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प्राकृतिक आहार नहीं है । मनुष्य के दाँतों और आँतों की बनावट से भी यह ज्ञात होता है कि प्रकृति ने उसे मांसाहारी नहीं बनाया है । धर्म के नाम पर भी प्रायः संकल्पी हिंसा होते देखी जाती है | देवियों को प्रसन्न करने के लिए अपनी आराधना का एक अनिवार्य तत्व मानते हुए शाक्त जन निरीह पशुओं - भेड़, बकरे, भैंसें आदि की बलि देते हैं । नृशंसतापूर्वक उनका वध कर दिया जाता है । कहीं-कहीं तो नरबलि भी दी जाती है । इस प्रसंग में यही कहना उपयुक्त होगा कि यह हिंसक व्यापार यथार्थ में किसी आराधना का भाग नहीं हो सकता । देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का यह न तो कोई साधन है और न ही देवी-देवता ऐसे कार्यों से प्रसन्न हो सकते हैं । यह मात्र अन्धविश्वास है, जो दुर्बल निरीह प्राणियों के विनाश का कारण बन जाता है । गृहस्थों, विशेषतः जैन गृहस्थों के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी भी परिस्थिति में स्वाद तथा उदर पूर्ति के लिए, मनोरंजन के लिए अथवा धर्म के नाम पर भी किसी प्राणी का घात न करें ।
यहाँ एक आक्षेप पर भी विचार करना उपयुक्त होगा । कुछ कुतर्कों यह कह सकते हैं कि जैन धर्मानुसार मांस भक्षण वर्जित है, यह धर्म वनस्पति में भी सजीवता स्वीकार करता है- ऐसी दशा में शाकाहार भी एक प्रकार से मांसाहार ही होता है और शाकाहार को भी वर्जित माना जाना चाहिए इस प्रश्न पर विचार करते समय हमारा ध्यान इस ओर केन्द्रित होना चाहिए कि वनस्पति में मांस नहीं होता । देह संरचना के लिए आवश्यक सात धातु माने गये हैं । सप्त धातुमय कलेवर ही मांस है और हमें यह जानना चाहिए कि वनस्पति में सप्त धातु नहीं होते । निरामिष जनों के लिए शाकाहार में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । केवल तर्क के लिए ही यह तर्क दिया जाता है कि शाकादि में भी सजीवता के कारण मांस होता है । कतिपय व्यक्ति मांसाहार को उस उवस्था में आपत्तिजनक
Cucation Internatio
नहीं मानते, जबकि वे स्वयं मांस-प्राप्ति के लिए किसी जीव का घात नहीं करते हों । अर्थात् वधिक द्वारा वध किये गये पशु के मांस भक्षण में वे किसी हिंसा को स्वीकार नहीं करते । ऐसी मान्यता भी भ्रामक है । हिंसा यदि स्वयं उस व्यक्ति ने नहीं की तब भी वह वधिक के लिए हिंसा का प्रेरक अवश्य रहा है। उसने हिंसा करवाई है । ऐसी दशा अहिंसक कैसे हो सकता है ? साथ ही मरण के तुरन्त पश्चात मांस में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । मांसभक्षण में उनकी हिंसा तो होती ही है । फिर हमारा ध्यान मांसाहारी होने के दूरगामी परिणामों की ओर भी जाना चाहिए। मांसाहार से एक प्रकार की कुबुद्धि पंदा होती है जो व्यक्ति को अन्य जीवों के प्राणघात के लिए उत्तेजित करती रहती है । वह आज नहीं है तो कल अवश्य ही प्रत्यक्ष हिंसक भी बन जाता है । सृष्टि के प्राकृतिक रूप से जितने मांसाहारी जीव हैं वे सभी हिंसक भी हैं, जैसे सिंह ।
यह तो हुई चर्चा संकल्पी हिंसा की, जिसमें सजीवों के घात का प्रसंग रहता है । जैसा कि वर्णित किया जा चुका है - इस प्रकार की हिंसा का परित्याग प्रत्येक गृहस्थ के लिए सुगम एवं सम्भाव्य है । गृहस्थ के लिए उद्योगी हिंसा का सर्वथा परित्याग सम्भव नहीं । व्यक्ति को अपने और अपने आश्रितों के जीवन निर्वाह के लिए जीविका के किसी उपाय को अपनाना ही पड़ता है । ऐसी दशा में यथाव्यवसाय कुछ न कुछ हिंसा हो जाने की आशंका बनी ही रहती । तथापि गृहस्थ को विचारपूर्वक ऐसे कार्य को अपनाना चाहिए जिसमें अन्य जीवों को कम से कम कष्ट पहुँचे । यह तो उसके लिए शक्य है हो । यदि इस विचार के साथ गृहस्थ अपने उद्यम का चयन करता है, तो उसमें होने वाली दुर्निवार हिंसा क्षम्य कही जा सकती है। आरम्भी हिंसा के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि गृहस्थ को भोजन भी तैयार करना पड़ता है, जल का प्रयोग भी
कुमुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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