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________________ RAND जिन सूत्र भागः1 FREE HE कि परमात्मा हमारे साथ है। बुद्ध-मंदिर बनवाये, इससे क्या लाभ होगा? और मैं लाखों वह अंग्रेज हंसने लगा। उसने कहा कि तुम्हें एक बात समझनी बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा देता हूं, राज्य उनका पालन करना चाहिए: किसी ने कभी सुना कि परमात्मा जर्मन भाषा जानता है-इससे मुझे कितना पुण्य हुआ है? दूसरों से भी उसने पूछा है? किस भाषा में करते हो प्रार्थना? | था, लेकिन दूसरे तो दुकानदार थे; उन्होंने कहा, महापुण्य हो रहा अंग्रेज सोचता है, परमात्मा अंग्रेजी जानता है। संस्कृत के है, स्वर्ग में तुम्हारे लिए विशेष इंतजाम होगा। उन्होंने हजार तरह पंडित कहते हैं, संस्कृत देववाणी है।...वह प्रभु की भाषा है! की बातें समझाई होंगी। सातवें स्वर्ग में जाओगे। पुण्य की राशि और बाकी सब भाषाएं, वे देववाणियां नहीं हैं! लगी जा रही है। इंद्र बनोगे! लेकिन यह बोधिधर्म थोड़ा उजडू, अपनी भाषा को देववाणी मान लेना बड़ा सुगम है। और सीधा-साफ आदमी था। अपनी आकांक्षा को परमात्मा की आकांक्षा मान लेना बहुत उसने कहा, 'लाभ! दिमाग दुरुस्त है? यह तुमने पूछा इसके सुगम है। और अपने अहंकार को परमात्मा की आड़ में छिपा कारण पाप लगा। तुम नर्क में पड़ोगे।' सम्राट वू थोड़ा लेना बहुत सुगम है। घबड़ाया। उसने कहा कि नर्क में। तो बोधिधर्म ने कहा, कि महावीर आदमी को कोई धोखे का उपाय नहीं देना चाहते। वे लाभ की आकांक्षा से किया गया दान, दान नहीं है। लाभ की कहते हैं, तुम धोखेबाज हो, यह तो जाहिर है, क्योंकि जरा-सी भी रेखा बच गई तो दान विकृत हो गया। जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, अनेक तरह से अपने को धोखा दे फिर भी सम्राट व ने कहा कि मैंने जो किया है, क्या वह पवित्र लेते हो। नहीं है, धार्मिक नहीं है। बोधिधर्म ने कहा, धर्म का पवित्रता से _ 'मैं न शरीर हूं, न मन है, न वाणी हूं और न उनका कारण हूं। क्या लेना-देना? धर्म तो पवित्रता से भी मुक्त है। वह अपवित्र मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न कर्ता का अनुमोदक हूं।' | और पवित्र, वह सब संसार की बातें हैं। जब तक इतनी प्रगाढ़ता से तुम अपने आत्यंतिक स्वरूप को नाराज हुआ सम्राट, प्रसन्न न हुआ। क्योंकि ऐसे आदमी से सभी तादात्म्यों से बाहर न कर लोगे, तब तक तुम उस कौन प्रसन्न होता है! हम तो लोभ को ऐसा पकड़े हैं कि अगर शुद्ध-बुद्ध अवस्था को न पहुंच सकोगे, जिसको महावीर हमसे दान भी करवाना हो तो हमारे लोभ को फुसलाना पड़ता 'जिनत्व' कहते हैं। है। हम तो ऐसे भयभीत हैं कि हमें अगर निर्भय बनाना हो, तो हमारी तो त्याग में भी भोग की वासना बनी रहती है। और हम | भी हमारे भय को ही सुशिक्षित करना होता है। हमारा जीवन तो वासना भी छोड़ते हैं तो भी किसी वासना को पूरा करने के बड़ी उलटी दशा में है। जिंदगी तो जिंदगी, हम मर भी जाते हैं, लिए ही छोड़ते हैं। हम तो दान भी करते हैं तो लोभ के कारण | तो भी हमारी आशाओं का ढांचा नहीं बदलता। करते हैं। गंगा के किनारे बैठे हुए पंडित-पुरोहित लोगों को मेरी खाक पर साजे-इकतार लेकर समझाते हैं : 'यहां एक दो, एक करोड़ पाओगे वहां।' कोई उम्मीद अब भी एक गीत-सा गा रही है हिसाब भी होता है। एक से एक करोड़ का कोई संबंध बनता मर जाते हैं, कब्र बन जाती हैं, तो भी कब्र पर तुम बैठा हुआ है? लेकिन जब लोभ को ही जगाना है तो अतिशयोक्ति करने में पाओगेः वही पुरानी आशा इकतारा बजा रही है-वही कामना, हर्ज क्या है! एक पैसा यहां दान दो, एक करोड़ पाओगे! कुछ वही वासना, वही लोभ, वही मोह! तो थोड़ा ब्याज का खयाल रखो! यह तो जरा अतिशयोक्ति हो 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय ( गई। लेकिन मतलब एक करोड़ पाने से थोड़े ही है, तुमसे एक आत्म-व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा निकलवा लेने से है। और जानते हैं कि तुम लोभी हो, तुम तो जो यह कहेगा, यह मेरा है?' दान भी लोभ के कारण करोगे। दान भी तुम करते हो तो पहले महावीर कहते हैं, अज्ञान का आधार है यह कहना कि 'यह पूछ लेते हो, इससे मिलेगा क्या? | मेरा है।' ममत्व, 'मैं' को जोड़ लेना किसी भी चीज से, आत्मा बोधिधर्म चीन पहुंचा, तो चीन के सम्राट ने पूछा कि मैंने हजारों का तादात्म्य बना लेना किसी चीज से—यही समस्त अधर्म का / 422/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340119
Book TitleJinsutra Lecture 19 Dharm ki Mul Bhitti Abhay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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