Book Title: Jinsutra Lecture 19 Dharm ki Mul Bhitti Abhay
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्रवचन धर्म की मूल भित्तिः अभय For Private seconal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।४८।। णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसि। कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।४९।। को णाम भणिज्ज बुहो, णाउं सव्वे पराइए भावे। मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं / / 50 / / अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो। तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।।५१।। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी वन थोड़ी देर को है। सुबह हो गई तो जल्दी सांझ लगा देने को तैयार हो! जोखिम उठाने की हिम्मत चाहिए। जा भी होगी। जन्म हुआ तो मौत आने लगी ही तुम्हारे | जुआरी का दिल चाहिए। होशियारी से न चल सकोगे इस रास्ते पास। पर। होशियार भटक जाते हैं। ज्यादा समझदारी अंततः नासमझी जन्म और मृत्यु के बीच में ज्यादा समय नहीं है-अत्यल्प सिद्ध होती है। क्योंकि समझदार रत्ती-रत्ती का हिसाब रखता है। काल है। उसे सोये-सोये मत बिता देना। क्योंकि जो उसे | रत्ती-रत्ती तो बचा लेता है; लेकिन जीवन का सारा खजाना खो सोये-सोये बिता देता है, वह जान ही नहीं पाता कि कौन था, जाता है। बूंद-बूंद बचा लेता है, सागर गंवा देता है। क्यों आया था; जीवन के सारे रहस्यों से अपरिचित रह जाता | कंकड़-पत्थर जुटाने में ही समय व्यतीत हो जाता है और सांझ है। और प्राणों में सिवाय आंसुओं के, अतृप्त आकांक्षाओं के, आने में देर नहीं लगती। सुबह हो गई तो सांझ होने लगी। सूरज असंतोष के, विषाद के, कुछ भी लेकर न जा सकोगे। ऊगा नहीं कि डूबना शुरू हो जाता है; पूरब से उठा नहीं कि जागा हुआ ही भरता है; सोया हुआ खाली रह जाता है। और पश्चिम की तरफ यात्रा शुरू हो गई। जीवन इतना छोटा है कि अगर उद्दाम वेग से, अगर महत संकल्प | इसके पहले कि सूरज डूब जाये, इसके पहले कि अंधेरा तुम्हें से, अगर सारे जीवन को दांव पर लगा देने की आकांक्षा के पकड़ ले और खुद को खोजना मुश्किल हो जाये और ऐसा बिना, जागना चाहा तो जाग न पाओगे। बहुत बार हो चुका है इसलिए तुम्हें चेता देना जरूरी है। बहुत तो ऐसे भी हैं जो सोये-सोये ही जागने का सपना देख अनेक-अनेक बार तुमने सूरज देखा है, सुबह देखी है। लेते हैं और समझा लेते हैं कि जाग गये। सौ में से निन्यानबे और तुम्हारे जीवन की कथा पूरी भी नहीं हो पाती। कब साधु-संन्यासी जागने का सपना देख रहे हैं, जागे नहीं। क्योंकि किसकी होती है? जागने की जो प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया के लिए जितने जोर से | जमाना बड़े शौक से सुन रहा था जीवन को दांव पर लगा देने की जरूरत है, वैसा साहस उनमें हमीं सो गये दासतां कहते-कहते दिखाई नहीं पड़ता। अकसर तो ऐसा होता है कि साधु और कभी पूरी भी नहीं होती दासतां। सभी बीच में ही मर जाते हैं। संन्यासी भयभीत लोग होते हैं। साहस के कारण संन्यासी नहीं क्योंकि आकांक्षाएं अनंत हैं और समय सीमित है। जीवन की होते हैं; संसार के भय के कारण संन्यासी हो जाते हैं। और प्याली में इतनी आकांक्षाएं भरी नहीं जा सकतीं। संन्यास का भय से क्या संबंध हो सकता है? | तो अगर खाली हाथ जाना हो तो सांसारिक का जीवन है। इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस बात को खयाल में अगर भरे हाथ जाना हो तो धार्मिक का जीवन है। लेकिन धर्म का ले लेना : दुस्साहस चाहिए। ऐसा साहस-जो सब दांव पर प्रारंभ साहस से होता है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुनिया में दो तरह के धार्मिक व्यक्ति हैं। एक—जो भय के महावीर ने तो आत्मा को नाम 'समय' दिया है। बड़ी कारण धार्मिक हैं। चोरी नहीं कर सकते, भय के कारण; | महत्वपूर्ण बात है। महावीर आत्मा को कहते हैं : 'समय'। इसलिए अचोर हैं। बेईमानी नहीं कर सकते, पकड़े जाने के भय समय को गंवाते हो तो आत्मा को गंवाते हो। समय को सम्हाल के कारण; इसलिए ईमानदार हैं। यह ईमानदारी कोई बहुत गहरी लिया तो आत्मा को सम्हाल लिया। जैसे वस्तुएं स्थान घेरती हैं, नहीं हो सकती। इस ईमानदारी में बेईमानी छिपी है। यह वैसे आत्मा समय घेरती है। जैसे वस्तुएं बाहर घटती हैं-क्षेत्र ईमानदारी ऊपर-ऊपर है; भीतर बेईमानी वास बनाए है। झूठ में, वैसे आत्मा भीतर घटती है-समय में। नहीं बोलते, क्योंकि पकड़े न जायें। अधर्म नहीं करते, क्योंकि आइंस्टीन शायद महावीर से राजी होता; क्योंकि उसने भी पाप का भय है, नर्क का भय है। नर्क की लपटें दिखाई पड़ती पाया कि जीवन को बनानेवाले दो ही तत्व हैं : टाइम और स्पेस, हैं। और हाथ-पैर उनके शिथिल हो जाते हैं। समय और क्षेत्र। दुनिया में अधिक लोग धार्मिक हैं-भय के कारण; दंड के क्षेत्र से वस्तुएं बनती हैं, यह साफ है। मनुष्य की चेतना कहां कारण। लेकिन जो भय के कारण धार्मिक हैं, वे तो धार्मिक हो ही है? क्षेत्र में तो कहीं नहीं बता सकते। उंगली से इशारा हो सके, नहीं सकते। उससे तो अधार्मिक बेहतर; कम से कम भयभीत नहीं बता सकते। जहां भी हाथ रखोगे वहीं गलती हो जायेगी। तो नहीं है। आदमी की आत्मा कहीं समय में है। शरीर क्षेत्र में है, आत्मा महावीर ने अभय को धर्म की मूल भित्ति कहा है। और है भी समय में है। वस्तुएं क्षेत्र में हैं, घटनाएं समय में हैं। अगर अभय धर्म कि मूल भित्ति। क्योंकि संसार को तो गंवाना है और तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाये और कोई पूछे कहां है प्रेम, तो तुम कुछ ऐसी खोज करनी है जिसका हमें अभी पता भी नहीं। यह क्या कहोगे? तुम कहोगे, प्रेम घटना है, वस्तु नहीं। जब तुम साहस के बिना कैसे होगा? जो सामने दिखाई पड़ता है उसे तो | कहते हो, प्रेम घटना है, तो तुम यह कह रहे हो कि समय में है, छोड़ना है और जो कभी दिखाई नहीं पड़ता, सदा अदृश्य है, स्थान में नहीं। इसलिए हम यह न बता सकेंगे, कहां है। हम अदृश्यों की गहरी पर्तों में छिपा है, रहस्यों की पर्तों में छिपा इतना ही कह सकते हैं, कब घटा। 'कहां' से कोई संबंध भी है-उसे खोजना है। | नहीं है--कब, किस घड़ी में, किस मुहूर्त में! समझदार कहता है, हाथ की आधी भी भली। दूर की पूरी रोटी समय को गंवा सकते हैं हम क्षुद्र को इकट्ठा करने में। क्षुद्र से हाथ की आधी रोटी भली! तो समझदार तो कहता है, जो है सामने है और जो विराट है वह छिपा है। इस क्षुद्र को इकट्ठा उसे भोग लो। चाहे उसमें कुछ भी न हो; लेकिन इसे दांव पर कर-करके भी तो कुछ पाया नहीं जाता। इसलिए महावीर कहते मत लगाओ, क्योंकि कौन जानता है, जिसके लिए तुम दांव पर हैं, इसे दांव पर लगा दो। यह कचरा ही है; इसको दांव पर लगा रहे हो वह है भी या नहीं! जिस सत्य की, जिस आत्मा की, लगाने में कुछ खो नहीं रहे हो। और जो समय बच जायेगा, जो जिस परमात्मा की खोज पर निकलते हो—किसने देखा? शुद्ध समय बच जायेगा, जिसको तुमने संसार में नहीं गंवाया, इसलिए चार्वाक कहते हैं, 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।' पी लो घी वही शुद्ध समय ध्यान बनता है। ऋण लेकर भी सामने तो है! किस स्वर्ग के लिए छोड़ते हो? संसार में न गंवाया गया समय ध्यान है। संसार की ऋण न भी चुके तो फिक्र मत करो। लेकिन जो सामने है, उसे व्यस्तताओं में कलुषित न किया गया समय ध्यान है। भोग लो। इसलिए महावीर के लिए ध्यान के लिए जो शब्द है वह है: धर्म का पहला कदम तब उठता है, जब तुम देखते हो जो 'सामायिक'। वह 'समय' से बना है। सामने है वह भोगने योग्य ही नहीं। भोगा तो, न भोगा तो सब महावीर बड़े वैज्ञानिक हैं, उनकी शब्दावली में। बराबर है। इसे भोग भी लिया तो क्या भोगा? इसे पाकर भी | जो समय संसार में नहीं लगा है, वही 'सामायिक'। क्या मिलेगा? हां, इसे पाने में, इसे भोगने में जो समय गया वह महावीर के पास परमात्मा तो है नहीं कि कह दें कि परमात्मा में जीवन की संपदा गई। जो समय लगा है, वह ध्यान। नहीं, जो संसार में नहीं लगा, जो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H Bodya * मेकी मलपि INE Sta B संसार से अछता बच गया है, जिसे संसार दषित नहीं कर पाया, अब सामान कहां हैं? जिस समय को संसार की कोई छाया नहीं पड़ी, कुंआरा अब वे मेरे गान कहां हैं? है-वही सामायिक। जगती के नीरस मरुथल पर जिसने समय को न बचाया और जिसने समय की शुद्धता न हंसता था मैं जिनके बल पर जानी, जो सामायिक में न जीया-वह आया भी वसंत में और चिर वसंत-सेवित सपनों के पतझड़ में रहा। जीवन का प्रसाद बरसता था, लेकिन उसका मेरे वे उद्यान कहां हैं? पात्र उलटा पड़ा रहा। जीवन की अमृत-सरिता बहती थी, वह अब वे मेरे गान कहां हैं? किनारे पर ही पीठ किए खड़ा रहा-कहीं और देखता रहा और ऐसा कहीं तब न पता चले जब करने को कोई शक्ति हाथ में न प्यासा रहा, और कंठ जलता रहा।। | रह जाये। पता तो सभी को चलता है। एक न एक दिन वे सब जिसमें तुम आज अपने को लगाये हो, आज नहीं कल तुम गीत जो गुनगुना-गुनगुनाकर मन को समझाया था, वे सब व्यर्थ पाओगे व्यर्थ है। जो जितनी जल्दी पा ले, उतना बोध, उतनी सिद्ध होते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें, कि रेत पर किये गये बुद्धि, उतनी समझ उसमें है। कुछ हैं जो मरते दम तक नहीं हस्ताक्षर, कि तुम बना भी नहीं पाते कि पुंछ जाते हैं और मिट पाते-मरकर भी नहीं पाते! कुछ हैं जो बुढ़ापा आते-आते थोड़े जाते हैं। कि कागज की नावें कि तुमने छोड़ी नहीं कि डूब जाती चेतते हैं। इधर शरीर डगमगाने लगता है तो उधर आत्मा थोड़ी हैं! कि ताश के पत्तों के घर कि हवा का जरा-सा झोंका, और सम्हलती है। इधर रोग पकड़ने लगते हैं, बीमारियां घर करने | फिर उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती! लगती हैं, चोट पड़ती है। कुछ खयाल आता है: कैसे जिंदगी आज वे मेरे गान कहां हैं? गंवा दी। लेकिन जो और समझदार हैं, वे भरी जवानी में जाग टूट गई मरकत की प्याली जाते हैं। जब कि सब तरफ लुभावना जगत था और सब तरफ लुप्त हुई मदिरा की लाली आकर्षण थे, उनको भी वह गहरी आंख से देख लेते हैं और मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले उनके पीछे भी पाते हैं कुछ नहीं, सिवाय मन के भ्रमों के; अब सामान कहां हैं? अपनी ही कल्पनाओं, अपने ही सपनों का जाल है; अपने ही अब वे मेरे गान कहां हैं? प्रक्षेपण हैं। भरी जवानी में भी जाग जाते हैं। जो और भी प्रगाढ़ | लेकिन यह उस दिन याद न आये, जब आंखों में देखने की हैं, वह बचपन में ही जाग जाते हैं। शक्ति भी न बचे, प्राणों में जागने की ऊर्जा भी न बचे। यह उस कहते हैं, लाओत्सु पैदा ही हुआ जागा हुआ। हुआ होगा; | दिन याद न आये जबकि पैर खड़े होने में असमर्थ हो जायें। यह क्योंकि उससे उलटा तो हम देखते ही हैं, लोग मर ही जाते हैं। अभी याद आ जाये तो कुछ हो सकता है। सोये-सोये। अगर जिंदगीभर लोग सोये-सोये मर सकते हैं, यह महावीर कहते हैं, जगत का अनुभव तीन खंडों में तोड़ा जा घटना घट सकती है, एक अति पर, तो दूसरी अति पर यह भी सकता है। जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, 'द नोन'। घट सकता है कि कोई पैदा होते से ही जाग जाये; किसी को | जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी सुबह के सूरज में ही सांझ दिख जाये; इधर दीया जला कि बुझने धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा का खयाल आ जाये। जितनी तीव्र मेधा होती है, उतनी धार्मिक है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा होती है। करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर आज वे मेरे गान कहां हैं? उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, टूट गई मरकत की प्याली वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। लुप्त हुई मदिरा की लाली तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले हैं-ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है—ज्ञान। वृक्ष दिखाई पड़ जाननेवाले को ही न जाना तो और जानकर करोगे क्या? अपने रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी को ही न पहचाना तो और पहचान किस काम में आयेगी? नासापुटों को भर रही है। ताजी-ताजी भूमि से सुवास आ रही अपने से ही बिना परिचित हुए चल पड़े, तो कितनों से परिचय है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच बनाया, उसका क्या सार होगा? दूसरों से परिचित होने में ही एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को मत गंवा देना जीवन को। परिचय की प्रक्रिया को समझने में ही हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख मत गंवा देना जीवन को। यह कौन है तुम्हारे भीतर, जिसके सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है-आंख के बिना हो माध्यम से ज्ञान घटता है, जिसके माध्यम से ज्ञेय से संबंध बनता ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है? यह ज्ञाता-भाव! यह चैतन्य ! यह होश! यह बोध ! इसकी है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला | खोज ही धर्म है। नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे पहला सूत्रः रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं | णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दुजो भावो। सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है-हरापन वृक्ष __ एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।। और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं 'आत्मा ज्ञायक है। आत्मा जाननेवाला है। आत्मा ज्ञाता है, होते-हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है द्रष्टा है। जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। जो तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे-रंगहीन। गुलाब का | अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है। आत्मा ज्ञायक-रूप फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत तब गुलाबी होता है। 'गुलाबी' तुम्हारे और गुलाब के फूल के अशुद्धता नहीं है।' बीच का संबंध है। __ यह बड़ा बारीक सूक्ष्म सूत्र है! समझने की चेष्टा करना। तो दूसरा जगत है : ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे क्योंकि महावीर के अंतस्तल के बहुत करीब है। यही उनकी पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, | भित्ति है, जिस पर सारी जैन-साधना का मंदिर खड़ा है। वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, आत्मा ज्ञायक है-यह तो पहली बात, यह पहली उदघोषणा, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं—वे ज्ञान की पकड़ में यह पहला वक्तव्य कि आत्मा ज्ञेय नहीं है, वस्तु नहीं है: जान लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं। सको, ऐसी नहीं है। क्योंकि जिसे भी हम जान लेते हैं, उसका ही महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है रहस्य खो जाता है। इसलिए आत्मा कभी विज्ञान का विषय बन तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं-ज्ञाता, सकेगी, इसकी संभावना नहीं है। विज्ञान लाख उपाय करे, वह ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र जो भी जानेगा वह आत्मा नहीं होगी। क्योंकि आत्मा तो नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: 'यह जाननेवाला कौन आत्यंतिक रूप से जाननेवाली है; जानी नहीं जा सकती। उसे है!' जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं : 'यह हम अपने सामने रख नहीं सकते। जिसके सामने हम सब रखते जानी जानेवाली चीज क्या है!' जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह | हैं, वही आत्मा है। तो आत्मा को स्वयं तो हम कभी अपने फिक्र करते हैं : यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन है, जो जान सामने न रख सकेंगे। रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल | अगर महावीर की बात ठीक समझो तो महावीर यह कह रहे गुलाबी हैं; जिसके लिए चांद-तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं! हैं : 'आत्मज्ञान' शब्द ठीक नहीं है। वस्तुओं का ज्ञान हो सकता इन दोनों के बीच में दार्शनिक है, वैज्ञानिक है, चिंतक है। है, पर का ज्ञान हो सकता है, आत्मज्ञान कैसे होगा? आत्मज्ञान महावीर की सारी खोज उस ज्ञाता-स्वरूप की खोज है; 'यह का तो मतलब हुआ कि तुमने आत्मा को भी दो हिस्सों में तोड़ जाननेवाला कौन है!' क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर लिया-जाननेवाला और जाना जानेवाला। तो महावीर कहते हैं 416 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मल भित्तिः अभय जो जाननेवाला है, वही आत्मा है; जो जाना जा रहा है वह तो अभी सोये हो। जागो! लेकिन फिर वह कहते हैं कि जागना भी आत्मा नहीं है। उस आत्मा का स्वभाव नहीं है। क्योंकि जब सोना उस आत्मा हम अपने शरीर को जानते हैं। पैर में चोट लग गई, दर्द हुआ, | का स्वभाव नहीं है तो जागना कैसे उस आत्मा का स्वभाव तो महावीर कहते हैं, चूंकि तुम जानते हो कि पैर में दर्द हुआ, होगा? जागना-सोना दोनों ही आत्मा के बाहर हैं। तो एक दिन इसलिए एक बात तो निश्चित हो गई कि तुम यह दर्द नहीं, तुम ऐसा अनुभव आना शुरू होता है कि तुम जागने और सोने के भी यह पैर नहीं। क्योंकि जाननेवाला हमेशा पार है; अतिक्रमण कर पार हो। तुम तो वह हो जो जानता है कि जागे अब, अब सोये। जाता है; ट्रांसेंडेंटल है। भूख लगी तो महावीर कहते हैं, एक सुबह जागकर तुम्हें पता चलता है कि अरे, जाग गये। तो तुम बात पक्की हो गई : तुम्हें पता चला भूख लगी; एक बात पक्की जागने से एक नहीं हो सकते। तुम्हें जागने का भी पता चलता है : हो गई कि तुम भूख नहीं हो। तुम तो वह हो जिसे पता चला, जाग गये! रातभर सोये रहे तो सुबह तुम कहते हो बड़ी गहरी जिसे प्रतीति हुई, जिसे अहसास हुआ कि भूख लगी, कि शरीर नींद आई! उसका भी तुम्हें पता है। नींद का भी पता है। कभी भूखा है कि रोटी की जरूरत है, कि प्यास लगी, पानी की जरूरत नींद ठीक नहीं आती तो सुबह कहते हो, बड़े व्याघात पड़े, है; कि गर्मी हो रही है कि पसीने की धारें बही जा रही हैं, कोई उच्छंखल थी रात, बड़े दुखस्वप्न चले, ऊबड़-खाबड़ रहा शीतल स्थान खोजू, कोई छाया खोजूं।। सब। शांति न मिली, चैन न मिला, थका-हारा उठा हूं, रात नींद जो भी तुम जानते हो, जानने के कारण ही वह 'पर' हो गया। ठीक से न आई! तो रात तुम नींद को भी जानते हो, सुबह उठकर ज्ञान प्रत्येक वस्तु को 'पर' बना देता है। ज्ञान-मात्र 'पर' का तुम जागने को भी जानते हो। तो निश्चित ही न तुम जागरण हो, है। तो आत्मज्ञान तो हो नहीं सकता। इस अर्थ में नहीं हो न तुम निद्रा हो। तुम तो जागने और निद्रा के पार सकता, जिस अर्थ में हम और चीजों का ज्ञान करते हैं। ज्ञायक-स्वरूप, ज्ञाता-स्वरूप आत्मा हो। आत्मा ज्ञायक है, ज्ञेय नहीं। सदा जाननेवाला है। इसलिए 'जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त।' जिन्हें आत्मा को खोजना है, उन्हें अपने भीतर निरंतर उस जगह लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से सोये हुए को हम कहते हैं, जागो पहुंचना चाहिए, जहां सिर्फ जाननेवाला ही शेष रह जाये और | अगर आत्मा को जानना हो। जब वह जाग जायेगा तो उससे जानने को कुछ न बचे। उसे महावीर 'समाधि' कहते हैं-जहां कहेंगे, अब जागने से भी जागो! संसारी को कहते हैं, संन्यास ले शुद्ध जानना रह जाये और जानने के लिए कोई जगह न हो; दीया लो! फिर संन्यासी को कहते हैं कि अब संन्यास भी छोड़ो! यह जलता हो, लेकिन प्रकाश उसका किसी पर पड़ता न हो। दीया | तो ऐसा ही है जैसे एक कांटा पैर में लगा, दूसरे कांटे से खींचकर जलता है अभी, दीवाल पर प्रकाश पड़ता है। तो दीया तो ज्ञाता उसे बाहर निकाल लिया; फिर दोनों ही कांटे फेंक देते हैं। हुआ, दीवाल ज्ञेय हो गई और दोनों के बीच जो संबंध जुड़ रहा है | बीमारी थी, औषधि ले ली; फिर बीमारी चली गई तो औषधि की वह ज्ञान हो गया। ऐसी कल्पना करो कि दीया शून्य में जलता | बोतल को कचरे-घर में फेंक देते हैं। तो जागरण की जो इतनी हो, कि दीये की ज्योति किसी पर न पड़ती हो-ऐसी चित्त की चेष्टा है, वह भी औषधि से ज्यादा नहीं है। बीमारी है, नींद में दशा का नाम, महावीर कहते हैं, समाधि है। जहां शुद्ध-बुद्ध, | पड़े हैं, सोये हैं-यह हमारी अवस्था है। इसे जगाने के लिए मात्र ज्ञायक-स्वरूप शेष रह गया; कोई जाननेवाली चीज औषधि है ध्यान, जागरण, विवेक। लेकिन जब जाग गये तब तो व्याघात उत्पन्न नहीं करती; कोई जाननेवाली चीज अशुद्धि उत्पन्न | यह भी पता चलता है कि हम तो जागने के भी पार हैं। यह सोना नहीं करती-अबाध-अनवरुद्ध चैतन्य का प्रवाह है; शुद्ध और जागना, यह भी शरीर और मन में ही हो रहा है। चैतन्य-मात्र है! इसलिए तो कृष्ण गीता में कहते हैं: या निशा सर्वभूतानां, 'आत्मा ज्ञायक है।' और ज्ञायक! 'जो ज्ञायक है वह न तस्यां जागर्ति संयमी! अप्रमत्त होता है न प्रमत्त।' | जब सारे लोग सोये हैं, तब भी संयमी जागता है। इसका क्या यह भी बड़ी विचार की बात है। क्योंकि महावीर कहते हैं, तुम अर्थ हुआ? क्या संयमी सोता नहीं? संयमी सोता है, लेकिन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस तादात्म्य बनाता है, तो तुम धीरे-धीरे पाओगेः वह सुंदर होने महावीर तो और भी गजब की बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, लगा। उसके जीवन में तुम्हें एक नये गुण का प्रादुर्भाव दिखायी संयमी जब जागता है तब भी जागरण के साथ अपना तादात्म्य पड़ेगा। वह सुंदर होने लगेगा। जो आदमी अपने को योद्धा नहीं करता-सोने के साथ तो वह करता ही नहीं; जैसा कृष्ण समझता है, लड़ाका समझता है, उसके चारों तरफ धीरे-धीरे तुम कहते हैं कि सब सोये रहते हैं, उनका तादात्म्य हो जाता है। वह पाओगे योद्धा के लक्षण प्रगट होने लगे। कहते हैं, हम सोये हैं। संयमी कहता है, हम तो जागते रहे। जिससे हम तादात्म्य करते हैं, वही हम हो जाते हैं। क्योंकि महावीर कहते हैं कि इससे भी ऊपर उठना है। जागने में भी धीरे-धीरे जिसे हमने अपने साथ जोड़ा वह हमें प्रभावित करता तादात्म्य न हो जाये, सोने में तो तोड़ना ही है तादात्म्य। मूर्छा तो है, रूपांतरित करता है। तोड़नी ही है, अमूर्छा पकड़ नहीं लेनी है। राग तो तोड़ना ही है, सम्मोहनविद जानते हैं कि अगर किसी पुरुष को सम्मोहित विराग पकड़ नहीं लेना है। करके कहा जाये कि तू पुरुष नहीं स्त्री है, तो गहरे सम्मोहन में इसलिए महावीर ने एक नये शब्द का उपयोग कियाः उसका तादात्म्य हो जाता है कि वह स्त्री है। फिर उससे कहा वीतराग। महावीर ने अपने परम संन्यासियों को विरागी न कहा, जाये, उठकर चलो, तो वह पुरुष जैसा नहीं चलता, स्त्री जैसा क्योंकि 'विरागी' में ऐसा लगता है : राग के विपरीत। सोये थे, चलने लगता है जो कि बड़ी कठिन बात है। क्योंकि पुरुष के जाग गये। संसार में थे, संन्यासी हो गये। राग था, विराग साध पास अलग तरह की हड्डियां हैं। और खासकर स्त्री की चाल लिया। महावीर कहते हैं, वीतराग। पुरुष से भिन्न है, क्योंकि स्त्री के शरीर में गर्भ का स्थान है। उसी 'वीतराग' शब्द बड़ा अदभुत है! वीतराग का अर्थ होता है। गर्भ के स्थान के कारण उसकी चाल में एक गोलाई है, जो पुरुष न राग रहा, न विराग रहा। वीत : पार हो गये, दोनों के पार हो की चाल में नहीं हो सकती। लेकिन अगर सम्मोहित किया जाये गये। वह पूरी दुनिया ही गई। वह पूरा सिक्का ही छोड़ दिया। किसी व्यक्ति को और कहा जाये कि तुम स्त्री हो तो वह चलेगा वह द्वंद्व का जगत अब साथ न रहा। सोना और जागना भी द्वंद्व स्त्री की तरह। उससे कहा जाये बोलो तो वह बोलेगा स्त्री की है। राग और विराग भी द्वंद्व है! संसार और संन्यास भी द्वंद्व है। तरह। आवाज भी बदल जायेगी। यह सम्मोहन की प्रक्रिया निर्बुद्व हुए। सबके पार हुए। इतनी गहरी हो सकती है। कि अगर सम्मोहित व्यक्ति को कहा 'जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है।' जाये कि यह हाथ पर हम तुम्हारे अंगार रख रहे हैं और तुम सिर्फ यह शुद्धि की बड़ी अनूठी परिभाषा हुई। जो जागता नहीं, | एक साधारण कंकड़ रख रहे हो, तो उसका हाथ जल जायेगा, सोता नहीं; जो मूछित नहीं होता, अमूर्छित नहीं होता; जो न | फफोला आ जायेगा। साधारण कंकड़ गर्म भी नहीं है, अंगार की संसार में खोता है, न संन्यास में खोता है जिसका कहीं तो बात ही नहीं है, ठंडा पत्थर हाथ पर रखते हो और कहते हो तादात्म्य नहीं होता, वही शुद्ध है। जिसको गुरजिएफ कहता है: यह अंगार है, वह छिटककर फेंककर खड़ा हो जायेगा, आईडेंटिफिकेशन, तादात्म्य। जो किसी चीज से अपने स्वभाव चिल्लायेगा कि मार डाला, जला दिया। और उसके हाथ पर न को नहीं जोड़ता। जो दूर-दूर, पार-पार बना रहता है! जो सदा केवल जलने का स्थान बनेगा, फफोला भी उठेगा। जानता रहता है : मैं भिन्न हूं, मैं भिन्न हूं। किसी भी चीज के साथ अब क्या हुआ? अंगार तो रखा नहीं था, लेकिन अंगार रखा जो ऐसा भाव नहीं करता कि यह मैं हूं। क्योंकि जहां ही यह भाव है, यह भाव से तादात्म्य हो गया। इसीलिए तो लोग अंगारों पर आया कि यह मैं हूं, वहीं अशुद्धि शुरू हो गई। क्योंकि जिससे भी चल लेते हैं-वह भी भाव-तादात्म्य है। मुसलमान फकीर हम जुड़ते हैं, वह हमें प्रभावित करने लगता है। या हिंदू योगी अंगारों पर चल लेते हैं। वह तादात्म्य की बात है। तुमने कभी खयाल किया? लोग जिन चीजों से अपना इस बात का पक्का तादात्म्य होना चाहिए कि हम चल लेंगे, तादात्म्य बनाते हैं, धीरे-धीरे वैसा ही रंग-ढंग उनके जीवन में छा भगवान बचायेगा, कि कोई वली बचायेगा। बस इसका पक्का जाता है। अगर कोई कवि सौंदर्य की अनुभूतियों के साथ अपना भरोसा होना चाहिए, फिर तुम न जलोगे। क्योंकि तुम्हारा भरोसा 1418] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UE धर्म की मल भित्तिः अभय तुम्हारी सुरक्षा करेगा। वह तादात्म्य बन गया। कि सुखी तो तब होंगे जब सुख की कोई घटना घटेगी। और रामकृष्ण ने सभी धर्मों की साधना की। ऐसा प्रयोग उनके दुखी तो रहेंगे ही, क्योंकि जब तक सुख की घटना नहीं घटती तो पहले कभी किसी ने किया न था। उस साधना के दौर में उन्होंने क्या कर सकते हैं! कोई लाटरी कभी-कभी खुलेगी, तब सुखी छह महीने तक बंगाल में प्रचलित कृष्ण-मार्गियों के एक संप्रदाय हो लेंगे। और मैं मानता हूं कि वह तब भी सुखी न हो पायेंगे, की साधना की-राधा संप्रदाय। उस संप्रदाय का साधक | क्योंकि दुख की आदत इतनी मजबूत हो जाती है, दुख इतना मानकर चलता है कि मैं कृष्ण की गोपी हं, राधा हूं। वह स्त्रियों सघनीभूत हो जाता है कि अगर सुख की कोई घटना भी घटे तो के कपड़े पहनता है, कृष्ण की मूर्ति को लेकर रात सोता है। छह तुम जानते ही नहीं कि अब सुखी कैसे हों! जो कभी नाचा ही महीने तक रामकृष्ण ऐसा साधना करते थे। बड़ी हैरानी की नहीं है, नाचने का क्षण भी आ जाये तो कैसे नाचेगा? हाथ-पैर घटना घटी-और वह घटना यह थी, उनके स्तन बड़े हो गये, साथ न देंगे। स्त्रैण हो गये। रामकृष्ण जैसा व्यक्ति जब तादात्म्य करेगा तो वह महावीर कहते हैं, शुद्धि का अर्थ है : जहां कोई तादात्म्य नहीं; कोई छोटा-मोटा तादात्म्य नहीं है। उन्होंने पूरे प्राण इसमें उंडेल न सुख का, न दुख का; न देह का, न मन का। जहां शुद्ध दिये। उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। वह चलने स्त्रियों की तरह जाननेवाला बचा है और कोई चीज छाया नहीं डालती, उस लगे, लेकिन यहीं तक मामला रुकता तो ठीक था; उन्हें मासिक छाया-शून्य जगत में आत्मा शुद्ध होती है। धर्म शुरू हो गया, जो कि एक आश्चर्यजनक घटना है। इतना 'आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है...' तादात्म्य! फिर साधना के बाहर भी आ गये तो भी छह-आठ आत्मा का ज्ञेय की तरह जानने का कोई उपाय नहीं है। महीने लगे उनका स्त्री-रूप विदा होने में। जाननेवाले की तरह ही आत्मा जानी जाती है. जानी गई वस्त की सम्मोहन का शास्त्र बड़ी बातें खोलने के किनारे पहुंच रहा है | तरह नहीं। और किसी न किसी दिन सम्मोहन-शास्त्र जब अपने पूरे ...और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अध्ययन प्रगट कर चुकेगा तो धर्म की बहुत-सी बातें बड़ी अशुद्धता नहीं है।' सुगमता से समझ में आ सकेंगी। इसे थोड़ा हम समझें। तुमने कभी खयाल किया? जब भी तुम जो भी हो, यह तुम्हारा ही भाव है। अगर तुम अपने को कोई आदमी तुम्हें गौर से देखता है तो तुम्हें थोड़ी-सी बेचैनी और दुखी मान रहे हो तो तुम दुखी होते चले जाओगे। अगर तुम अड़चन होती है। तो समाज में एक स्वीकृत नियम है : तीन क्षण अपने को सुखी मान सकते हो, तुम सुखी होते चले जाओगे। से ज्यादा कोई आदमी किसी को गौर से नहीं देखता। देखे तो मुसलमान फकीर बायजीद से किसी ने पूछा कि तुम इतने उसको हम लुच्चा कहते हैं। लुच्चे का अर्थ है: गौर से प्रसन्न, सदा प्रसन्न-मामला क्या है? उसने कहा कि मैंने एक देखनेवाला। लुच्चा बनता है लोचन से। आंखें अड़ा दीं किसी नियम बना लिया है कि सुबह जब मैं उठता हूं तो मेरे सामने दो पर तो लुच्चा। तीन सैकिंड तक ठीक है। उतना स्वीकृत है। राह विकल्प होते हैं कि आज दिन प्रसन्न होना कि नहीं प्रसन्न होना; चलते आदमी भी एक, एक क्षणभर को दूसरे को देख लेते हैं। आज दिन सुख में बिताना कि दुख में बिताना। और मैं अकसर तो ठीक है। लेकिन लौट-लौटकर देखने लगे, खड़ा ही हो जाये हमेशा ही सुख का ही विकल्प चुनता हूं। क्यों चुनूं दुख का और देखने लगे, आंखें गड़ा ले...। तो तुमने कभी खयाल विकल्प? सार क्या है? इसलिए मैं प्रसन्न हूं। किया, कोई आदमी अगर तुम्हें आंखें गड़ाकर देखे तो तुम्हें तुम जरा करके देखना। सुबह उठकर पहला निर्णय यही करना बेचैनी होती है। यहां तक कि अगर कोई आदमी तुम्हारे पीछे कि आज दिन प्रसन्न ही रहना है। और तुम अचानक पाओगे खड़ा हो और पीछे से भी आंखें गड़ाकर तुम्हें देखे तो भी तुम्हें प्रसन्नता की बहुत-सी घटनाएं घटने लगीं। वह वैसे भी घटतीं, बेचैनी होगी; हालांकि तुम उसे देख नहीं रहे, लेकिन तुम्हें पता लेकिन तुमने अगर दुखी होने का निर्णय किया था...जैसा चल जायेगा कि वह आंखें गड़ाये है। निन्यानबे लोग किये बैठे हैं। निन्यानबे प्रतिशत लोग सोचते हैं | तुम इसका प्रयोग करके देखना ! ट्रेन में, बस में किसी के पीछे Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः खड़े हो, उसकी चैथी पर आंखें गड़ाकर देखना जरा थोड़ी 'आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है और वह शद्ध अर्थ में देर-एक दो तीन मिनट। वह फौरन लौटकर देखेगा और क्रोध ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।' से देखेगा। मनोवैज्ञानिक ने इस पर बहुत-से प्रयोग किये हैं। / यह बहुत मूलभूत बात है। इसको शाब्दिक जाल में खो मत क्या मामला है? आदमी किसी के गौर से देखने को, बेचैन देना। इसको ज्ञान के दांव-पेचों में मत खो देना। क्योंकि इस पर क्यों हो जाता है, बर्दाश्त क्यों नहीं करता? क्योंकि जब भी कोई बड़े दांव-पेंच चलते रहे हैं। पंडितों ने बड़े अर्थ किये हैं, बड़ी तुम्हें गौर से देखता है, बहुत गौर से देखता है, तो वह तुम्हें वस्तु व्याख्याएं की हैं-पक्ष-विपक्ष में। क्योंकि पंडितों का अपना में रूपांतरित कर देता है। वह तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव को नष्ट हिसाब है। वे कहते हैं, ज्ञायक, बिना ज्ञेय के ज्ञायक अकेला हो करता है। वह तुम्हें ज्ञेय बना देता है, आब्जेक्ट। जैसे कुर्सी को कैसे सकता है? तर्कगत संदेह उठाते हैं, जब ज्ञेय नहीं है तो कोई देख रहा है, मकान को कोई देख रहा है, वृक्ष को कोई देख ज्ञायक कैसा? जब ज्ञान नहीं है तो ज्ञायक कैसे? रहा है-ऐसे ही जब तुम्हें कोई देखता है, तब तुम्हारा तो दार्शनिकों का एक समूह रहा है जो कहता है, जब ज्ञेय और ज्ञायक-स्वरूप नष्ट होता है। तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे वस्तु ज्ञान खो जायेंगे, तो ज्ञायक भी खो जायेगा, अंधकार छा समझा जा रहा है; जैसे मैं कोई देखने की वस्तु है। | जायेगा। शायद तर्क से उनकी बात ठीक भी लगती हो। लेकिन हां, कोई तुम्हें बहुत प्रेम से देखे तो बेचैनी नहीं होती। जिससे जो अनुभव है, वह तर्क के थोड़े बाहर है। और महावीर को तर्क तुम्हारा लगाव हो, तो बेचैनी नहीं होती। क्योंकि तुम जानते हो, | में कोई रस नहीं है। वह सिर्फ वक्तव्य दे रहे हैं, जो उन्होंने जाना वह तुम्हारे शरीर को नहीं देख रहा। तुम जानते हो, वह तुम्हें है। मैं भी तुमसे कहता हूं, ज्ञायक बच रहता है। ज्ञान भी खो वस्तु नहीं बना रहा। तुम जानते हो, उसकी आंखें तुम्हारे जाता है। ज्ञेय भी खो जाता है। ज्ञायक-स्वभाव को खोज रही हैं; तुम्हारी अंतरात्मा को खोज और इसलिए अगर खोजना हो तो तर्कजाल में मत पड़ना। रही हैं। उसकी आंखें तुम्हारे भीतर जाकर तुम्हारी खोज में हैं। थोड़ी साधना की दिशा में कदम उठाना। तुम, जिसको कि विषय-वस्तु बनाया नहीं जा सकता, वह उसके | अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना साथ संग-साथ जोड़ने की आकांक्षा रखता है। इसलिए प्रेम के | गव्वास को मतलब है सदफ से कि गहर से क्षण में ही आंख बेहूदी नहीं मालूम पड़ती। अन्यथा आंख, अगर शब्दों की उलझनों में समझदार नहीं उलझता। गौर से कोई देखता चला जाये तो हिंसक हो जाती है; अभद्र अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना। मालुम होने लगती है; शिष्टाचार के बाहर हो जाती है। -वह जो बुद्धिमान है, वह शब्दों के दांव-पेंच में नहीं जब भी किसी व्यक्ति को देखो तो उसे वस्त बनाने की चेष्टा उलझता।। मत करना। अन्यथा तुम हिंसा से देख रहे हो। किसी व्यक्ति को गव्वास को मतलब है सदफ से कि गुहर से। साधन की तरह मत देखना, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, -वह जो गहरा गोता लगानेवाला है, उसे मतलब मोतियों से परम साध्य है। किसी व्यक्ति को ऐसा मत देखना कि इसका है या सीपियों से? वह मोती तलाशता है। जैसे मोती सीपी में क्या उपयोग है, कि यह आदमी पद पर है, काम पड़ेगा, जय राम | छिपे होते हैं, लेकिन सभी सीपियों में नहीं छिपे होते; कुछ जी कर लो; कि यह आदमी पद पर है, थोड़ी खुशामद करो; कि सीपियां खाली होती हैं, कोई मोती नहीं होता-कुछ शब्द खाली इस आदमी के पास धन है, कभी जरूरत पड़ सकती है कि यह होते हैं, उनमें कोई मोती नहीं होता। पंडितों के शब्द सीपियों की आदमी शक्तिशाली है, दोस्ती बनाना काम की बात होगी। तरह हैं; उनमें कोई मोती नहीं होता। क्योंकि मोती तो अनुभव से किसी व्यक्ति को जब तुम साधन की तरह देखते हो, तब भी ढालना होता है। मोती तो प्राणों से ढालना होता है। ये महावीर तुम हिंसा कर रहे हो। क्योंकि वह ज्ञायक-स्वरूप जो भीतर के वचन सीपियां नहीं हैं। मोती हैं, और तुम इन मोतियों का अर्थ छिपा है, साध्य है-आत्यंतिक साध्य है। उसे साधन नहीं | तभी समझ पाओगे, जब तुम भी इन्हें ढालने में लगोगे। बनाया जा सकता। मेरे देखे, जब तक तुम किसी अर्थ में महावीर जैसे न होने लगो 14201 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मूल भित्ति : अभय तब तक तुम महावीर को न समझ पाओगे। समझने का एक ही तो कृष्ण की गीता न होती, शायद भीष्म पितामह की कोई गीता उपाय है : जिसे तुम समझने चले हो, उस जैसे होने लगो। होती तो होती। 'मैं आत्मा न शरीर है, न मन हं, न वाणी है, और न उसका | अगर रावण जीता होता तो रामायण नहीं होती हो नहीं कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं और न कर्ता का सकती थी। कौन लिखता? हारे हुए के लिए कौन लिखता! अनुमोदक ही हूं।' जीते के सब संगी-साथी हैं, हारे के कौन साथ है? तब रामायण णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। के विपरीत, बिलकुल विपरीत रावण की कोई कथा होती, जिसमें कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीण।। रावण तो धार्मिक होता और राम अधार्मिक होते। -न शरीर, न मन, न वाणी, न उनका कारण, न उनका कर्ता, तुम थोड़ा सोचो। विभीषण ने धोखा दिया है, गद्दारी की है; न करानेवाला और न कर्ता का अनुमोदक ही हूं। लेकिन राम-भक्त कहता है, 'भक्त विभीषण! राम का प्यारा कल हम गीता की बात करते थे। कृष्ण कहते हैं, तम केवल विभीषण।' लेकिन अगर रावण जीतता और कथा लिखी गई उपकरण हो जाओ। महावीर कहते हैं, उपकरण भी नहीं। अगर होती, तो विभीषण गद्दारों का गद्दार सिद्ध होता, धोखेबाज, तुम उपकरण भी हुए तो तुम कुछ तो हुए! सहारा तो दिया! | बेईमान, मीरजाफर का आदिगुरु सिद्ध होता। साधन तो बने! तो महावीर कहते हैं, न तो तुम कर्ता, न कौन लिखता है कहानी, इस पर निर्भर करता है। और जो भी करानेवाला हो, न कर्ता का अनुमोदक। उपकरण की तो बात कहानी लिखेगा, वह यह मानकर चलेगा कि मैंने जो किया वह दूसरी, तुम अनुमोदन भी मत करना। तुम यह भी मत कहना कि परमात्मा चाहता था। हां, यह ठीक है। अगर कोई आदमी किसी की हत्या कर रहा है। महावीर आदमी की बेईमानी को जानते हैं। आदमी बड़ा तो तुम यह भी मत कहना कि हां, यह ठीक है। अनुमोदन भी मत | धोखेबाज है! वह जो खुद करना चाहता है परमात्मा के नाम पर करना। कहने की बात नहीं है, मन में भी मत सोचना कि हां, यह थोप देता है। अगर हिटलर जीतता तो कथा बिलकुल और ठीक है। मन में सोचने की बात भी नहीं है। तुम्हारे भीतर होती। चर्चिल जीता, कथा और हुई। कथा कौन लिखता है, इस जरा-सा भी भाव उठे, जरा-सी भी लहर उठे कि नहीं, यह गलत पर निर्भर करती है। तो नहीं है, यह जरूरी था तो भी पाप हो गया। महावीर कहते हैं, इन जालों में मत पड़ना। तुम्हें क्या पता कृष्ण कहते हैं, 'अधर्म के विनाश के लिए, पाप के विनाश के परमात्मा की क्या मर्जी है? तुम कैसे निर्णय करोगे कि यही लिए अर्जुन! तू उपकरण बन।' लेकिन महावीर कहते हैं, परमात्मा की मर्जी है? अर्जुन जीते, अर्जुन का पक्ष जीते-यह उपकरण हिंसा का बनना किसी भी कारण से घातक है। परमात्मा की मर्जी है, तुम कैसे निर्णय करोगे? / खतरनाक है। और आदमी के मन का भरोसा क्या? क्योंकि हर आदमी जीतना चाहता है। और हर आदमी अपने जीतने के अकसर तो यह होता है, तुम जो करना चाहते हो, उसको तुम | लिए सब कुछ करना चाहता है। और मान लेगा कि यही परमात्मा के नाम से करने लगते हो। परमात्मा की मर्जी है, मुझे जिताना चाहता है। आदमी बड़ा बेईमान है! इसलिए दुनिया में इतने युद्ध होते हैं। पिछले महायुद्ध में एक जर्मन और एक अंग्रेज जनरल की बात दोनों पक्ष कहते हैं कि परमात्मा का काम कर रहे हैं। दोनों पक्ष हुई। जर्मन हारने शुरू हो गये थे और उस जनरल ने अंग्रेज कहते हैं, हम धर्म-युद्ध कर रहे हैं। अब यह तो हम चूंकि जनरल को पूछा कि तुम जीतना शुरू हो गये हो, कैसे जीते चले महाभारत हुआ और पांडव जीते, इसलिए जो इतिहास हमारे जा रहे हो, राज क्या है? उस जनरल ने कहा, 'राज साफ है। पास है वह एकतरफा है। | हम रोज युद्ध करने के पहले परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। सोचो थोड़ा, कौरव जीते होते तो क्या यह इतिहास यही परमात्मा हमारे साथ है।' होता? कौरव जीते होते तो उन्होंने सिद्ध किया होता कि पांडव उस जर्मन ने कहा, यह तो कोई बात जंचती नहीं, क्योंकि हारे क्यों, क्योंकि वे अधार्मिक थे। और कौरव अगर जीते होते प्रार्थना तो हम भी करते हैं युद्ध के पहले, और हम भी मानते हैं www.jainelibrarorg Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAND जिन सूत्र भागः1 FREE HE कि परमात्मा हमारे साथ है। बुद्ध-मंदिर बनवाये, इससे क्या लाभ होगा? और मैं लाखों वह अंग्रेज हंसने लगा। उसने कहा कि तुम्हें एक बात समझनी बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा देता हूं, राज्य उनका पालन करना चाहिए: किसी ने कभी सुना कि परमात्मा जर्मन भाषा जानता है-इससे मुझे कितना पुण्य हुआ है? दूसरों से भी उसने पूछा है? किस भाषा में करते हो प्रार्थना? | था, लेकिन दूसरे तो दुकानदार थे; उन्होंने कहा, महापुण्य हो रहा अंग्रेज सोचता है, परमात्मा अंग्रेजी जानता है। संस्कृत के है, स्वर्ग में तुम्हारे लिए विशेष इंतजाम होगा। उन्होंने हजार तरह पंडित कहते हैं, संस्कृत देववाणी है।...वह प्रभु की भाषा है! की बातें समझाई होंगी। सातवें स्वर्ग में जाओगे। पुण्य की राशि और बाकी सब भाषाएं, वे देववाणियां नहीं हैं! लगी जा रही है। इंद्र बनोगे! लेकिन यह बोधिधर्म थोड़ा उजडू, अपनी भाषा को देववाणी मान लेना बड़ा सुगम है। और सीधा-साफ आदमी था। अपनी आकांक्षा को परमात्मा की आकांक्षा मान लेना बहुत उसने कहा, 'लाभ! दिमाग दुरुस्त है? यह तुमने पूछा इसके सुगम है। और अपने अहंकार को परमात्मा की आड़ में छिपा कारण पाप लगा। तुम नर्क में पड़ोगे।' सम्राट वू थोड़ा लेना बहुत सुगम है। घबड़ाया। उसने कहा कि नर्क में। तो बोधिधर्म ने कहा, कि महावीर आदमी को कोई धोखे का उपाय नहीं देना चाहते। वे लाभ की आकांक्षा से किया गया दान, दान नहीं है। लाभ की कहते हैं, तुम धोखेबाज हो, यह तो जाहिर है, क्योंकि जरा-सी भी रेखा बच गई तो दान विकृत हो गया। जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, अनेक तरह से अपने को धोखा दे फिर भी सम्राट व ने कहा कि मैंने जो किया है, क्या वह पवित्र लेते हो। नहीं है, धार्मिक नहीं है। बोधिधर्म ने कहा, धर्म का पवित्रता से _ 'मैं न शरीर हूं, न मन है, न वाणी हूं और न उनका कारण हूं। क्या लेना-देना? धर्म तो पवित्रता से भी मुक्त है। वह अपवित्र मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न कर्ता का अनुमोदक हूं।' | और पवित्र, वह सब संसार की बातें हैं। जब तक इतनी प्रगाढ़ता से तुम अपने आत्यंतिक स्वरूप को नाराज हुआ सम्राट, प्रसन्न न हुआ। क्योंकि ऐसे आदमी से सभी तादात्म्यों से बाहर न कर लोगे, तब तक तुम उस कौन प्रसन्न होता है! हम तो लोभ को ऐसा पकड़े हैं कि अगर शुद्ध-बुद्ध अवस्था को न पहुंच सकोगे, जिसको महावीर हमसे दान भी करवाना हो तो हमारे लोभ को फुसलाना पड़ता 'जिनत्व' कहते हैं। है। हम तो ऐसे भयभीत हैं कि हमें अगर निर्भय बनाना हो, तो हमारी तो त्याग में भी भोग की वासना बनी रहती है। और हम | भी हमारे भय को ही सुशिक्षित करना होता है। हमारा जीवन तो वासना भी छोड़ते हैं तो भी किसी वासना को पूरा करने के बड़ी उलटी दशा में है। जिंदगी तो जिंदगी, हम मर भी जाते हैं, लिए ही छोड़ते हैं। हम तो दान भी करते हैं तो लोभ के कारण | तो भी हमारी आशाओं का ढांचा नहीं बदलता। करते हैं। गंगा के किनारे बैठे हुए पंडित-पुरोहित लोगों को मेरी खाक पर साजे-इकतार लेकर समझाते हैं : 'यहां एक दो, एक करोड़ पाओगे वहां।' कोई उम्मीद अब भी एक गीत-सा गा रही है हिसाब भी होता है। एक से एक करोड़ का कोई संबंध बनता मर जाते हैं, कब्र बन जाती हैं, तो भी कब्र पर तुम बैठा हुआ है? लेकिन जब लोभ को ही जगाना है तो अतिशयोक्ति करने में पाओगेः वही पुरानी आशा इकतारा बजा रही है-वही कामना, हर्ज क्या है! एक पैसा यहां दान दो, एक करोड़ पाओगे! कुछ वही वासना, वही लोभ, वही मोह! तो थोड़ा ब्याज का खयाल रखो! यह तो जरा अतिशयोक्ति हो 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय ( गई। लेकिन मतलब एक करोड़ पाने से थोड़े ही है, तुमसे एक आत्म-व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा निकलवा लेने से है। और जानते हैं कि तुम लोभी हो, तुम तो जो यह कहेगा, यह मेरा है?' दान भी लोभ के कारण करोगे। दान भी तुम करते हो तो पहले महावीर कहते हैं, अज्ञान का आधार है यह कहना कि 'यह पूछ लेते हो, इससे मिलेगा क्या? | मेरा है।' ममत्व, 'मैं' को जोड़ लेना किसी भी चीज से, आत्मा बोधिधर्म चीन पहुंचा, तो चीन के सम्राट ने पूछा कि मैंने हजारों का तादात्म्य बना लेना किसी चीज से—यही समस्त अधर्म का / 422/ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मूल भित्तिः अभयः आधार है। तो वह कहते हैं, शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला ऐसा जायेगी कि यह आदमी इस गाय के पीछे जायेगा? उन्होंने कहा, कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा 'यह मेरा है?' 'मेरा' अज्ञान अगर रस्सी काट दी तो गाय तो इस आदमी के पीछे जानेवाली है-घनीभूत अज्ञान! कहो, मेरा मकान। कहो, मेरी दुकान। नहीं; यह तो रस्सी में भी मुश्किल से जाती मालूम पड़ रही है। या कहो, मेरा मंदिर। या कहो, मेरा धर्म। कहो, मेरा बेटा! या यह आदमी ही गाय के पीछे जायेगा। कहो, मेरा गुरु। लेकिन जहां भी 'मेरा' है और जोर 'मेरे' पर तो उस फकीर ने कहा, रस्सी के धोखे में मत पड़ो! इस गाय है, वहां-वहां अज्ञान है। 'मेरे' का दावा ही अज्ञान का है। को इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। इस गाय ने कोई कुछ भी तुम्हारा नहीं है-सिवाय तुम्हारे। तादात्म्य इस आदमी से नहीं बनाया है; इस आदमी ने तादात्म्य महावीर इस संबंध में बड़े आत्यंतिक हैं और साफ हैं। सिवाय बनाया है गाय से। तो गुलाम यह आदमी है, गाय नहीं। तुम्हारे और कोई भी तुम्हारा नहीं है। तुम्हारा होना ही बस तुम्हारा जब तुम कहते हो, 'यह मेरा मकान', तो तुम यह मत सोचना है। उसी को लेकर तुम आये, उसी को लेकर तुम जाओगे। कि मकान भी कहता है कि 'तुम मेरे मालिक।' मकान ऐसी बाकी तो खेल है। कोई पत्नी है, कोई पति है; कोई मित्र है, कोई भूल-चूक नहीं करेगा। मकान इतने अज्ञानी नहीं हैं। मकान को शत्रु है; कोई अपना है, कोई पराया है लेकिन बाकी सब खेल | मतलब ही नहीं है। अगर मकान को थोड़ा होश होता तो वह है। जहां तुम ठहरे हो, यहां 'मेरा' कुछ भी नहीं है। हंसता। वह मुस्कुराता तुम्हारी नासमझी पर। वह शायद तुम्हें धर्मशाला है। रात रुक गये, ठीक। सुबह चलना है, चल क्षमा कर देता कि ठीक है, अज्ञानी हो, चलेगा। लेकिन मकान पड़ना है। तो महावीर कहते हैं, 'मेरा' जिसने छोड़ दिया उसका को तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम नहीं थे, तब भी यह अज्ञान गिर जायेगा। मकान बना रह सकता था। तुम नहीं रहोगे, तब भी बना रहेगा। _ 'मेरा' का अर्थ हआ कि आत्मा को हम किसी चीज से जोड़ते इब्राहीम सम्राट था बल्ख का। एक फकीर उसके द्वार पर हैं। जब तुम कहते हो, 'मेरा मकान', तो कौन-सी घटना घटती आया और झंझट करने लगा कि मुझे इस महल में ठहरना है। है। मकान को तो कुछ परिवर्तन नहीं होता, यह तो जाहिर है। लेकिन वह 'महल' नहीं कह रहा था। वह कहता था, यह तुम मर जाओगे, मकान रोयेगा नहीं। मकान गिर जायेगा तो तुम | 'सराय' में मुझे ठहरना है। बड़े जोर-जोर से लड़ रहा था वह रोओगे। एक बात पक्की है, जब तुम कहते हो, 'मेरा मकान', पहरेदार से। तो कोई परिवर्तन तुममें होता है, मकान में नहीं होता। मकान तो पहरेदार ने कहा, हजार दफे कह दिया यह धर्मशाला नहीं, वैसा का वैसा बना रहता है। | सराय नहीं। सराय गांव में दूसरी है। यह राजा का महल है। यह एक सूफी फकीर अपने विद्यार्थियों को लेकर जा रहा था और राजा का खुद का निवास है। तुम होश में हो? तुम क्या बातें कर राह पर उसने देखा कि एक आदमी गाय को रस्सी से बांधे खींचे रहे हो? यह कोई ठहरने की जगह नहीं।। लिये जा रहा है। तो उसने अपने विद्यार्थियों को कहा, घेर लो इस तो उसने कहा, फिर मैं राजा को देखना चाहता हूं। इब्राहीम भी आदमी को, एक शिक्षा देनी है। वह आदमी भी थोड़ा चौंका, | भीतर से सुन रहा था-बड़े जोर से। और उस फकीर की लेकिन अवाक खड़ा रह गया कि क्या मामला है, क्या शिक्षा है। आवाज में कुछ जादू था, कुछ चोट थी। वह जिस ढंग से कह वह सूफी फकीर ने अपने शिष्यों से कहा, 'मैं तुमसे पूछता हूं कि रहा था, ऐसा नहीं लगता था कि सिर्फ जिद्दी, कोई पागल है। इनमें गुलाम कौन किसका है? यह आदमी इस गाय का गुलाम उसके कहने में कुछ रहस्य मालूम होता था। उसने कहा, उसे है कि गाय इस आदमी की गुलाम?' स्वभावतः शिष्यों ने कहा बुलाओ भीतर। वह फकीर भीतर आया और उसने कहा, 'कौन कि गाय इस आदमी की गुलाम है, क्योंकि इस आदमी के हाथ में राजा है? तुम!' वह सिंहासन पर बैठा था, उसने कहा कि गाय की रस्सी है और यह जहां चाहे वहां ले जा सकता है। सूफी साफ है कि मैं राजा हूं। और यह मेरा निवास है और तुम व्यर्थ फकीर ने कहा, तुमने बहुत ऊपर से देखा। अब ऐसा समझो कि पहरेदार से झंझट कर रहे हो। हम यह रस्सी बीच से काट दें तो गाय इस आदमी के पीछे उसने कहा, बड़ी हैरानी की बात है। मैं पहले भी आया था, 4231 ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AHATTINE जिन सूत्र भाग: 1HITTERRIT तब एक दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था और वह भी जाननेवाला है। और जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ भी नहीं यही कहता था। | है, उसी को पता चलेगा मैं कौन हूं। उस राजा ने कहा, वे मेरे पिता थे, वे अब स्वर्गवासी हो गये। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कैसे पता चले कि मैं उसने कहा, उनके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा ही कौन हं। सीधी प्रक्रिया है : 'मेरे' को शिथिल करते जाओ। आदमी बैठा था। और हर बार पहरेदार भी बदल जाते हैं। जहां-जहां 'मेरे' को पाओ, वहां-वहां रस्सी को काटते जाओ। आदमी भी बदल जाते हैं। यह मकान वही है। और हर बार जब कुछ छोड़कर भाग जाने की भी जरूरत नहीं है कि तुम घर मैं आता हूं, तब यही झंझट! छोड़कर भागो। क्योंकि छोड़कर भागने में तो ऐसा लगता है कि उसने कहा, वे हमारे पिता के पिता थे, वे भी स्वर्गवासी हो | काट न पाये, डरकर भाग गये। डर लगा कि रहे तो कहीं 'मेरा' गये। हो ही न जाये यह मकान! कहीं लगने न लगे कि मेरा है! तो तो उसने इब्राहीम से पूछा, 'जब मैं चौथी बार आऊंगा, तुम जंगल भाग गये, जंगल में क्या होगा? जिस झाड़ के नीचे मुझे यहां मिलोगे, इस सिंहासन पर, कि फिर कोई और | बैठोगे, वही तुम्हारा हो जायेगा। मिलेगा? जब इतने लोग यहां बदलते जाते हैं, इसलिए तो मैं | तुमने देखा, भिखारी भी जिस जगह पर बैठता है सड़क के, कहता हूं यह सराय है, धर्मशाला है। तुम भी टिके हो थोड़ी देर; वह उसकी हो जाती है। अगर दूसरा भिखारी वहां आ जाये, मेरे टिक जाने में क्या बिगड़ रहा है? सुबह हुई, तुम भी चल झगड़ा हो जाता है, अब कुछ नहीं है। चलती सड़क है, किसी पड़ोगे, हम भी चल पड़ेंगे। की नहीं है, सार्वजनिक है। मगर भिखारियों के भी अड्डे होते हैं। कहते हैं इब्राहीम को बोध हुआ। वह सिंहासन से नीचे उतर जो भिखारी जिस जगह बैठता है, वह उसकी दुकान है। आया और उसने कहा कि तूने मुझे जगा दिया। अब तू रुक, मैं एक आदमी एक भिखारी के सामने से गुजर रहा था। वह चला। अब यहां रुककर भी क्या करना है। जहां से सुबह जाना | भिखारी चिल्लाया, 'बाबा! कुछ पैसे मिल जायें, सिनेमा देख पड़ेगा, इतनी देर भी क्यों गंवानी! आऊंगा।' और सामने तख्ती लगा रखी थी कि मैं अंधा हूं। उस इब्राहीम ने छोड़ दिया राजमहल। इब्राहीम सूफियों का एक आदमी ने पूछा, तुम अंधे हो? तो उसने कहा कि नहीं, असल में बड़ा फकीर हो गया। यह दुकान दूसरे भिखारी की है। वह आज छुट्टी पर है। मैं अंधा मेरा मकान! मेरा बेटा! मेरा धन! मेरा धर्म! जहां-जहां तुम नहीं हूं, मैं लंगड़ा हूं। यह दुकान दूसरे की है, मैं तो सिर्फ आज 'मेरे' को फैलाते हो, वहां-वहां तुम्हारा 'मैं', झूठा 'मैं' खड़ा बैठा हूं, क्योंकि वह छुट्टी पर है। और मौके की दुकान है। तो होता है। जो 'मैं' 'मेरे' के फैलाव से बनता है, उसीको | जब वह छुट्टी पर होता है तो मुझे बिठा जाता है। महावीर अहंकार कहते हैं। और जो 'मैं' सब 'मेरे' के टूट तुम अगर जाओ जंगलों में, हिमालय की गुफाओं में, जहां जाने पर बचता है, उसको महावीर आत्मा कहते हैं। तो अभी तो संसार छोड़कर बैठे हैं संन्यासी, उनकी भी गुफाएं हैं: दूसरा न तुमने जो अपना 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं है। वह तो तुम्हारी बैठे। अगर दूसरा बैठ जाये, झगड़ा मच जाता है। तो क्या फर्क और गाय के बीच में बंधी हुई रस्सी है। वह तुम्हारी अंतरात्मा पड़ेगा? मकान छूटेगा, गुफा अपनी हो जायेगी। गुफा छूटेगी, नहीं है। वह तो तुम्हारे मकान पर लगी हुई तुम्हारे अहंकार की सड़क के किनारे बैठ जाओगे तो वह टुकड़ा अपना हो जायेगा। छाप है। तुम कहां अपने को लगाते हो, यह थोड़े ही सवाल है। कहीं भी इसलिए महावीर कहते हैं: तो चिपकाओगे उस 'मैं' को! बस जहां चिपका दोगे, वही को णाम भणिज्ज बुहो, णाउं सव्वे पराइए भावे। झंझट हो जायेगी। मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सद्धं / / लोग धर्म से भी चिपका देते हैं। मेरा मंदिर! हिंदु कहते हैं, 'ऐसा कौन है जाननेवाला, जो कहेगा यह मेरा है?' | हमारा! मुसलमान की मस्जिद, वे कहते हैं, हमारी! हिंदू को रस तो जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ नहीं है, वही आता है मुसलमान की मस्जिद गिर जाये तो। 1424 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vavi tor पर्म की मूल भित्तिः अभय S R एक हिंदू पंडित में और एक मुसलमान मौलवी में बड़ी दोस्ती के लिये है। इसकी क्षणभंगुरता को गौर से देखते रहो, तो तुम थी। मौलवी नयी मस्जिद बनाने के लिये योजना कर रहा था इसे 'मेरा' न कहोगे। और दान मांग रहा था। उसने मित्रों को भी पत्र लिखे। उसने उस तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल! पंडित को भी पत्र लिखा कि मस्जिद बनाने के लिए चेष्टा कर रहे | और दिल की जो गहन शांति है, वह जो आत्म-शांति है, हैं, कुछ दान! पंडित ने पत्र लिखा कि यह तो असंभव है; मैं हिंदू | वासना के त्याग से ही मिलेगी: ममता के त्याग से ही मिलेगी। हूं और मस्जिद बनाने के लिए दान दूं, यह तो संभव नहीं है। हां, दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! पुरानी को गिराने के निमित्त सौ रुपये भेज रहा हूं। पुरानी 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा ज्ञान-दर्शन से गिराओगे न, नयी बनाने के पहले! मेरा दान पुरानी को गिराने के परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर लिये है। इसका उपयोग भर गिराने में कर लेना। बनाने के लिए मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' तो मैं कैसे दे सकता हूं! अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो। मस्जिद गिर जाये, हिंदू प्रसन्न है। मंदिर जल जाये, मुसलमान तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।। प्रसन्न है। किसी को परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है, . "मैं एक हूं...।' अपना-अपना है। अगर तुम्हारे परमात्मा पिट रहे हों तो कोई | __ एक-एक शब्द समझना इस सूत्र का। महावीर कहते हैं, मैं बचाने भी न आयेगा। लोग खुश ही होंगे कि अच्छा है, तुम्हारे एक हूं। तुम न कह सकोगे कि तुम एक हो। तुम तो अगर गौर ही पिट रहे हैं। | करोगे, तो पाओगे तुम एक भीड़ हो। तुम अनेक हो। तुम तो जबलपुर में गणेश-उत्सव पर गणेशों का जुलूस निकलता है, एक बाजार हो। एक उपद्रव हो, जिसके भीतर कई स्वर हैं। शोभा-यात्रा निकलती है। और हर मुहल्ले के गणेशों की जगह महावीर ने कहा, साधारणतः मनुष्य 'बहुचित्तवान' है। इस बंटी हुई है। तो पहले ब्राह्मणों के टोले का गणेश होता है, फिर | शब्द का प्रयोग अकेले महावीर ने किया है पच्चीस सौ साल दसरे टोले। फिर ऐसे पीछे आखिर में हरिजन टोले। पहले। अब आधुनिक मनोविज्ञान इस शब्द का उपयोग करता एक बार ब्राह्मणों का टोला आने में थोड़ी देर हो गई और है। वह कहता है: मल्टीसाइकिक, बहुचित्तवान। एक-एक तेलियों के गणेश पहले आ गये। तो जब ब्राह्मणों के गणेश आदमी के पास एक-एक मन नहीं है; एक-एक आदमी के पास पहुंचे, ब्राह्मणों ने कहा, 'हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों न मालूम कितने मन हैं! का गणेश और आगे!' | तुम अकसर कहते हो कि यह मेरे मन को नहीं भाता। लेकिन हां, गणेश भी तेलियों के, ब्राह्मणों के अलग-अलग हैं! तुमने कभी खयाल किया कि सुबह जो तुम्हारे मन को नहीं तेलियों का गणेश, हटाओ पीछे। यह तो बेइज्जती की बात हो भाता। वही शाम को भाने लगता है! आज जो अच्छा लगता है, गई। और तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। कल बुरा लगने लगता है। क्षणभर पहले जो प्रीतिकर था, अब हिंदू-मुसलमान के देवी-देवता तो छोड़ो, हिंदू के भी शत्रु मालूम होने लगता है। तो तुम सोचते नहीं कि तुम्हारे भीतर देवी-देवता! तेली और ब्राह्मण के अलग हो जाते हैं। बहुत मन हैं; एक मन नहीं है। अगर एक मन हो तो तुम्हारा प्रेम सब जगह आदमी अपने अहंकार की पताका लिये खड़ा रहता एकरस होगा। अगर एक मन हो तो तुम्हारा भाव थिर होगा। है। इस पताका को जो गिरा देता है वही आत्मा को जानने में | अगर एक मन हो तो बदलाहट न होगी। तुम्हारे भीतर शाश्वतता समर्थ होता है। होगी, चिरंतनता होगी। छोड़ो इस मेरे-तेरे को। सपनों में ज्यादा रस मत लो। लेकिन तुम तो एक भीड़ हो। गुरजिएफ कहता था, तुम एक तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल ऐसे घर हो जिसका मालिक तो सोया है और नौकर पाली बांध दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! लिये हैं। क्योंकि सभी नौकर मालिक होना चाहते हैं। सभी एक इतना ही देखते रहो कि यहां जो है, दो दिन के लिये है, क्षणभर साथ तो हो नहीं सकते। और मालिक सोया है, तो नौकरों ने 425 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 पाली बांध ली है। आधा-आधा घड़ी को एक-एक नौकर | सरकार निर्मित करने की कोशिश करता है। मालिक हो जाता है। जब, जो नौकर मालिक होता है, उस वक्त / की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया उसकी चलाता है। फिर वह किसी की नहीं सुनता। मैं तौबा करके और गुनहगार हो गया। ठीक कहता है गुरजिएफ। ऐसी ही आदमी की दशा है। और तुमने कभी किसी चीज को न करने की कसम खाई? जब तुम क्रोध में हो, तब क्रोध की चलती है। यह तुम्हारा एक कसम खाते ही उसमें और रस आने लगता है। खाकर कसम नौकर है। और क्रोध में तुम ऐसी बातें कर जाते हो कि घड़ीभर देखो! चाहे इसके पहले कोई रस भी न रहा हो। कसम खाकर बाद जब क्रोध का राज्य जा चुका होगा, तब तुम पछताओगे। | देखो... क्योंकि तब दूसरा मालिक आ गया। वह मालिक कहेगा, 'यह की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया। क्या गलती कर ली? बड़ी भूल हो गई।' क्षमा मांगोगे। और जैसे ही कोई चीज त्यागी कि तुम्हारी कल्पना घोड़ों पर इस दूसरे मालिक के प्रभाव में तुम किसी को कह आओगे कि | सवार हो जाती है। और वह सोचती है, 'अरे भोग लो! पता अब कभी क्रोध न करूंगा। नहीं कितना मजा है, नहीं तो दुनिया क्यों इसके खिलाफ है? फिर गलती कर रहे हो। क्योंकि वह जो क्रोध करनेवाला है, कुछ न कुछ राज तो होगा ही। नहीं तो इतने लोग समझानेवाले जब मालकियत में फिर आयेगा, तब यह पश्चात्ताप काम न | हैं, कोई छोड़ता नहीं।' कल्पना घोड़े पर सवार हो जायेगी। आयेगा: यह आश्वासन काम न आयेगा। यह किसी और के | मैं तौबा करके और गनहगार हो गया। द्वारा दिया गया आश्वासन क्रोध क्यों पूरा करेगा? पश्चात्ताप करो। तुम कहो, अब कभी न करेंगे। और तत्क्षण कामवासना उठती है तो तुम उसके प्रभाव में हो जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर गुनाह उठने लगेंगे। करने की आकांक्षा प्रबल सुबह उठकर मंदिर चले जाते हो, ब्रह्मचर्य की कसम खाने लगते होगी, जब भी तुम कहोगे अब न करेंगे। हो। भूल गये सांझ। फिर आयेगी सांझ। फिर कामवासना / उपवास करके देखो! उस दिन जैसा भोजन में रस लोगे, वैसा सिंहासन पर बैठेगी। फिर तुम अड़चन में पड़ोगे। कभी न लिया था। उस दिन भोजन ही भोजन करोगे। रात-दिन समझने की कोशिश करो। इन मनों में से कोई भी मन तुम्हारा | सपने ही सपने आयेंगे। जिस चीज को छोड़ोगे उसी की तरफ नहीं है। तुम तो अभी सोये हो। इन मनों में से किसी को चुनना कल्पना रसलीन होने लगती है। नहीं है, क्योंकि इनमें से चुना हुआ तो ठीक वैसा ही रहेगा जैसा संयमी बड़े अंतर्युद्ध में पड़ जाता है, गृहयुद्ध में पड़ जाता है। लोकतांत्रिक सरकार होती है-बहुमत की। लेकिन बहुमत का | ज्ञानी और संयमी में फर्क है। महावीर का जोर ज्ञानी पर है। कोई भरोसा है? आज जो इस पार्टी में है, कल दूसरी पार्टी में हो| महावीर कहते हैं, 'मैं एक है, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा जाता है। आज जो मित्र है, कल शत्रु हो जाता है। वहां तो ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और रूप-रंग रोज बदलते रहते हैं। खेल चलता रहता है। जो तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सरकार बनी दिखाई पड़ती है, वह किसी भी क्षण गिर जाती है। महावीर यह नहीं कहते कि मैं परकीय भावों का क्षय करके जिनकी कभी आशा न थी, वे सरकार में पहुंच जाते हैं, मालिक अपने स्वभाव में थिर होता हूं। महावीर कहते हैं, अपने स्वभाव बन जाते हैं। यह चलता रहता है। यह तो सागर में उठती लहरों में थिर होता हूं, इसलिए परकीय भावों का क्षय होता। जैसा खेल है। ___ 'मैं अपने स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर...।' तो अगर तुमने कोई कसम खाकर किसी तरह बहमत बना असली सवाल उस एक में तन्मय हो जाने का है; संसार के लिया, तो तुम मुश्किल में रहोगे। वह अल्पमत सदा उपद्रव | त्याग का कम, सत्य के अनुभव, सत्य के रस का ज्यादा है, सत्य खड़ा करता रहेगा। वह आंदोलन चलायेगा। वह झंझट पैदा | के स्वाद का ज्यादा है। करेगा। वह बहुमत को खिसकायेगा। संयमी और ज्ञानी के | 'मैं एक हूं...।' जीवन में यही फर्क है। संयमी अपने भीतर एक लोकतांत्रिक कौन है तुम्हारे भीतर एक? वासनाएं तो अनेक हैं? विचार 4261 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मूल भित्तिः अभय अनेक हैं। देह भी एक नहीं है, क्योंकि देह भी रोज बदलती है। तरंगें तो बहुत उठीं, लहरें तो बहुत आईं; लेकिन तट! वह बचपन में एक थी, जवानी में और है, बुढ़ापे में और होगी। और जगह न मिली, जहां सब लहरें शांत हो जाती हैं। ये तो मोटे विभाजन हैं, अगर गौर से देखो तो रोज बदलती है। उफ! तूफान तो बहुत रहे, आंधियां तो बहुत रहीं; लेकिन ऐसी सुबह कुछ है सांझ कुछ है। देह हजार बार बदलती है। मन तो कोई शरण न मिली, जहां सुख-चैन हो जाता है। करोड़ बार बदलता है। यह कोई भी एक नहीं है। इन सबके नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली भीतर अगर तुम एक को खोज लो, वह एक ही साक्षी-भाव नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये है-ज्ञायक-भाव जिसको महावीर कहते हैं ज्ञाता-वह एक और सदा अधूरा-अधूरा रहा; कुछ मिला तो कुछ कम हो है। बचपन में भी वही था, जवानी में भी वही, बढ़ापे में भी गया। वही। सुख में, दुख में, क्रोध में, प्रेम में, करुणा में--सब में नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये वही। वह एक है। प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। उस एक को जिसने पकड़ लिया उसने जीवन का आधार खोज | इस संसार में प्यास तो है, प्यार तो है; लेकिन न भाषा मिलती, लिया। उस एक पर जो अपने भवन को खड़ा करेगा, उसके न माध्यम मिलता, न द्वार मिलता। भटकती है रूह रेगिस्तानों शिखर मोक्ष तक उठ जायेंगे। में-प्यास के, अतृप्ति के, असंतोष के। 'मैं एक, शुद्ध, ममता-रहित, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण...।' जो बाहर जायेगा तो ऐसा ही होगा। भीतर आते ही किनारा उस अंतरात्मा का एक ही लक्षण है : ज्ञान-दर्शन; जानने की, मिलता है। बाहर प्यास ही प्यास है, भीतर तृप्ति ही तृप्ति। मुझे देखने की क्षमता। बस इतना उसका स्वभाव है। आत्मा का ऐसा कहने दो कि बाहर प्यास ही प्यास है और तृप्ति बिलकुल इतना ही स्वभाव है : देखने-जानने की क्षमता। अगर जानो और नहीं; और भीतर तृप्ति ही तृप्ति है, प्यास बिलकुल नहीं। तो देखो, इस क्षमता का उपयोग करो, तो संसार बन जाता है। असली सवाल भीतर आने का है। अगर न जानो, न देखो, इस क्षमता को शुद्ध छोड़ दो, उपयोग | आनंद तुम्हारा स्वभाव है। मत करो, तो मुक्ति फलित हो जाती है। _ 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण 'अपने इस शद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर, मैं इन हैं। अपने इस शद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली वे सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें, दौड़, आपाधापी, वह बाहर का नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली सारा जाल, सखे कंठ, रोती आंखें उन सबका त्याग होता नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गए चला जाता है, क्षय होता चला जाता है। प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। उपनिषद ठीक महावीर की इस अंतर्दृष्टि को प्रगट करते हैं। -जैसी जिंदगी है, वहां सिर्फ प्यास है, तृप्ति नहीं है। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली! मैं सदा रहनेवाला, सनातन, सदा सदैव स्थिर रहनेवाला जिसे तुम संसार कहते हो, वह प्यास और प्यास और प्यास, | आत्मा हूं। मरुस्थल! हां, दूर मरूद्यान दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचने पर अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। मरूद्यान सिद्ध नहीं होते। और जब तक कोई शाश्वत से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर से कैसे प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली। | सुख पाया जा सकता है? पानी के बबूलों को संपदा बनाने में दिखाई भी पड़े जल-स्रोत, तो भी सत्य सिद्ध न हुए। मन के लगे हो। हाथ में नहीं आते, तब तक तो इंद्रधनुष उन पर बनते ही स्वप्न थे! हैं; हाथ में आते ही फूट जाते हैं। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली। उपनिषद कहते हैं : सतां हि सत्य। सत्पुरुषों का स्वभाव ही Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 सत्यमय होता है। उस शाश्वत की जो सदा से है और सदा रहेगा। और उस सत्य कोई बाहर की बात नहीं तुम्हारे स्वभाव की बात है। शाश्वत की वर्षा होते ही क्षणभंगुर से छुटकारा हो जाता है। सतां ही सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। क्षणभंगुर को छोड़ना नहीं पड़ता। पानी के बबूलों को कोई और वे सदा उस भीतर के सत्य में रमते हैं। छोड़ता है? बोध आया-छूट गये! अज्ञान में पकड़ता है, ज्ञान वही महावीर कह रहे हैं तन्मय होकर, स्वभाव में स्थित, में छूट जाता है। अज्ञान में हम संसार को पकड़ते हैं, ज्ञान में हम परकीय भावों का क्षय करता हूँ। स्वयं को पकड़ लेते हैं। और जिसने स्वयं को पा लिया, उसने इसे थोड़ा प्रयोग में लाना शुरू करो। उठते-बैठते एक धागा सब पा लिया। और जिसने स्वयं को खोया, वह कुछ भी पा ले, भीतर सम्हालते रहो, जीवन के सारे मनके इसी धागे में पिरो लो। तो भी उसका पा लिया हुआ कुछ सिद्ध न होगा। एक न एक दिन उठो तो याद रखो कि मैं जाननेवाला हं, उठनेवाला नहीं। उठ तो वह रोयेगा। उसकी आंखें आंसुओं से भरी होंगी। शरीर रहा है। उठ तो मन रहा है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चलो आज वे मेरे गान कहां हैं? रास्ते पर, तो जानते रहो: चल तो शरीर रहा है, चल तो मन रहा टूट गई मरकत की प्याली है; मैं तो सिर्फ जान रहा हूं। जान रहा हूं कि शरीर चल रहा, मन लुप्त हुई मदिरा की लाली चल रहा। भोजन करो तो स्मरण रखो कि भोजन तो शरीर में पड़ | मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले रहा है, कि शरीर तृप्त हो रहा है, कि मन तृप्त हो रहा है; लेकिन अब सामान कहां हैं? मैं तो जाननेवाला हूं। अब वे मेरे गान कहां हैं? इस जाननेवाले के सूत्र को तुम जीवन के सारे मनकों में पिरो जगती के नीरव मरुथल पर दो। धीरे-धीरे यह तुम्हें स्वाभाविक होता जायेगा। तुम कुछ भी / हंसता था मैं जिनके बल पर करोगे, भीतर एक अहर्निश नाद बजता रहेगा : 'मैं ज्ञाता हूं।' चिर वसंत-सेवित सपनों के उस ज्ञाता में ही तुम एक हो जाओगें। उस ज्ञाता को जानते ही तुम मेरे वे उद्यान कहां हैं? संसार के पार हो जाओगे। अब वे मेरे गान कहां हैं? महावीर कहते हैं, जैसे कमल के पत्ते जल में रहते भी जल को | इसके पहले कि आंखें आंसुओं से भर जायें और हृदय केवल छूते नहीं, ऐसे ही फिर जो साक्षी-भाव को उपलब्ध हुआ, जल में राख का एक ढेर रह जाये, जागो! इसके पहले कि जीवन हाथ से रहते हुए भी जल को छूता नहीं। तुम फिर कहीं भी हो, तुम बह जाये, छिटक जाये, उठो! अवसर को मत खोओ! संसार के बाहर हो। संसार के भीतर भी तुम बाहर हो। फिर तुम जीवन अल्प है। उसे व्यर्थ में मत गंवा दो। मंदिर तुम्हारे भीतर भीड़ में खड़े भी अकेले हो। अभी तो तुम अकेले भी खड़े भीड़ में है। अगर समय का तुम ठीक उपयोग करना सीख जाओ, ही होते हो। | सामायिक सीख जाओ-मंदिर में प्रवेश हो जाये। और ये जो वचन हैं महावीर के, ये किसी दार्शनिक के वक्तव्य समय को संसार में लगाना और समय को संसार से मुक्त कर | नहीं हैं। ये किसी तत्वचिंतक की धारणाएं नहीं हैं। ये तो एक लेना-बस दो आयाम हैं। महासाधक के अनुभव हैं। इन्हें तुम अनुभव बनाओ, तो ही समय को संसार से मुक्त करो। समय को संसार की व्यस्तता इनका राज खुलेगा। इन्हें तुम प्रयोग बनाओ और इनके लिए तुम | से मुक्त करो! सामायिक फलित होगी! अपने में प्रवेश होगा! प्रयोगशाला बनो, तो ही ये सूत्र सत्य हो सकेंगे। आत्मधन मिलेगा! आत्मगीत बजेगा! आत्मा का नर्तन! तन्मय सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। होकर तुम डूबोगे! रमो इन सत्यों में। इन सत्यों को तुम्हारा स्वभाव बनने दो। तब तुम्हारे जीवन में उसकी वर्षा हो जायेगी आज इतना ही। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। 1428