________________ जिन सत्र भाग : 11 तुम्हारी संपदा तुम हो। तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर इसी क्षण भक्तों की परंपरा का शब्द है। दोनों को जोड़ने की कोशिश मत मौजूद है। कहीं न जाओ-न आगे न पीछे, न उत्तर न दक्षिण, न करो, अन्यथा तुम और उलझ जाओगे। दोनों को अलग-अलग पश्चिम न पूरब, न नीचे न ऊपर-दसों दिशाओं को छोड़ दो। ही रखो। दोनों सही हैं; पर अलग-अलग सही हैं; दसों दिशाओं को छोड़कर जो खड़ा हो जाता है, उस अवस्था को | अलग-अलग यंत्रों के अंग हैं। महावीर कहते हैं समाधि। वह आ गया घर! वापसी हो गयी! महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई जगह नहीं है। क्योंकि उसने जान लिया उसे—जिसका विस्मरण हो गया था। | भजन का अर्थ होता है: उत्सव। भजन का अर्थ होता है: यह भी खयाल रख लेना: तुम चाहते हो मुझे कि मैं तुम्हें कुछ प्रभु-नाम-स्मरण। भजन का अर्थ होता है : तल्लीनता। भजन चलाऊं, दौड़ाऊं, कहीं पहुंचाऊं, तुम्हें कोई ज्वर दूं, तुम्हें कोई का अर्थ होता है: बेहोशी, बेखुदी। भजन तो ऐसा है जैसे कोई तड़फ दूं, उत्साह दूं। भीतर की शराब, पीये और मस्त हो गये! भजन तो नृत्य है, मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, जरा हमें उत्साह गुनगुनाना है, गीत है। दें-उत्साह ढीला पड़ा जा रहा है। उत्साह किसलिए? तुम महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई चीज नहीं है। वह मार्ग कोई सैनिक नहीं हो कि कहीं युद्ध पर जा रहे हो। तुम संन्यासी बिलकुल भजन-शून्य है। हो, अपने घर आ रहे हो–उत्साह कैसा? इसलिए अगर महावीर के मार्ग के शब्द 'दर्शन' का उपयोग लेकिन लोगों को उत्साह चाहिए, दौड़ने के लिए उत्साह जरूरी कर रहे हो तो भजन को भूल जाओ। महावीर कहते हैं, दर्शन से है, रुकने के लिए उत्साह की जरूरत है? रुकने के लिए तो होगा ज्ञान, बोध। भजन तो है अबोध। महावीर कहते हैं, होगा उत्साह बाधा भी बन सकता है। क्योंकि वह तुम्हें दौड़ाए ज्ञान। महावीर कहते हैं, आयेगी जागति। भजन तो है गहरी रखेगा। शांत बैठ जाना है-कैसा उत्साह ? कहीं जाना नहीं, आत्म-विस्मृति, तल्लीनता। और महावीर कहते हैं, ज्ञान से ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं करना है। जैसे शांत झील हो, ऐसे हो चारित्र्य रूपांतरित होगा। जाना है जिसमें तरंग नहीं उठती, लहर नहीं उठती। भजन है भक्तों का शब्द। उसे भी समझ लेना जरूरी है। लेकिन तुम डरते हो। तुमने अब तक तो जिसको जीवन जाना | भजन के लिए दर्शन जरूरी नहीं। भजन के लिए भाव जरूरी है। है, वह दौड़-धूप है, आपा-धापी है। तुमने उसके अतिरिक्त महावीर का 'दर्शन' पाना हो तो निर्भाव होना जरूरी है। वे कोई जीवन नहीं जाना। तुमसे अगर कोई बैठने को कहे तो विपरीत रास्ते हैं। वहां सारे भाव का त्याग कर देना है। वहां तो लगता है, यह तो मरने जैसा हो गया। इसमें जीवन कहां है? भाव राग है। वहां तो प्रेम भी बंधन है। भक्त के मार्ग पर भाव लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जीवन तुम्हारे भीतर है। उसे दौड़-धूप | प्रारंभ है: भाव, भजन, भगवान! वहां न ज्ञान, न दर्शन, न करके तुम न पा सकोगे। जब दौड़-धूप से थक जाओगे, बैठ चारित्र्य। भक्त को चरित्र इत्यादि की चिंता ही नहीं। वह कहता जाओगे, और कहोगे, अब कहीं जाने की कोई इच्छा न | है, 'चरित्र उसका, हमारा क्या? उसकी जैसी मर्जी! वह जैसा रही–तत्क्षण तुम पाओगे कि वह मिल गया। नाच नचाये!' भक्त तो कहता है, 'हम तो कठपुतली की भांति हैं; धागे उसके हाथ में हैं! वह जो बनाये हम बन जाते हैं। दूसरा प्रश्नः दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या लीला उसकी है। सारा नाटक उसका रचा हुआ है। हम तो भजन कहते हैं? कृपा करके समझाएं। केवल पात्र हैं नाटक में राम बना देता है, राम बन जाते हैं; | रावण बना देता है, रावण बन जाते हैं।' 'दर्शन' महावीर की साधना-पद्धति का शब्द है; 'भजन' भक्त की भाव-दशा बड़ी अलग है। तो भक्त प्रेम से चलता उनकी साधना-पद्धति का शब्द नहीं। दर्शन के बाद तो महावीर | है, भाव से चलता है। भाव ही सघन होकर भक्ति बनती है। कहते हैं, ज्ञान घटता है। ज्ञान के बाद चारित्र्य घटता है। भजन और भक्ति जब प्रगट होती है फूलों की तरह, तो भजन। की कोई जगह महावीर की विचार-शृंखला में नहीं है। भजन भाव से शुरुआत है। जब भाव बहुत गहन होने लगता है, 564 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org