Book Title: Jain Sanskruti aur uska Avadan Jainachar ka Pran Ahimsa
Author(s): Anupamashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार का प्राण : अहिंसा ___-विदुषी साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी को सुशिष्या । साध्वी अनुपमा (एम. ए.) ONOXEGWAN अहिंसा और उसका स्वरूप 'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' ___ अहिंसा परमधर्म है। यह जैनधर्माचार के लिए यह 'सर्वप्राणातिपातविरति' की ऐसी प्रतिज्ञा तो पणती । समाचार का विशाल पासाट है, जो मनुण्य का अहसा-महाव्रता' आर जाव I अहिंसा की दृढ़ नींव पर ही आश्वस्तता के साथ मात्र का रक्षक बना देती है। वह किसी की भी आधारित है। अहिंसा मानव की सुख-शान्ति की । हिंसा नहीं करने का संकल्प धारण कर, उसका दृढ़ता के साथ पालन करता है। परिणामतः वह जननी है। मानव और दानव में अन्तर ही हिंसा23 अहिंसा का है। मानव ज्यों-ज्यों हिंसक बनता न केवल अन्य जनों की सुख-सृष्टि में योगदान है करता है, अपितु स्वयं अपने लिए भी अद्भुत सुख चला जाता है वह दानवता के समीप होता चला M जाता है और दानव ज्यों-ज्यों हिंसा का परित्याग की रचना कर लेता है। उसकी आत्मा राग द्वषादि सर्व कल्मष एवं दुर्भावों से मुक्त होकर शुद्ध Sil करता है, वह मानवता के समीप आता जाता है। तथा शान्त रहती है, आत्मतोष के अमित सागर अहिंसा वह नैतिक मार्ग है जिसका अनुसरण व्यक्ति में निमग्न रहती है । अहिंसाव्रती के लिए यह एक को यथार्थ मानवता के गौरव से विभूषित करता संयम है और यही अन्य जन के लिए दया और है । अहिंसा का सिद्धान्त व्यापक प्रभावकारी है। रक्षा का भाव है। कदाचित् इसी भाव-श्लेष के | अतः अहिंसाव्रतधारी में स्वतः ही अनेकानेक गुण कारण भगवान महावीर ने रक्षा, दया, सर्वभूत विकसित होते चले जाते हैं और उसके भीतर की क्षेमंकरी आदि का प्रयोग 'अहिंसा' के पर्याय रूप xar मानवीयता पुष्ट होती रहती है। अहिंसा एक में किया है । एक चिन्तक ने लिखा हैऐसा मानवीय दृष्टिकोण है, जो उसे असाधारण आत्मिक सुख की अनुभूति कराता है। यही सुख ___ "अहिंसा आत्मनिष्ठ है, आत्मा से उपजती है । और समानता की भावना से पुष्ट होती है । हिंसा उसका चरम लक्ष्य होता है। की भावना से निवृत्त होने के पीछे अपने अनिष्ट वस्तुतः अहिंसा की विराट भूमिका व्यक्ति के की आशंका अधिक काम करती है । हिंसा से अपना मा मानस को ऐसा विस्तार प्रदान करती है कि वह पतन नहीं होता हो, तो शायद ही कोई अहिंसा का सहज ही सृष्टि के समस्त प्राणियों को आत्मवत् की बात सोचे ।" स्वीकार करने लगता है। वह सभी का हितैषी यह पृथ्वी ग्रह नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं हो जाता है और किसी की हानि करने की का एक अद्भुत समुच्चय है। विविध रंग-रूप, कल्पना से भी वह दूर"""""बहुत दूर हो आकार-आकृति, गुण-धर्मादि के धारक होने के || जाता है। कारण ये समस्त प्राणी वैभिन्न्ययुक्त एवं अनेक IDS कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६७ || 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ a dducation InternationRE Private & Personal Use Only alltelty.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्गों में विभक्त हैं। बाह्य और प्रत्यक्ष ज्ञान के सुखाकांक्षा आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। श्रमण आधार पर यह वैभिन्न्य स्वीकार करना ही पड़ता भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को उपदेश देते है, किन्तु यह एक स्थूल सत्य है। इसके अतिरिक्त हुए कहा थाएक सूक्ष्म सत्य और भी है। यह एक महत्त्वपूर्ण "सभी आत्माएँ सुख चाहती हैं। अतः सृष्टि तथ्य है कि विभिन्न प्राणी-वर्गों के घोर असाम्य के के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझो। किसी के समानान्तर रूप में एक अमिट साम्य भी है । सभी लिए ऐसा कार्य मत करो, जो तुम्हारे लिए कष्टप्राणी सचेतन हैं, सभी में आत्मा का निवास है। कारी हो।" यह आत्मा सभी में एक सी है । आत्मा की दृष्टि एक अन्य अवसर पर भगवान ने अपने उपदेश । से सभी प्राणी एक से हैं। उदाहरणार्थ, मनुष्य में इस सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना की थी। अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई गुना अधिक सशक्त उनका कथन था कि- “दूसरों से तुम जैसा एवं विवेकशील है, तथापि आत्मा की दृष्टि से व्यवहार अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार उसका स्थान भी अन्य प्राणियों के समकक्ष ही है। तुम भी दूसरों के साथ करो।" उन्होंने यह भी cा मनुष्य की कोई अन्य श्रेणी नहीं है। सचेतनता कहा कि "जिस दिन तुम अपनी और दूसरों की का धर्म मनुष्य का भी है और अन्य प्राणियों का आत्मा के मध्य भेद को विस्मत कर दोगे-उसी भी। यह चैतन्य जीव-वर्ग में ऐसा व्याप्त है कि दिन तुम्हारी अहिंसा की साधना भी सफल हो इसी आधार पर जीवों को शेष अजीवों से पृथक जायगी। अपने प्राणों की सुरक्षा चाहने वालों का करके पहचाना जा सकता है। सुख-दुःखादि की यह कर्त्तव्य भी है कि वे दूसरों के जीवन-रक्षा अनुभूति चैतन्य का ही परिणाम है । ये अनुभूतियाँ सम्बन्धी अधिकार को भी मान्यता दें । यह अहिंसा प्राणियों के लिए ही हैं, निर्जीव, जड़ पदार्थों के का मूल मन्त्र है।" लिए नहीं, क्योंकि वे चेतनाहीन होते हैं। भगवान का अहिंसा सम्बन्धी यह उपदेश मात्र वाचिक ही नहीं था। उनका समग्र जीवन ही मूर्ति- । ___ समस्त सदेतन जीव दुःख से बचना चाहते हैं __ मन्त अहिंसा का रूप हो गया है। उन्हें नाना विध और सुखमय जीवन की कामना करते कष्ट दिये गये, किन्तु धैर्य और क्षमाशीलता के र प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक लक्ष्य होता है और साथ वे उन सभी को सहन करते रहे । प्रत्याक्रमण सुख प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधक परिस्थि का कोई भाव भी उनके मन में कभी उदित नहीं तियाँ दुःखानुभव का कारण बनती हैं । जिस प्रकार यह सत्य है कि आत्मा की दृष्टि से सभी आत्माएं हुआ । अहिंसा की विकटतम कसौटियों पर वे इसी / कारण सफल रहे कि वे सदा यह स्वीकार । समान हैं, सचेतनतावश सभी को सुख-दुःखादि का , करते थे कि जैसा मैं हैं, वैसे ही सभी हैं। अनुभव होता है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि __ मुझे किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए । सुख अथवा दुःख का अनुभव कराने वाली परिस्थितियाँ भी सभी प्राणियों के लिए एक सी होती हैं। ___ यह हिंसा-त्याग का उच्चतम रूप है। सभी प्राणी जिन बातों से एक प्राणी को कष्ट होता हैं, उनसे , सुखपूर्वक जीना चाहते हैं और दूसरों की इस अभि-4 सभी प्राणी कष्टित ही होते हैं। इस प्रकार कोई लाषा में बाधक नहीं बनना ही मूलतः अहिंसा है। सुखद विषय सभी के लिए सखद होता है। इस विभिन्न युगों एवं विचारधाराओं के तत्त्वसम्बन्ध में मनुष्य और इतर जीवों में भेद नहीं चिन्तकों ने अहिंसा की व्याख्या की है । यथाकिया जा सकता । इसके अतिरिक्ति सभी तत्र अहिंसा सर्वदा सर्वभूतेष अनभिद्रोहः आत्माएँ सुखकामी और दुःख-द्वषी होती हैं। सर्व प्रकार से, सर्व कालों में, सर्व प्राणियों के - ५६८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट (6,669 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ u tion International Nor Rorate & Personal Use Only www.jainelibrarwal Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ अभिद्रोह न करना ही अहिंसा है। पातंजल प्रकार या जगत के लिए किसी प्राणी का अधिक योग के भाष्य में इस प्रकार अहिंसा की समुचित अथवा कम महत्वपूर्ण होना किसी की प्राण-हानि व्याख्या उपलब्ध होती है। वर्तमान शताब्दी में को अहिंसा नहीं बना सकता । प्राणिमात्र के प्रति महात्मा गांधी अहिंसा के अनन्य पोषक हुए हैं। समता का भाव, सभी के प्रति हितैषिता एवं गांधीजी ने इस युग में अहिंसा के नैतिक सिद्धान्त बन्धुत्व का भाव, सभी के साथ सह अस्तित्व की की अत्यन्त सशक्त पुनर्स्थापना की है। यही नहीं, स्वीकृति ही किसी को अहिंसक बना सकती है। भौतिकता के इस युग में अहिंसा के सफल व्याव- इस आधार पर करणीय और अकरणीय कर्मों में हारिक प्रयोग का श्रेय भी उन्हें ही प्राप्त है । बापू भेद करना और केवल करणीय को अपनाना ने अहिंसा को अपने जीवन में उतारा और पग-पग अहिंसाव्रती का अनिवार्य कर्तव्य है। यह एक पर उसका पालन किया। एक स्थल पर अहिंसा प्रकार का संयम है, जिसे भगवान महावीर ने 'पूर्ण के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा है- अहिंसा' की संज्ञा दी है"अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य 'अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो' तक सभी जीवों के प्रति समभाव है।" गांधींवाणी अहिंसा का यह पुनीत भाव मानव को विश्वमें यह विवेचन और भी स्पष्ट रूप से उद्घाटित बन्धुत्व एवं जीव-मैत्री के महान गुणों से सम्पन्न हुआ है । वे लिखते हैं कर देता है । इस सन्दर्भ में यजुर्वेद का निम्न साक्ष्य "पूर्ण अहिंसा सम्पूर्ण जीवधारियों के प्रति भी उल्लेखनीय हैदुर्भावना का सम्पूर्ण अभाव है । इसलिए वह मानवेतर प्राणियों, यहाँ तक कि विषधर कीड़ों और 'विश्वस्याहं मित्रस्य चक्षुषा पश्यामि' हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।" अर्थात्-मैं समूचे विश्व को मित्र की दृष्टि से कर ___ अहिंसा के सभी तत्त्ववेत्ताओं ने प्राणिमात्र को देख। सभी शास्त्रों में अहिंसा को मानवता का समान माना है। किसी भी आधार पर अमुक मूल स्वीकारा गया है और सुखी जगत की कल्पना प्राणी को किसी अन्य की अपेक्षा छोटा अथवा बड़ा को क्रियान्वित करने का आधार माना गया है। नहीं कहा जा सकता, महत्त्वपूर्ण अथवा उपेक्षणीय अहिंसा व्यक्ति द्वारा स्व और परहित की सिद्धि नहीं कहा जा सकता । सूक्ष्म जीवों की प्राणी-हानि का महान उपाय है। जैनधर्म में तो इस अत्युच्चाको भी कभी अहिंसा या क्षम्य नहीं समझा जा दर्श का मूर्तिमन्त स्वरूप हो दीख पड़ता है । आचासकता। इस दृष्टि से हाथी भी एक प्राणी है और रांग सूत्र में उल्लेख है कि 'सब प्राणी, सब भूत, चींटी भी एक प्राणी है। दोनों समान महत्वशाली सब जीव को न मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति १ हैं। दोनों में जो आत्मा है वह एक-सी है-दैहिक द्वारा मरवाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना आकार के विशाल अथवा लघु होने से आत्मा के चाहिए और न उन पर प्राणापहर उपद्रव करना स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता । समस्त प्राणियों चाहिए।' वस्तुतः प्रस्तुत उल्लेख को अहिंसा से के रक्षण का विराट भाव ही अहिंसा का मूलाधार जोड़ा नहीं गया है, किन्तु व्यापक दृष्टि से इसे है। ध्यातव्य है कि सूक्ष्म जीवों की हानि में हिंसा अहिंसा का स्वरूप अवश्य स्वीकार किया जा सकता की न्यूनता और बड़े जीवों की हानि में हिंसा की है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में अहिंसा का एक अधिकता रहती हो-ऐसा भी नहीं है। हिंसा तो स्पष्ट चित्र इस प्रकार उभर उठा हैहिंसा ही है । आत्मा-आत्मा में ऐक्य और अभेद सम्बेहि अणजुतीहि मतिम पडलेहिया । 1 की स्थिति रहती है । अतः प्राणी के दैहिक आकार सब्वे अक्कंतदुक्खा य अंतो सव्वे अहिंसया । ५६६ 5 कुभुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 0 Bcation Internat El01524 न्दन ग्रन्थ (57YYY te Personal use PORNSy.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयं खु णाणिणो सारं जं न हिंसइ कंचणं । अहिंसा समयं चैव एतावंत विजाणिया | अर्थात् - बुद्धिमान सब युक्तियों द्वारा जीव का जीवपन सिद्ध करके यह जाने कि सब जीव दुख के (जिन्हें दुख अप्रय है ) हैं तथा इसी कारण किसी की भी हिंसा नहीं करे। ज्ञानी पुरुषों का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते । 'सूत्रकृतांग' का उक्तांश अहिंसाव्रत पालन की दिशा में निश्चित मार्गदर्शन देता है। अहिंसा का आचरण करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति ही यथार्थ में बुद्धिमान होता है । ऐसे बुद्धिमान के लिए अपेक्षित है कि - सर्वप्रथम तो वह सभी जीवों के समत्व को स्वीकारे और इस आधार पर बिना किसी प्रकार का भेद करते हुए सभी जीवों को समान रूप से महत्वपूर्ण समझे । - उसके लिए यह तथ्य हृदयंगम करना भी आवश्यक है कि सभी प्राणी सुख की कामना करते हैं और दुःख सभी के लिए अप्रिय होता है । - इन बातों को भली-भाँति समझकर उसे (बुद्धिमान को ) किसो भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए । 'तिविहेण विपाण मा हणे, आयहिते अनियाण संबुडे ।' ५७० सूत्रकृतांग के प्रस्तुत अंश में अहिंसा की व्याख्या और भी सूक्ष्मता के साथ हुई है, जिसमें व्यक्त किया गया है कि मन, वचन और काया इन तीनों से किसी भी प्राणी को नहीं मारना चाहिए । इस मान्यता को और भी समग्रता की ओर ले जाने की दृष्टि से इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि कृत, कारित, अनुमोदित - मनसा, वाचा, कर्मणा प्राणिमात्र को कष्ट न पहुँचाना ही पूर्ण अहिंसा है। इस आशय का प्रतिबिम्ब 'आवश्यक सूत्र' में भी मिलता है कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट Jain Eation International 'जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेण वायाए कारणं न करेमि न करावेमि करतंपि न समणुजाणामि' प्रस्तुत उक्ति में ३ योग - मन, वचन और काय एवं ३ करण - करना, करवाना एवं अनुमोदन करना -- की चर्चा है और कहा गया है कि मैं इनमें से किसी के द्वारा किसी की भी हिंसा नहीं करूँ । इन ३ योग और ३ करण के संयोग से ६ योग-करण स्थितियाँ बनती हैं, जो निम्नानुसार हैं (क) मन से - ( १ ) हिंसा न करना (२) हिंसा नहीं करवाना ( ३ ) हिंसा का अनुमोदन नहीं करना । (ख) वचन से -- ( ४ ) हिंसा न करना (५) हिंसा नहीं करवाना ( ६ ) हिंसा का अनुमोदन नहीं करना । (ग) काय से - (७) हिंसा न करना (८) हिंसा नहीं करवाना (६) हिंसा का अनुमोदन नहीं करना । ये मार्ग हैं, जिनमें से किसी का भी अनुसरण करने से व्यक्ति हिंसा का आचरण कर लेता है । इनसे बचकर ही कोई पूर्ण अहिंसा का पालन कर सकता है। हिंसा की अति सूक्ष्मतम अवस्थाओं को भी जैनाचार ने अनुपयुक्त माना है । किसी अन्य जन द्वारा की गई हिंसा के प्रति यदि कोई व्यक्ति केवल समर्थन का भाव भी रखता है - चाहे उसे वह व्यक्त न भी करे- तो भी यह समर्थक व्यक्ति द्वारा की गई हिंसा होगी। जैन धर्म अहिंसा का इस गहनता के साथ पालन किये जाने पर बल देता है । डा० वशिष्ट नारायण सिन्हा ने इस स्वरूप को जैन दृष्टि से अहिंसा का वास्तविक और समग्र स्वरूप स्वीकारा है । अहिंसा : निषेधमूलक भी और विधिमूलक भी भाषा - शास्त्रीय दृष्टि से 'अहिंसा' शब्द रचना से निषेधात्मक विचार प्रकट होता है । अर्थात्हिंसा का न करना ही अहिंसा है । स्पष्ट है कि किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अथवा हानि पहुँचाना हिंसा है और ऐसे कृत्यों का परि साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.c Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA रहो। त्याग ही अहिंसा है । अर्थात् शब्द का रूप है-अ केवल कुछ संयम की हो अपेक्षा इसमें रहती है । यह मा +हिंसा। शब्द-रचना की दृष्टि से भले ही यह दुष्कर नहीं, श्रमासाध्य तो कदापि नहीं होता। विवेचन तर्कसंगत लगता हो, किन्तु इससे जैनाचार वह मनोवृत्ति मनुष्य को अकर्मण्य बना देती है। की व्यापक एवं सूक्ष्म अहिंसा का स्वरूप उजागर वह कुछ भी करने से कतराने लगता है। यह भी भय यू नहीं हो पाता। वस्तुतः अहिंसा का स्वरूप इसकी रहता है कि केवल निषेधमूलक अहिंसा का निर्वाह अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है । निषेधात्मक दृष्टि- करने वाला व्यक्ति एकान्त-सेवी एवं जगत से - कोण तो बड़ा सीमित है कि किसी को कष्ट मत तटस्थ होकर मानवेतर प्राणी की भांति जीवनपहेचाओ, जबकि अहिंसा की विशाल परिधि में यह यापन करने लग जायगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति || भी प्राधान्य के साथ सम्मिलित किया जाता है कि के जीवन को अहिंसा की कसौटी पर कसना भी सभी जीवों के लिए यथासम्भव रूप में सुख के कठिन हो जायगा। किसी भी अहिंसक का गौरव कारण बनो । अर्थात् अहिंसा का सिद्धान्त न केवल तो इसमें निहित रहता है कि वह ऐसे वातावरण निषेधमूलक, अपितु विधियुक्त भी है। अहिंसा में भी रहे, जिसमें हिंसायुक्त कर्मों की प्रेरणा निवृत्ति (न करने) की प्रेरणा ही देती है-ऐसा मिलती हो, फिर भी उससे प्रभावित हुए बिना वह विचार भ्रामक एवं अपूर्ण है। इसमें प्रवृत्ति का पूर्णतः अहिंसक ही बना रहे । पक्ष भी है कि सभी के सुख के लिए कुछ करते इस प्रकार अहिंसा को इसकी व्यापक भावभूमि के साथ समझना ही समीचीन है एवं उसी व्यापक ___ इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयं रूप में उसका आचरण ही वास्तव में किसी व्यक्ति किसी के प्राणों की हानि नहीं करना (निवृत्ति या को अहिंसक होने का गौरव प्रदान कर सकता है। निषेध) तो अहिंसा है ही, किन्तु जब किसी के प्रवृत्तिमूलक अहिंसा से ही व्यक्ति-मानस की सच्ची प्राणों को किसी अन्य के कार्य से हानि का संकट हितैषिता एवं बन्धुत्व का परिचय मिलता है और || हो, तब भी अहिंसक व्यक्ति का कुछ दायित्व बनता यही वह पक्का आधार है, जिससे किसी का में है। उसे चाहिये कि संकटग्रस्त प्राणियों की रक्षा अहिंसापूर्ण आचार पहचाना जा सकता है। यह करे । यह रक्षा करना प्रवृत्ति है, विधि है । इसके प्रवृत्ति मूलक पक्ष अहिंसा की गरिमा को न केवल अभाव में अहिंसा का स्वरूप मर्यादित, सीमित विकसित करता है, अपितु यह उसका निर्माता भी A और अपूर्ण ही रहेगा। अस्तु न मारने मात्र में ही है। कारण यह है कि अहिंसा को जैनाचार में नहीं, अपितु रक्षा भी करने में पूर्ण अहिंसा का केवल निषेधमूलक स्वीकार ही नहीं किया वास्तविक स्वरूप निखरता है । यहाँ यह तथ्य भी गया है। विशेषतः ध्यातव्य है कि निवृत्ति अथवा निषेध अहिंसा की कसौटी । अकेला जिस प्रकार अहिंसा का समग्र स्वरूप नहीं अहिंसा का मूलतत्त्व जब प्राणिमात्र के लिए है-उसी प्रकार प्रवृत्ति या विधि अकेली भी सुख का कारण बने रहना है-किसी भी प्राणी का अहिंसा के समग्र स्वरूप को व्यक्त करने में असमर्थ घात न करना है, तो यह प्रश्न उभर आता है कि रहती है। वस्तुतः निषेध एवं विधि दोनों पक्ष पर- क्या किसी के लिए इस प्रकार का अहिंसात्मक * स्पर पूरक हैं और दोनों मिलकर ही अहिंसा को आचरण अपने समग्ररूप में सम्भव है ? जीवन की विराट भाव भूमि का निर्माण कर पाते हैं । केवल नाना प्रवृत्तियों और कर्मों में ऐसे अगणित प्रसंग निषेधात्मक रूप में अहिंसा का निर्वाह कोई कठिन बन जाते हैं, जब व्यक्ति अन्य प्राणियों के लिए | कार्य नहीं होता। 'कुछ' नहीं करना तो सुगम है, कष्ट का कारण, यहां तक कि प्राणहंता बन जाता कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५७१ does 68 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ । Education Internation www.jaineetry.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा है। अहिंसाव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करने का (१) भावहिंसा (२) द्रव्यहिंसा अभिलाषी होते हुए भी उससे ऐसे कार्य हो ही जाते हैं और इन कार्यों तथा इनके परिणामों से भी वह भावहिंसा का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मन से || अवगत नहीं हो पाता । उदाहरणार्थ, चलने-फिरने है । हिसा का यह मानसिक स्वरूप है, जो उसकी । में ही अनेक जीवों का हनन हो जाता है। तो क्या भूमिका तैयार करता है। व्यक्ति अन्य प्राणियों की६ वह अहिसाव्रत से भ्रष्ट समझा जाना चाहिए ? हानि अहित करने का विचार मन में ले आये, चाहे क्या उसका जीवन पापमय है ? वह अहित कर पाये अथवा नहीं-यह उसके द्वारा ___ कहा जाता है कि इसी प्रकार की समस्या की गई भावहिंसा कहलाती है । हिंसा का यह ऐसा में भगवान महावीर के समक्ष प्रस्तुत करते हुए रूप है, जो अन्य प्राणियों के लिये अहितकर चाहे न हो, किन्तु स्वयं उस व्यक्ति के लिये घोर अनिष्टजिज्ञासु शिष्य गौतम ने जीवन को पापरहित करने ___ कारी होता ही है । राग-द्वेष, मोह, लोभ, क्रोधादि का उपाय जानना चाहा था। उत्तर में भगवान ने के भाव इस प्रकार की मानसिक हिंसा के उत्प्रेरक । अपने उपदेश में कथन किया कि जीवन की नाना- होते हैं और ये आत्मा को कलुषित एवं पतित कर प्रवृत्तियाँ न केवल स्वाभाविक, अपितु अनिवार्य देते हैं। यह हिंसा आत्म-विनाशक होती है। भी हैं, जिन्हें मनुष्य को करना ही होता है। इन अहिंसा की साधना के लिए सर्वप्रथम भावहिंसा | प्रवत्तियों से हिसा-अहिंसा का प्रश्न भी जुड़ा रहता पर ही नियन्त्रण करना होता है। यही नियन्त्रण | है, किन्तु ये भिन्न प्रवृत्तियां अपने आप में न पाप हैं __संयम है। इसके लिए अपनी कुमनोवृत्तियों का न पुण्य हैं। विवेक-यतना ही इनकी कसौटी है। , दमन करना होता है। इस सन्दर्भ में भगवान | ये सारे कार्य यदि विवेक के साथ, सावधानी के महावीर स्वामी का उपदेश है कि बाहरी शत्रुओं || साथ, यतना के साथ किये गये हैं तो कर्त्ता का से नहीं, अपने भीतरी शत्रुओं से युद्ध करो और मैं जीवन स्वयं अपने लिए और जगत के लिए भी सुख विजयी बनो। इस विजय का उपहार होगादायक होगा। इसके विपरीत अविवेक या अयतना संयम और उसकी अभिव्यक्ति अहिंसा के रूप में । के साथ यापित जीवन दुःखमूलक होगा। यही होगी। यह संयम अहिंसात्मक आचरण द्वारा स्वयं अविवेक पाप का कारण होगा, हिंसा का आधार संयमी के जीवन को उन्नत और सुखमय बनाता होगा। इस प्रकार विवेक और अहिंसा का घनिष्ठ नाता है । जहाँ विवेक है, वहीं अहिंसा भी होगी। प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोणं हिंसा द्रव्यहिंसा का परिणाम भौतिक या वास्तविक || ____ अर्थात् प्रमादवश जो प्राणघात होता है वही रूप में प्रकट होता है। मानसिक हिंसा की भाँति । हिंसा है। तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति का अहिंसा वह विचार तक मर्यादित न रहकर व्यवहार में है विषयक प्रस्तुत सूत्र यह इंगित करता है कि प्राणि- परिणत हो जाता है। मन में कषाय का उदय होना । मात्र के रक्षण के भाव में ही अहिंसा निहित होती भावहिंसा है और मन के भाव को वचन और क्रिया का रूप देना द्रव्यहिंसा है-स्थल हिसा। अहिंसा के रूप है। प्रमादवश किसी का प्राणापहरण ही हिंसा है ।। ___मोटे तौर पर हिंसा का अभाव ही अहिंसा है। अर्थात् कषाय-भाव के साथ किया गया अहितकर । अतः अहिंसा की स्पष्ट समझ के लिए हिंसा का कार्य ही हिंसा है। यदि वास्तव में अहित हो गया। स्वरूप जानना अनिवार्य है। जैन-चिन्तन में हिंसा है, किन्तु उसके मूल में कषाय या प्रमाद नहीं है, के दो रूप माने गये हैं तो वह हिंसा नहीं है। वह अहित 'हो गया' है; ५७२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ( 8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Rorate & Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCHAYEAnne-GOASTER कर्ता द्वारा किया नहीं गया है। भावहिंसा और आज विश्वभर में समस्त नैतिकताएँ विघटित ॥ प्रमाद अवस्था के अभाव में यदि किसी प्राणी की होती चली जा रही हैं, वे व्यवहार-क्षेत्र से निष्का- का हिंसा हो गयी है, तो वह पाप की परिधि से परे है, सित होकर मात्र पठन-पाठन की विषय रह गयी । केवल द्रव्यहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु का कथन इस हैं । यदि यही क्रम निरन्तरित रहा, तो सम्भवतः सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है नैतिकताएँ मात्र पुस्तकों में ही विद्यमान रह "अपने नियमों के साथ यदि कोई साधक चलने जायेंगी। कदाचित् उनकी ओर ध्यान देने का श्रम के लिये विवेकपूर्वक पाँव उठाये, फिर भी यदि भी कोई नहीं करेगा । अहिंसामार्ग भी इसका अपकोई जीव पाँवों तले आकर नष्ट हो जाय, तो वाद नहीं है, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि नैतिक- 12 साधक को इसका पाप नहीं होगा। कारण यह है ताओं की उपेक्षा ने मनुष्य को मानवतारहित बना कि साधक की भावना निर्मल थी, वह अपने नियमों दिया है, उस पर अपार दुःख-घटाएं मंडरा रही हैं में पूर्णतः सजग था।" और आतंक का बोलबाला हो रहा है। यदि TO सारांश यह है कि अहिंसा का निर्वाह तभी मनुष्य अहसा को दृढ़तापूर्वक अपना ले तो संसार सभव है जब हम भावहिंसा से बचते रहें। भाव का रूप ही परिवर्तित हो जायेगा। घृणा, द्वेष, ID हिंसा अकेली ही पाप के लिए पर्याप्त है। द्रव्य पर-अहित, लोभ, मोह आदि विकार अहिंसा के 102 हिसा भी पाप तभी बनेगी जब वह केवल' द्रव्य- अपनाव से नष्ट हो जायेंगे और सर्वत्र सुख-शांति हिंसा न रहकर भावहिंसा के परिणाम रूप में का साम्राज्य हो जायेगा । व्यक्ति अहिंसा से अपना होगी। भावहिंसा और द्रव्यहिंसा के आधार पर भी और जगत् का भी कल्याण करेगा । आवश्यकता हिंसा को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जाता है ___ इसी बात की है कि मनुष्य अपने में अहिंसा के प्रति आस्था का भाव जागृत करे । अहिंसा का जो ! (१) भावरूप में और द्रव्यरूप में- जहाँ हिंसा का विराट रूप है-वह व्यवहार्य है, उसे अपनाया जा कुमनोभाव भी हो और बाह्यरूप में भी हिंसा की । सकता है और उसके सुपरिणाम सुनिश्चित हैंजाय । इस स्थिति में हिंसा का वास्तविक और न स्थिति में हिसा का वास्तविक और यह भाव जब तक मनुष्य के मन में सबल नहीं घोर रूप होता है। होगा, वह अहिंसा को कोरा सिद्धान्त मानता (२) भावरूप में हिंसा किन्तु द्रव्यरूप में नहीं रहेगा और इस सुख की कुञ्जी से दूर पड़ा || a कुमनोभाव या कषाय तो हो, किन्तु उसकी क्रिया- रहेगा। न्विति किन्हीं कारणों से संभव न हो पाय । यह भी A हिंसा ही है, जिससे मनुष्य का अपना ही अहित वस्तुतः अहिंसा को अपनाने के मार्ग में कोई ५ होता है। जटिलता नहीं है । आत्म-नियन्त्रण या संयम से यह 10 मार्ग सुगम हो जाता है । अहिंसा के सहायक भावों (३) भावरूप में नहीं किन्तु द्रव्यरूप में हिंसा को सबल बनाना और विरोधी भावों की उपेक्षा ___ जहाँ हिंसा तो हो गयी हो, किन्तु कर्ता का प्रमाद करना ही एक प्रकार से यह संयम है। जीव मैत्री, ॥ या कषाय उसके पीछे नहीं रहा हो। वास्तव में करुणा, पर-गुण-आदर, माध्यस्थ (विपरीत वृत्ति यह हिंसा नहीं मानी जाती । यह भी अहिंसा का वालों पर भी क्रोध न करना) आदि ऐसे ही - ही एक रूप है। अहिंसा-सहायक भाव हैं, जिनके सतत अभ्यास से (Vo (४) न भावरूप में और न द्रव्यरूप में-जहाँ न तो मनुष्य अहिंसा महाव्रती हो सकता है। इसके लिए कषाय ही रहा हो और न ही बाह्यरूप में हिंसा उसे साथ ही साथ क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हुई हो। यह सर्वथा अहिंसा ही है। कषायों से भी स्वयं को मुक्त रखना होगा। क्षमा, कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५७३ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOG. Per Private & Personal Use Only .. www.jaineteery.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्रता, सरलता, सन्तोष आदि उपर्युक्त कषायों के अथवा दूसरों की रक्षा के लिए जो हिंसा हो जाती सशक्त उपचार हैं । इनका अभ्यास अहिंसा-मार्ग के है, वह विरोधी हिंसा कहलाती है। अवरोधों को दूर कर देता है और मनुष्य को जैसा कि अन्यत्र हमने विवेचित किया है, जैनअहिंसावती बनाकर उसे स्व-जीवन एवं जगत के धर्मानुसार समस्त जीव दो वर्गों में विभक्त हैंकल्याण के लिए समर्थ कर देता है। स्थावर एवं त्रस । जो जीव हमें चलते-फिरते । गृहस्थ को अहिंसा स्पष्पटः दिखाई देते हैं, वे त्रस हैं । इसके विपरीत नग्न चक्षुओं से जो जीव साधारणतः दिखाई नहीं हिंसा न करना-अहिंसा है। यह हिंसा जो देते, होते अवश्य हैं किन्तु अति सूक्ष्म होते हैं, वे I अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाने अथवा उनके प्राण- स्थावर कहलाते हैं जैसे वायु, मिट्टी, जल आदि । अपहरण से हो जाती है-उसके पीछे कर्ता का के जीव । विभिन्न उपकरणों की सहायता से इन्हें दूस प्रयोजन रहा है अथवा नहीं- इस आधार परहिसा देखा भी जा सकता है। गृहस्थ श्रावक स्थावर ४ प्रकार की होती है जीवों की रक्षा का यथाशक्ति प्रयत्न करता है। (१) संकल्पी हिंसा इस निमित्त से वह अनावश्यक रूप में मिटटी नहीं खोदता, पानी को खराब नहीं करता आदि साव(२) उद्योगी हिंसा धानियाँ रखता है । इसी प्रकार वनस्पतियों को न (३) आरम्भी हिंसा काटना, अनावश्यक रूप से अग्नि प्रज्वलित न (४) विरोधी हिंसा करना, हवा को विलोड़ित न करना आदि भी अन्य किसी जीव का कोई अपराध न हो, हमारे मन प्रकार की सावधानियां हो सकती हैं। त्रस जीवों । में उसके प्रति क्रोध या प्रतिशोध का भाव न हो, का जहाँ तक सम्बन्ध है ग्रहस्थ उनकी संकल्पी । तथापि जान-बूझकर हम उसका प्राण-हरण करें- हिंसा का परित्याग करता है। इस सम्बन्ध यह संकल्पी हिंसा है । उस दशा में मनुष्य के मन विचारणीय यह है कि त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा में जीव का वध करने का स्पष्ट उद्देश्य होता है। के परित्याग में मनुष्य की कोई विशेष हानि होती, आखेटक शस्त्रादि से सज्जित होकर, वन में जाकर न यह दुष्कर है और न इसके कारण कोई विशेष वन्य प्राणियों का शिकार करता है अथवा वधिक अभाव उत्पन्न होता है। निरीह भेड़-बकरियों का वध करता है। यह संकल्पी हिंसा के पीछे मनोविनोद (शिकार), संकल्पी हिंसा कहलाती है। आजीविका के लिए मांसाहार प्राप्त करना आदि जैसे तुच्छ उद्देश्य । मनुष्य को नाना प्रकार से उद्योग-व्यवसायादि निहित होते हैं । इस दृष्टि से जीवन को विपरीत करने पड़ते हैं । कोई खेती करता है, तो कोई कल- रूप से प्रभावित करने का भय संकल्पी हिंसा के कारखानों में काम करता है, कोई सैनिक हो जाता त्याग में नहीं होता। ये ऐसे प्रयोजन नहीं हैं,जिनके Cil है तो कोई व्यापार करता है। इन विभिन्न जीविका- बिना जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता साधनों-खेती, श्रम, युद्ध, व्यापार आदि को अप- हो । मनोविनोद के भी अन्य अनेक स्रोत हैं और नाने में मनुष्य से जो हिंसा जाने-अनजाने में हो आहार की भी कोई कमी नहीं है। मांसाहार के जाती है-वह उद्योगी हिंसा है । जीवन के अति परित्याग से कोई अभाव नहीं उत्पन्न होता। सामान्य क्रिया-कलाप सम्पन्न करने-जैसे भोजन विभिन्न प्रकार के अन्न, फल, वनस्पति आदि तैयार करने आदि में जो हिंसा हो जाती है वह मनुष्य के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक आहार के रूप आरम्भी हिंसा कहलाती है और इसी प्रकार अपनी में इस धरती पर उपलब्ध हैं। माँस मनुष्य का | ५७८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट न साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 0860 Hamirrivate-personalise only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक आहार नहीं है । मनुष्य के दाँतों और आँतों की बनावट से भी यह ज्ञात होता है कि प्रकृति ने उसे मांसाहारी नहीं बनाया है । धर्म के नाम पर भी प्रायः संकल्पी हिंसा होते देखी जाती है | देवियों को प्रसन्न करने के लिए अपनी आराधना का एक अनिवार्य तत्व मानते हुए शाक्त जन निरीह पशुओं - भेड़, बकरे, भैंसें आदि की बलि देते हैं । नृशंसतापूर्वक उनका वध कर दिया जाता है । कहीं-कहीं तो नरबलि भी दी जाती है । इस प्रसंग में यही कहना उपयुक्त होगा कि यह हिंसक व्यापार यथार्थ में किसी आराधना का भाग नहीं हो सकता । देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का यह न तो कोई साधन है और न ही देवी-देवता ऐसे कार्यों से प्रसन्न हो सकते हैं । यह मात्र अन्धविश्वास है, जो दुर्बल निरीह प्राणियों के विनाश का कारण बन जाता है । गृहस्थों, विशेषतः जैन गृहस्थों के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी भी परिस्थिति में स्वाद तथा उदर पूर्ति के लिए, मनोरंजन के लिए अथवा धर्म के नाम पर भी किसी प्राणी का घात न करें । यहाँ एक आक्षेप पर भी विचार करना उपयुक्त होगा । कुछ कुतर्कों यह कह सकते हैं कि जैन धर्मानुसार मांस भक्षण वर्जित है, यह धर्म वनस्पति में भी सजीवता स्वीकार करता है- ऐसी दशा में शाकाहार भी एक प्रकार से मांसाहार ही होता है और शाकाहार को भी वर्जित माना जाना चाहिए इस प्रश्न पर विचार करते समय हमारा ध्यान इस ओर केन्द्रित होना चाहिए कि वनस्पति में मांस नहीं होता । देह संरचना के लिए आवश्यक सात धातु माने गये हैं । सप्त धातुमय कलेवर ही मांस है और हमें यह जानना चाहिए कि वनस्पति में सप्त धातु नहीं होते । निरामिष जनों के लिए शाकाहार में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । केवल तर्क के लिए ही यह तर्क दिया जाता है कि शाकादि में भी सजीवता के कारण मांस होता है । कतिपय व्यक्ति मांसाहार को उस उवस्था में आपत्तिजनक Cucation Internatio नहीं मानते, जबकि वे स्वयं मांस-प्राप्ति के लिए किसी जीव का घात नहीं करते हों । अर्थात् वधिक द्वारा वध किये गये पशु के मांस भक्षण में वे किसी हिंसा को स्वीकार नहीं करते । ऐसी मान्यता भी भ्रामक है । हिंसा यदि स्वयं उस व्यक्ति ने नहीं की तब भी वह वधिक के लिए हिंसा का प्रेरक अवश्य रहा है। उसने हिंसा करवाई है । ऐसी दशा अहिंसक कैसे हो सकता है ? साथ ही मरण के तुरन्त पश्चात मांस में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । मांसभक्षण में उनकी हिंसा तो होती ही है । फिर हमारा ध्यान मांसाहारी होने के दूरगामी परिणामों की ओर भी जाना चाहिए। मांसाहार से एक प्रकार की कुबुद्धि पंदा होती है जो व्यक्ति को अन्य जीवों के प्राणघात के लिए उत्तेजित करती रहती है । वह आज नहीं है तो कल अवश्य ही प्रत्यक्ष हिंसक भी बन जाता है । सृष्टि के प्राकृतिक रूप से जितने मांसाहारी जीव हैं वे सभी हिंसक भी हैं, जैसे सिंह । यह तो हुई चर्चा संकल्पी हिंसा की, जिसमें सजीवों के घात का प्रसंग रहता है । जैसा कि वर्णित किया जा चुका है - इस प्रकार की हिंसा का परित्याग प्रत्येक गृहस्थ के लिए सुगम एवं सम्भाव्य है । गृहस्थ के लिए उद्योगी हिंसा का सर्वथा परित्याग सम्भव नहीं । व्यक्ति को अपने और अपने आश्रितों के जीवन निर्वाह के लिए जीविका के किसी उपाय को अपनाना ही पड़ता है । ऐसी दशा में यथाव्यवसाय कुछ न कुछ हिंसा हो जाने की आशंका बनी ही रहती । तथापि गृहस्थ को विचारपूर्वक ऐसे कार्य को अपनाना चाहिए जिसमें अन्य जीवों को कम से कम कष्ट पहुँचे । यह तो उसके लिए शक्य है हो । यदि इस विचार के साथ गृहस्थ अपने उद्यम का चयन करता है, तो उसमें होने वाली दुर्निवार हिंसा क्षम्य कही जा सकती है। आरम्भी हिंसा के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि गृहस्थ को भोजन भी तैयार करना पड़ता है, जल का प्रयोग भी कुमुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ P में वह ५७५ "www.jainellibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-मन All करना पड़ता है, विचरण भी करना ही पड़ता है। कता उत्पन्न करती है। जो निर्भीक है वह कायरता इन सामान्य व्यापारों में जो स्थावर जीवों की का आचरण कर ही नहीं सकता। अहिंसा और हिंसा हो जाती है, उससे भी वह सर्वथा बचा नहीं शौर्य दोनों ऐसे गुण हैं जो आत्मा में साथ-साथ ही रह सकता। इस सन्दर्भ में भी विवेकपूर्वक गृहस्थ निवास करते हैं। शौर्य का यह गुण जब स्वय 6 को इस विधि से कार्य सम्पन्न करने चाहिए कि यह आत्मा के द्वारा ही प्रकट किया जाता है तब वह हिंसा यथासम्भव रूप से न्यूनतम रहे। अहिंसा के रूप में व्यक्त होता है और जब काया ___गृहस्थ जनों के लिए विरोधी हिंसा का सर्वथा द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है, तो वह वीरता परित्याग भी इसी प्रकार पूर्णतः शक्य नहीं कहा कहलाने लगती है। जा सकता। गृहस्थ इतना अवश्य कर सकता है, जैन धर्म पर आई विपत्ति को जो मूक द और उसे ऐसा करना चाहिए कि वह किसी से बनकर देखता रहे, उसका प्रतिकार न करे-वह अकारण विरोध न करे। किन्तु यदि विरोध की सच्चा अहिंसक जैनी नहीं कहला सकता। धर्मउत्पत्ति अन्य जन की ओर से उसके विरुद्ध हो- रक्षण के कार्य को हिंसा की संज्ञा देना भी इसी तो उसे अपनी रक्षा का प्रयत्न करना ही होगा। प्रकार की कायरता मात्र है। ऐसा ही देश पर उस पर रक्षा का दायित्व उस समय भी आ जाता आई विपत्ति के प्रसंग में समझना चाहिए। यह र है, जब कि दुर्बल जीव पर प्राणों का संकट हो सब रक्षार्थ किये गये उपाय हैं। रक्षा का प्रयत्न न / और वह उससे अवगत हो / स्वयं बचना और अन्य करने में अहिंसा की कोई गरिमा नहीं रहती। 5 1 को बचाना दोनों ही उसके लिए अनिवार्य हैं। अहिंसा तेजरहित नहीं बनाती, वह अपना सब अहिंसा की दुहाई देते हुए ऐसे अवसरों पर आत्म- कुछ नष्ट करा देना नहीं सिखाती। अहिंसा दास सो रक्षा का प्रयत्न न करते हुए आक्रमण को झेलते बनने की प्रेरणा भी नहीं देती। इतिहास साक्षी है रहना या दुबककर घर में छिप जाना-अहिंसा का कि जब तक भारत पर अहिंसा-व्रती जैन राजाओं र लक्षण नहीं है। यह तो मनुष्य की कायरता होगी का शासन रहा, वह किसी भी विदेशी आक्रान्ता के जिसे वह अहिंसा के आचरण में छिपाने का प्रयत्न समक्ष नतमस्तक नहीं हुआ, किसी के अधीनस्थ / करता है / ऐसा आचरण अहिंसक जन के लिए भी नहीं रहा / अहिंसा प्रत्येक स्थिति में मनुष्य के | समीचीन नहीं कहा जा सकता / अहिंसा कायरों के चित्त को स्थिर रखती है, कर्तव्य का बोध कराती लिए नहीं बनी, वरन् वह तो धीरों और वीरों का है और उस कर्त्तव्य पर उसे दृढ़ बनाती है / यही || एक वास्तविक लक्षण है / ऐसा माना जाता है कि अहिंसा गृहस्थ को आत्म-गौरव से सम्पन्न बनाती ( ऐसी अहिंसा (कायरतामूलक) की अपेक्षा तो हिंसा है, उसे निर्भीक और वीर बनाती है। कहीं अधिक अच्छी होती है। अहिंसा तो निर्भी 00000 576 कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000