________________ धर्म की मूल भित्तिः अभय अनेक हैं। देह भी एक नहीं है, क्योंकि देह भी रोज बदलती है। तरंगें तो बहुत उठीं, लहरें तो बहुत आईं; लेकिन तट! वह बचपन में एक थी, जवानी में और है, बुढ़ापे में और होगी। और जगह न मिली, जहां सब लहरें शांत हो जाती हैं। ये तो मोटे विभाजन हैं, अगर गौर से देखो तो रोज बदलती है। उफ! तूफान तो बहुत रहे, आंधियां तो बहुत रहीं; लेकिन ऐसी सुबह कुछ है सांझ कुछ है। देह हजार बार बदलती है। मन तो कोई शरण न मिली, जहां सुख-चैन हो जाता है। करोड़ बार बदलता है। यह कोई भी एक नहीं है। इन सबके नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली भीतर अगर तुम एक को खोज लो, वह एक ही साक्षी-भाव नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये है-ज्ञायक-भाव जिसको महावीर कहते हैं ज्ञाता-वह एक और सदा अधूरा-अधूरा रहा; कुछ मिला तो कुछ कम हो है। बचपन में भी वही था, जवानी में भी वही, बढ़ापे में भी गया। वही। सुख में, दुख में, क्रोध में, प्रेम में, करुणा में--सब में नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये वही। वह एक है। प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। उस एक को जिसने पकड़ लिया उसने जीवन का आधार खोज | इस संसार में प्यास तो है, प्यार तो है; लेकिन न भाषा मिलती, लिया। उस एक पर जो अपने भवन को खड़ा करेगा, उसके न माध्यम मिलता, न द्वार मिलता। भटकती है रूह रेगिस्तानों शिखर मोक्ष तक उठ जायेंगे। में-प्यास के, अतृप्ति के, असंतोष के। 'मैं एक, शुद्ध, ममता-रहित, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण...।' जो बाहर जायेगा तो ऐसा ही होगा। भीतर आते ही किनारा उस अंतरात्मा का एक ही लक्षण है : ज्ञान-दर्शन; जानने की, मिलता है। बाहर प्यास ही प्यास है, भीतर तृप्ति ही तृप्ति। मुझे देखने की क्षमता। बस इतना उसका स्वभाव है। आत्मा का ऐसा कहने दो कि बाहर प्यास ही प्यास है और तृप्ति बिलकुल इतना ही स्वभाव है : देखने-जानने की क्षमता। अगर जानो और नहीं; और भीतर तृप्ति ही तृप्ति है, प्यास बिलकुल नहीं। तो देखो, इस क्षमता का उपयोग करो, तो संसार बन जाता है। असली सवाल भीतर आने का है। अगर न जानो, न देखो, इस क्षमता को शुद्ध छोड़ दो, उपयोग | आनंद तुम्हारा स्वभाव है। मत करो, तो मुक्ति फलित हो जाती है। _ 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण 'अपने इस शद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर, मैं इन हैं। अपने इस शद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली वे सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें, दौड़, आपाधापी, वह बाहर का नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली सारा जाल, सखे कंठ, रोती आंखें उन सबका त्याग होता नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गए चला जाता है, क्षय होता चला जाता है। प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। उपनिषद ठीक महावीर की इस अंतर्दृष्टि को प्रगट करते हैं। -जैसी जिंदगी है, वहां सिर्फ प्यास है, तृप्ति नहीं है। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली! मैं सदा रहनेवाला, सनातन, सदा सदैव स्थिर रहनेवाला जिसे तुम संसार कहते हो, वह प्यास और प्यास और प्यास, | आत्मा हूं। मरुस्थल! हां, दूर मरूद्यान दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचने पर अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। मरूद्यान सिद्ध नहीं होते। और जब तक कोई शाश्वत से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर से कैसे प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली। | सुख पाया जा सकता है? पानी के बबूलों को संपदा बनाने में दिखाई भी पड़े जल-स्रोत, तो भी सत्य सिद्ध न हुए। मन के लगे हो। हाथ में नहीं आते, तब तक तो इंद्रधनुष उन पर बनते ही स्वप्न थे! हैं; हाथ में आते ही फूट जाते हैं। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली। उपनिषद कहते हैं : सतां हि सत्य। सत्पुरुषों का स्वभाव ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org