Book Title: Jinsutra Lecture 02 Pyas hi Prarthana Hai
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रवचन प्यास ही प्रार्थना है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध ___ यह कह कर कि जीवन दुख-ही-दुख है, भारत और एशिया के जीवन को विपन्न बना गए? प्रतिक्रमण इतना असहज-सा क्यों लगता है? प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से, मालूम नहीं... और अयाचित और असमय। उसकी वर्षा हो रही है!...? R श्रवण और पठन-पाठन में क्या भेद है। / www.jainelibrary org: Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 हला प्रश्न : क्या यह आरोप सही है कि महावीर व्याख्या में कहीं भूल हो गई। तुम्हारा भाष्य भ्रांत है। और बुद्ध, यह कहकर कि जीवन दुख ही दुख है, महावीर को तो देखो, विपन्न दिखाई पड़ते हैं? और संपन्नता भारत और एशिया के जीवन को सदियों-सदियों क्या होगी? महावीर से ज्यादा सुंदर महिमा-मंडित परमात्मा की के लिए विपन्न और दुखी बना गए? और क्या यह जीवन | कोई और छवि देखी है? महावीर से ज्यादा आलोकित, अस्वीकार की दृष्टि स्वस्थ अध्यात्म कही जा सकती है? विभामय और कोई विभूति देखी? कहीं और देखा है ऐसा ऐश्वर्य, जैसा महावीर में प्रगट हुआ? जैसी मस्ती और जैसा पहली बात, न तो कोई तुम्हें आनंदित कर सकता है, न कोई आनंद, और जैसा संगीत इस आदमी के पास बजा, कहीं और तुम्हें विपन्न कर सकता है। जो भी तुम होते हो, तुम्हारा ही निर्णय सुना है? कृष्ण को तो बांसुरी लेनी पड़ती है तब बजता है है। बहाने तुम कोई भी खोज लो।। संगीत; महावीर के पास बिना बांसुरी के बजा है। मीरा को तो ___ महावीर ने कहा, जीवन व्यर्थ है। कहा, ताकि तुम महाजीवन नाचना पड़ता है, तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना में जाग सको। तुमने अगर गलत पकड़ा और तुमने इस जीवन नाचे नचा है। कोई सहारा न लिया-वीणा का भी नहीं, नृत्य को भी छोड़ दिया-और नीचे गिर गए, महाजीवन में न उठे। का भी नहीं, बांसुरी का भी नहीं। कृष्ण तो सुंदर लगते एक जगह तुम खड़े थे सीढ़ी पर और महावीर ने कहा, छोड़ो इसे, हैं—मोर-मुकुट बांधे हैं। महावीर के पास तो सौंदर्य के लिए आगे बढ़ो। छोड़ा तो तुमने जरूर, लेकिन पीछे हट गए। कसूर कोई भी सहारा नहीं-बेसहारे, निरालंब! लेकिन कहीं और तुम्हारी समझ का है। | देखा है परमात्मा का ऐसा आविष्कार-जीवन की ऐसी जीवन में सदा ही उत्तरदायित्व हमारा है। दूसरों पर टालने की प्रगाढ़ता, ऐसा घना आनंद! तो महावीर जीवन के विपरीत तो आदत छोड़ो। महावीर ने कहा था, ताकि तुम महाजीवन की नहीं हो सकते। नहीं तो सूख जाते, जैसे जैन मुनि सुखे हैं। तरफ उठो। जीवन की निंदा की थी, किसी परम जीवन की जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते; नहीं तो कुरूप हो जाते, प्रशंसा के लिए। | जैसे जैन मुनि हो गए हैं। सिकुड़ जाते। जीवन को छोड़ा है, इस जीवन को जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन कहने जैसा लेकिन सिकुड़े नहीं हैं। मृत्यु को वरण किया है, महामृत्यु को क्या है? इसमें संपन्न होकर भी क्या मिलेगा? यह मिल भी वरण किया है लेकिन मरे नहीं हैं। मृत्यु उन्हें और निखार दे। स्वप्नवत है। स्वप्न से जागने को कहा था। तुम स्वप्न से जागे तो नहीं, और महातंद्रा में खो गए। तुम्हारे दृष्टिकोण में, तुम्हारी है, और भी गहन धन की वर्षा हुई है। तुम मृत्यु से डरे-डरे जीते हो। महावीर को वह डर भी न रहा, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः 11 उनका जीवन अभय हुआ है। तुम घबड़ाए हो, धन छिन न | है, वह कुछ और है। तुम्हारी समझ के संग्रह का नाम तुम्हारा जाए! तो धन भी हो, धन से ज्यादा तो घबड़ाहट आ जाती है कि शास्त्र, तुम्हारा धर्म, तुम्हारी सभ्यता, संस्कृति है। छिन न जाए! महावीर ने धन छोड़ा, इतना ही मत देखो; साथ ही निश्चित ही, कल ही मैं आपसे कहता था कि चौबीसों तीर्थंकर घबड़ाहट भी तिरोहित हो गई है। जब धन ही न रहा तो छिनने की | जैनों के क्षत्रिय हैं। युद्ध के मैदान से आए। युद्ध की पीड़ा और बात ही कहां उठती है! महावीर ने वह सब छोड़ दिया जिसके युद्ध की हिंसा और युद्ध की व्यर्थता देखकर आए। उनकी साथ भय आता हो; वह सब छोड़ दिया जिसके साथ चिंता अहिंसा भय की अहिंसा नहीं है, कायर की अहिंसा नहीं आती हो। है-महावीरों की अहिंसा है। देखकर कि हिंसा में तो कायरता लेकिन ध्यान रखना, छोड़ने पर जोर नहीं है। पाया! ही है, उन्होंने हिंसा का त्याग किया। लेकिन फिर क्या हुआ? चिंतामुक्त जीवन-दशा पायी। अपूर्व शांति पायी। अभय जैन धर्म बना तो वणिकों से, वैश्यों से। जैनियों में तुम्हें क्षत्रिय न पाया। सत्य प्रगट हुआ महावीर से। ऐसा बहुत कम हुआ है। मिलेगा। सब दुकानदार हैं। कैसी दुर्घटना घटी। जिनके सब महावीर को अगर गौर से समझो तो पहली बात तो यह तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, उनके सब अनुयायी दुकानदार हैं! नहीं, समझनी चाहिए कि महावीर के पास कोई भी कारण नहीं है। जिन्होंने पकड़ा है उन्होंने कुछ और अर्थ से पकड़ा है। उन्होंने जीसस का सम्मान है-सूली कारण है। जीसस अगर सूली पर कहा, न किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा; न झगड़ा-झांसा न चढ़े होते, न चढ़ाए गए होते, ईसाइयत पैदा न होती। इसलिए | करेंगे, न पिटेंगे। उन्होंने 'अहिंसा परमोधर्मः' का उदघोष क्रास प्रतीक बन गया। जीसस के दुख ने करोड़ों लोगों की | किया। उन्होंने कहा, यह बात बड़ी अच्छी है। यह तो ढाल की सहानुभूति को आकर्षित कर लिया। दुख सदा सहानुभूति | तरह है कि हम मरने-मारने में विश्वास ही नहीं रखते। आकर्षित करता है। मगर जरा जैनियों की तरफ देखो, इनकी अहिंसा में अभय है? कृष्ण की बांसुरी के स्वर हैं। पशु भी नाच उठे, पक्षी भी भय ही भय को तिलमिलाता पाओगे। ये भय के कारण आनंदित हुए, दौड़ पड़े स्त्री-पुरुष! महावीर के पास क्या है? न अहिंसक हैं। बांसुरी है, न सूली है। महावीर निपट खड़े हैं नग्न, वस्त्र भी ये डरे हैं कि कोई मारे न, कोई लूटे न, कोई खसोटे न, कोई नहीं। कुछ भी नहीं है, जिस कारण लोग महावीर के पास जाएं। झंझट न करे, तो स्वाभाविक है कि अहिंसा की चर्चा करो। फिर भी लोग गए। फिर भी उन चरणों में लोग झुके हैं। महावीर की अहिंसा मृत्यु के पार जो अनुभव है उससे आती कृष्ण ने तो कहा : 'सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। है। जैनों की जो अहिंसा है, जीवन का ही अनुभव नहीं, मृत्यु के सब छोड़, मेरी शरण आ!' तो भी अर्जुन झिझका-झिझका अनुभव की तो बात दूर! शरण आया। उसकी झिझक से ही तो गीता पैदा हुई। संदेह करता ही चला गया। एक जैन ने प्रश्न पूछा है कि 'आप कहते हैं कि वह परम महावीर ने कहा : 'किसी की शरण जाने की कोई भी जरूरत | अवस्था तो शून्य की है, तो ऐसे शून्य को पाकर क्या करेंगे? नहीं है। मेरी शरण मत आओ, अपनी शरण जाओ!' फिर भी इससे तो यही जीवन ठीक है। कम से कम सुख-दुख का लोग महावीर के चरणों में आए, जरूर कुछ महिमापूर्ण घटित | अनुभव तो होता है!' / हुआ है! कुछ अनूठा लोगों को दिखा है! जैन धर्म से खो गई वह अनूठी बात–वह दूसरी बात है। शून्य का डर! इससे वे स्वर्ग-नर्क, सुख-दुख, कुछ भी हो उससे महावीर को मत जोड़ो। जैन धर्म तुम्हारा है। जैन धर्म झेलने को तैयार हैं; मिटने को तैयार नहीं हैं। शून्य यानी तुम्हारी व्याख्या है महावीर के संबंध में। जैन धर्म वह नहीं है जो | मिटना! न तुम यहां मिटने को तैयार हो, न तुम वहां मिटने को महावीर ने दिया है। जैन धर्म वह है जो तुमने लिया है। महावीर तैयार हो। बचना चाहते हो। बचाव भय की अभिव्यक्ति है। ने जो कहा है, वह तो कुछ और है। तुमने जो पकड़ा है, समझा अब जिन मित्र ने पूछा है, दुख को भी पकड़ने को तैयार हैं, कम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEET प्यास ही प्रार्थना है से कम रहेंगे तो! बचेंगे तो! दुख ही सही, नर्क ही सही-मगर अपनी शाश्वतता खोजते हो। तुम सोचते हो, चलो और तरह मिटने को तैयार नहीं हैं। का अमरत्व तो संभव नहीं है, इसी बहाने बच्चों में जीते रहेंगे; और जीवन का परम सत्य यही है कि जब तक तुम अपने को मेरा ही तो खून है; मेरे ही तो जीवाणु हैं! चलो यह देह न रहेगी, पकड़े हो तब तक मिटते रहोगे। और जिस दिन तुम अपने को बच्चों में जीएंगे। छोड़ दोगे और जिस दिन तुम शून्य होने को तैयार हो जाओगे, बाप बेटे में जीता है। मां बेटे में जीती है। ऐसी परंपरा बनती उसी क्षण पूर्ण घटित होता है-तत्क्षण घटित होता है। उस है। 'हम न रहेंगे, हमारा तो कोई रहेगा!' इसलिए तुम 'हमारे' क्रांति में फिर एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं करनी होती। तुम इधर | को पकड़ते हो। पर सारी पकड़ भीतर 'में' की है। जिसने शून्य होने को तैयार हुए कि तुम पूर्ण हुए। फिर कोई बाधा न समझने की कोशिश की, वह धन को नहीं छोड़ेगा। धन छोड़ने रही। कोई भय न रहा तो बाधा कैसी? तुम जब मिटने तक को से क्या लेना-देना है! क्योंकि धन तो गौण है; असली बात तो तत्पर हो गए तो तुम्हारी कोई पकड़ न रही। जो शून्य होने को 'मैं' की पकड़ छोड़ने की है। तुम्हें राजी होना है, ऐसी घड़ी के राजी है वह धन को थोड़े ही पकड़ेगा! जिसने अपने को ही न | लिए कि जहां मैं भी न रह जाऊं, तो भी क्या हर्ज है! क्या हर्ज पकड़ा वह धन को क्या पकड़ेगा! सारी पकड़ के भीतर पहली है? क्या मिटेगा? क्या खो जाएगा? तुम्हारे हाथ में क्या है? पकड़ तो अपनी पकड़ है। तुम धन को किसलिए पकड़ते हो? तुम मुट्ठी खोलने से डरते हो, क्योंकि मैं कहता हूं मुट्ठी खाली है। धन के लिए ही थोड़ी कोई धन को पकड़ता है-अपने को तुम कहते हो, इससे तो मुट्ठी बंधी ही रहे, चाहे तकलीफ होती है पकड़ता है, इसलिए धन को पकड़ता है। क्योंकि धन सुरक्षा देता बांधे रखने में, होती रहे-कम से कम बंधी तो है! लोग कहते है, भविष्य में व्यवस्था देता है। कल घबड़ाहट न होगी, तिजोरी हैं, बंधी लाख की! खाली है, मगर कहते हैं, बंधी लाख की! है, बैंक में बैलेंस है। बीमारी आए, बुढ़ापा आए, कुछ भी हो, / क्योंकि जो दिखाई ही नहीं पड़ता तो मान लो लाख हैं, करोड़ हैं, तो धन सुरक्षा का आश्वासन देता है। जो भी मानना है मान लो। खोलो, लाख गए! मुट्ठी खाली है! तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए धन को पकड़ते हो। तुम | लेकिन तुम बांधो कि खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मुट्ठी अपने को पकड़ते हो, इसलिए पत्नी को, बच्चे को पकड़ते हो। खाली है। उपनिषद कहते हैं, कोई पत्नी को थोड़े ही प्रेम करता है; लोग तुम कहते हो, इससे तो दुख ही बेहतर; सुख का आभास ही अपने को प्रेम करते हैं, इसलिए पत्नी को प्रेम करते हैं। पत्नी तो बेहतर-कम से कम हैं तो! यह अनुयायी की आवाज है। बहाना है। जिसने पूछा है वह जैन है। यह महावीर की आवाज नहीं है। तुम कहते हो कि तुमसे मुझे प्रेम है। लेकिन तुम्हारे प्रेम का महावीर तो कहते ही यही हैं कि छोड़ो परिग्रह, छोड़ो संसार, अर्थ कितना है? क्या है अर्थ? इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे होने छोड़ो वासना; ताकि इस सब छोड़ने में, जो इन सब के पीछे के कारण मैं प्रफुल्लित होता है; तुम हो तो मैं सुख पाता छिपा है और अपने को बचा रहा है, वह तुम्हें प्रगट हो जाए कि हूं-लेकिन तुम साधन हो, साध्य तो मैं ही हूं। तुम अपने बच्चों मूल में तो तुम अहंकार को बचा रहे हो, अपने को बचा रहे हो। को प्रेम करते हो, उनको पकड़ते हो-किसलिए? बुढ़ापे के सब बहाने छोड़ो तो साफ दिखाई पड़ जाएगा कि अपने को सहारे हैं। तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के लिए कंधा देंगे। भविष्य में बचाने में लगे हो! लेकिन बचाने में सार क्या है? और तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करेंगे। तम तो पूरा न कर बचा-बचाकर तम बचाओगे कैसे? या तो तम बचोगे ही. अगर पाओगे, यह तुम्हें पता है। महत्वाकांक्षाएं अनंत हैं। वासनाएं वह तुम्हारा स्वभाव है और अगर स्वभाव में ही अमरत्व नहीं है दुष्पूर हैं-बहुत हैं। जीवन बड़ा छोटा है : गया-गया, हाथ से तो तुम लाख बचाओ, बच न सकोगे। बहा-बहा है! तुम तो पूरा न कर पाओगे, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इसलिए महावीर कहते हैं : छोड़ो यह आपा-धापी! छोड़ो यह याद पूरी करेंगे; परंपरा को जारी रखेंगे; बाप का नाम बचाएंगे। बचने की आकांक्षा! यह जीवेषणा छोड़ो। जीवेषणा सभी पापों तुम तो जा चुके होओगे, लेकिन बच्चों के सहारे किसी तरह तुम का आधार है। मैं जीना चाहता है. चाहे फिर दसरों को मारकर www.jainelibrar org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिन सूत्र भा भी जीना पड़े, तो भी जीऊंगा! मैं जीना चाहता हूं, मुझे क्या फिक्र | उसका पता चल जाएगा जो सदा सुरक्षित है। है कि कौन मरता है! जब मैं कहता हूं शून्य होने की बात, तो उसका कुल इतना ही तो महावीर की सारी अहिंसा का सूत्र यही है, कि तुम्हारे जैसे अर्थ है कि पूर्ण तुम हो। इधर तुम शून्य होने को राजी हुए तो ही सभी जीना चाहते हैं। तुम वही करो उनके साथ जो तुम अपने तुम्हारी दौड़-धूप मिटी। दौड़-धूप मिटी तो सारी चेतना मुक्त हुई साथ करना चाहते हो। तो तुम किसी को मारो मत! लेकिन जो दौड़-धूप से, चेतना घर लौटी। बाहर नहीं जाओगे तो कहां किसीको न मारेगा, वह मरना शुरू हो जाएगा। जाओगे? घर आओगे! घर आने का कोई रास्ता थोड़े ही यह जीवन तो बड़ा संघर्ष है। यहां तो तम दसरे की गर्दन न है—बस बाहर जाना छोड़ देना है कि घर आ गए। घर तो तम हो दबाओ तो कोई तुम्हारी गर्दन दबाएगा। यहां तो सुरक्षा का सबसे ही, तुम्हारी वासना ही भटकती है दूर-दूर। ग है। मैक्यावली से पछो। महावीर से यहां तम बैठे मझे सन रहे हो हो सकता है, तम यहां सिर्फ बैठे अहिंसा समझ लो, मैक्यावली से हिंसा समझ लो। मैक्यावली हो शरीर की भांति, तुम्हारी वासना कहीं और भटकती कहता है कि इसके पहले कि कोई हमला करे, हमला करो: है-कलकत्ते में होओ, दिल्ली में होओ, बंबई में होओ। तो इसके पहले कि कोई तुम पर हमला करे, हमला कर दो। मौका जितना तुम्हारा मन बंबई में चला गया मुझे सुनते वक्त, उतने तुम मत दो पहल का, अन्यथा तुम पिछड़ ही गए संघर्ष में। मार लो, यहां नहीं हो। अगर तुम्हारा पूरा मन ही बंबई में चला गया, तो मार डालो, इसके पहले कि कोई तुम्हें मारे। यही सूत्र | तुम यहां बिलकुल नहीं हो। यहां तुम्हारा होना न होना बराबर है-जीवन में संघर्ष का, अपने को बचाने का। बड़ी मछली है। तुम होते न होते कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रतिमा छोटी मछली को खा जाती है। तुम शक्तिशाली बनो और दूसरों | बैठी है, जिसमें कोई प्राण नहीं है। क्योंकि प्राण तो वासना में को पीते चले जाओ। उसी में तुम्हारा जीवन है। भटक गए। तुम कहीं जाते थोड़े ही हो बाहर; वासना में मन महावीर कहते हैं, ऐसे जीवन को क्या करोगे? इस जीवन का उलझा कि तुम बाहर गए! वासना बहिर्गमन का मार्ग है। वासना सार भी क्या है, अर्थ भी क्या है? बच भी जाएगा तो क्या बाहर जाना है। क्षणभर को भी अगर तुम बाहर न जाओ तो तुम बचेगा, हाथ क्या लगेगा? हाथ-लाई क्या होगी? जाओगे कहां फिर? जब बाहर जाने के सब सेतु टूट गए, सब महावीर कहते हैं, सब देखा! सारा जीवन झूठा है, भ्रांत है। द्वार-दरवाजे बंद हो गए, सब मार्ग व्यर्थ हो गए, न तुम धन में यह दूसरे को मारने योग्य तो है ही नहीं। अगर दूसरे को बचाने में गए, न तुम पद में गए, न तुम प्रेम में गए, तुम कहीं बाहर गए ही अपने को मिटा भी देना पड़े तो मिटा दो—इसमें कुछ हर्जा नहीं नहीं, तो तुम अचानक अपने को घर में बैठा हुआ है, कुछ जा नहीं रहा है। और महावीर इतने आश्वस्त होकर यह पाओगे-जहां तुम सदा से बैठे हुए हो; जहां से तुम क्षणभर को कहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं; जो तुम्हारे भीतर अंतर्तम में छिपा भी हटे नहीं, तिलभर को भी हटे नहीं; जहां से हटने का कोई है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे तुम बचा रहे हो, वह तुम्हारी | उपाय नहीं। उसी को महावीर स्वभाव कहते हैं। उसी को झूठी प्रतिमा है; वह तुम्हारा स्वयं के प्रति झूठा भाव है। जिसे | महावीर धर्म कहते हैं, जिससे हटा न जा सके, जिसे खोकर भी तुम बचा रहे हो, अहंकार, वह तो मरेगा। वह तो समाज का खोया न जा सके, जिसे मिटाकर भी मिटाया न जा सके। जिसे दिया हुआ है; मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। तुम जैसे आए तुम लाखों जन्मों में चेष्टा कर-कर के, भटक-भटककर भी नहीं थे, कोरे, कुंआरे, जन्म के साथ, ऐसे ही कुंआरे-कुंआरे तुम मृत्यु अपने से छुड़ा पाए हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो छूट जाए, के साथ जाओगे। तुम्हारा नाम-धाम, पता-ठिकाना, सब यहीं वह पर-भाव है। छूट जाएगा। और वह जो मृत्यु के पीछे भी चला जाता है तुम्हारे तुम्हारे वस्त्र छीने जा सकते हैं; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। साथ और जन्म के पहले भी तुम्हारे पास था, उसकी कोई मृत्यु तुम्हारा शरीर छिन जाता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा नहीं है। तुम दौड़ छोड़ो बचने की, तो तुम्हें उसका पता चलेगा मन भी छिन जाता है, वह भी तुम्हारा स्वभाव नहीं। देह और मन जो सदा ही बचा हुआ है। तुम अपनी सुरक्षा न करो, तो तुम्हें के पार कुछ है-अनिर्वचनीय, जिसे न कभी छीना जा सका है, 28 . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAREERIAL प्यास ही प्रार्थना है न छीना जा सकता है। उसका इतना ही अर्थ है : व्यर्थ से शून्य हो जाओ, ताकि सार्थक बादल घिरते हैं आकाश में, इससे कुछ आकाश नष्ट नहीं हो का आविर्भाव होने लगे। बाहर से शून्य हो जाओ, ताकि भीतर जाता। क्षणभर को दिखाई नहीं पड़ता। खो जाता है। ओझल हो की धुन बजने लगे। बाजार में खड़े हो। भीतर तो धुन बजती ही जाता है। पर मिटता थोड़े ही है! फिर बादल चले जाते हैं, वर्षा रहती है, सुनाई नहीं पड़ती; बाजार का शोरगुल भारी है। भीतर समाप्त हुई, बादल विदा हो गए—आकाश अपनी जगह खड़ा आओ! थोड़े आंख-कान बंद करो! छोड़ो बाजार को! भूलो है। ऐसी ही वासनाएं आती हैं तम्हारे अंतर-आकाश में, क्षणभर | बाजार को! तो भीतर की धुन सुनाई पड़ने लगे, अनाहत का नाद को घिरती हैं, शोरगुल मचता है, गड़गड़ाहट होती है, बिजलियां सुनाई पड़ने लगे। चमकती हैं—क्रोध है, लोभ है, मोह है, माया है-हजार तरह अहर्निश बज रही है वह वीणा। क्षणभर को भी उस के बादल घिरते हैं, गड़गड़ाहट होती है, वासना बरसती है। फिर कलकल-नाद में बाधा नहीं पड़ती। पर बड़ा सूक्ष्म है नाद! जब जिस दिन भी बोध सम्हलेगा-गए बादल! इससे तुम खराब तुम सुनने में सजग होओगे, जब तुम्हारा श्रवण सधेगा, जब थोड़े ही हो गए। तुम्हारा कुंआरापन कुछ ऐसा है कि खराब हो ही तुम्हारे कान भीतर की तरफ मुड़ेंगे और जब तुम धीरे-धीरे बारीक नहीं सकता। बादल सदा आएगा-जाएगा, आकाश तो कुंआरा को, बारीकतम को पकड़ने में कुशल हो जाओगे-तब, तब बना रहता है। आकाश व्यभिचारित थोड़े ही होता है। रेखा भी | तुम्हें उस वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको योगी अनाहत तो नहीं छुट जाती बादल की। छाया भी तो नहीं छट जाती बादल कहते हैं। की। पद-चिह्न खोजकर भी तो न खोज पाओगे। कोई हस्ताक्षर और सब नाद तो आहत हैं, दो चीजों की टक्कर से पैदा होते तो बादल कर नहीं जाता कि यहां मैं आया था। कोई हैं। मैं ताली बजाऊं तो दो हाथ टकराते हैं। एक हाथ से तो ताली नाम-ठिकाना भी नहीं छूट जाता। ऐसे ही तो तुम्हारी देह खो बजती नहीं। लेकिन एक नाद है तुम्हारे भीतर, जो अहर्निश चल जाती है। रहा है। वह आहत-नाद नहीं है। वह दो हाथ की ताली नहीं है, कितनी देहें इस पृथ्वी पर रही हैं तुमसे पहले! तुम कुछ नये एक हाथ की ताली है। वह किन्हीं दो चीजों की टकराहट से पैदा हो? वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम दस नहीं हुआ, अन्यथा किसी न किसी दिन बंद हो जाएगा। जब दो लाशें गड़ी हैं। जितनी जगह तुम बैठने के लिए लेते हो, वहां कम चीजें न टकराएंगी तो बंद हो जाएगा। वह तुम्हरा स्वभाव है। से कम दस आदमी मर चुके, गड़ चुके, खो चके। वहीं तुम भी ओंकार! प्रणव! वह तुम्हारा स्वभाव है। खो जाओगे। यह तो आदमियों की बात हुई। अब जानवरों का यह तुमने कभी सोचा? हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, भारत में ये हिसाब करो, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब करो, मक्खी-मच्छरों का तीन महाधर्म पैदा हुए। तीनों के विचारों में बड़ा भेद है, हिसाब करो, वृक्ष-पौधों का हिसाब करो, तो तुम जहां बैठे हो जमीन-आसमान का भेद है। तीनों की सैद्धांतिक धारणाएं भिन्न वहां अनंत जीवन हुए और खो गए। वहीं तुम भी खो जाओगे।। हैं। तीनों के ढांचे अलग हैं, मार्ग अलग हैं, पथ अलग हैं। कोई खोते ही चले जा रहे हो। प्रतिक्षण खिसकते जा रहे हो गड्ढे में। समर्पण का मार्ग है, कोई संकल्प का। कोई संघर्ष का मार्ग है, मौत पास आती चली जाती है। एक-एक क्षण जीवन रिक्त होता कोई शरणागति का कोई पूजा-प्रार्थना, भक्ति का, कोई चला जाता है। बूंद-बूंद कर के घड़ा खाली हो जाएगा। लेकिन ध्यान-समाधि का। लेकिन एक बात इन तीनों धर्मों ने स्वीकार फिर भी तुम हो-जो कभी खाली नहीं होगा। की है-वह है ओंकार। वह है ओऽम् का नाद। उसे इनकार जो संसार से मिला है, संसार वापिस ले लेता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। क्योंकि जब भी कोई भीतर गया है, तो उस तुम्हारे पास है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला-जो बस तुम्हारा नाद को सुना है। जब भी कोई भीतर गया है तो ऐसा कभी हुआ है! वही तुम्हारी संपदा है। वही तुम्हारी आत्मा है। ही नहीं, कोई अपवाद नहीं कि वह नाद न सुना हो। वह जब कहते हैं, शून्य हो जाओ तो उसका कुल इतना ही अर्थ है: जीवन-नाद है, ब्रह्म-नाद है। बादलों से शून्य हो जाओ, ताकि आकाश से पूर्ण हो जाओ। तो जब हम कहते हैं, शून्य हो जाओ, तो अर्थ इतना ही है कि 29 . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 11 बाहर के शोरगुल से शून्य हो जाओ। और अभी तो तुम जो भी | महावीर का सारा शिक्षण मृत्यु का शिक्षण है-शून्य होने की जानते हो, सब बाहर का शोरगुल है। इसलिए कहते हैं, तुम जो कला है। पर शून्य होने की कला ही पूर्ण होने की कला है। चाहे हो उससे बिलकुल शून्य हो जाओ! अभी तो तुमने व्यर्थ को ही दोनों में से कुछ भी शब्द चुन लो; लेकिन मैं कहूंगा, तुम शून्य ही जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो तुमने चुनना। पूर्ण को चुना कि तुम चूके। क्योंकि पूर्ण के साथ लोभ कागज-पत्तर को जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी | आया। तुमने कहा, 'अरे! तो हम पूर्ण हो जाएंगे! गजब!' तो शाश्वत का तुम्हारी प्रतिमा से कोई भी संबंध नहीं है। अभी | पकड़ा अहंकार ने रस! वही अहंकार जिसको छुड़ाना है, छूटना तो तुम कहते हो, यह मेरा नाम है, यह मेरी जाति है, यह मेरा धर्म | है जिससे, पूर्ण होने की आकांक्षा से भर गया! फिर तुम्हारे है, यह मेरा घर है; यह मेरा कुल है, यह मेरा देश है, यह मैं हिंदू गुब्बारे में और हवा भरने लगेगी। फिर अहंकार और बड़ा होने हूं कि जैन हूं, कि मुसलमान हूं कि ईसाई हूं, कि मैं गरीब हूं कि लगेगा। पूर्ण होने का नशा छा गया! इसलिए ज्ञानियों ने शून्य अमीर हूं, कि शिक्षित कि अशिक्षित, कि गोरा कि काला, कि की भाषा कही है-जानते हुए कि अंतिमतः पूर्ण घटता है लेकिन सम्मानित कि अपमानित, कि साधु कि असाधु-अभी तो तुमने | तुमसे कहना उचित नहीं। तुमसे कहना खतरनाक है। जो भी जोड़ा है, बाहर से जोड़ा है। यह तो दूसरों ने जो कहा है, महावीर ने जो कहा, उसको तमने वैसा ही नहीं सना है जैसा उसको ही तुमने इकट्ठा कर लिया है। | उन्होंने कहा था। अन्यथा ये दुर्दिन, यह दुर्दशा, यह दारिद्र , यह इसलिए कहते हैं, तुम अपने से खाली हो जाओ। यह सब दीनता न घटती। इसलिए जो लोग ऐसा लांछन लगाते हैं, ऐसा कूड़ा-कर्कट हटाओ। और घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। तुम | विवाद खड़ा करते हैं, उनके विवाद में तथ्य तो है; लेकिन तथ्य बेफिक्र कूड़ा-कर्कट हटाओ, क्योंकि जो कूड़ा-कर्कट नहीं है, का इशारा तुम्हारी तरफ है, उन्हीं की तरफ है। तथ्य का इशारा उसे तुम हटाओ भी, तो भी हटा न सकोगे। इसलिए भय की | महावीर की तरफ नहीं है। काश! तुम महावीर को समझते तो कोई जरूरत नहीं है। इसलिए डर-डरकर हटाने की जरूरत नहीं | इस देश में जैसा धन्यभाग फलता, इस देश में जैसे महिमावान कि कहीं ऐसा न हो कि हीरे खो जाएं। वे हीरे कुछ ऐसे हैं कि खो | फूलों का जमघट जुड़ जाता, वैसा कहीं भी नहीं हो पाता। अगर ही नहीं सकते। इसलिए तुम आग भी लगा दो इस मकान में, तो महावीर को समझे होते तो तुम्हारे भीतर जो अपरिसीम है, वह भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। तुम खालिस, साबित निकल आओगे | प्रगट होता। तुम्हारे चारों तरफ प्रकाश-मंडल निर्मित होता। न क्योंकि तुम्हारा स्वभाव जलता नहीं। भी कुछ तुम्हारे पास होता तो भी तुम समृद्ध होते। और अभी तो नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः! हालत ऐसी है कि सब कुछ भी तुम्हारे पास हो, तो भी दरिद्रता न आग उसे जलाती, न शस्त्र उसे छेदते हैं। अमरत्व तुम्हारा | कहां मिटती है? स्वभाव है। तुमने धनी आदमियों की दरिद्रता नहीं देखी, तो फिर तुमने कुछ लेकिन अनुयायी की भाषा है, वह घबड़ाता है। वह कहता है, भी नहीं देखा! तुमने शक्तिशालियों की शक्तिहीनता नहीं देखी! इससे तो संसार में बने ही रहे; चलो झूठे ही सही, कुछ तो हैं तुमने पदधारियों की नपुंसकता नहीं देखी! अकड़ के झंडों के सुख! मान्यता ही सही, मिलते नहीं, आशा ही बंधाते हैं, कुछ | पीछे कमजोरी के सिवाय और क्या है? जितने बड़े झंडे हाथ में तो हैं! दुख हैं, चलो कोई हर्जा नहीं, हम तो हैं! कांटे भी चुभते | हैं, जितने ऊंचे डंडे हाथ में हैं, उतनी ही हीनता भीतर छिपी है। हैं, चलो सह लेंगे, जूते पहन लेंगे, दवा खोज लेंगे, मलहम कर हीनता न हो तो कौन डंडे और झंडे लेकर यात्राएं करता है! क्या लेंगे, ऐसे रास्तों पर न जाएंगे जहां कांटे हैं लेकिन कम से कम जरूरत है ? किसको दिखाना है? जिसको अपना स्वरूप दिख हम तो हैं! लेकिन इस 'हम' को करोगे क्या? इस अहं को गया, उसको दिखाने को अब कुछ भी न बचा। करोगे क्या? फिर तुम जिसे जिंदगी कहते हो, और कहते हो जीवन का मुश्किल नहीं है मौत, आजमाओ तो सही स्वीकार, उसमें जिंदगी जैसा क्या है? . मर जाने से पहले क्यों मरे जाते हो? था ख्वाब में खयाल को तुझसे मुआमला ain Education International Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BREA प्यास ही प्रार्थना है जब आंख खुल गई न जियां था न सूद था। तुम ही धारा के बाहर हो जाओ। यह संसार तो चलता ही रहेगा, मेरा-तेरा संयोग सपने की कल्पना थी, क्योंकि जब आंख चलता ही रहा है। तुम्हीं छलांग लगा लो। तुम्ही किनारे खड़े हो खुल गई तो-बकौल तुलसीदास 'हानि-लाभ न कछु।' बड़ा | जाओ। बस इतना ही हो सकता है कि तुम अलग हो जाओ इस हिसाब था! बड़ा धंधा किया था सपने में। सुबह उठकर पाते हैं, | उपद्रव से, तुम सपने से जाग जाओ। 'हानि-लाभ न कछु।' जिंदगी किसे कहते हो तुम? जन्म और मृत्यु के बीच जो है, जिसे तुम जीवन कहते हो वह स्वप्न है। अच्छा हो, तुम उसे उसे तुम जिंदगी कहते हो? महावीर कहते हैं उसे जिंदगी, जो सपना कहो। जीवन को अभी तुमने जाना नहीं। और जिसे तुमने जन्म और मृत्यु के पार है। जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जाना है वह जीवन नहीं है। | जिंदगी नहीं, एक लंबा सपना है। जन्म के समय तुम सो जाते कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो हो, मृत्यु के समय जागते हो-तब पता चलता है कि यह जिंदगी कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! एक सपना थी। इस फिजूल की जिंदगी से मिलता क्या है! कोई मुझे सुझा दो खत्म न होगा जिंदगी का सफर कि इसमें क्या अर्थपूर्ण है। कोई मुझे राह बता दो कि कैसे इस मौत बस रास्ता बदलती है। व्यर्थ के कारागृह से मैं बाहर हो जाऊं! मौत रास्ता बदलती जाती है। मौत बस रास्ता बदलती है। एक कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो। जिंदगी खत्म हुई, दूसरी जिंदगी शुरू; दूसरी जिंदगी खत्म हुई, कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! तीसरी जिंदगी शुरू। मौत सिर्फ रास्ता बदलती है। जब तक कि इस व्यर्थ की दौड़-धूप से क्या हासिल है? तुम जागकर अलग न हो जाओ इस धारा से, इस मूर्छा और तंद्रा कोई पुकारो कि उम्र होने आई है से...। फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। | नहीं, महावीर ने इस देश को न तो दीनता दी है न दरिद्रता दी कोई पुकारो, कहो आकाश को कि रोक, अब यह काफिला है। हां, यह हो सकता है कि महावीर को सुनकर तुमने जो सबह और शाम का, समय के पार होने की यात्रा होने दे। समय समझा, उससे तुमने दीनता-दरिद्रता में अपने को आरोपित कर में बहुत जी लिये। लिया हो। महावीर ने तो तुम्हें महाजीवन का सूत्र दिया था। सुबह होती शाम होती, उम्र तमाम होती! महावीर का जो जीवन-अस्वीकार है, उसे इतना ही कहना फिर वही सुबह, फिर वही सांझ, फिर वही दोहरावा--कोल्हू चाहिए कि वह भ्रामक जीवन का अस्वीकार है। और भ्रामक के बैल की तरह घूमते हैं! आंख पर पट्टियां, अंधे की तरह! जीवन का अस्वीकार वास्तविक जीवन की बुनियाद है। भ्रामक लगता है, यात्रा हो रही है, पहुंचते कहीं भी नहीं। अगर यात्रा जीवन का अस्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत है। और होती होती तो कहीं तो पहुंचते। कभी यह तो सोचो, पहुंचे सत्य-जीवन की उपलब्धि अध्यात्म की पूर्णता है। कहां? चलते बहुत हैं, थक गए हैं बहुत, पहुंचते कभी भी नहीं, / खड़े वहीं के वहीं हैं! कैसी पागल यह दौड़ है, जहां रत्तीभर यात्रा दुसरा प्रश्न H प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना. हमें असहज. नहीं होती और जीवन पर जीवन चुकते चले जाते हैं! कठिन और असंभव सा क्यों लगता है? कोई पुकारो कि उम्र होने आई है .. फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक घर से दूर आने को ही जीवन मगर यह सुबह और शाम का काफिला आकाश नहीं समझा। उसी की आदत बनी। उसी में रंगे, पगे, बड़े हुए। वही ठहराता-तुम्हीं को ठहराना पड़ेगा! यह किसी के पुकारने की हमारे मन का शिक्षण है। वही हमारा संस्कार है। वही हमारे बात नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे सुबह-शाम के काफिले को नहीं कर्मों की थाती है। वही हमारे सारे जीवनों का निचोड़ ठहरा सकता। यह तो सुबह-शाम की धारा चलती ही रहेगी, है।...बाहर जाने को ही जाना है। कभी भीतर तो गए ही नहीं. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जन सूत्र भाग : 1 एक कदम न उठाया। अकेले होने की हिम्मत आ जाए, कुशलता आ जाए। बाहर तो जहां कदम कभी न डाले हों, जिस तरफ कभी आंख न एकांत के अभ्यास का इतना ही प्रयोजन है कि थोड़ा अकेले ह्येने उठाई हो, उस तरफ जाने में मन अगर डरे, भयभीत की हिम्मत आ जाए। बैठता है अंधेरी गुफा में, कोई नहीं, हो–अपरिचित, अनजान रास्ता, पता नहीं कैसा हो कैसा न अकेला, अंधकार घिरता है, रात आ जाती है, जंगली जानवर हो—स्वाभाविक है। इसलिए तो अध्यात्म की लोग बातें करते सब तरफ, अकेला! धीरे-धीरे रमता है। धीरे-धीरे भूलने हैं, लेकिन जाते नहीं; चर्चा करके समझा लेते हैं, उतरते नहीं। लगता है कि दूसरे की जरूरत है। धीरे-धीरे साहस आता, चर्चा में कुछ हर्जा नहीं है; मन बहलाव है; मनोरंजन है। सुन आत्म-विश्वास बढ़ता है कि नहीं, अकेला भी हो सकता है। लेते, समझ लेते, पढ़ लेते, शास्त्र को पकड़ लेते, मंदिर हो ऐसे बाहर का एकांत फिर भीतर ले जाने में सीढ़ी बन जाता है। आते, मस्जिद हो आते-भीतर नहीं जाते। बाहर का एकांत अंत नहीं है–साधन है। इसलिए जिसने यह इसीलिए तो लोगों ने बाहर मंदिर और मस्जिद बनाए हैं कि समझ लिया कि गुफा में बैठना आ गया तो अंतरज्ञान हो गया, अगर मंदिर-मस्जिद जाने की भी धुन पकड़ जाए तो बाहर ही वह भटक गया। गुफा में बैठे रहो लाखों वर्षों तक, कुछ भी न जाएं; कहीं ऐसा न हो कि किसी धुन में भीतर की तरफ कदम होगा। गुफा में बैठना तो सिर्फ एक कदम था। ऐसे ही जैसे कोई उठा लें और मुश्किल में पड़ जाएं। तैरना चाहता है, तैरना सीखना चाहता है, तो एकदम से गहरे में रास्ता अपरिचित है, बीहड़ है। फिर, बाहर के रास्ते पर भीड़ नहीं जाता; किनारे पर, जहां गहराई नहीं है, गले-गले पानी है, है। तुम अकेले नहीं, और सब साथ हैं। भीतर के रास्ते पर तुम कमर-कमर पानी है, वहीं तड़फड़ाता है, वहीं सीखता है। सीख अकेले हो जाओगे, वह भी डर है। वहां कोई साथ न जा ले एक दफा तो फिर गहरे में जाता है। पर सीखकर भी वहीं सकेगा-न मित्र, न संगी, न साथी, न पति, न पत्नी, न बेटे, न | तड़फड़ाता रहे किनारे पर ही, तो तैरना सीखा न सीखा बराबर। मां, न पिता-कोई साथ न जा सकेगा वहां। वहां तो तुम्हें निपट | उस किनारे पर तो बिना ही सीखे खड़े हो जाते; गले-गले पानी अकेले जाना होगा। जैसे मौत में तुम अकेले जाओगे, वैसे ही था, सुरक्षित थे। स्वयं में भी अकेले जाना होगा। न कोई दूसरा तुम्हारे लिए मर तो जो लोग गुफाओं में बैठकर बंद हो गए हैं और सोचते हैं, पा सकता और न कोई दूसरा तुम्हारे लिए भीतर जा सकता। तो जैसे लिया है, वे भी भ्रांति में हैं। लोग मौत से डरते हैं, वैसे ही लोग ध्यान से डरते हैं। हां, ध्यान / कछ संसार में खोए हैं, कछ संन्यास में खो गए हैं। की चर्चा वगैरह करनी हो, कर लेते हैं। इस देश में से जिससे संन्यास तो केवल साधन है, ताकि तुम्हें थोड़ा भीड़ से बाहर पूछ लो, जिससे-जिससे पूछ लो, ध्यान क्या है—जवाब दे निकाल ले; थोड़ी झलक दे, और इस बात का भरोसा दे कि देगा; प्रार्थना क्या है, पूजा क्या है-प्रवचन दे देगा। ऐसी कोई अकेले में भी मजा है, कि अकेले में और ज्यादा मजा है, कि बात ही नहीं जिसको इस देश में लोग न जानते हों। ब्रह्म की बात अकेले की भी धुन है, कि अकेले का भी नशा है, कि मस्ती है, उठाओ, हर कोई, राह चलता ब्रह्मज्ञान बघार देगा। आसान है, कि ऐसी मस्ती तो कभी न पायी थी जो अकेले में मिली! थोड़ा उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन भीतर जाने की बात मत करो। गुफा में बैठकर, बाजार से दूर, भीड़ से दूर, अपनों से दूर, संसार पांव डगमगाते हैं ! घबड़ाहट होती है! की चिंताओं और फिक्रों से दर, एक बार स्वाद आ जाए कि पहली तो घबड़ाहट यह कि रास्ता नया! दूसरी और गहरी अरे! बाहर के अकेलेपन में इतना स्वाद है तो कितना न होगा घबड़ाहट यह कि अकेले हैं! अकेले तो कभी कहीं गए नहीं, भीतर के अकेलेपन में! फिर तो भीतर की भी पुकार उठने लगती जब भी गए किसी के साथ गए। कोई यात्रा अकेले न की, तो है। निश्चित ही कोई गुफा इतनी अकेली नहीं है जितनी अकेली अकेले की आदत ही छूट गई है। इसीलिए तो संन्यासी अकेले भीतर की गुफा है। क्योंकि गुफा में भी वृक्ष हिलते हैं बाहर, के अभ्यास के लिए एकांत में चला जाता है। वह सिर्फ बाहर से आवाज होती है, हवा गुजरती है, कोयल गीत गाती है, सिंह अकेलेपन का अभ्यास कर रहा है, ताकि धीरे-धीरे भीतर भी दहाड़ता है। कोई है! आकाश में चांद-तारे हैं! हिमालय की 1321 Jair Education International : Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यास ही प्रार्थना है गुफा में भी बैठे हो तो हवाई जहाज निकल जाता है। कोई है! बस लोग इरादे बांधते हैं। ध्यान-करेंगे। जिसने कहा, करेंगे, कोई इतने अकेले नहीं हो, कहीं भी इतने अकेले नहीं हो। संसार | चूका। करो! इस क्षण है क्षण। उतरो, योजना मत बनाओ। किसी न किसी रूप में अपनी खबर भेजता ही रहता है। एक योजना मन का धोखा है। मन बड़ा चालाक है। वह कहता है, चींटी काट जाती है, एक बिच्छ आ जाता है-उचककर खड़े हो | कल करेंगे। जाते हो! कोई है! एकदम अकेले नहीं हो! लोग मेरे पास आते हैं. वे कहते हैं. संन्यास में उतरना है। मैं भीतर की गुफा में कोई भी नहीं है। न कोई हवाई जहाज कहता हं, 'उतर जाओ, उतरना है तो! कौन रोक रहा है? मैं तो गुजरता, न कोई चींटी चढ़ती, न कोई बिच्छु आता, न कोई सिंह नहीं रोक रहा!' वे कहते हैं, 'नहीं, उतरेंगे।' फिर तुम्हारी दहाड़ता, न वृक्षों में हवा की सरसराहट होती, न पानी का मर्जी। कल पर तुम्हारा भरोसा है ? कल होगा? ऐसा आश्वस्त कलकल-नाद है-कोई भी नहीं है, कोई भी नहीं है! वहां बस हो? बीच में मौत आ जाएगी तो क्या करोगे? कहोगे कि विराट, विराट, निस्तब्ध, निबिड़ तुम हो! बड़ा गहन, परम गहन संन्यास लेना है, जरा ठहर? शून्य है वहां! वहां ऐसी शांति है जैसी तब थी जब परमात्मा ने संन्यासिनी है हमारी : गीता। उसके पिता संन्यास लेना चाहते सोचा भी न था, 'अकेला हूं, संसार को बनाऊं', वैसी शांति! | थे। कोई सालभर से मुझसे कहते थे। सुनते हैं मुझे कोई दस उस घड़ी में तुम फिर पहुंच जाते हो जहां परमात्मा रहा होगा, वर्षों से। अभी कोई दो महीने पहले आए थे। महीनेभर यहां संसार को बनाने के पहले। तुम प्रथम को छू लेते हो। तुम उस रहे। दो तीन बार मिलने आए। मैंने उनसे कहा, 'अब सूर्योदय के क्षण में पहुंच जाते हो, जहां संसार शुरू न हुआ था; किसलिए देर कर रहे हो?' वे कहते हैं, 'कुछ देर नहीं है। जहां अभी संसार प्रगट न हुआ था, बीज में छिपा था; जहां बस...! अब आप तो समझते हैं। लेना है, और लेकर ब्रह्मांड अभी अंड में खोया था; जहां अभी सपना परमात्मा का रहूंगा!' आखिरी बार मुझे मिलने आए थे, मैंने उनसे कहा कि फैलना शुरू न हुआ था। तुम सृष्टि के प्रथम चरण में पहुंच जाते 'पक्का है, कल होगा?' उन्होंने कहा, 'अभी तो कोई बढ़ा हो। वैसी गहन शांति है। अनंत शांति है। शाश्वत शांति है। नहीं हो गया हूं।' लेकिन गए। वह आखिरी मिलना हुआ। उस स्वाभाविक, घबड़ाहट होती है। वह शांति वैसी ही है, जैसी दिन यहां से उठकर गए, अस्पताल में ही गए सीधे। रात मृत्यु में है। सब खो जाता है, तो डर लगता है। इसलिए भीतर हार्ट-अटैक हो गया। फिर बचे नहीं। जाने की लोग बातें सुनते हैं, विचार भी करते हैं कि कभी जाएंगे। कल पर टालते हैं, कल कर लेंगे। जिसने कल पर टाला, वह दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक-दूसरे के ऊपर अपने-अपने असल में करना नहीं चाहता। अच्छा हो कि कहो, करना नहीं जीवन की छाप डालने की चेष्टा कर रहे थे। बड़ी हांक रहे थे। है। तो भी कम से कम ईमानदारी तो होगी, सत्य तो होगा, एक ने कहा कि मैं रोज सुबह पांच बजे उठता हूं। दूसरे ने कहा, | प्रामाणिकता तो होगी। लेकिन बेईमानी बड़ी है, तुम कहते हो, यह कुछ भी नहीं, मैं तीन बजे उठता हूं। ऋषि-मुनि सदा तीन करेंगे। इससे तुम छिपाते हो। करना भी नहीं चाहते और यह भी बजे ही उठते रहे। पांच बजे भी कोई उठना है! आलसी हो! मैं अपने को आश्वासन दिला लेते हो कि कोई बुरा आदमी थोड़े ही तीन बजे उठता हूं-स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, फिर घूमने जाता | हूं, धार्मिक आदमी हूं, करना तो है ही। हूं सूर्योदय के समय; फिर आकर शास्त्र अध्ययन, मनन; फिर लोग बहाने खोजते हैं-न मालूम कितने-कितने! पति कहता दफ्तर जाता हूं; फिर दफ्तर से लौटता हूं; फिर खेलने जाता हूं; है कि पत्नी रोकती है। कौन किसको रोक सका है: कौन फिर सांझ घर आता हूं-बच्चों के पास बैठना, चर्चा, संगीत; किसको रोक सका है, कब रोक सका है! मौत जब आएगी तो फिर ठीक समय पर, नौ बजे सो जाता हूं। पत्नी रोकेगी? और किसी चीज में पत्नी नहीं रोक पाती। पत्नी दूसरा सुनकर बड़ा चकित हुआ। उसने कहा, 'कब से ऐसा | जिंदगीभर से रोक रही है कि दूसरी औरतों को मत देखो, नहीं कर रहे हो?' वह व्यक्ति बोला, 'यह मत पूछो। कल से शुरू रोक पायी। तुम कहते हो, क्या करें, मजबूरी है! मगर जब करने का इरादा है।' कहती है, ध्यान मत करो-तत्क्षण राजी हो जाते हो, बिलकुल 33 www.jainelibrary org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ठीक है। पत्नी रोकती है, क्या करें! जाओ भी। कभी यात्रा पर भी निकलो। डर स्वाभाविक है। | तम जिसमें रुकना चाहते हो, किसी का भी बहाना खोज लेते डर के रहते भी जाना होगा। डर के रहते ही जाना होगा। अगर हो। जिसमें तुम रुकना नहीं चाहते, तुम कोई बहाना मानने को तुमने सोचा कि जब डर मिट जाएगा तब जाएंगे, तो तुम कभी राजी नहीं होते। तुम कहते हो, विवशता है। वासना पकड़ लेती | जाओगे न। है, क्या करें? चिकित्सक रोक रहा है कि ज्यादा खाना मत | कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब खाओ। पत्नी रोक रही है, बच्चे समझा रहे हैं, पड़ोसी मित्र | शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया। समझाते हैं। -बस परवाना शमा तक जाता हुआ दिखाई पड़ता है, फिर एक मेरे मित्र हैं, खाए चले जाते हैं। बहुत भारी हो गई देह, थोड़े ही दिखाई पड़ता है। फिर तो एक झपट और एक सम्हाले नहीं सम्हलती। चिकित्सक समझा-समझाकर परेशान लपट-और गया! हो गया है। अभी आखिरी बार चिकित्सक के पास गए थे तो कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब कहने लगे कि बड़ी अजीब-सी बात है! रात सोता हूं तो आंख शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया। खुली की खुली रह जाती है। चिकित्सक ने कहा कि रहेगी, बस परवाने को लोग शमा तक ही देख पाते हैं। जब शमा छू चमड़ी इतनी तन गई है कि जब मुंह बंद करते हो तो आंख खुल गई, एक लपट-और समाप्त! जब मंह खोले रहते हो तो थोडी चमडी शिथिल रहती लोगों ने ध्यान के पास जाते लोगों को देखा है। बस, फिर खो है, तो आंख बंद रहती है। होगा! सारी दुनिया रोक रही है। खुद जाते देखा है। इसलिए घबड़ाहट है। लोगों ने देखा वर्द्धमान को भी कहते हैं, रोकना चाहते हैं, मगर क्या करें, विवशता है! जाते हुए ध्यान की तरफ; फिर एक लपट-वर्द्धमान खो गया! ऐसी विवशता कभी ध्यान के लिए पकड़ती है? ऐसी जो आदमी लौटा, वह कोई और ही था। महावीर कुछ और ही विवशता कभी संन्यास के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता हैं, वर्द्धमान से क्या लेना-देना! वर्द्धमान तो राख हो गया, जल कभी आत्मखोज के लिए पकड़ती है? नहीं, तब तुम बहाने | गया ध्यान में! सिद्धार्थ को जाते देखा; जो लौटा-बुद्ध। वह खोज लेते हो। तुम कोई न कोई रास्ता खोज लेते हो-बच्चे | कोई और ही। छोटे हैं, विवाह करना है; जैसे कि बच्चे तुम्हें उठा-उठाकर बड़े इसलिए घबड़ाहट होती है कि तुम कहीं मिट गए। मिटोगे करने हैं। वे अपने से बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी बड़े | निश्चित! लेकिन यह भी तो देखो कि मिटकर जो लौटता है, वह हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी विवाह कर लेंगे। तुम जरा कैसा शुभ है, कैसा सुंदर है! उनको विवाह से रोककर तो देखना! तब तुम्हें पता चल जाएगा परवाने को जाते देखा है तुमने, लपट के सौंदर्य को भी तो कि तुम्हारे रोके नहीं रुकते, करने का तो सवाल ही दूर है। तुम्हें देखो! परवाना, जब खो जाता है प्रकाश में, उस प्रकाश को भी कौन रोक सका? तुम बच्चों को कैसे रोक सकोगे? तो देखो! तो घबड़ाहट कम होगी। इसलिए सदगुरु का अर्थ है : कोई किसी को रोकता नहीं, लेकिन आदमी बेईमान है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जो खो गया; ताकि तुम्हें भी आदमी रास्ते खोज लेता है। जो तुम नहीं करना चाहते उसके | थोड़ी हिम्मत बढ़े, खो जाने में थोड़ा रस आए। तुम कहो कि लिए तुम दूसरों पर बहाना डाल देते हो। जो तुम करना चाहते | चलो, देखें, चलो एक कदम हम भी उठाएं। हो। इसे ईमानदारी से समझना उचित है। मिटना तो होता है, लेकिन मिटने के पार कोई जागरण भी है। लोग ध्यान की बात करते हैं। लोग आत्मा की बात करते हैं, सूली तो लगती है, लेकिन सूली के पीछे कोई पुनरुज्जीवन भी परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, किसी दिन यात्रा करनी है। शास्त्र ही पढ़ोगे तो अड़चन होगी। शास्त्र में कहानी ही वहां है, तैयारी कर लें! यात्रा कभी होती दिखाई नहीं पड़ती। वे तक है, जहां तक परवाना शमा तक जाता है। उसके आगे की टाइम-टेबल ही पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो टाइम-टेबल कहानी शास्त्र में हो नहीं सकती। कोई महावीर खोजो! कोई पढ़ते हैं। बुद्ध खोजो! किसी ऐसे आदमी को खोजो, जो वहां तक गया 34 '. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यास ही प्रार्थना है हो; परवाना मिट भी गया हो और फिर भी उस मिटे से उठती हो | समय में भी तुम्हारे जैसे बहुत अभागे थे, जो महावीर को न देख धूप, उठती हो गंध, उठती हो सुवास; कोई जो 'न' हो गया हो पाए। महावीर उनके गांव से गुजरे और उन्होंने न देखा। उन्होंने और फिर भी जिसमें होने की परम वर्षा हो रही हो! कोई ऐसा महावीर में कुछ और देखा। किसी ने देखा : 'यह आदमी नंगा व्यक्ति खोजो! खड़ा है, अनैतिक है। अश्लीलता है यह तो। परम साध हो चुके सदगुरु न मिले तो शास्त्र। जब तक सदगुरु मिले, तब तक हैं; मगर नग्न खड़ा होना, यह तो समाज के विपरीत व्यवहार सदगुरु। शास्त्र तो मजबूरी है। वह तो दुर्भाग्य है। वह तो अंधेरे | है।' खदेड़ा महावीर को गांव के बाहर, पत्थर मारे। जिसके में टटोलना है। शास्त्र पढ़-पढ़कर घबड़ाहट होगी। और | चरणों में मिट जाना था, उसका विरोध किया। और यह मत घबड़ाहट को आश्वासन शास्त्र से न मिलेगा; लाख शास्त्र कहे, | सोचना कि वे नासमझ लोग थे—वे तुम्ही हो। वे तुम जैसे ही मगर किताब का क्या भरोसा! जीवंत कोई चाहिए! लोग थे। इसमें कुछ फिर फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। इसलिए जगत में जब भी धर्म की लपट आती है, वह किसी | और जब उन्होंने ऐसे तर्क खोजे थे तो उनका भी कारण था, कि जीवंत व्यक्ति के कारण आती है। महावीर जब हुए, लाखों लोग यह आदमी वेद-विरोधी है और वेद तो परम ज्ञान है! अब संन्यस्त हुए! एक आग लग गई सारे जंगल में! वृक्ष-वृक्षों पर | शास्ता सदा ही शास्त्र-विरोधी होगा। उसका कारण है, विरोधी आग के फूल खिले! जिनने कभी सपने में भी न सोचा होगा, वे होने का; क्योंकि जब जीवंत घटना घट रही हो धर्म की तो तुम भी संन्यस्त हुए। बासी बातें मत उठाओ। बासी बातों से क्या लेना-देना? जब तुमने कभी जंगल देखा है, पलाश-वन देखा है? जब पलाश ताजा भोजन तैयार हो तो ताजा भोजन बासी भोजन के विपरीत के फूल खिलते हैं तो पूरा जंगल गैरिक हो उठता है, लपटों से भर होगा ही, क्योंकि तुम बासे को फेंक दोगे। तुम कहोगे, जब ताजा जाता है! ऐसा जब महावीर चले इस जमीन पर थोड़े दिन, वे मिल रहा है तो बासे को कौन खाए! बासे को तो तभी तक खाते दिन परम सौभाग्य के थे। वैसे चरण इस पृथ्वी पर बहुत कम हो जब ताजा नहीं मिलता; मजबूरी में खाते हो। पड़ते हैं। तो जिनको भी उनकी गंध लग गई, जिनको भी जब शास्ता पैदा होता है तो शास्त्रों को लोग हटा देते हैं। वे थोड़ी-सी उनकी हवा लग गई, उन्हीं को पर लग गए! वही कहते हैं, 'रखो भी, फिर पीछे देख लेंगे! यह घड़ी पता नहीं कब परवाने हो गए! फिर उन्होंने फिक्र न की। इस आदमी को विदा हो जाए! अभी तो जो सामने मौजूद हुआ है, अभी तो जो देखकर भरोसा आ गया। उन्होंने कहा कि ठीक है, तो हम भी प्रगट हुआ है, अवतरित हुआ है, अभी तो जो लपट जीवंत खड़ी छलांग लेते हैं! एक श्रद्धा जन्मी। श्रद्धा शास्त्र से कभी पैदा नहीं | है-इसके साथ थोड़ा रास रचा लें, थोड़ा खेल खेल लें; इसके होती; शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा विश्वास पैदा होता है। श्रद्धा के साथ तो थोड़े पास हो लें। यह तो थोड़ा सत्संग का अवसर मिला लिए कोई जीवंत चाहिए, कोई प्रमाण चाहिए, कोई प्रत्यक्ष है, शास्त्र तो फिर देख लेंगे। कोई जल्दी नहीं है, जन्म पड़े हैं। चाहिए जिसमें वेद खड़े हों! कोई शास्ता चाहिए, जिसमें जीवन पड़े हैं।' शास्त्र जीवंत हों! फिर जब महावीर खो जाते हैं तो लोग शास्त्रों तो जब भी कोई शास्ता पैदा होता है, पुराने शास्त्रों को में उनकी वाणी इकट्ठी कर लेते हैं, फिर पूजा चलती है, पाठ | माननेवाले लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, क्योंकि उस आदमी चलता है, पंडित इकट्टे होते हैं, सब मुर्दा हो जाता है, फिर सब के कारण शास्त्रों को लोग हटाने लगते हैं। शास्त्रों को हटाते है मरघट है। महावीर जीवित थे तब जिन-धर्म जीवित था; फिर तो तो पंडितों को हटाते हैं, तो सारा व्यवसाय हटाते हैं। कठिन हो सब मरघट है। जाता है। पंडित दुश्मन हो जाते हैं। फिर जब यह शास्ता मर और ध्यान रखना, हताश मत होना; ऐसा कभी भी नहीं होता | जाता है, वही पंडित जो इसके दुश्मन थे, मरघट पर इकट्ठे हो कि पृथ्वी पर कोई चरण न हों जिनकी वजह से पृथ्वी धन्यभागी न | जाते हैं-श्रद्धांजलि चढ़ाने को। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं। हो। ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए यह मत सोचना कि क्या उनकी दुश्मनी जीवंत से थी, शास्त्र से थोड़े ही थी। फिर वे ही करें, अभागे हैं हम, महावीर के समय में न हुए! महावीर के शास्त्र बना लेते हैं। 135 www.jainelibrary org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 - na यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर | दिन तुम जहां हो वहीं मंदिर है। अंतर्यात्रा ! तुम्हारी ही देह मंदिर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। बन जाती है। क्या, मामला क्या है? महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, 'प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। | असंभव-सा क्यों लगता है ?' उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया। स्वाभाविक है। कभी गए नहीं उस द्वार, कभी चखा नहीं उसे, अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, कोई संबंध न बना, अजनबी हो-इसलिए। थोड़ा-थोड़ा पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर अभ्यास करो। बैठो उन लोगों के पास जो पहले से पीये हों। मश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। थोड़ी उनकी मस्ती को संक्रामक होने दो। थोड़े उनके साथ फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ। डोलो, उठो, बैठो, परिक्रमा करो, सेवा करो। थोड़ा झुको उनके ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई पास, जो लबालब हैं और ऊपर से बहे जा रहे हैं। थोड़े न बहुत द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है। तुम जरा आंखें खुली छींटे तुम तक भी पहुंच ही जाएंगे। रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना; तुम जरा मन ताजा रखना, बस इतनी ही चेष्टा है यहां कि थोड़े छींटे तुम तक पहुंच जाएं। शब्दों से बोझिल मत रखना; सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा | एक बार भी तुम्हें भीतर की धुन का जरा-सा नशा आ जाए, फिर सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तम जीवंत धारा को देखने की तम न रुकोगे, फिर तम्हें कोई भी न रोक पाएगा। फिर कोई कभी क्षमता बनाए रखना। तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु मिल | किसी को रोक ही नहीं पाया। जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का। अभी तो तम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा तीसरा प्रश्न : मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो-सब धोखा है। समर्पण से, पर मिला, और मिल रहा है, और अकारण, और दिल को महवे-गमे-दिलदार किए बैठे हैं / अयाचित, और असमय, और भरपूर-वर्षा की भांति!? रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं। लोग बनते हैं कि मद्यप हैं, कि शराब पिए हैं, कि मस्ती में हैं। | अब इससे प्रश्न मत उठाओ। डूबो! अब चिंता मत करो: रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं! खयाल ही देते हैं कि बड़ी | कहां से मिल रहा है, क्यों मिल रहा है! परमात्मा जब मिलता है मस्ती में हैं; लेकिन गौर से भीतर देखो तो हृदय में सिवाय घावों तो ऐसे ही बेबूझ मिलता है। तुम्हारे हिसाब-किताब से थोड़े ही के और कुछ भी नहीं, जहर पिए बैठे हैं। मिलता है। तुमने कुछ किया, इसलिए थोड़े ही मिलता है। तुम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, जो तुम्हें लोग पूजा और ने चाहा...! प्रार्थना में डोलते हुए मालूम पड़ते हैं, धोखे में मत पड़ जाना, जरा ___ अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर उनके भीतर देखना; कुछ भी नहीं डोल रहा है! वे नाहक का अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे। व्यायाम कर रहे हैं। जब भीतर कोई डोलता है तो फिर क्या मंदिर बस प्यास पूरी हो, तो प्याले भर जाएंगे। और क्या मस्जिद! फिर पूजा के थाल क्या सजाना। फिर तो | अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जहां भी वे होते हैं, वहीं डोलते हैं। कबीर ने कहा है प्यास हो तो परमात्मा तुम्हें खोजता है। फिर गिड़गिड़ाना थोड़े 'जहां-जहां डोलं सो-सो परिक्रमा, खाऊ-पिऊ सो सेवा।' | ही पड़ता है! फिर भिखारी की तरह रोना थोड़े ही पड़ता है, झोली परमात्मा की सेवा हो गई, खा-पी लिया, मजे से खा-पी लिया, | थोड़ी फैलानी पड़ती है! चढ़ गया भोग। और कहां जाना है? - अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जिस दिन तुम्हारे जीवन में मधु का अवतरण होता है, जिस दिन कहीं भी बैठे होओ, अलग कि भीड़ में, क्या फर्क पड़ता है! तुम्हारे जीवन में अंतरात्मा की झलक भी मिलने लगती है, उस जहां प्यास है, वहां साकी की नजर पहुंच ही जाती है। प्यास ही 136 . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यास ही प्रार्थना है उसके लिए निमंत्रण है। प्यास ही प्रार्थना है। जो प्यास नहीं होता है जो तुमने किया है। क्या किया है? कभी एक पैसा किसी जानते, वे और शब्द दोहराते हैं। जिनको प्यास की समझ आ| भिखारी को दे दिया है। और उसी की जेब काटी थी पहले; नहीं गई, वे सिर्फ प्यास ही प्यास में डूब जाते हैं। वे इतने प्यासे हो तो भिखारी ही कैसे होता, यह भी तो सोचो। फिर उसी को जाते हैं कि भीतर कोई प्यासा भी नहीं होता, बस प्यास ही प्यास समझाने लिए एक पैसा भी दे दिया है कि उपद्रव न कर, हड़ताल होती है-इस पार से उस पार, रोएं-रोएं में, धड़कन-धड़कन वगैरह पर मत जा, शांत रह। क्या किया है तुमने? चार पैसे में, श्वास-श्वास में! भिखारी को दिए थे। अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर द्वारपाल चिंतित हो गया। उसने अपने सहयोगी से पूछा, बोल अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे। भाई, क्या करें? उसने कहा, 'करना क्या है! चार पैसे वापस अगर प्यास पूरी है तो तुमने प्याला तो तैयार कर दिया। अब, दो और कहो कि नर्क जा, नर्क जा, खत्म कर मामला, हिसाब अब तुम फिक्र छोड़ो! अब शराब भी आ जाएगी। अब कोई भर साफ कर!' भी देगा प्याले को, तुम प्याला तो बनाओ! तुम्हारा किया कितना हो सकेगा? चम्मच-चम्मच से सागर सदा ही परमात्मा अकारण घटित होता है। इससे तुम गलत के किनारे हम बैठे हैं। चम्मचें भर रहे हैं, इससे कहीं सागर मत समझ लेना मुझे। तुम यह मत समझ लेना कि फिर क्या उलिचता है! इससे कहीं कुछ होता नहीं। करना। जब मैं कहता हूं कि अकारण घटित होता है, तो मैं यह लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि कह रहा हूं कि तुम जो भी करते हो, वह तो ना-कुछ है। जब चलो, झंझट मिटी, चार पैसे भी अब देने की कोई जरूरत नहीं। परमात्मा घटित होगा तो तुम जानोगे, अरे! मैंने कुछ भी तो नहीं यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं, देना! दिल खोलकर किया था। यद्यपि तुमने बहुत किया था, लेकिन अब तुम जानोगे | देना! लेकिन आखिर में याद रखना कि वे चार पैसे ही दिये। कि कुछ भी तो न किया था। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि / कितना ही दिया हो, सब दे दिया हो, सब लुटा दिया हो, तो भी जो किया था अब उसकी बात भी करनी फिजल है। मिला है | चार पैसे ही तुम्हारे पास थे, ज्यादा तो तुम्हारे पास ही न था, खजाना अकूत, जो तुमने किया था वह कौड़ी-कौड़ी था। अब ज्यादा तुम देते भी कैसे! उसकी बात भी उठाने में शर्म लगेगी। फिर तुम यह थोड़े ही इसलिए जिन्होंने पाया है, उनको हमेशा लगा : कुछ भी तो नहीं कहोगे परमात्मा से कि 'सुनो जी! कितने उपवास किए, याद किया, प्रसाद-स्वरूप है। यहीं भूल पैदा होती है। सुननेवाला है? कि कितने ध्यान में बैठता था, भूल तो नहीं गए? कितना समझ लेता है, चलो तब अब यह भी झंझट नहीं। अब कुछ दान-पुण्य किया था!' करना ही नहीं; जब मिलना है प्रसाद रूप तो जब मिलेगा, सुना है मैंने, एक कंजूस मरा। स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। मिलेगा। लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो अपनी समग्र द्वारपाल ने पूछा कि कुछ पुण्य वगैरह किए हैं?' ध्यान रखना, चेष्टा करते हैं। मिलता प्रसाद रूप है लेकिन प्रसाद उन्हीं को ठीक से कहानी सुन लेना, पूछेगा, तुम भी जब जाओगे! और मिलता है जो समग्र चेष्टा करते हैं। वही गलती मत कर देना जो इस आदमी ने की। उसने कहा, 'हां इसलिए चिंता मत करो। संकल्प से मिला या समर्पण से, यह किये हैं।' बस यही तो पापी का लक्षण है। अगर वह कह देता भी छोड़ो। कैसे मिला, इसकी क्या फिक्र ! मिला! अब तो थोड़ा 'कहां! क्या पुण्य! सामर्थ्य कहां! करने को मेरे पास क्या नाचो! अब विचार छोड़ो, अब तो थोड़ा समारोह करो! अब तो था!' द्वार खुल जाते, लेकिन चूक गया। उसने कहा, 'किए कुछ उत्सव करो! हैं।' तो द्वारपाल ने कहा, "फिर ठहरो। फिर खाते-बही देखने जमीं पे जाम को रख दे, जरा ठहर साकी पड़ेंगे। हिसाबी-किताबी आदमी हो।' खाते-बही देखे तो पता मैं इस पे हो लूं तसद्दुक तो फिर उठा के पिऊं। चला, एक भिखारी को चार पैसे उसने दान दिए थे। अब तो जरा बलिहारी हो जाओ। कहो कि जरा रख जमीन तुम कहोगे 'बस इतना?' लेकिन 'बस इतना' ही सिद्ध पर, पहले मैं नाच लं, थोड़ा बलिहारी हो जाऊं इस पर, फिर | www.jainelibran.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 उठाकर पीऊं। अब तो थोड़ा नाचो! जरूरत नहीं, एक तारीख को सौ डालर तले ही जाया कर। तो ध्यान रखना, प्रसाद जब क्षणभर को भी मिलता हो, कणभर | वह नियम से सौ डालर एक तारीख को ले आता था। ऐसा वर्षों को भी मिलता हो-तुम नाचना! तुम्हारे नाचने से प्रसाद चला। एक दिन एक तारीख को...वह एक तारीख को एक दिन बढ़ेगा। उत्सव में ही बढ़ता है। तुम्हारी प्रसन्नता में ही बढ़ता है। भी नहीं चूकता था...वह आकर एक तारीख को खड़ा हुआ तुम्हारे अनुग्रह के भाव में बढ़ता है। सिकुड़ मत जाना। सोचने | दफ्तर में और मैनेजर ने कहा कि भई सुनो, अब से पचास मत लगना कि कैसे मिला, कहां से मिला, क्यों मिला, मैंने क्या डालर! उसने कहा, 'क्या ? पचास डालर? क्या मतलब?' किया था, अब मैं क्या करूं कि और ज्यादा मिले। इसमें तो खो उसने कहा कि ऐसा है कि मालिक की लड़की की शादी हो रही जाएगा; जो मिला है वह भी खो जाएगा; जो द्वार खुला था | है, पैसे की उन्हें खुद ही तंगी है। धंधा भी घाटे में जा रहा है। क्षणभर को वह भी बंद हो जाएगा-तुम्हारे सोच-विचार में! | थोड़ी मुसीबत में हैं। इसलिए पचास! उसने कहा, 'हद्द हो सोच-विचार से तो पर्दे पड़ जाते हैं। नाचना! गाना! गई! मेरे रुपयों पर लड़की की शादी की जा रही है? और घाटा गुनगुनाना! जो मिला है, उस पर बलिहारी जाना। कहना : जमीं तुम्हें लगे, भोगू मैं ? समझा क्या है ? बुलाओ मालिक को!' पर जाम को रख दे, जरा ठहर साकी! परमात्मा से भी कहना, मन की वृत्ति है कि अगर तुम्हें मिलता चला जाए तो तुम सोचते 'जल्दी मत कर, रख! जरा मैं नाच तो लूँ! मैं इस पे हो लूं हो, तुम्हारी पात्रता है। जो तुम्हें मुफ्त मिलता है, तुम धीरे-धीरे तसद्दुक तो फिर उठाके पिऊं। पहले बलिहारी जाऊं, पहले सोचने लगते हो, यह भी मेरी पात्रता है। तुम न केवल यह नाचूं, पहले थोड़ा उत्सव मना लूं, तेरा स्वागत कर लूं! अकारण | सोचने लगते हो बल्कि तुम प्रतीक्षा करते हो कि मिलना ही मिला है! बिना मेरे कुछ किए मिला है। तो ऐसे ही उठाकर पी चाहिए। अगर न मिले तो शिकायत शुरू हो जाती है। लेना तो अशोभन होगा। शोभा न होगी। ऐसे ही उठाकर पी | सोचो! कहां धन्यवाद और कहां शिकायत! कहां आभार और लेना असंस्कृत होगा। थोड़ा नाचकर, गुनगुनाकर, थोड़ी गहन कहां शिकवे। लेकिन मन की यह आदत है। और इस आदत के कृतज्ञता में डूबकर! कारण बहुत-से लोग परमात्मा के द्वार से लौट जाते हैं। सत्य आ 'मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से!' | ही रहा था, करीब आ ही रहा था कि उनकी अकड़ आने लगी। भाड़ में जाने दो! मालूम करने की फिक्र ही मत करो। मिल अकड़ आई कि अरे, जब आ रहा है तो निश्चित ही हमने अर्जित गया! कैसे मिलती है कोई चीज, यह तो तब सोचना चाहिए जब किया होगा! जब आ रहा है तो कोई कारण होगा! कुछ हममें न मिली हो। तब आदमी साधन खोजता है। तब कहता है, कहां होगी खूबी, तभी आ रहा है! से जाऊ! चलो मंजिल ही तुम्हें खोजती आ गई, अब तुम फिक्र सदा याद रखना, तुम जब भी पात्रता के बोध से भर जाओगे, छोड़ो; कहीं ऐसा न हो कि तुम उधेड़-बुन में पड़ जाओ, और तभी अपात्र हो जाओगे। जब तक अपात्र होने का तुम्हें स्मरण मंजिल हट जाए! क्योंकि जो आ गई है अपने से तुम्हारे पास, रहेगा, तुम्हारी पात्रता बढ़ती रहेगी। इस विरोधाभास को महामंत्र अपने से हट भी जा सकती है। की तरह स्मरण रखना। '...पर मिला और मिल रहा है-और अकारण!' और, जिन्होंने भी उसको पीया है, उनमें से कोई भी नहीं बता सदा ही अकारण मिलता है। अकारण का बोध बनाए रखना! सका कि क्यों और क्या! पीने के पहले की सब बातें हैं। पीने के क्योंकि मन की वृत्ति है कि वह सोचने लगता है जल्दी कि जो पहले के लिए सब रास्ते और साधन हैं। पी लेने के बाद तो फिर मिल रहा है वह कारण से मिल रहा है। राज है, फिर तो रहस्य है। अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआः मार्गन। वह क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा एक भिखारी को हर महीने सौ डालर देता था। भिखारी पर प्रसन्न ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे। था। कुछ भिखारी की आवाज में बड़ी जान थी। जब भिखारी क्या देखा है लोगों ने परमात्मा में छलकते हुए? उसे कहा नहीं गीत गाता तो...। तो उसने कहा कि अब तुझे बार-बार आने की | जा सकता। 38 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्यास ही प्रार्थना है ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे। आखिरी प्रश्नः जब आपको सुनता हूं तो आपका प्रत्येक क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा शब्द दिल की गहराई तक उतर जाता है और हलचल पैदा वहां जाकर लोग चुप हो गए हैं। करता है। लेकिन जब आपको पढ़ता है तो वह दिमागी खेल वाणी की एक सीमा है। बुद्धि की एक सीमा है। जहां तक बनकर रह जाता है। कृपया बताएं कि ऐसा क्यों होता है? साधन है वहां तक बुद्धि की सीमा है। जहां साध्य आया, बुद्धि की सीमा गई। क्योंकि बुद्धि स्वयं साधन है। बुद्धि खोज का साफ-साफ है। गणित बिलकुल सीधा है। जब तम पढ़ते हो उपाय है। जब पहुंच गए, तो बुद्धि की कोई जरूरत न रही। तब तुम्हीं होते हो, तब मैं नहीं होता। जो तुम पढ़ते हो, वह तुम तो इस सौभाग्य को बढ़ाना! और बढ़ाने की कला यह है कि ही तुम हो। दिमागी खेल बनकर रह जाता है। जब तुम मुझे उसे अकारण ही रहने देना। कोई कारण मत खोजना, समझ में न सनते हो तो कभी-कभी तुम्हारे जाने-अनजाने मैं भी तुम में प्रवेश आए, नासमझी में रस लेना। समझने की जरूरत कहां है! | कर जाता हूं। कम ही तुम ऐसा मौका देते हो। लेकिन समझ कहीं खराब न कर दे, कहीं विश्लेषण खंडित न कर दे! कभी-कभी चूक तुमसे हो जाती है। कभी-कभी बे-भान, तुम उसे राज ही रहने देना। और तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जो जरा दरवाजा खुला छोड़ देते हो, मैं भीतर आ जाता हूं। वह मिला ही नहीं, वह तुम्हारे भीतर आवास कर इसलिए तम जब मझे सन रहे हो तो बात और है। इसलिए लिया है। वह तुम्हारी आंखों में समा गया। वह तुम्हारी आंखों सत्य सदा कहा गया है, लिखा नहीं गया। लिखा जा नहीं का नूर हो गया। वह तुम्हारे हृदय की धड़कन बन गया। और | सकता। कहना भी बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी कहा जा ऐसा ही नहीं कि तुम्हें मिला है; अगर तुमने उसे ठीक से पीया तो सकता है, थोड़ा-सा कहा जा सकता है। ऐसी थोड़ी-सी खबर तुम्हारे द्वारा दूसरों पर भी छलकने लगेगा। दी जा सकती है। क्योंकि कहने में कई बातें सम्मिलित हैं, जो हम लिए फिरते हैं आंखों में चमन ऐ बागवां लिखने में खो जाती हैं। जिस तरफ उठी निगाहे-शौक गलशन हो गया। जब तम किताब पढ़ोगे तो किताब तो मर्दा होगी। किताब और जहां आंख उठ जाती है ऐसे आदमी की, वहीं बगीचे हो | तुम्हारे पास कोई वातावरण तो पैदा न कर सकेगी। किताब का जाते हैं, वहीं बगीचे खिल जाते हैं। कोई माहौल तो नहीं होता। किताब तुम्हारे पास कोई जीवंत जिस तरफ देख लोगे, वहीं परमात्मा का फैलाव हो जाएगा। वातावरण निर्मित नहीं कर सकती। वातावरण तुम्हारा होगा; जिस पर तुम्हारी नजर पड़ जाएगी, वह भी चौंक जाएगा। उसमें ही किताब प्रवेश करेगी। जिसके हृदय में तुम गौर से देख लोगे, वहां भी कोई बीज जब तुम मेरे पास हो, जब तुम मुझे सुन रहे हो, यदि सच में तड़फकर टूट पड़ेगा और अंकुर हो जाएगा। सुन रहे हो, तो तुम्हारा वातावरण यहां नहीं है, वातावरण मेरा है, पर सम्हालना, मन की आदतें बड़ी पुरानी हैं। मन कर्ता बनना हवा यहां मेरी है। तुम मेहमान की तरह उसमें हो। और जो चाहता है। वह कहता है, मैंने किया; मेरे कर्मों का फल है, समझदार हैं वे अपने को वहीं रख आते हैं जहां जूते उतारते हैं; देखो! बस वहीं चूक हो जाएगी। जल्दी ही तुम पाओगे, आई | ताकि तुम यहां गड़बड़ी न कर सको; ताकि तुम पूरे मुझ में डूब थी जो झलक, खो गई; दिखा था जो प्रकाश अब दिखाई नहीं जाओ; ताकि निर्वस्त्र, नग्न; ताकि पूरे के पूरे, बिना किसी पड़ता; खुला था जो द्वार, बंद हो गया! आवरण के, अनावृत्त होकर तुम मुझ में डूब जाओ; यह ऐसा न हो पाए। अपने को अपात्र, और भी अपात्र, अपने को थोड़ी-सी देर को जो लहरें मैं तुम्हारे आसपास पैदा करता हूं, ये ना-कुछ, कर्ता नहीं, सिर्फ भोक्ता जानना-परमात्मा का तुम्हें छू लें! बोलना तो बहाना है। बोलना तो बहाना है, ताकि भोक्ता! प्यासा जानना, अधिकारी नहीं। और, और-और वर्षा तुम उलझे रहो सुनने में। यह तो ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा होगी, और-और घने मेघ घिरेंगे, और-और तुम तप्त होओगे, उपद्रव करता है, खिलौना दे दिया कि खेल, उलझ गया। बिना महातृप्त होओगे। बोले, तुम मुश्किल में पड़ोगे। मैं न बोलूं तो तुम्हारा मन 39 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 Maasik हजार-हजार जगह जाएगा। बोलता हूं, बोलने में तुम्हारा मन कुछ संपदा होती है अनुभव की, तो आवाज अपने-आप उस उलझ गया, सुनने में लग गया; पर यह तो ऊपर-ऊपर की बात | अंदाज को पा लेती है जो दिल में घर कर जाता है। नहीं कि है, भीतर कुछ और हो रहा है। इधर तुम उलझे कि उधर मैंने इसका कोई अभ्यास है; नहीं कि इसकी कोई वक्तृत्व शैली है; तुम्हारे हृदय को टटोला। एक हाथ से तुम्हें खिलौना देता हूं, नहीं कि इसका कोई विधि-विधान है-नहीं, कुछ भी नहीं है। दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को टटोल रहा हूं। जब तुम पाते हो सत्य को, तो सत्य का पाना ही इतना विराट है कभी-कभी...तुम्हारी आदतें पुरानी हैं, मजबूत हैं। आदतें ऐसी कि तुम्हारे हर शब्द में उसकी धुन, हर शब्द में उसका रस, हर हो गई हैं जड़ कि तुम खिलौने में उलझे भी रहते हो और फिर भी | शब्द में उसका संगीत और सुवास फैलने लगती है। हृदय को बांधे रहते हो, बंद रखते हो। कभी-कभी खुल जाता दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं है। उस घड़ी, मैं तम्हारे भीतर पहंच जाता है। उस घड़ी, मेरा हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! और तुम्हारा होना मिट जाता है। उस घड़ी हम एक ही वातावरण आ जाती है। पहले उसे ले आओ जिसे प्रगट करना है। फिर के हिस्से हो जाते हैं। एक सागर की तरंगें! इसलिए स्वाभाविक प्रगट करने की आवाज अपने से आ जाती है। यही तो कवि और है कि उस क्षण कुछ हो जाए, जो किताब से न हो सकेगा। ऋषि में फर्क है। कवि आवाज की फिक्र करता है। कवि फिक्र फिर, जब तुम मेरे पास हो तो बोलना तो मेरे पास होने का एक | करता है वाहन की। ऋषि फिक्र करता है वाहक की। ऋषि फिक्र अंश मात्र है। पास होना बड़ी घटना है। सान्निध्य बड़ी घटना करता है विषय-वस्तु की। जब बोलने को कुछ हो तो बोलना है। निकट होना...तो मेरी तरंगें और तुम्हारी तरंगें एक आ जाता है। ऐसे बोलना आ जाए तो जरूरी नहीं है कि बोलने रासलीला में लीन होती हैं। तुम मेरे आसपास नाचते हो, मैं को कुछ हो। बोलना तो सभी को आता है। बोलने मात्र से पता तुम्हारे आसपास नाचता हूँ। कुछ घटता है, जो खाली आंखों से नहीं चलता कि कुछ बोलने को तुम्हारे पास है। बोलते तो तुम नहीं देखा जा सकता। कुछ घटता है, चर्म-चक्षु उसे नहीं देख चौबीस घंटे हो-बिना कुछ हुए। कुछ भी नहीं देने को, फिर भी पाते! कुछ अदृश्य में घटता है! बोले जाते हो। उसी को तो हम बड़बड़ कहते हैं, बकबक कहते तुम दृश्य ही तो नहीं हो। मैं जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा हूं, उसी | हैं। बड़बड़ का इतना ही अर्थ है कि कुछ है नहीं बोलने को, पर तो सीमित नहीं हूं। तुम्हें अपने अदृश्य का पता नहीं है, मुझे लेकिन बोले चले जाते हो; क्या करें, चप होने की आदत नहीं मेरे अदृश्य का पता है। इसलिए मैं तुम्हारे अदृश्य को भी है! क्या करें, चुप होना भारी पड़ता है, बोले चले जाते हैं! पुकारता हूँ। तुम्हारा अदृश्य भी बाहर आ जाता है। एक नृत्य | लेकिन फिर एक और बोलना भी है, जब तुम्हारे पास कछ देने शुरू होता है। उस नृत्य में ही तुम्हारे हृदय में कुछ फूल खिलते को होता है। वाणी वाहन बनती है। वाणी घोड़ा बनती है। हैं, कमल खिलते हैं। __ तो जो शब्द मैं तुम्हारे पास पहुंचा रहा हूं, वे तो घोड़ों की भांति यह सवाल बोलने का ही नहीं है। और यह जो मैं बोल रहा हूं, हैं; उन पर बैठा सवार भी कभी-कभी तुम्हें दिखायी पड़ जाता ये कोरे शब्द नहीं हैं: ये किसी गहन अनुभव में डूबकर आए हैं; है। वही तम्हारे हृदय को पकड़ लेता है। वही तम्हें मंथन में डबा ये किसी गहन अनुभव से सिक्त हैं, किसी गहन अनुभव में पगे देता है। हैं। यह कोई शब्दों का काव्य नहीं है, जीवन का काव्य है। कवि किताब से यह न हो सकेगा; लेकिन किताब से भी हो सकता कहते हैं: है, अगर तुम धीरे-धीरे मुझे सुनने में समर्थ हो जाओ। इसलिए दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं | मैंने कहा है लोगों को कि मैं जैसा बोलता हं वैसी ही किताबें रहें. हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! उनमें जरा भी फर्क न किया जाए। उनको बदला न जाए; क्योंकि ऋषि यह कहते नहीं। आवाज सहज आती है, जो दिल में घर लिखने का ढंग और होता है, बोलने को ढंग और होता है। बोला कर जाती है। हुआ शब्द अलग बात है, लिखा हुआ शब्द अलग बात है। तो दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं! जब तुम्हारे पास मैंने कहा है कि जैसा मैं बोलता हूं, वैसा ही लिखे में हो; ताकि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hindi प्यास ही प्रार्थना है न अगर एक बार तुम्हारा मुझसे तारतम्य बंध जाए तो किताब को पढ़ते-पढ़ते भी तुम मुझे सुनने लगोगे। तो जिन्होंने मुझे ठीक से सुना है, वे किताब को पढ़ते वक्त भी किताब को नहीं पढ़ेंगे, मुझे सुनेंगे। किताब उनसे बोलने लगेगी। एक बार तुमने मुझे अपने हृदय में जगह दे दी, तो फिर किताब से भी मैं तुम्हारे पास आ सकूँगा। बिना किताब के भी आ सकूँगा। तुमने जरा मेरी याद की तो भी पास आ जाऊंगा। तम पर निर्भर है। और जब मैं कहता हूं 'अगर ठीक से सुना', तो मेरा अर्थ है: अगर प्रेम से सुना, सहानुभूति से सुना, सहयोग किया मुझसे, श्रद्धा से सुना, संदेह को हटाकर सुना, अपने मन को हटाकर सुना; कहा अपने मन को कि हट, थोड़ी जगह दे। तो, तो मेरा प्रेम तुम्हें बेहोश भी बनाएगा और मेरा प्रेम तुम्हें होश में भी लाएगा। यह बेहोशी कुछ ऐसी है कि इसमें होश बढ़ता चला जाता है। यह होश कुछ ऐसा है कि इसमें बेहोशी बढ़ती चली जाती है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है। प्रेम में पागल हो जाना तो बहुत आसान है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए हैं! मैं तम्हें जो प्रेम दे रहा है, वह एक दर्द है. वह एक पीडा है। उस पीड़ा से तुम निखरो! वह एक आग है जो तुम्हें जलाएगी। तुम घबड़ा मत जाना! तुम मेरे साथ चलना, सहयोग करना। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है। बहुत आसान है पागल हो जाना प्रेम में, लेकिन जागना बड़ा कठिन है। यह प्रेम तुम्हें जगाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें उठाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें तुम तक पहुंचा दे तो ही सार्थक हुआ। हो सकता है। मेरा हाथ बढ़ा है, तुम भी अपना हाथ बढ़ाओ और उसे पकड़ लो! आज इतना ही।