'प्यारे' की खोज में है! महावीर सत्य की | मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं-सब है खोज में हैं। 'प्यारा' शब्द उनके ओंठ से निकलेगा भी नहीं। / लेकिन पिलानेवाला नहीं है, ढालनेवाला नहीं. साकी नहीं है। मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम! रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम।। तो फिर यह सब व्यर्थ है। लेकिन अगर उसके हाथ तुम्हें जिस गागर में सागर भरी, जिस गागर में मधु का सागर भरा दिखायी पड़ जायें कि उसी ने ढाली है सुरा, तो फिर सुरा भी है, जिस पात्र में मधु पड़ा है, जो पिलानेवाला है, जो पीनेवाला | अमृत है। अगर उसके हाथ दिखायी पड़ जायें तो जहर भी अमृत है—इन सबकी महिमा उसी के कारण है-उसकी ही अनुकंपा है! क्योंकि उसके हाथों में जहर हो ही कैसे सकता है। __ भक्त की दृष्टि बड़ी अलग है। भक्त की दृष्टि को तुम साधक भक्त की भाषा सुरा की, सुगंध की, संगीत की भाषा है। भक्त | की दृष्टि के साथ गडमगड्ड न करना। उन्हें अलग-अलग की भाषा प्रेम की, प्रियतम की, प्रियतमा की भाषा है। भक्त की रखना, साफ-सुथरा रखना। फिर तुम्हें जो प्रीतिकर लगे, उस भाषा रास की, रस की भाषा है। पर चले जाना; मगर मन में कभी भी यह खयाल मत रखना कि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 दूसरा गलत है। अगर तुमने यह सोचा कि दूसरा गलत है तो मैं होगा तुम्हारा! लेकिन अतीत की सीमा है। जो हो चुका उसकी तुमसे कहूंगा : तुम्हें अपने मार्ग पर संदेह है। दूसरे से तुम्हें क्या सीमा है। जो अभी नहीं हुआ, वह असीम है। हमारी भीड़ कल लेना-देना? होगा, वह भी ठीक होगा। और अगर उसे वहीं से | देखना! तुम तो गये-गुजरे हो! सूर्यास्त हो रहा है! डूबते सूरज आनंद के द्वार खुल रहे हैं, तो तुम कौन हो रोकनेवाले? और को कौन नमस्कार करता है। तुम इस नये सूरज को देखो! अगर उसे वहीं से परमात्मा की पहचान आ रही है, तो तुम कौन तो नये धर्म जब पैदा होते हैं तो वे भविष्य की बात करते हैं। हो बाधा डालनेवाले? क्योंकि वह ही एक रास्ता है भीड़ को बढ़ाने का। उनके पास न सत्य के एकाधिकारी, मोनोपोलिस्ट मत बनना। इसी तरह अतीत है, न भीड़ आज मौजूद है। दुनिया में धर्म नष्ट हुआ, क्योंकि सभी धर्म सत्य के एकाधिकारी लेकिन मैं धार्मिक आदमी उसको कहता हूं, जिसे भीड़ की बन गये। और जब भी धर्म सत्य का एकाधिकारी बनता है, भ्रष्ट जरूरत नहीं किसी भी रूप में, अभी, कल या कभी! जो हो जाता है; संप्रदाय रह जाता है; धर्म मर जाता है, लाश रह कहता है, अकेला काफी हूं। अकेला भी चला तो भी पहुंच जाती है। सत्य पर किसी की बपौती नहीं है। यही महावीर का | जाऊंगा। उसके और परमात्मा के बीच सीधा संबंध है; भीड़ के स्यादवाद है। सत्य सबका है; सब ढंगों से पाया जा सकता है; माध्यम से नहीं है। सब मार्गों से पाया जा सकता है। ऐसा अगर तुम कह पाओ तो _और अच्छा ही है कि इतने मार्ग हैं क्योंकि इतने प्रकार के मनुष्य उसका अर्थ हुआ कि तुम्हें अपने मार्ग पर श्रद्धा है, श्रद्धान है। / हैं। एक-एक व्यक्ति इतना भिन्न है कि यह बड़ा कठिन हो जाता | इसलिए तम्हें दसरे के मार्ग को गाली देने की जरूरत नहीं। तुम्हें कि एक ही मार्ग होता। तो कुछ लोग तो जाते, कुछ और लोग अपने मार्ग पर इतना भरोसा है कि इस भरोसे को दूसरे को गाली इसलिए ही न जा पाते क्योंकि वह उस मार्ग पर ठीक न बैठते।। दे दे कर बढ़ाने की जरूरत नहीं है। तुम अपने मार्ग के प्रति इतने | तुमने खयाल किया। स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं। चूंकि हमने मान आश्वस्त हो कि अगर सारी दुनिया भी तुम्हारे मार्ग को छोड़ दे तो रखा है कि जो बच्चा गणित में होशियार है वही होशियार! तो जो तुम अकेले ही गीत गुनगुनाते चले जाओगे। इससे कुछ फर्क न बच्चा गणित में होशियार नहीं वह गधा हो जाता है। तुम जरा पड़ेगा। तुम्हें भीड़ की अपेक्षा नहीं है, जरूरत नहीं है। एक दूसरी दुनिया सोचो! जल्दी ही वह दुनिया आयेगी, जबकि कमजोर आदमी को भीड़ की जरूरत है। भरोसे की कमी हम गणित की बहुत जरूरत न रह जायेगी। कंप्यूटर पैदा हो गये हैं। भीड़ से परा कर लेते हैं। कमजोर आदमी को परंपरा की जरूरत | आनेवाली सदी में छोटे-छोटे बच्चे भी कंप्यूटर अपनी जेब में है। तो हम कहते हैं, पांच हजार साल पुरानी है हमारी परंपरा! रख सकेंगे। गणित का बड़े से बड़ा सवाल कंप्यूटर क्षण में पूरा इस तरह भीड़ को हम पांच हजार साल पुराना बना देते हैं। कर देगा। उसके लिए करने की जरूरत न रह जायेगी। तो भीड़ दो तरह से हो सकती है या तो अभी हो; जैसी ईसाइयों गणित की प्रतिभा समाप्त हो जायेगी। तब हम कहेंगे, जो बच्चा के पास है। एक अरब आदमी! तो वे जरा अतीत की बात नहीं काव्य में गुणवान है वह प्रतिभा-संपन्न है। तब सारा नक्शा करते. क्योंकि अतीत की कोई जरूरत नहीं-भीड़ अभी है। बदल जायेगा। फिर भीड़ को बढ़ाने का दूसरा ढंग यह है कि हिंदू कहते हैं हमारा अभी जो बच्चा गधा है वह भविष्य में गुणवान हो सकता है; धर्म सनातन है। माना कि हम बीस ही करोड़ हैं, इससे क्या होता और अभी जो गुणवान है, भविष्य में व्यर्थ हो सकता है। जब है; लेकिन हम सनातन से हैं। तो उन सारे लोगों को जोड़ लो जो मूल्य बदलते हैं तो लोगों की स्थिति बदल जाती है। अब तक हिंदू रहे, तब तुम्हें पता चलेगा कि हिंदुओं की भीड़ | तुमने देखा! जैसे-जैसे मूल्य बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे स्थिति कितनी है! बदलती जाती है। अगर धर्म भी ऐसा हो कि किन्हीं खास लोगों जिनके पास ये दोनों उपाय नहीं, वे कहते हैं, 'भविष्य! अभी के पहुंचने के लिए हो जाये तो उतनी ही संकीर्ण हो जायेगी धारा; छोड़ो-अतीत!' नये-नये धर्म जब पैदा होते हैं, तो वे भविष्य फिर बहुतों का क्या होगा, जो उस तरह से नहीं जा सकते? की बात करते हैं। वे कहते हैं, भविष्य हमारा है। अतीत रहा उनकी तो सोचो। अगर महावीर का ही अकेला मार्ग हो, तो जो 568 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदा बिना नाचे नहीं जा सकते, उनका क्या होगा? यह तो बड़ी चल रहा है। वह कहता है : किसी भांति मुझे इस योग्य बना दो कंजूसी हो जायेगी सत्य के ऊपर। यह तो सत्य का बड़ा संकीर्ण कि तुम्हारे चरणों में सब भांति बिसर जाऊं, भूल जाऊं! मुझे रूप हो जायेगा। जो नाचकर पहुंच सकते हैं, उनकी भी तो जगह ऐसी पिला दो कि फिर मुझे दुबारा होश न आये! मुझे मिटा होनी चाहिए। अगर नाचकर ही पहुंचने की जगह हो और डालो! यह तुम्हारे तीर को मेरे हृदय के बिलकुल आर-पार हो चुपचाप शांत बैठनेवालों के लिए जगह न रह जाये तो भी बात जाने दो। मुझ पर दया करो, मुझे समाप्त करो! करुणा करो और जरा अशोभन हो जायेगी। मुझे बिलकुल जला दो! राख भी न बचे! निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मयखाना __भक्त मिटने के मार्ग पर है। मिटकर वह सत्य को पाता है। तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते! | क्योंकि जो मिटता है, वह वही है जो मिट सकता है। कुछ है कि अगर मंदिर और मस्जिद से जिनका मन नहीं बैठता, अगर | शास्त्र से, परंपरा से जिनका मन नहीं बैठता, उनके लिए अगर तो जब भक्त अपने को जलने के लिए छोड़ देता है तो राख, कोई और मार्ग न होता...अगर मिलता न मयखाना, तो ठुकराए कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना बच जाता है। हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते! महावीर का मार्ग जीतनेवाले का मार्ग है। कोई समर्पण नहीं. नहीं, लेकिन सभी के लिए मार्ग है। उसने तुम्हें बनाया, उसी संघर्ष करना है। संघर्ष कर-करके छांटना है, गलत को छोड़ना दिन तुम्हारा मार्ग भी तुम्हारे भीतर रख दिया है। जरा पहचानो! है। तो उसमें भी वही घटता है। धीरे-धीरे कूड़ा-कर्कट छुट चल-चलकर थोड़ा देखो! अपनी चाल पहचानो! वही मौलिक जाता है, सोना बच जाता है। है। फिर उस चाल से जिस धर्म का मेल बैठ जाता हो, वही महावीर फुटकर-फुटकर चलते हैं, एक-एक इंच लड़ते हैं। तुम्हारा धर्म है। फिर जन्म की फिक्र छोड़ो, परंपरा की फिक्र भक्त बड़ा थोक है। वह इकट्ठा अपने को समर्पण कर देता है। छोड़ो, भीड़ की फिक्र छोड़ो, संस्कार की फिक्र छोड़ो। जिससे भक्ति छलांग है; महावीर यात्रा हैं। पर अपनी-अपनी मौज तुम्हारी लय बैठ जाती हो, जिसके साथ तुम्हारी सांस लयबद्ध हो है। किन्हीं को छलांग में रस न होगा। वे कहेंगे, 'आहिस्ता जाती हो, बस वही तुम्हारा धर्म है; उसी से चल पड़ो। और चलेंगे, सारा दृश्य देखते चलेंगे। धीरे-धीरे बढ़ेंगे, जल्दी क्या भूलकर भी यह न कहना कि दूसरे नहीं पहुंचते, क्योंकि वह है? अनंत काल तो पड़ा है।' किन्हीं को छलांग में रस है। वे अधार्मिक की दृष्टि है। | कहते हैं, जब पहुंचना ही है तो यह क्या धीरे-धीरे, यह क्या सुस्त महावीर का मार्ग है: जीतनेवाले का मार्ग। संघर्ष ! संकल्प! चाल, यह क्या सीढ़ी-सीढ़ी! कूद ही जाते हैं। भक्त का मार्ग है : हारनेवाले का मार्ग। क्योंकि प्रेम हार-हारकर अपने-अपने रस, अपनी-अपनी रुचि, अपने-अपने रुझान जीतता है। हार ही प्रेम की कला है। की बात है। मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना लेकिन एक बात सदा स्मरण रखना : भक्त और साधक के कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये। मार्ग अलग हैं और उनको अलग रखना। तुम्हें जो रुचे उस पर मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना चल जाना। ऐसा मत करना, ऐसा लोभ मत करना कि दोनों में से प्रेम की बाजी कौन कब जीता है। कोई कभी नहीं जीता! यह कुछ-कुछ बचा लें और दोनों में से कुछ-कुछ इकट्ठा कर लें। बाजी जीतनेवाले के लिए है ही नहीं। यहां जिसने जीतने की ऐसे लोभी भी हैं। लेकिन लोभी की बड़ी दुर्गति होती है। संसार कोशिश की वह प्रेम को नष्ट ही कर देता है, मार ही डालता है। में ही हो जाती है तो परमात्मा के मार्ग पर तो बहुत दुर्गति होती है। यहां जीतने की चेष्टा में तो प्रेम मर ही जाता है, कुचल जाता है। लोभ मत करना। ऐसा मत सोचना कि थोड़ा इसमें से भी ले लें मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना जो सुखद लगे और थोड़ा दूसरे में से भी ले लें जो सुखद लगे। कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये। तो फिर तुम बैलगाड़ी और कार को मिलाकर जो इंतजाम कर मगर यहां जो हारता है वही जीतता है। भक्त हारने के मार्ग पर लोगे, वह चलनेवाला नहीं है। वह तुम्हें किसी गड़े में गिरायेगा। 569 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1 मुल्ला नसरुद्दीन के बेटों ने ऐसा कबाड़खाने से | जब जो इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है आंख निकालने का, सामान ला-लाकर एक कार बना ली। जब बन गयी कार तो तो हो सकता है आंख देखे! तो वे बेचारे बड़ी देर तक काम में उन्होंने मुल्ला को भी निमंत्रित किया। मुल्ला बैठ गया। वह लगे रहे और देखते रहे, वह टेबल पर से आंख देख रही थी। कोई दस-पांच कदम ही गये होंगे कि कार गिरी एक खाई में, | फिर एक आदमी को होश आया। उसने जाकर एक टोकरी खेत में। मुल्ला चारों खाने चित्त पड़ा है। बेटों ने कहा, कि पापा | उसके ऊपर रख दी और फिर वह आराम करने लगे। उन्होंने डाक्टर को बुला लाएं? उसने आंख खाली। उसने कहा, | कहा, अब तो कोई झंझट नहीं। 'डाक्टर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं; पशुओं के डाक्टर को मगर आंख देख ही नहीं सकती; आंख सावयव इकाई है, बुला लाओ।' तो उन्होंने पूछा, 'आपको होश है? आप क्या | अलग होते ही व्यर्थ हो जाती है। हाथ अलग होते ही व्यर्थ हो कह रहे हैं? पशुओं के डाक्टर की क्या जरूरत है?' तो उसने जाता है। कहा, 'अगर मैं आदमी होता तो तुम्हारी इस कार में बैठता? यांत्रिक एकता एक बात है। अगर तुम कार के एक यंत्र को अगर मुझमें इतनी अकल होती...। तुम तो वैटनरी डाक्टर को बाहर निकाल लो, तो भी वह सार्थक है, बाजार में बिक सकता बुला लाओ।' है। क्योंकि वह यंत्र का हिस्सा काम आ सकता है। उसका कोई लोभ तुमसे कह सकता है कि थोड़ा भक्ति से चुन लो, थोड़े उपयोग हो सकता है। हाथ को काटकर बाजार में बेचने जाओ, नारद के सूत्र बड़े प्यारे हैं; थोड़ा महावीर से चुन लो, महावीर के कोई न खरीदेगा; उसका कोई उपयोग नहीं। उसकी इकाई टूट सूत्र बड़े प्यारे हैं। लेकिन 'तुम' चुननेवाले होओगे और 'तुम' | गयी। वह निष्प्राण है। जिन सूत्रों को चुन लोगे वह तुम्हारे अनुकूल होंगे। और तुम उन्हें महावीर का मार्ग आर्गनिक है, सावयव है। उसमें से एक छोड़ दोगे जो तुम्हारे अनुकूल नहीं मालूम होते। संभावना इसकी टुकड़ा मत निकालना; वह काम में न आयेगा। वह मुर्दा है। है कि जिन्हें तुम छोड़ोगे उनसे ही तुम्हारा रूपांतरण होता। और नारद का मार्ग भी सावयव है। सभी मार्ग सावयव हैं। उनमें से जो तुम चुनकर एक कृत्रिम ढांचा बना लोगे...कृत्रिम, याद कुछ निकालना मत। रखना। अंग्रेजी में एक शब्द है : आर्गनिक। एक तो ढांचा होता। इसलिए तो मैं गांधी के प्रयोग का बहुत पक्षपाती नहीं हूं: हैः सावयव। जैसे एक वृक्ष है, वृक्ष एक सावयव ढांचा है, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम! इसका मैं पक्षपाती नहीं हूं। क्योंकि आर्गनिक है। जैसे तुम हो, तुम्हारा शरीर एक आर्गनिक ढांचा अल्लाह किसी और सावयव इकाई का हिस्सा है, ईश्वर किसी है। अगर तुम्हारे हाथ को तोड़ दें तो हाथ अलग से न जी और इकाई का हिस्सा है। अल्लाह और ईश्वर को जोड़ देने से न पायेगा; तुम्हारे साथ ही जी सकता था। उसका प्राण तुम्हारी | तो आदमी हिंदू रह जाता, न मुसलमान रह जाता-आदमी बड़ी सावयव एकता में था; अलग होकर मुर्दा हो जायेगा। तुम्हारी | अड़चन और दुविधा में पड़ जाता है। क्योंकि अल्लाह का आंख को बाहर निकाल लें, फिर न देख पायेगी। अपना पूरा मार्ग है; उसे हिंदू मार्ग से कुछ लेने की जरूरत नहीं मुल्ला नसरुद्दीन की एक आंख कांच की है। वह मजदूरों से है। वह पूरा है अपने में-संपूर्ण है। हिंदु मार्ग अपने में पूरा है। काम लेता है तो वहां खड़ा रहता है। एक दिन जरूरी था उसको | उसे अल्लाह और मुसलमान से कुछ लेने की जरूरत नहीं है। जाना। वह रहता है मौजूद, देखता रहता है तो मजदूर काम करते | सभी मार्ग अपने में पूर्ण हैं। सभी मार्ग पहुंचा देते हैं। हैं; चला जाता है तो काम छोड़ देते हैं। तो उसने एक चमत्कार इसलिए मैं तुमसे समझौतावादी बनने को नहीं कहता। अनेक किया...। उसने कहा कि देखो। आंख खींचकर उसने बाहर समझौतावादी अपने को समन्वयवादी कहकर घोषित करते हैं, निकाल ली और उसने कहा, 'यह आंख रखे जा रहा हूं टेबल कि उन्होंने सबका समन्वय कर लिया है। डाक्टर भगवानदास ने पर, यह तुम्हें देखती रहेगी। धोखा देने की कोशिश मत एक किताब लिखी है सब धर्मों के समन्वय पर: द इसेंसियल करना।' मजदूर सकते में भी आ गये, क्योंकि कभी किसी युनिटी आफ आल रिलिजन्स! इस तरह की व्यर्थ किताबें बहुत आदमी को उन्होंने इस तरह आंख निकालते देखा नहीं था। और लिखी गई हैं। वह सब तरफ से कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लेते हैं। 5700 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो लेकिन वह सब मुर्दा हैं। किसी की आंख ले आये, किसी का आखिरी प्रश्न : बार-बार मन को समझाती हूं, पर समझा कान काट लाये, किसी की नाक ले आये, किसी के पैर ले आये, नहीं पाती हूं। जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए, उन्हें मैं किसी तरह जमा-जमूकर नक्शा खड़ा कर दिया—इसको कहते | कैसे भूलूं! बार-बार आपका प्रेम याद आता रहता है। आप हैं : 'इसेंसियल युनिटी आफ आल रिलिजन्स!' यह सब धर्मों कहते हैं कि अतीत को भूल जाऊं; मगर यह मेरे बस की बात की एकता हो गयी! यह मरा हुआ आदमी है। इसमें कुछ भी नहीं। आप वीतराग हो गये। अब इन आंसुओं के सिवा मेरे जिंदा नहीं है। नाक जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के साथ पास कुछ भी नहीं है। जितना प्रेम आपने दिया उतना तो किसी काट ली कि मुर्दा। आंख जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के ने भी नहीं दिया। और मन बार-बार कहता है, आप कब साथ; अलग कर ली कि मुर्दा। फिर तुम अस्थि पंजर पर आएंगे? जमाकर बिलकुल खड़ा कर दो, तो शायद बच्चों के डराने के काम आ जाये, या रात में दरवाजे पर खड़ा कर दो तो चोर इत्यादि 'सोहन' का प्रश्न है। पास न आयें, या खेत में खड़ा कर दो तो पशु-पक्षियों को | समझाने से तो उलझन बढ़ेगी। समझाने की कोई जरूरत नहीं, डराए-लेकिन और किसी ज्यादा काम का नहीं है। समझाने से समझ आती भी नहीं। और 'सोहन' के लिए बहुत लोगों को सवाल उठता है। इस सदी में अनेक लोगों ने समझदारी रास्ता भी नहीं हो सकती। नासमझी में जीना! और सब धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश की है। याद आती है तो उसे हटाने की कोशिश भी मत करना। याद में इस तरह की कोशिश पहले क्यों नहीं की गयी? क्या महावीर, पूरी तरह डूबना। याद से पीड़ा हो तो पीड़ा को होने देना, रोना, बुद्ध, कृष्ण, और क्राइस्ट नासमझ थे? क्या डाक्टर | जार-जार रोना, आंसुओं को बहने देना! वे आंसू पवित्र करेंगे। भगवानदास और महात्मा गांधी और विनोबा ज्यादा समझदार प्रेम के रास्ते पर बहे आंसू पवित्र करते हैं। और वैसी याद हैं? इस सदी में यह समन्वय की जो कोशिश की गयी है, इसके | चिंता नहीं है। वैसी याद तो हृदय की उदभावना है। गहरे में आधार राजनैतिक हैं। महावीर और बुद्ध को एक बात अड़चन इसलिए पैदा हो रही है कि मन समझा रहा है कि छोड़ो साफ थी कि प्रत्येक मार्ग अपने में संपूर्ण है, जीवंत है! उसमें से भी, याद से तो पीड़ा होती है। प्रेम के स्मरण से पीड़ा होती है। कुछ भी अलग किया, मर जायेगा। यह बुद्धि है जो बीच-बीच में बाधा डाल रही है। तो तुम भक्ति के मार्ग पर चलना चाहो तो भक्ति के मार्ग पर इस बुद्धि की मानकर चलने से कुछ भी हल न होगा। क्योंकि चलना, लेकिन समग्ररूपेण! और कुछ छोड़ना मत उसमें से, बुद्धि कभी हृदय को नहीं जीत पाती, अगर हृदय बलशाली हो। क्योंकि जो छोड़ा जा सकता था वह नारद ने ही छोड़ दिया है। जो और सोहन के पास बलशाली हृदय है। बुद्धि भौंकती रहेगी, नहीं छोड़ा जा सकता था, बस उतना ही बचाया है। अगर | हृदय अपने रास्ते पर चलता जायेगा। अगर बुद्धि की सुनी तो महावीर का मार्ग ठीक लगे तो महावीर के मार्ग पर चलना; बड़ी अड़चन पैदा होगी। क्योंकि हृदय बलशाली है और बुद्धि छोड़ना मत उसमें से कुछ, क्योंकि जो छोड़ सकते तो महावीर | उसे बदल नहीं सकती। खुद ही छोड़ देते। कुछ भी व्यर्थ नहीं है; बिलकुल मूलभूत, हृदय की ही सुनो! बुद्धि की छोड़ो। बुद्धि से कहो, 'छोड़ सारभूत जो है, वही बचाया है। इसमें से कुछ भी काटा नहीं जा भौंकना! तू भी याद में लग! तू भी रो! तू भी हृदय की अनुषंग सकता। और न कुछ जोड़ना; क्योंकि जो जोड़ा जा सकता था बन जा, हृदय की छाया बन जा!' वह उन्होंने जोड़ दिया है। कुछ और जोड़ने की जरूरत नहीं है। 'सोहन' के लिए कोई महावीर का रास्ता पहुंचानेवाला नहीं प्रत्येक धर्म बड़ी सावयव इकाई है, जीवंत इकाई है, यंत्रवत है, उसे तो भक्ति का ही कोई रास्ता पहुंचाएगा। तो प्रेम को नहीं। इतना स्मरण रहे तो फिर तुम्हारी जहां रुचि हो, जहां रुझान भक्ति बनाओ, भाव को भक्ति बनाओ। और बेहोशी को, हो, तुम चल पड़ना! तुम पहुंच जाओगे। सभी नदियां सागर की बेखुदी को रास्ता समझोः डूब गये, रोये, नाचे, गाये! तरफ जा रही हैं! इसलिए धीरे-धीरे दूर हट गया हूं। क्योंकि अगर मैं पास होऊ 5711 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIT जिन सूत्र भागः 1TRATIMATE तो तुम रोओगे कैसे? अगर मैं पास होऊ और तुम्हें जब चाहिए विपरीत मत समझो-उसके साथ बहो, उसको स्वीकार करो! तब मिल जाऊं, तो फिर आंसू कब बहाओगे? याद कैसे वह पीड़ा तुम्हें मांजेगी। वह पीड़ा तुम्हें निखारेगी। वह पीड़ा करोगे? यह भी उपाय है। अग्नि की तरह सिद्ध होगी और तम्हारा स्वर्ण कंदन बनेगा। बहुतों को मैंने अपने प्रेम में डाला और फिर धीरे-धीरे दूर हट सुबह तेरी है तो ऐखालिके-सुबह! गया। दूर हट जाना उपाय है। क्योंकि प्रेम अगर दूर हट जाने से रात है किसकी करम फर्माई? मर जाये तो प्रेम न था। और दूर हट जाने से अगर प्रेम और गहन -हे परमात्मा, अगर सुबह तूने बनायी तो फिर रात किसकी हो जाये तो भक्ति बनने में ज्यादा देर नहीं। अनुकंपा का फल है? भगवान दिखाई नहीं पड़ता; न तुम उसे छू सकते हो, न उससे अगर प्रेम से सुख मिलता है तो प्रेम से दुख भी मिलेगा। प्रेम बोल सकते हो। प्रेमी दिखायी पड़ता है, छुआ जा सकता है, के दुख को स्वीकार करना! जिसने सिर्फ प्रेम के सुख को बोला जा सकता है। अगर मैं तुम्हारे पास ही रहूं तो तुम्हारा प्रेम, | स्वीकार किया उसने आधे को स्वीकार किया; उसके पूरे प्राणों प्रेम ही रह जायेगा। मुझे तुमसे दूर हटना होगा। इतना दूर हटना पर प्रेम का विस्तार न हो सकेगा। प्रेम का दिन स्वीकारा, प्रेम की होगा कि मैं भी करीब-करीब अदृश्य हो जाऊं। अगर प्रेम फिर रात भी स्वीकारना। और अगर दोनों स्वीकार हो गये तो ज्यादा भी बच सका तो तुम पाओगे कि प्रेम ने धीरे-धीरे एक रूपांतरण देर न लगेगी कि परमात्मा सब तरफ दिखायी पड़ने लगे। दुख लिया। वह अदृश्य का, अज्ञात का प्रेम बनने लगा! वही भक्ति भी उसी का है, इसलिए सौभाग्य है। है। धीरे-धीरे मेरी याद, मेरी याद न रह जायेगी। धीरे-धीरे मैं भी तू मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है एक बहाना हो जाऊंगा। उस बहाने से परमात्मा की ही याद तुममें / त दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है। प्रवाहित होने लगेगी। --फिर धीरे-धीरे दिन की भांति रात में भी वही छिपा मालम प्रेम का दिन भी होता है, प्रेम की रात भी होती है। अगर प्रेम पड़ेगा। का दिन ही दिन हो, सुख ही सुख हो और प्रेम की पीड़ा न हो, तो तू दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है। प्रेम छिछला रह जाता है, गहरा नहीं होता। पीड़ा के बिना कोई अंधेरा भी फिर उसका ही स्पर्श देगा। भी चीज जगत में गहरी नहीं होती। | अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति बन जाये तो प्रेम भक्ति सुख बड़ा ऊपर-ऊपर है, दुख बड़ा गहरा है। सुख की कहीं बनती है। अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति मालूम पड़ने गहराई होती है? वह तो पानी के ऊपर-ऊपर की लहरें हैं। दुख लगे...क्योंकि अनुपस्थिति भी उसी की है न! उसी से जुड़ी है। की गहराई होती है। इसलिए दुख तुम्हारे हृदय को जितना गहरा | तो अनुपस्थिति भी फिर परमात्मा की ही हो गयी, प्रभु की हो छूता है उतना सुख कभी नहीं छू पाता। सुखी आदमी को तुम गयी, प्रेम की हो गयी! तो अनुपस्थिति को भरने की कोशिश मत हमेशा छिछला पाओगे। दुखी आदमी के जीवन में एक गहराई | करना। उसको जीना। होती है। तु मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है। और धन्यभागी हैं वे, जो प्रेम के कारण दुखी हैं। क्योंकि और फिर धीरे-धीरे जब दिल में दुख और सुख दोनों क्षणों में कारण पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। कोई इसलिए दुखी है कि धन वह दिखायी पड़ने लगे तो सारे संसार में भी दिखायी पड़ने नहीं मिला। धन मिलकर ही बहुत गहराई नहीं मिलती, तो धन लगेगा। के न मिलने से क्या खाक गहराई मिलेगी? उसका दुख व्यर्थ के प्रेमी चाहता क्या है? प्रेमी चाहता है कि प्रेमी में लीन हो लिए है। कोई इसलिए रो रहा है कि पद नहीं मिला। धन्यभागी जाये। भक्त चाहता क्या है? –कि भगवान में डूब जाये। हैं वे जो इसलिए रो रहे हैं कि प्रेम एक खाली जगह छोड़ गया है! तू है मुहीते-बेकरां मैं हूं जरा-सी आबे-जू उस खाली जगह को अपना पूजागृह बनाओ। प्रेम ने जहां हृदय या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बे-किनार कर! को छुआ है और पीड़ा को जगाया है, उस पीड़ा को अपने से तू है मुहीते-बेकरां-तू है बड़ा सागर! मैं हूं जरा-सी NOTayakal shadesisya RAMANTRA R Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो आबे-जू-मैं हूं एक छोटा-सा झरना। या मझे हमकिनार अगर दुख को सौभाग्य समझ लिया तो सब घट गया। क्योंकि कर—या तो मुझे अपने साथ ले ले...या मुझे बेकिनार वहीं तो मनुष्य की उलझन है : दुख का अस्वीकार; सुख का कर-या मुझे मेरे किनारों से मुक्त कर दे। | स्वीकार। जब दुख का भी स्वीकार हो गया तो दुख दुख न रहा। लेकिन दोनों ही बातों का एक ही अर्थ होता है। या तो तू मुझे ऐसा समझो कि जिस दुख को हम स्वीकार कर लेते हैं वह सुख अपने साथ ले ले, सागर बना ले, और या फिर मुझे बेकिनारा हो जाता है। स्वीकार करते ही सुख हो जाता है। दुख का होना कर दे। मेरे किनारे मझ से छीन ले। या तो मझे डुबा ले या मेरे हमारे अस्वीकार में है। स्वीकार होते ही दुख का गुणधर्म बदल किनारे मुझसे छीन ले! लेकिन दोनों हालत में वह जो छोटा-सा | जाता है। झरना है, सागर हो जायेगा। मुझे खयाल में है। जिन-जिनसे भी प्रेम किया है, उनसे मैं तड़फ क्या है? पीड़ा क्या है? पीड़ा प्रेमी के मिलने से थोड़े धीरे-धीरे अपने को दूर हटाऊंगा ही। प्रेम तो शुरुआत है। वहीं ही पूरी होती है-पीड़ा प्रेमी में खो जाने से पूरी होती है। यही तो रुक नहीं जाना है। दूर हटूंगा तो प्रेम भक्ति में बदल सकता है। भक्त और प्रेमी का फर्क है। अगर होगा तो भक्ति में बदल जायेगा। अगर नहीं होगा तो अगर तुम्हारे जीवन में मेरे प्रति प्रेम है और प्रेम अगर भक्ति में नाराजगी में बदल जायेगा। तो कुछ हैं जो मेरे पास से नाराज न रूपांतरित हुआ, तो यह प्रेम भी बंधन बन जायेगा। फर्क होकर हट जाते हैं। 'सोहन' उनमें से नहीं है; हटनेवाली नहीं समझ लो। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम किया वह मिल जाये। है। लाख हटाने की चेष्टा करूं, वह हटनेवाली नहीं है। तो फिर भक्त चाहता है, जिससे प्रेम किया उसमें हम खो जायें। प्रेमी | उसकी हार भी जीत में बदल जायेगी। प्रेम-पात्र को पास लाना चाहता है। भक्त प्रेम-पात्र के पास गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है जाना चाहता है। बड़ा फर्क है। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है किया उस पर कब्जा हो जाये। भक्त चाहता है, जिसे प्रेम किया हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का उसका मुझ पर कब्जा हो जाये। जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है। ध्यान रखना, प्रेमी तो हारेगा; क्योंकि यह कब्जा संभव नहीं तो जो प्रेम मेरे प्रति है, उसे और फैलाओ! उसे इतना फैलाओ है। भक्त जीतेगा; क्योंकि भक्त कब्जा करना ही नहीं चाहता, कि उस प्रेम के लिए कोई पता ठिकाना न रह जाये। मुझसे सिर्फ कब्जा देना चाहता है। सीखो। लेकिन मुझ पर रुको मत। मुझसे चलो, लेकिन मुझ पर त है महीते-बेकरां, मैं हं जरा-सी आबे-ज ठहरो मत। या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बेकिनार कर। जैनों का शब्द तीर्थंकर बड़ा बहमल्य है। तीर्थंकर का अर्थ यह जो दुख 'सोहन' को प्रतीत हो रहा है, गहरा उसे प्रतीत हो होता है: घाट बनानेवाला। घाट बना दिया, घाट बैठने के लिए रहा है, इस दुख को सुख में बदला जा सकता है। इस पीड़ा से नहीं है; दूर जाने के लिए है, दूसरे घाट जाने के लिए है। बड़े फूल खिल सकते हैं। लेकिन थोड़ी समझ में क्रांति लानी तो मैं अगर तुम्हारा घाट बन जाऊं और फिर तुम वहीं रुक जरूरी है। | जाओ और वहीं खील ठोंक दो, और वहीं नाव को अटका लो, हासिले-जीस्त मसर्रत को समझनेवाले तो यह तो काम का न हुआ। मैं तुम्हें मेरे किनारे पर कील एक नफस गम भी की दमभर तो खदा याद रहे। ठोंककर रुकने न दूंगा। तुम लाख ठोंको, मैं उखाड़ता रहूंगा। थोड़ा-सा दुख भी चाहिए, दमभर तो खुदा याद रहे! अगर | एक न एक दिन तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ जाने की तैयारी करनी सुख ही सुख हो तो याद भूल जाती है। इसीलिए तो लोग सुख में होगी। उस यात्रा के लिए तैयार रहो। निश्चित ही दूसरी तरफ याद नहीं करते, दुख में याद करते हैं। और जिसने यह सार जाने में यह किनारा दूर होता हुआ मालूम होगा। लेकिन दुख में याद गहन होती है, वह फिर दुख से न घबड़ाओ मत, में दूसरे पर मिल जाऊंगा-बहुत बड़ा होकर! छूटना चाहेगा; वह तो दुख को भी सौभाग्य समझेगा। और पूछा है, 'आप कब आएंगे?' 573 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1. दूसरे किनारे पर! अब इस किनारे पर नहीं। और दूसरे किनारे पर जिस रूप में आऊंगा, वह रूप शायद एकदम से पहचान में भी न आयेगा। दूसरे किनारे पर जिस ढंग से आऊंगा शायद वह ढंग एकदम से समझ में भी न आयेगा। गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है। वह पहचान तो विराट की पहचान होगी। उसे अभी से पहचानने लगो। थोड़े दिन यह देह होगी, फिर यह देह भी जायेगी; तब मैं तुमसे और भी दूर हो जाऊंगा। ऐसे धीरे-धीरे एक-एक कदम तुमसे दूर होता जाऊंगा। थोड़ी देर बाद यह देह भी खो जायेगी। फिर तुम मुझे किसी तरफ न देख सकोगे। सब तरफ देख पाओगे तो ही देख सकोगे। उसकी तैयारी करवा रहा हूं। उसका धीरे-धीरे तुम्हें अभ्यास करवा रहा हूं। ये क्षण बहुमूल्य हैं। इन क्षणों में मिले हुए सुख में तो सुखी होओ ही, इन क्षणों में मिले दुख में भी सुखी होओ। और बुद्धि की मत सुनो! हृदय की सुनो! आऊंगा जरूर, लेकिन दूसरे किनारे पर। आना सुनिश्चित है, लेकिन तुम इस किनारे पर मत रुके रह जाना; अन्यथा मैं उस किनारे प्रतीक्षा करूं और तुम इसी किनारे बने रहो! इस किनारे से तो मेरे भी जाने के दिन करीब आयेंगे। इसके पहले कि मैं इस किनारे से विदा होऊ, तुम अपनी खूटी उखाड़ लेना, तुम अपनी नाव को चला देना। दूसरा किनारा दूर है और दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन जिस नदी का एक किनारा है उसका दूसरा भी है ही, दिखाई पड़े न दिखाई पड़े। कहीं एक किनारे की कोई नदी हुई है? तो प्रेम का एक रूप जाना, एक किनारा जाना—दूसरा भी है। वही भक्ति है। मनुष्य को प्रेम किया, शुभ है। लेकिन वहां रुक मत जाना। वह प्रेम धीरे-धीरे उठे लपट की तरह और परमात्मा के प्रेम में रूपांतरित हो। मेरा प्रेम तुम्हें मुक्त करे, तुम्हें मोक्ष दे, तो ही मेरा प्रेम है; बांध ले, अटका दे, तो फिर मेरा प्रेम नहीं। प्रेम सदा ही मोक्ष का द्वार है! आज इतना ही। 574