Book Title: Jain Sanskruti aur uska Avadan Jainachar ka Pran Ahimsa Author(s): Anupamashreeji Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 1
________________ जैनाचार का प्राण : अहिंसा ___-विदुषी साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी को सुशिष्या । साध्वी अनुपमा (एम. ए.) ONOXEGWAN अहिंसा और उसका स्वरूप 'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' ___ अहिंसा परमधर्म है। यह जैनधर्माचार के लिए यह 'सर्वप्राणातिपातविरति' की ऐसी प्रतिज्ञा तो पणती । समाचार का विशाल पासाट है, जो मनुण्य का अहसा-महाव्रता' आर जाव I अहिंसा की दृढ़ नींव पर ही आश्वस्तता के साथ मात्र का रक्षक बना देती है। वह किसी की भी आधारित है। अहिंसा मानव की सुख-शान्ति की । हिंसा नहीं करने का संकल्प धारण कर, उसका दृढ़ता के साथ पालन करता है। परिणामतः वह जननी है। मानव और दानव में अन्तर ही हिंसा23 अहिंसा का है। मानव ज्यों-ज्यों हिंसक बनता न केवल अन्य जनों की सुख-सृष्टि में योगदान है करता है, अपितु स्वयं अपने लिए भी अद्भुत सुख चला जाता है वह दानवता के समीप होता चला M जाता है और दानव ज्यों-ज्यों हिंसा का परित्याग की रचना कर लेता है। उसकी आत्मा राग द्वषादि सर्व कल्मष एवं दुर्भावों से मुक्त होकर शुद्ध Sil करता है, वह मानवता के समीप आता जाता है। तथा शान्त रहती है, आत्मतोष के अमित सागर अहिंसा वह नैतिक मार्ग है जिसका अनुसरण व्यक्ति में निमग्न रहती है । अहिंसाव्रती के लिए यह एक को यथार्थ मानवता के गौरव से विभूषित करता संयम है और यही अन्य जन के लिए दया और है । अहिंसा का सिद्धान्त व्यापक प्रभावकारी है। रक्षा का भाव है। कदाचित् इसी भाव-श्लेष के | अतः अहिंसाव्रतधारी में स्वतः ही अनेकानेक गुण कारण भगवान महावीर ने रक्षा, दया, सर्वभूत विकसित होते चले जाते हैं और उसके भीतर की क्षेमंकरी आदि का प्रयोग 'अहिंसा' के पर्याय रूप xar मानवीयता पुष्ट होती रहती है। अहिंसा एक में किया है । एक चिन्तक ने लिखा हैऐसा मानवीय दृष्टिकोण है, जो उसे असाधारण आत्मिक सुख की अनुभूति कराता है। यही सुख ___ "अहिंसा आत्मनिष्ठ है, आत्मा से उपजती है । और समानता की भावना से पुष्ट होती है । हिंसा उसका चरम लक्ष्य होता है। की भावना से निवृत्त होने के पीछे अपने अनिष्ट वस्तुतः अहिंसा की विराट भूमिका व्यक्ति के की आशंका अधिक काम करती है । हिंसा से अपना मा मानस को ऐसा विस्तार प्रदान करती है कि वह पतन नहीं होता हो, तो शायद ही कोई अहिंसा का सहज ही सृष्टि के समस्त प्राणियों को आत्मवत् की बात सोचे ।" स्वीकार करने लगता है। वह सभी का हितैषी यह पृथ्वी ग्रह नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं हो जाता है और किसी की हानि करने की का एक अद्भुत समुच्चय है। विविध रंग-रूप, कल्पना से भी वह दूर"""""बहुत दूर हो आकार-आकृति, गुण-धर्मादि के धारक होने के || जाता है। कारण ये समस्त प्राणी वैभिन्न्ययुक्त एवं अनेक IDS कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६७ || 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ a dducation InternationRE Private & Personal Use Only alltelty.orgPage Navigation
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